प्रश्नकर्ता: बकरीद आ रही है, और मैं उन संस्थाओं का समर्थन करता हूँ जो कि पी.सी.ए. एक्ट (अधिनियम) है, प्रीवेंशन ऑफ क्रुएलिटी टुवर्ड्स एनिमल्स ( पशुओं के प्रति क्रूरता का निवारण अधिनियम- 1960), उसके सेक्शन अट्ठाईस को हटाने की माँग कर रहे हैं। उसका जो सेक्शन अट्ठाईस है वो कहता है कि किसी भी धार्मिक काम के लिए किसी भी पशु की, किसी भी तरीके से हत्या की जा सकती है, बलि दी जा सकती है, कुर्बानी दी जा सकती है। तो बहुत लोग और बहुत संस्थाएँ ये माँग कर रहे हैं कि ये जो सेक्शन अट्ठाईस है पी.सी.ए एक्ट का, इसको हटा दिया जाए, और अभी क्योंकि बकरीद सामने है तो इसलिए ये माँगें और ज़ोर पकड़ रही हैं। हालाँकि इस अधिनियम का संबंध किसी विशेष समुदाय, वर्ग या धर्म या मज़हब से नहीं है, तो फिर आप इसपर कुछ बोलते क्यों नहीं हैं? आप समर्थन क्यों नहीं दे रहे हैं कि, “हाँ, ये जो सेक्शन अट्ठाईस है, इसको हटाया जाए”?
आचार्य प्रशांत: मैं आता हूँ उसपर। पहले कुछ आँकड़े हैं जो आप सबके सामने रखने ज़रूरी हैं।
भारत में प्रतिवर्ष अस्सी लाख टन पशुओं का मांस तैयार किया जा रहा है, 1960 में ये दस लाख टन था। 1960 में भारत की आबादी पैंतालीस करोड़ थी, अभी एक सौ चालीस करोड़ है। आबादी बढ़ी है तीन गुना, और मांस का आहार बढ़ गया है आठ गुना, और खासतौर पर पिछले पंद्रह सालों में मांस के सेवन में ज़बरदस्त वृद्धि हुई है। भारत-भारत में लगभग पच्चीस करोड़ मुर्गे प्रतिवर्ष मारे जाते हैं, पंद्रह करोड़ बकरे मारे जाते हैं, और चालीस लाख करीब भैंस-भैंसे, इन सब की हत्या होती है। ये भारत के आँकड़े बता रहा हूँ, क्योंकि आप जिस अधिनियम की बात कर रहे हैं वो भारत का है। दुनिया के आँकड़े लें तो और ज़बरदस्त हैं। वास्तव में भारत दुनिया में प्रति व्यक्ति सबसे कम मांस खाने वाले देशों में है, लगभग पाँच किलो प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष भारत में मांस खाया जा रहा है। और दुनिया में ऐसे भी देश हैं जहाँ सौ किलो से ज़्यादा, डेढ़ सौ किलो से ज़्यादा मांस खाया जा रहा है प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष। तो ये एक तस्वीर है जो पूरे साल का यथार्थ दर्शाती है। बकरीद एक दिन है, पूरे साल हम क्या कर रहे हैं? मैं पहले उस पर बात करूँगा, और फिर मैं बकरीद पर, धर्म पर और कुर्बानी पर आऊँगा।
तो भारत, जो अहिंसा का, करुणा का देश है वहाँ पर ये हाल है कि इतने करोड़ जानवर हर साल काटे जा रहे हैं। और जो भैंस का मांस है उसके निर्यात में भारत दुनिया में नंबर एक पर है, जो बकरे का मांस है उसके निर्यात में भारत दुनिया में नंबर दो पर है; ये भारत की स्थिति है, और ये काम साल-भर चल रहा है। जानवर साल-भर काटे जा रहे हैं, और जानवरों को खाने की और काटने की जो गति है वो बढ़ती ही जा रही है, बढ़ती ही जा रही है, और जानवरों को खाने वाले लोग किसी एक धर्म या मज़हब से संबंध नहीं रख रहे।
