सिर्फ़ ऐसे बच सकते हो अवसाद (डिप्रेशन) से || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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सिर्फ़ ऐसे बच सकते हो अवसाद (डिप्रेशन) से || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, 2011 के आसपास मुझे डिप्रेशन की समस्या हुई थी। उस समय घर में अशांति की वजह से मानसिक संतुलन थोड़ा ख़राब हो गया। एकदम से 'डर' आ गया जीवन में, और उसके बाद से वैसे ही चल रहा है। डर एकदम से हावी होता ही रहा, और उसी समय से गड़बड़ियों ने भी हावी होना शुरु कर दिया। फिर कुछ लोगों से पता चला कि 'योग' करो, तो ख़ूब योग किया। कोई बोल रहा है साँस का मेडिटेशन करो; कोई बोलता है कानो में एक आवाज़ आ रही है, उसका ध्यान करो। ख़ूब किया। कोई बोलता है काम नहीं कर रहा है, काम करो। काम भी कर रहे हैं, लेकिन वहाँ कुछ नहीं हो रहा है जहाँ होना चाहिए।

आचार्य प्रशांत: 7-8 साल पहले, कुछ पारिवारिक स्थितियों के कारण डिप्रेशन में चले गए थे। उसके बाद तरीक़े-तरीक़े से ध्यान आदि के प्रयोग करें लेकिन कुछ फायदा नहीं दिख रहा है, ये है कहानी?

प्रश्नकर्ता: जी।

आचार्य प्रशांत: इस पूरे प्रसंग में ये बताया ही नहीं कि परिवार का क्या किया, जिनकी वजह से डिप्रेशन में चले गए थे? ये ऐसी-सी बात है कि "आचार्य जी, 7 सालों से पीठ पर जोंक चिपकी हुई थी, तो उससे बाद से मैंने काला-खट्टा, बुढ़िया के बाल, शम्मी-कबाब, ये सब भाँति-भाँति के खाद्य पदार्थ आज़मा कर देखे हैं लेकिन कुछ लाभ नहीं हुआ।" पीठ पर जोंक चिपक गई थी, तो मैंने चॉकलेट आइसक्रीम खाई। उससे लाभ नहीं हुआ, तो फिर मैंने सड़क से वो बुढ़िया के बाल खाई। बुढ़िया के बाल जानते हो न? अरे, वो बुढ़िया के बाल नहीं; वो जो बेच रहे होते हैं (गुलाबी)—कहीं कोई सोच रहा हो कि बुढ़िया के बाल खा गए। फिर बताओ, "जोंक चिपकी हुई थी। जब चॉकलेट आइसक्रीम से फायदा नहीं हुआ, तो फिर मैंने गोलगप्पे खाए, दूर अन्य शहरों की यात्राएँ की—लखनऊ गया, वहाँ 'टुंडे कबाब' खाए।" 18-30 तरीक़े के व्यंजन बता दो मुझको, ये मत बताना बस कि जोंक का क्या किया? नहीं, उसका तो ज़िक्र ही नहीं करना है, वो बात तो छुपा कर रखनी है।

दुनिया की कौन-सी जोंक है जो तुम काला-खट्टा चाटो, तो तुम्हें छोड़ देगी, बताओ? और तुम्हारे भीतर वो कौन बैठा है जो सही इलाज से इतना घबराता है? परिवार में जो कुछ भी तुम्हें त्रस्त कर रहा था, वो सब स्थितियाँ पुरानी की पुरानी, वैसी की वैसी, तुम्हारे भीतर जो बैठा है जो त्रस्त होने को तैयार है, वो भी वैसा का वैसा, अब तुम इस तरह का ध्यान करो या उस तरह का ध्यान करो, इटेलियन खाओ कि चाइनीज़ खाओ, तुम्हें कोई राहत मिलेगी क्या? बोलो। इलाज वहाँ पर करना होता है ना जहाँ पर तकलीफ़ है। दिल का दौरा पड़ा हो, और तुम जाओ चंपी करवाने, या कहो कि "जो क्या कान का मैल निकालते हैं, किसी को ढूँढ के लाओ," तो कुछ काम आएगा? तकलीफ़ जब 'दिल' में है, तो चंपी कराकर क्या होगा?

