सोने का हक़

Acharya Prashant

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सोने का हक़

मन शांत

सब के सोने पर मेरा एकांत

एक बार फिर वही आदिम नींद पलकों पर आए

एक बार फिर वही इच्छा मन पर छाए

कि सोऊँ ऐसे कि फिर जागूँ न जगाए ।

पर मेरा नीरव चैन जागृति की भेंट चढ़ जाना है

तुमने सदा सूरज और सुबह को सत्य माना है

तुम नींद ख़त्म होने का जश्न मनाओगे

जब मेरा सन्नाटा गहरा और गहरा रहा होगा

ठीक तब तुम मुझे आ जगाओगे।

मैं पूछूँगा – किसलिए मन?

क्या बचा है चेतना के जगत में जो पाना शेष है?

या तुम्हें भी यही लगता है कि रात्रि से दिन विशेष है?

क्यों निर्मल मौन भंग करते हो?

क्यों सत्य को शब्द से दूषित करते हो?

आज सोते रहो निद्रा सर्वथा चिरंतन

मिटे दृश्य जगत मिटे मिटे समस्त स्पंदन।

पर किसी मुसकुराते मूर्ख की भाँति

जग मैं जाऊँगा क्योंकि अभी

एक प्रश्न रह गया है बाकी

कि तुम्हारे आने पर

नींद से न जागने का विकल्प

मेरे पास है भी या नहीं

~ प्रशान्त (०५.०७.२०१५) [object Object]

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