स्त्री‌ ‌और‌ ‌पत्नी

Acharya Prashant

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स्त्री‌ ‌और‌ ‌पत्नी

आचार्य प्रशांत: दो वक्तव्य हैं ओशो के, दोनों कैसे समझें? उनको अगल-बगल रखते हैं तो कुछ सूझता नहीं।

पहला वक्तव्य है, "स्त्री ईश्वर की उत्कृष्टतम कृति है।" और दूसरा वक्तव्य है, "पत्नियाँ टाँग नहीं तोड़तीं, वे तुम्हारी आत्मा ही तोड़ देती हैं।"

(मुस्कुराते हुए) क्या बात है!

काश कि टाँग ही तोड़ दी होती।

क्यों उलझ रहे हो? क्या परेशानी है? पहली बात कही गयी है स्त्री के बारे में और दूसरी बात कही गयी है पत्नी के बारे में। पत्नी, स्त्री थोड़े ही होती है, अरे! वह पत्नी होती है। किसी भी पति से पूछना कि अपनी पत्नी में सिर्फ स्त्री दिखती है? वह कहेगा "न"। स्त्री दिखती तो प्रेम भी उठता। अब मैं हूँ पति और वो हैं पत्नी, पुरुष और स्त्री बचे नहीं, तो प्रेम का क्या सवाल है?

स्त्री निश्चित रूप से ईश्वर कि उत्कृष्टतम कृति है। आध्यात्मिक मूल्यों में जो सर्वोपरि मूल्य होता है वो होता है समर्पण। सत्य, आनंद, सरलता, मुक्ति, प्रेम ये तो फल होते हैं, ये तो अपने आप आते हैं। जीव को जो अपनी ओर से करना होता है या जो हो जाने की सहमति देनी होती है, उसका नाम है समर्पण।

समर्पण हो गया तो फिर सत्य दूर कहाँ है? समर्पण हो गया तो फिर आनंद और मुक्ति दूर कहाँ है?

असली कठिनाई और असली परीक्षा तो इसी में है न, कि छोड़ पाओ खुद को, समर्पित कर पाओ खुद को? वह काम स्त्री के लिए पुरुष कि अपेक्षा ज़्यादा सुगम है। इसीलिए स्त्री को बड़ी लम्बी-चौड़ी विधियों की ज़रुरत नहीं पड़ती। प्राकृतिक रूप से वो कुछ ऐसी रची गयी है कि उसके लिए आसान है छोड़ पाना।

इसीलिए स्त्रियाँ, आमतौर पर, कम महत्वकांक्षी होती हैं। बहुत बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ स्त्रियों ने नहीं लड़ी। वो थोड़े में ही देखा है? कैसी प्रफुल्लित हो जाती हैं। घर है, सजा लिया - खुश! बड़े-बड़े राज्य नहीं चाहिए। बड़ी मुश्किल होगी यह कल्पना कि सिकंदर कोई स्त्री है, और वह जीतने निकली है कि जितनी ज़मीन है सब मेरी होनी चाहिए। मुश्किल है।

स्त्री को जो दिक्कत आती है वो आख़िरी कदम पर आती है। दिक्कत उसे ये आती है कि उसे झुक तो जाना है, प्रेम तो वो देने को राज़ी होती है, लेकिन चूँकि उसने सब त्यागा है, समर्पण उसके लिए आसान रहा है, छोड़ना उसके लिए आसान रहा है, त्याग उसके लिए आसान रहा है। तो चूँकि उसने सब कुछ छोड़ा है किसी के लिए, इसीलिए जिसके लिए छोड़ा है उसे पकड़ने को बड़ी तत्पर रहती है।

तो भक्ति अगर करेगी तो कान्हा के लिए सबकुछ छोड़ देगी और सबकुछ छोड़ के कान्हा को पकड़ लेगी। बाकी सब तो छोड़ दिया, किसके लिए? कान्हा के लिए। लेकिन पकड़ किसको लिया? कान्हा को ही पकड़ लिया। अब कान्हा परेशान। कह रहे हैं, "ये तो सोचा नहीं था।"

गुरूजी के पास आएगी, गुरूजी ने सिखाया, "देख, सब मोह-माया, सब छोड़ दे।" समझ जाएगी सब मोह-माया है और छोड़ देगी। उसका बहुत निवेश ही नहीं है दुनिया में, उसके लिए छोड़ना अपेक्षाकृत आसान है। सब मोह-माया है, सब छोड़ दिया। "लेकिन देखिए गुरूजी, आपने ही यह सब सिखाया है तो आपको कैसे छोड़ दें?"