दो होते हैं, और दोनों एक दूसरे से जुड़े होते हैं, बात को साफ़ समझ लीजिएगा। दुःख की हर स्थिति में दो होते हैं: एक दुःख देने वाला, दूसरा दुःख सहने वाला। ये दोनों एक ही सिक्के के पहलू होते हैं; एक के बिना दूसरा हो नहीं सकता।

दुःख, पीड़ा, कष्ट की हर स्थिति में, हर मामले में इन दो को आप मौजूद पाएँगे: वो स्थितियाँ जिन में दुःख का अनुभव हुआ, और वो इकाई जो दुःख का अनुभव करती है—ये दो लगातार मौजूद रहेंगे। तो जब भी आपको उपचार करना होगा, इन्हीं दो में से किसी एक का करना होगा। किसी एक का उपचार कर लो, दूसरे का अपने आप हो जाता है, क्योंकि ये दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।

अध्यात्म कहता है कि शुरुआत तो करो तुम उसका उपचार करने से, जो दुःख सहने के लिए इतना आतुर रहता है, क्योंकि बाहर की स्थितियाँ बदल पाना हर समय हमारे हाथ में होता नहीं। दूसरी बात अगर तुम्हारे भीतर वो जमा ही बैठा है जो दुःख सहने को तैयार है, तो तुम बाहर की परिस्थितियाँ बदल भी दोगे, तो वो दुःख पाने का कोई और तरीक़ा ढूँढ लेगा। तो इन दोनों में भी अगर उपचार करना है, तो वरीयता किसको दो? भीतर वाले को। भीतर वाले को वरीयता दो, पर बाहर वाले का परिवर्तन भी अवश्यंभावी है क्योंकि भीतर का मामला जब बदलने लगेगा, तो तुम बाहर वाले को भी बहुत दिन तक पकड़े नहीं रहोगे।

भीतर कोई बैठा था जो दुःख पाना चाहता था, इसीलिए बाहर-बाहर तुम उस से जुड़े रहते थे जो तुम्हें दुःख देता था। जब भीतर तुमने उसका उपचार कर लिया जो दुःख पाने के लिए आतुर था, तो बाहर भी अब तुम उससे जुड़े रहने के अभिलाषी रहोगे ही नहीं जो तुम्हें दुःख देता था। तो भीतर-बाहर दोनों परिवर्तन हो जाते हैं। जब भीतर का होने लगे, तब बाहर का परिवर्तन रोकना नहीं चाहिए। कई बार आप शुरुआत बाहर के परिवर्तन से कर देते हो। दोनों में से कहीं से भी कर लो शुरुआत।

लेकिन बाहर मौजूद है दुःख देने वाला, भीतर मौजूद है दुःख पाने वाला, और तुम चाट रहे हो काला-खट्टा इससे दुख का उपचार कैसे होगा, भाई बताओ? काला-खट्टा जानते हैं ना? बर्फ़ का गोला काले रंग का, उसमें कुछ खट्टा-खट्टा मिला कर दिया जाता है। बाहर वो मौजूद है जो हमें थप्पड़ जाए जाना है, भीतर वो है जो थप्पड़ों को बर्दाश्त किए जा रहा है, और हाथ में क्या है? काला-खट्टा। और हम कह रहे हैं, "यह दुःख दूर क्यों नहीं हो रहा है?" हम दुःख दूर करना चाहते भी हैं क्या?

कह रहे हो, "पारिवारिक पस्थितियों के कारण अवसाद में गए।" परिवार किसका है? पड़ोसी का? किसका परिवार है, बताइए? अपना परिवार है ना। किसी भी परिवार में माहौल यूँ ही अकस्मात नहीं होता। क्या कोई संबंध नहीं है हमारे व्यक्तित्व में और हमारे परिवार की दशा में, कहिए? हम जैसे हैं, और हमारे परिवार की जो हालत होती है, क्या उसमें कोई संबंध नहीं होता? परिवार क्या है? घर की दीवारें, कुर्सियाँ, सोफ़े, चादरें, इनको परिवार कहते हैं? परिवार माने घर के सब व्यक्ति जो एक साथ रहते हैं—बहुधा जिन्होंने एक दूसरे का निर्माण किया होता है, बहुधा जिन्होंने एक दूसरे को चुना होता है। अगर माँ-बाप और बच्चों की बात करें, तो वहाँ सीधा-सीधा निर्माण किया गया है, और अगर पति-पत्नी इत्यादि की बात करें, तो तो वहाँ एक-दूसरे को चुना गया है। तो क्या आपमें और आपके परिवार की स्थिति में कोई संबंध नहीं है? आप बस उन स्थितियों के आकस्मिक भोक्ता मात्र हैं? क्या दुर्घटनावश पाए जाते हैं आप अपने परिवार में, कहिए?

तो फिर जब आप कहें कि परिवार का माहौल ऐसा था, तो इसका मतलब यह है कि हमारे भीतर बहुत कुछ ऐसा है जो उस माहौल का निर्माण कर रहा है, और बहुत कुछ ऐसा है जो उस माहौल से, उस निर्माण से मिलने वाले दुःख में किसी तरह का रस पाता है; नहीं तो परिवार बदल ना दिया होता। हमारा ही निर्माण है, हमारा ही चुनाव है बहुत सीमा तक। बदलने की पुरज़ोर कोशिश तो की होती, जान लगा दी होती स्थितियों को सुधारने में। और अगर किसी बिंदु पर आकर यह दिखा होता स्थितियाँ फ़िलहाल सुधारी नहीं जा सकती, तो कहा होता, "मैं फिर ऐसे विषाक्त माहौल में रहूँ ही क्यों? कुछ समय के लिए दूर हो जाता हूँ। पुनः जब पाऊँगा कि मैं इस माहौल में सुधार कर सकता हूँ तब निकट आ जाऊँगा।"

