सूरा के मैदान में, कायर फँसिया आय || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

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सूरा के मैदान में, कायर फँसिया आय || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

वक्ता: सूरा के मैदान में, कायर फसिया आए। ना भागे ना लड़ सके, मन ही मन पछताए॥

बाकि सब ठीक है, पर ये भाग नहीं सकता, ये क्यों कह रहे हैं कबीर? ‘ना भागे ना लड़ सके’, लड़ नहीं सकता, ठीक बात है। कायर है, लड़ेगा क्या? पर वो भाग क्यों नहीं सकता है? ये सवाल है | भाग इसलिए नहीं सकता कि भाग के जायेगा कहाँ | जहाँ जायेगा वहीं मैदान है | भागने को कोई जगह ही नहीं है | एक युद्ध से भागेगा, दूसरे में जाना पड़ेगा | ये जो पूरा क्षेत्र है, यही कुरुक्षेत्र है | आप छुपोगे कहाँ ? धर्मक्षेत्रे, कुरुक्षेत्रे | पूरा मैदान ही लड़ाई का मैदान है | कहाँ भागोगे? भाग के जाओगे कहाँ? ऐसा नहीं कि कायर भागने की कोशिश नहीं करता | भागता वो पूरा है | कायर और करेगा भी क्या? पर जहाँ जाता है, वहीं आफ़त सामने पाता है | एक लड़ाई से भागता है, दूसरी में प्रविष्ट हो जाता है | ये सूरा का मैदान है | मैदान तो है ही है, पर इस मैदान का मज़ा वही लेते हैं जो शूर होते हैं | जिसने आफ़तों में मज़ा लेना सीख लिया है, वही इस जन्म का आनंद उठा पाते हैं |

सुना होगा आपने? “वीर भोग्या वसुंधरा” | जीवन को भोगते ही वही हैं जो वीर हैं | उसी को कबीर सूरमा कह रहे हैं | ये सूरा का मैदान है, इसमें कायर का क्या काम है? यहाँ तो कायर बस फँस सा गया है | यहाँ तो उसको लगातार यही लगता रहेगा कि उफ़ क्यों जन्म ले लिया, क्यों जीवन में फँस गया | और जिस दिन वो मरेगा उस दिन बड़ी शान्ति का अनुभव करेगा | कहेगा, “बाप रे बाप, फँस गया था पता है, ज़िंदगी मिल गयी थी | चालीस- पचास साल, अस्सी साल फँसा रहा, अब जा कर मुक्ति मिली है”| और इसी कारण आपने देखा होगा कि अक़्सर लोग मृत्यु की कामना करते हैं और यही कहते हैं, “मुक्ति मिले किसी तरीके से” | ये वही हैं – कायर | इन्हें इस मैदान में कोई आनंद नहीं है |

“सूरा के मैदान में, कायर फसिया आए” |

ये बस फँस गए हैं | ये तड़प रहे हैं और मना रहे हैं कि किसी तरह से मुक्ति मिले | मुक्ति मिल भी गयी तो जाओगे कहाँ? कहाँ जाओगे? तुम एक जगह जहाँ फँसे हुए हो, उससे हटकर दूसरी जगह फँस जाओगे |

कबीर के पास एक बार कोई आया और कहने लगा कि अब तो मरने वाले हैं, अब मुक्ति मिल जाएगी, अब तर जायेंगे |

कबीर ने कहा है, “जीयत ना तरे, मरे का करिहों” |

ज़िंदा थे तब मुक्ति नहीं मिली, मर के कौन-सी मुक्ति मिल जानी है तुम्हें? तुम फँसे ही रहोगे | इसी को चौरासी का चक्र कहा गया है कि तुम फँसे ही रहोगे इस चक्र में | बात सांकेतिक है सिर्फ, कि एक के बाद एक जन्म होते रहते हैं और मुक्ति नहीं मिलती, पर उसका अर्थ यही है कि तुम फँसे ही रहोगे क्योंकि इसके बाहर कुछ है नहीं | जिसने इसका आनंद लेना सीख लिया वो मुक्त हो गया और जो इसको सिर्फ झेल रहा है, वही फँसा हुआ है | मुक्ति और कुछ नहीं है |

जिसको जीवन-मुक्त कहा गया है भारत में, उस जीवन मुक्त का ये नहीं अर्थ है कि अब वो देहधारी ही नहीं है, कि अब वो जीव नहीं रहा | जीवन-मुक्त का अर्थ इतना ही है कि अब जीवन उसके लिए मात्र मुक्ति और आनंद है, यही अर्थ है जीवन-मुक्त का | जिसके लिए जीवन मुक्ति हो गया, जिसके लिए जीवन आनंद हो गया, सो जीवन-मुक्त | और जिसके लिए जीवन सिर्फ पीड़ा है, कष्ट है, विपदा है, वो ही कायर है, वो ही फँसा हुआ है |