अभी हालत ये है कि सत्तर प्रतिशत से ज़्यादा भारतीय साल में कभी-न-कभी मांस ज़रूर खाते हैं। जो अपने-आपको शाकाहारी कहते हैं वो भी लैक्टो-वेजिटेरियन्स हैं, ज़्यादातर उनमें से, जो कि भले ही मांस नहीं खाते, लेकिन दूध और अन्य दुग्ध-पदार्थ, इनका सेवन करते रहते हैं। उनमें बहुत सारे ऐसे हैं जो मांस नहीं खाते लेकिन अंडे खाते हैं। तो सत्तर प्रतिशत तो ऐसे हैं भारतीय जो सीधे-सीधे मांस ही खाते हैं, और जो बाकी बचे तीस प्रतिशत, उनमें भी बहुत सारे ऐसे हैं जो मांस नहीं खाते, अंडे खाते हैं। और फिर जो उनमें बचे, उनमें से लैक्टो-वेजिटेरियन्स हैं जो मांस, अंडे नहीं खाते लेकिन जानवरों पर क्रूरता करके जो और उत्पाद तैयार किए जाते हैं उनको खाते हैं; ये भारत की स्थिति है। टी.वी. पर “*लीशियस*” और इस तरह की कंपनियाँ हैं, वो अब सीधे-सीधे बच्चों का इस्तेमाल करके लोगों को मांस खाने की ओर ललचा रही हैं। जो हिंदुस्तानियों के पसंदीदा फिल्मी कलाकार हैं वो इन कंपनियों के विज्ञापनों में काम कर रहे हैं, और वो विज्ञापन हर घर में दिखाए जा रहे हैं; सिर्फ़ एक दिन नहीं, साल-भर, और सिर्फ़ एक समुदाय के घरों में नहीं, हर समुदाय के घर में दिखाए जा रहे हैं। इससे पता क्या चलता है? इससे पता ये चलता है कि पूरे समाज ने ही जैसे जानवरों की हत्या करने को स्वीकृति दे दी है, कि, "हाँ, मारो जानवर को। हमें अपने स्वाद से मतलब है, हम तो मारेंगे।"
मांस खाना कोई ज़रूरी नहीं है कि किसी मज़हब से ही संबंध रख रहा हो। मैं चूँकि इस मुद्दे को बहुत गंभीरता से लेता हूँ, और ये जो क्रूरता होती है इसको लेकर के बड़ा आहत अनुभव करता हूँ इसीलिए तथ्यों को आपके सामने रखना ज़रूरी है। भारत के एक तरफ़ है पाकिस्तान, जो लगभग पूरे तरीके से मुस्लिम देश है, वहाँ, और भारत के दूसरी तरफ़ है पड़ोसी देश नेपाल, जो लगभग पूरे तरीके से हिंदू देश है, वहाँ प्रति-व्यक्ति प्रतिवर्ष मांस की खपत लगभग बराबर है। तो बताइए इसमें धर्म या मज़हब से बहुत फ़र्क पड़ कहाँ रहा है? आम भारतीय लगभग पाँच किलो मांस खा रहा है प्रतिवर्ष, पाकिस्तानी बारह किलो, नेपाली दस किलो। पाकिस्तानी को आप समझ लीजिए वहाँ ज़्यादातर मुस्लिम ही हैं, और नेपालियों में समझ लीजिए वहाँ ज़्यादातर हिंदू ही हैं। और अगर आप अमेरिका चले जाएँ, ऑस्ट्रेलिया चले जाएँ तो वहाँ पर तो जो खपत है वो प्रतिवर्ष सैकड़ों किलो में है। और इस तरीके से लेटिन अमेरिका के कुछ देश हैं वहाँ तो डेढ़ सौ, दो सौ किलो से भी ज़्यादा प्रतिवर्ष मांस खाया जा रहा है। ये दुनिया की अभी हालत है।
भारतीय समाज की अभी स्थिति ये है कि जो परंपरागत मूल्य थे, जो बहुत ऊँचे मूल्य थे- अहिंसा के, करुणा के, चेतना को सम्मान देने के, सब जीवों के प्रति प्रेमभाव रखने के- उन मूल्यों को विदाई दे दी गई है। उन मूल्यों को तो मान लिया, “ये तो पुरानी चीज़ें हैं, बकवास है, कौन इनकी ओर ध्यान दे?” आध्यात्मिकता लोगों में बुरी तरह गिरती जा रही है। और जब आध्यात्मिकता गिरती जा रही है तो फिर जीवन का जो लक्ष्य रह जाता है वो यही है कि मज़े मारो, किसी भी तरीके से हैप्पी * (खुश) हो जाओ, भले ही वो * हैप्पीनेस (खुशी) दुनिया के और अपने ही नाश से मिलती हो।
आप समझ रहे हो?