यह सब काम आप करेंगे या नहीं करेंगे, बोलिए? आपका ही घर है, आपकी ख़ून-पसीने की कमाई से बनाया हुआ घर। घर जल रहा होगा, तो तत्काल बाहर तो भाग नहीं जाएँगे। सबसे पहले क्या कोशिश करते हैं? बचाने की। पूरी कोशिश करते हैं कि आग बुझा दें, जान लगा देते हैं। फिर पाते हैं कि आग तो नहीं बुझ रही, बहुत भड़क गई है, बहुत फैल चुकी है। हाँ, अब आपके भी फफोले पड़ने लग गए हैं, आपके ही बाल जलने लग गए हैं, तब आप क्या कहते हैं? तब आप कहते हैं, "मैं बाहर निकल रहा हूँ, पुनः घर बसाऊँगा।" अब कोई जलते हुए घर में धुएँ और ताप के बीच भी बैठा हुआ ध्यान करें, फिर कहे, "अरे! मैं जल क्यों रहा हूँ?" तो क्या उत्तर दूँगा?

सर्वप्रथम बात करो प्रथम कारण की, उपचार बाद में आएगा। प्रथम कारण है कि तुमने अपने इर्द-गिर्द ये क्या संसार बना रखा है। उसको बदलो, तो फिर किसी उपचार की ध्यान आदि की हो सकता है ज़रूरत ही ना पड़े।

डिप्रेशन तब तक नहीं हो सकता जब तक अपने आपको बहुत मजबूर ना अनुभव करो। और मजबूर हम नहीं होते, मजबूर हमें हमारी अंधी कामनाएँ  बनाती हैं, अन्यथा कोई मजबूर नहीं है। कामना में भी कोई दिक़्क़त नहीं है अगर वो अंधी ना हो। जो कामना आपको अंधेरे से रोशनी की ओर ले जाती हो, शुभ है वो कामना। कुछ ऐसा माँग रहे हो किसी जगह पर, जो मिलना ही नहीं, फिर जब पाओ कि वो मिल नहीं रहा, तो डिप्रेस्ड हो जाओ। यह कहाँ की समझदारी है, बताओ?

डिप्रेशन कोई चोट तो होती नहीं कि बाहर से आकर किसी ने हाथ पर मार दिया, और तुम कहो कि - "यह डिप्रेशन है।" डिप्रेशन तो एक मानसिक घटना होती है ना। उस घटना के केंद्र पर बैठा होता है अज्ञान, और अज्ञान-जनित कामना। तुम कुछ ऐसा चाह रहे होते हो जो हो सकता ही नहीं है। तुम आधी रात में सूरज की मांग कर रहे होते हो, तुम शराब पीकर होश चाह रहे होते हो, वो हो नहीं सकता। फिर जब वो होता नहीं है तब तुम्हें बुरा लगता है; बार-बार बुरा लगता है, उसी को तुम नाम दे देते हो 'अवसाद' का।

कुछ अगर सही है, तो उस पर डटे रहो। कुछ अगर झूठा और भ्रामक है, तो छोड़कर आगे बढ़ो। यह अवसाद बीच में कहाँ से आ गया? तुम्हारी कामना, तुम्हारा लक्ष्य, जो भी जीवन में तुम चाह रहे हो, अगर वो असली है और सुंदर है, और तुम्हें सच्चाई और मुक्ति की ओर ले जाता है, तो बढ़ा चल नौजवान! और जिन चीज़ों से अटके हुए हो, अगर वो मूर्खतापूर्ण हैं, तो तुम्हारे हित में यही है कि स्वीकार कर लो कि वो मूर्खतापूर्ण हैं। कम-से-कम कामना करना तो छोड़ो।

या तो इतना दम दिखाओ कि "बेवकूफ़ी की चीज़ों से अटका हुआ हूँ, तो आगे बढ़ जाऊँगा।" आगे नहीं बढ़ सकते मान लो, अटक ही गए हो, तो अटके रहो, पर यह उम्मीद तो छोड़ दो कि यहाँ तुम्हें कुछ बहुत ऊँचा मिल जाना है। जहाँ पर कामना नहीं है वहाँ विषाद नहीं हो सकता। डिज़ायर के बिना फ्रस्ट्रेशन कैसा?

आगे से, ध्यान आदि पर कम और उन स्थितियों पर ज्यादा गौर जिनके कारण परेशान हो। उन पर बार-बार गौर करो। वो स्थितियाँ बाहर भी हैं और अंदर भी; उनको छोड़ो।

यह ध्यान है, यही असली ध्यान है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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