लेकिन फिर भी इससे इतना तो है ही कि अड़चन उसकी अंत में आएगी। वह पकड़ेगी भी किसी को तो अपनी ओर से प्रेमवश पकड़ेगी। एक को पकड़ेगी, बाकी को छोड़ना उसके लिए सहज होगा। पुरुषों कि अपेक्षा ये उच्चतर बात है। पुरुष को तो सब कुछ चाहिए।

अब प्रश्न उठता है कि आगे क्यों कह रहे हैं कि पत्नियाँ टाँग ही नहीं तोड़ती, आत्मा तोड़ देती हैं?

पति भी यही करते हैं- आत्मा तोड़ देते हैं। कोई किरदार, कोई रूप, कोई रोल तुम्हारा वास्तविक हो नहीं सकता और जब तुम्हें बाँध दिया जाता है उस किरदार में, तो तुम्हारे सारे रिश्ते बंधे हुए हो जाते हैं।

एक बंधा हुआ आदमी किसी से सहज रिश्ता, स्वतंत्र रिश्ता नहीं बना सकता। जो बंधा हुआ है, उसकी मजबूरी हो जाती है कि रिश्ता वो बंधे हुए से ही बनाए। और जिससे रिश्ता बनाया है(बंधे हुए से), अगर वो स्वतंत्र होने की कोशिश भी करे तो आप उसे स्वतंत्रता दे नहीं सकते, क्योंकि यदि स्वतंत्रता दे दी रिश्ता टूटेगा। बंधे हुए का तो बंधे हुए से ही रिश्ता हो सकता है। दो लोग हैं, उनका आपस में रिश्ता ही सिर्फ तब तक है जब तक दोनों ही बंधन में हैं। अब एक अगर बंधन से आज़ाद होने लगे तो दुसरे को बड़ी तकलीफ़ हो जाएगी। दूसरा कहेगा “यार, रिश्ता ही टूट जायेगा”; तो उसे जाने नहीं देगा। पति-पत्नी दोनों एक दूसरे की आत्मा को तोड़ देते हैं। आत्मा को तोड़ने से क्या आशय है? आत्मा तो कोई टूटने वाली चीज़ नहीं।

आत्मा को तोड़ने से अर्थ है मन को आत्मा से तोड़ देते हैं, मन को आत्मा से अलग कर देते हैं। मन को शांत नहीं रहने देते।

दो लोग लगातार, जीवन भर एक दूसरे से अपने-अपने किरदारों में रहकर बात कर रहे हैं। यह बात बड़ी दमघोंटू है।

आप इंसान की तरह दूसरे से बात ही नहीं कर सकते; आपको लगातार याद है की इससे मेरा रिश्ता क्या है। साँस घुट जाए। आपको दिखाई ही नहीं देगा की आपके सामने जो खड़ा हुआ है वो आत्मा है, वो समझता है, वो मुक्त है वास्तव में। आप उसको एक ही नज़र से देख पाओगे - ये मेरा क्या लगता है। ये आप देख ही नहीं पा रहे कि वो है कौन? और चूँकि आप उसे देख रहे हो अहंकार से इसीलिए आपके लिए अब ज़रूरी है की वो भी बना रहे अपने अहंकार में। आग, आग से मिल सकती है पानी से नहीं।

यहाँ लोग आते हैं, आपने देखा है। पत्नियाँ अकेले आती हैं और वो शांत होने लग जाएँ, पतियों को कैसी ख़ुजली मचती है। पत्नियों का आना बंद करा देंगे। इसी तरीके से पत्नियाँ, पतियों का आना बंद करा देती हैं।