आप रेस्त्राँ में चले जाइए, ज़्यादातर जगहों पर, अभी हालत ये होगी कि उनका जो तथाकथित नॉनवेज -सेक्शन होता है, मांस-सेक्शन ; उसे फ़्लेश-सेक्शन * कहा जाना चाहिए, पता नहीं * नॉनवेज क्यों कहते हैं। उनका जो फ़्लेश-सेक्शन होता है उनके मेन्यू का, वो ज़्यादा बड़ा होता है, वेज-सेक्शन छोटा होता है। एक समुदाय नहीं, पूरा देश ही जानवरों का खून पीने पर उतारू है। अभी ज़ोमैटो का आईपीओ * आया, वो दस गुना * ओवर सब्सक्राइब हुआ। बहुत अच्छी बात है ये, कि चलो एक कंपनी है, स्टार्टअप है, वो लोगों को घर में आकर के फूड (खाना) डिलीवरी * करती है। लेकिन बस एक आँकड़ा है आपको बताए देता हूँ, कि वो जो खाना लोगों के घरों में पहुँचा रहे हैं वो दो-तिहाई से ज़्यादा मांस है। उनकी गलती नहीं है, लोग जो * ऑर्डर करेंगे, वो पहुँचा रहे हैं। ये अभी आम हिंदुस्तानी की दशा है, उसे किसी भी तरीके से मज़े चाहिए। उसे करुणा नहीं चाहिए, उसे चेतना नहीं चाहिए, उसे ज़िंदगी में और विचार में ऊँचाई नहीं चाहिए, उसे हैप्पीनेस * (खुशी) चाहिए; और वो जो * हैप्पीनेस है वो ज़्यादातर आंतरिक और बाहरी पतन से ही आती है।
आपको बहुत, बहुत बार बता चुका हूँ, फिर बताए देता हूँ, कि क्लाइमेट-चेंज (जलवायु-परिवर्तन) का बहुत बड़ा कारण मांसाहार है। ये जो लाइवस्टॉक इंडस्ट्री (पशुधन-उद्योग) है ये दुनिया को तबाह कर रही है बिल्कुल, और ये इंडस्ट्री (उद्योग) इसीलिए चल रही है क्योंकि आपको जानवरों से बनी हुई चीज़ें चाहिए। अभी भी मुझे ताज्जुब होता है, बहुत पढ़े-लिखे लोग, उनको ये पता ही नहीं है कि दुनिया में कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन वगैरह सबसे ज़्यादा किस इंडस्ट्री से आती है। वो आती है मीट-इंडस्ट्री (मांस-उद्योग) से, वो आती है लाइव-स्टॉक (पशुधन) से, वो आती है डेयरी-इंडस्ट्री * (दुग्ध-उद्योग) से। उनको ये बात पता ही नहीं है, उनको बोलो तो वो मानते ही नहीं हैं। क्योंकि ये बात बिल्कुल स्पष्ट नहीं है न, कि ऐसा कैसे होता होगा कि मांस है, उससे कैसे…? लोगों को पता ही नहीं है कि दुनिया में वनों के कटने का सबसे बड़ा कारण है मांस का उपभोग। और वन अगर कट रहे हैं तो वहाँ पर जो प्रजातियाँ रहती हैं पशुओं की, पक्षियों की, वो अपने-आप मरी जा रही हैं; आप उनको मत खाइए, वो अपने-आप मरी जा रही हैं। तो प्रजातियों की जो विलुप्ति हो रही है, * एक्सटिंक्शन ऑफ स्पीशीज़ , उसका भी जो सबसे बड़ा कारण है वो यही है- लोगों को मांस खाना है। इस पर मैं दर्जनों *वीडियो * बना चुका हूँ।
