सोच सोच कर नहीं समझ पाओगे

Acharya Prashant

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सोच सोच कर नहीं समझ पाओगे

श्रोता : आपने अभी कहा कि प्रपात को देख कर हमें ‘उसकी’ याद आ जाती है। पर किसी चीज़ की याद आने से पहले ज़रूरी है कि वो चीज़ हमें पहले से ही पता हो। तो क्या हमें पता है पहले से ही सत्य के बारे में? हमें तो अभी ये पता ही नहीं कि हमें पता है।

वक्ता : आप जिस अर्थ में कहते हैं कि पता है उस अर्थ में नहीं पता होता। किसी पेड़ से यदि आप पूछें कि, ‘तू हरा है क्या?’ तो उसे न पता होगा। प्रपात से यदि आप पूछें कि, ‘ठीक कितने वेग से तू गिर रहा है?’ तो उसे ना पता होगा। आप के लिए पता होने का अर्थ है शब्द, अंक, मात्राएँ, संख्याएँ, धारणाएं। अब इन तरीकों से तो आपको परमात्मा का पता न चलेगा।

आप कब कहते हैं कि आपको कुछ पता है? पता होने का अर्थ ही आपके लिए ये है कि कोई मानसिक चीज़ होनी चाहिए। कुछ ऐसा होना चाहिए, जिसको शब्दों में अभिव्यक्त किया जा सके अन्यथा आप मानते ही नहीं कि आपको पता है। और बड़ी साधारण सी बात है, आप किसी को कहेंगे कि, ‘’मुझे पता है,’’ तो वो कहेगा बताओ? आप कहेंगे कि, ‘’पता है पर बता नहीं सकते।‘’ तो कहेगा तुम्हें पता ही नहीं है। हमारे लिए पता होने की पहचान ही यही है कि जो मुख से बता सकें।

सत्य *पता सबको है पर बोला नहीं जा सकता ।*

और चूंकि आपने ये मान लिया है कि जो बोला जाए वही भर पता है, इसलिए आपको ये भ्रम होने लग गया है कि मुझे पता नहीं है। दूसरीं चीज़ें आपको बहुत सारी पता हैं, और दूसरीं चीज़ें ही पता हो सकतीं है। आप सत्य को भी उसी श्रेणी में, उसी तल पर ले आना चाहते हैं। आप कहते हैं, जैसे ‘’मुझे दूसरीं चीज़ें पता हैं, वैसे मुझे सत्य भी पता हो।‘’ सत्य वैसे नहीं पता चलेगा।

फिर पूछ रहा हूँ, क्या किसी पेड़ को अपने हरे होने का पता है? जो आप हो, कैसे उसको भाषा में लाओगे? भाषा आपके होने से है, वो आपके होने को कैसे अभिव्यक्त कर देगी? जो आपकी अभिव्यक्ति है, वो आपको कैसे अभिव्यक्त कर देगी? वो आपका एक छोटा सा अंश है, आपके एक हिस्से की छाया है; उसमें आपकी पूर्णता कैसे समाहित हो जाएगी?

मैंने तमाम दफ़े कुछ छोटी सी बातें पूछीं। दुनिया में कोई भी व्यक्ति देखा है जिसको शान्ति नहीं चाहिए हो? किसने सिखाया उसे शान्ति की ओर जाना? कैसे उसको पता चला कि शान्ति बहुत बड़ी चीज़ है? बोलिये?

सबको शान्ति क्यों चाहिए? नहीं फर्क पड़ता कि आप किस धर्म के हैं, नहीं फर्क पड़ता कि आपकी उम्र क्या है, आपकी परिस्थितियां क्या हैं, ये भी फर्क नहीं पड़ता कि आपकी प्रजाति क्या है; जानवरों को भी शान्ति चाहिए। ये किसने सिखाया? कैसे पता चला आपको कि शान्ति चाहिए? आप कहते हैं कि आपको पता नहीं है, अगर नहीं पता है तो फिर शान्ति का कैसे पता चला? शान्ति तो चाहिए ना? और शान्ति क्या है, इसकी परिभाषा का पता हुए बिना चाहिए? मान लीजिए कि आपके पास शांति की कोई परिभाषा नहीं है, और हो भी नहीं सकती। शान्ति तो तब भी चाहिए। मान लीजिये शान्ति के लिए आपके पास कोई शब्द भी नहीं है, शान्ति तो तब भी चाहिए ना? इसका मतलब शान्ति आपको पता है, पता है बिना परिभाषा के।

तो कृष्ण शान्ति हैं; सत्य शान्ति है। मैं ये भी नहीं कह रहा कि शान्ति सा है, सत्य शान्ति ही है और कृष्ण शान्ति है। वो जो आपके अंतः स्थल की पुकार है, जो आपको चाहिए ही चाहिए। कृष्ण माने जो ‘खींचे’, जो ‘पुकारे, जो चाहिए ही चाहिए, जिसके बिना चैन नहीं पाओगे, जिसके बिना जीवन अधूरा सा लगेगा, लगातार। और किसी ने सिखाया नहीं।

बच्चा पैदा होने के पहले ही शान्ति के लिए पुकारना शुरू कर देता है। किसने सिखाया? कैसे पता चला?

जो *सिखाये बिना पता हो उसी का नाम सत्य होता है। जो सीख सीख के पता चले, वो संस्कार होता है। *

यक़ीन जानिये, बहुत कुछ है, जो आपको पता है बिना सीखे। वो बेशकीमती है, उस पर भरोसा रखना जानिये।

वास्तव में, जो कुछ भी मूल्यवान है, आप पाएंगे कि वो आपको यूँ ही पता है। उसको कहते हैं, प्रातिभ ज्ञान। वो सामाजिक ज्ञान नहीं है, सामाजिक ज्ञान बाहर से आपके भीतर आता है। एक ज्ञान होता है, जो आपके हृदय से फूटता है, उसका स्रोत आप स्वयं हैं। उसको आप चाहे हार्दिक ज्ञान बोलें, या प्रातिभ ज्ञान बोलें, चाहे बोध बोलिये, वो आपको बस यूँ ही पता है बिना किसी के बताये। और कोई कितना भी नकारे आप मानोगे नहीं, वो आपसे कहेंगे प्रमाण दो, बोलोगे, ‘’प्रमाण मैं हूँ, मुझे पता है। और क्या प्रमाण चाहिए? मैं हूँ तो इतना बड़ा, खड़ा हूँ यहाँ, मुझे पता है, बिना किसी के बताये पता है।‘’

जो किसी और के बताने से पता चले, वो बदल जायेगा, मिट जायेगा, या समय उसको धुंधला कर देगा। जो आपके भीतर से विस्तीर्ण होता हो, वो तो रहेगा। उस पर भरोसा करना सीखिये।

आध्यात्मिकता का अर्थ ही यही है, अपने पर भरोसा। मन की तमाम आवाज़ें होंगी, जो आपको डराएंगी, दुनिया की हज़ार दिशाओं में ले जाएंगी। पर जब मन ये सब विचलन आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हो, उस समय भी उस अकारण आवाज़ पर भरोसा कर पाना – यही आध्यात्मिकता है। भीतर से एक पुकार उठ रही है, और वो पुकार ना मन की है, ना अंतरात्मा की। वो बड़ी सूक्ष्म पुकार है। और उस पुकार के विरुद्ध मन के तमाम तर्क हैं। उन तर्कों के होते हुए भी, उस पुकार का जवाब दे पाना, उस पर भरोसा कर पाना, यही आध्यात्मिकता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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