जोड़े भी आए हों, और जोड़ों में से कोई एक हो जो सत्य की तरफ ज़रा ज़्यादा तेज़ी से लपक जाए, जिसकी सच्चाई की प्यास ज़रा ज़्यादा तीव्र हो, ज़रा आगे बढ़ जाए, तो दूसरे वाले में कैसी ईर्ष्या उठती है। वो नाता ही तोड़ने को तैयार हो जाता है।

वो नाता तोड़ के कहेगा, "अब मैं अपने ही जैसा कोई खोजूंगा।"

वो यह नहीं कहेगा कि सामने वाला अगर आत्मस्थ होता जा रहा है तो मैं भी उसके पीछे-पीछे चलूँ, मैं भी आत्मस्थ हो जाऊँ। आप उसकी उलटी चाल देखिए, आप उसकी दुर्बुद्धि देखिए।

वो कहेगा, "न, मैं तो वही रहूँगा जो मैं हूँ और अब मैं अपने ही जैसा कोई खोज लूँगा बाहर वाला। तो मुझे मदद मिलेगी फिर।" अंधे को अंधा मिला। माताएँ आती हैं। "हमारे बच्चे ये कैसी गंदी किताबें पढ़ने लगे - उपनिषद्। ज़रूर इनका कुछ अहित होने वाला है। आप इन्हें छोड़ दीजिए।"

कॉलेज के कॉलेज खड़े हो जाते हैं, आज ही हुआ है। "हमारे बच्चे आपके पास आने लगे हैं। यह बड़ी गंभीर चिंता का विषय है।"

तुम्हारे जो बाकी के शिक्षक हैं, उनसे छात्र नफ़रत करते हैं, उनके पास नहीं जाते, ये चिंता का विषय नहीं है। लेकिन हमारे पास आने लगे हैं वो चिंता का विषय है।

एक कॉलेज के संथापक, प्रबंधक बोले, "देखिए, हमने देखा है कि हमारे बच्चे कॉलेज के पास ही आपकी किताबों का स्टॉल लगता है, वहाँ पाए जाते हैं। इससे बदनामी होती है।"

तो फाउंडेशन की ओर से जो प्रतिनिधि थे उन्होंने कहा, "स्टॉल पे तो आपके दो बच्चे पाए जाते हैं, स्टॉल से ही ज़रा दूर एक ठेका है, वहाँ आपके दो दर्जन बच्चे हर समय पाए जाते हैं। तब बदनामी नहीं होती? उसकी तो शिकायत करने कभी नहीं आए।"

बोले, "नहीं देखिए, वो उनका व्यक्तिगत मामला है।"

हम सब लगे हुए हैं, दूसरे को उसकी आत्मा से दूर करने में और हमारे लिए इससे ज़्यादा चिढ़ की कोई बात होती नहीं कि हम किसी को आत्मा कि तरफ़ जाते देख लें, किसी को मुक्त होते देख लें।

ऐसी आग उठती है हमारे मन में, हम कहते हैं, "हमारा तो जीवन व्यर्थ गया, कोई दूसरा आज़ाद क्यों हुआ जा रहा है?" चाहे वो तुम्हारा पति ही क्यों न हो, तुम्हें बड़ी ईर्ष्या उठेगी। तुम कहोगे, "हम तो फँसे ही रह गए, ये दूसरा उड़ा जा रहा है।"

ये कुबुद्धि है, ये दुर्बुद्धि है। दूसरे को उड़ता देखो तो उसका अनुगमन करना, उससे मित्रता करना, उसकी सलाह लेना, उसकी शिष्यता करना। ईर्ष्या मत करना।

हंसो से सीख ली जाती है, हंसो को प्रेम दिया जाता है। उनकी उपेक्षा, उनकी अवहेलना, अनादर नहीं किया जाता, उन पर आक्रमण नहीं किया जाता। सीखो!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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