“ना भागे ना लड़ सके, मन ही मन पछताए” | ग्लानि में जियेगा, इधर से उधर भागता फिरेगा | हम इतना ही कर दें अगर कि भागना बंद कर दें, तो जीवन कितना बदल जाये| और भागने के सौ बहाने हैं हमारे पास | तुम भाग के जाओगे कहाँ? चारों तरफ बस यही मैदान ही है। कहाँ भाग के जाओगे? तुम आफ़त से भाग कैसे सकते हो जब आफ़त को तुम अपने भीतर रखे हुए हो | ये वैसी-सी बात है कि तुम्हें सिर में कोई बीमारी है और तुम खूब ज़ोर से भाग रहे हो | जहाँ जाओगे, बीमारी साथ ले कर जाओगे | और सिर की बीमारी है तो फिर भी समझ में आता है कि तुम उसको तुरंत त्याग नहीं सकते | शारीरिक है, रखी हुई है | तुम्हारी हालत तो विक्रम जैसी है | विक्रम-बेताल देखते थे? वो उसको पीठ पर बैठा कर घूमता था। हम अपनी मनहूसियत, अपनी बेवकूफियाँ अपनी पीठ पर लाद कर घूमते हैं | फिर हम कहते है कि बोझ बहुत है जीवन में | दुनिया भर का कचरा दिमाग में भर रखा है | ये विचार, वो विचार , ये मत, वो धारणाएं, सब लादा हुआ है | अब सूरत सूखी-सूखी सी है, जीने में कोई तरा नहीं है, कोई रस नहीं है | उधार की बातें बोलते रहते हैं | जिनको कभी ख़ुद जाना नहीं, जिनसे अपना कोई परिचय नहीं, जो यदि कोई और ना बताता तो कभी जहन में उठी ही ना होतीं, ऐसी बातों को दिन=रात तोते की तरह रटते रहते हैं | और जहाँ जाते हैं इनको साथ ले कर के जाते हैं | छोड़ने को राज़ी नहीं हैं, तो भाग-भाग के होगा क्या? जाओ भाग के जहाँ जाना है |

समझिये साफ़-साफ़| जो कुछ भी बाहरी है, वो बोझ की तरह ही रहेगा हमेशा | जो कुछ भी आप मान के बैठे हैं, जो भी कुछ आपके मन के गोदाम में भरा हुआ है, अपने आप से उसको ले कर एक सवाल पूछिये बस | “यदि ये मुझे किसी ने बताया ना होता, यदि मुझे इसकी शिक्षा ना दी गयी होती, यदि ये मैंने किसी किताब में ना पढ़ लिया होता, तो क्या ये तब भी मेरे मन में होता ?” यदि ये तब भी होता तो आपका है और यदि वो आपके मन में सिर्फ़ इस कारण है क्योंकि वो आपके मन में ठूस दिया गया है बचपन से, तो क्यों उसको लादे फ़िर रहे हो? क्यों लादे फ़िर रहे हो? उसमें कोई सत्य नहीं है | एक दूसरे तरीक़े से भी अपने आप से पूछ सकते हैं | एक प्रयोग कर लीजिये | आज आपकी स्मृति चली जाये, आप पुराना सब भूल जायें, चेतना रहे, समझने की शक्ति में कमी ना आ जाये, पर स्मृति विलुप्त हो जाये, जो कुछ था पुराना वो सब साफ़ हो जाये, और उसके बाद आपको नई शुरुआत करनी हो, तो क्या वाकई वो सारी पुरानी धारणाएं अपने आप वापस आ पायेंगी?

आप भूल गए हैं कि आपकी पहचान क्या है, आप भूल गए हैं कि आपको बचपन से ही क्या-क्या रटाया गया था | माहौल ने जो कुछ आपके भीतर भर दिया है वो सब आप भूल जायें | बस एक चीज़ बची रहे आपके पास- जानने की ताकत | दृष्टि बची रहे | तो क्या दोबारा वही सब मान्यताएँ अपने आप आ जायेंगी? जो कुछ भी दोबारा अपने आप ना आ जाये, समझ लीजिये झूठा था क्योंकि सत्य ही है जो अमर होता है | वही अकेला है जो दोबारा, तिबारा, चौबारा, बार-बार आएगा | बाकि सब तो कचरा है, सांयोगिक है | आ गया था किन्ही कारणों से, दोबारा नहीं भी आएगा |

-‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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