आप कह रहे हैं कि एक ख़ास दिन है, उस दिन मैं क्यों नहीं बात कर रहा हूँ पशुओं के प्रति क्रूरता की? क्योंकि मैं तीन-सौ-पैंसठ दिन बात करता हूँ। तुमने पूछा न, कि, “बकरीद आ रही है, आप कुछ बोलते क्यों नहीं?” मैं तीन-सौ-पैंसठ दिन बोल रहा हूँ; लगातार बोल रहा हूँ। पता नहीं तुमने ये सवाल क्या पूछा है। एक से ज़्यादा तो मैं किताबें प्रकाशित कर चुका हूँ सिर्फ़ इसी मुद्दे पर; आना हमारी वेबसाइट पर, पढ़ लेना। और चाहे एनिमल-क्रुएलिटी (जीव-हिंसा) हो, चाहे वीगनिज़्म हो, इसपर न जाने कितने वीडियोज़ * हैं; * चैनल पर आना और देख लेना। ये बहुत,बहुत गंभीर मुद्दा है। ये मुद्दा ऐसा नहीं है कि इसको तुम सिर्फ़ बकरीद के दिन उठादो; साल-भर बात करो न। पूरा जब साल-भर माहौल ही खराब है, तो उसी माहौल में फिर तमाम तरीके की बुराइयों को प्रोत्साहन मिलता है। आप माहौल तो पहले ठीक करिए, एक दिन और एक वर्ग के लोगों पर शोर मचाकर क्या होगा? आपका उद्देश्य क्या है? पशुओं के प्रति क्रूरता को रोकना या कुछ ख़ास मौकों पर शोर मचा देना? पहले उद्देश्य स्पष्ट करिए।
आने वाला समय ऐसा होने वाला है, ये पीढ़ी ऐसी है कि ये मांस को दाल-भात की तरह खा रही है। मैंने जिस कंपनी की बात करी थी, “लीशियस * ”, उसका जो विज्ञापन आता है उसमें छोटे-छोटे बच्चे होते हैं दो। छोटे-छोटे मासूम बच्चों के मुँह खून लगाया जा रहा है, कि, “लो तुम मांस चबाओ।“ और वो जो मांस है वो कैसे पशुओं की क्रूर हत्या करके आ रहा है ये नहीं दिखाया जा रहा है। वो उसको इस तरीके से * पैकेज कर दिया गया है और बता दिया गया है कि, “ये तो अब एक स्प्रेड है, अब ये एक डिलीशियस (स्वादिष्ट) स्प्रेड है। इसको ब्रेड पर लगालो, इसको रोटी पर लगालो और खाओ।“ और जब वो स्प्रेड के रूप में आ जाता है तो उसमें जो हत्या और क्रूरता और शोषण छुपा हुआ है वो दिखाई कहाँ देता है? और पाँच साल, सात साल के बच्चों को आप जब इस तरीके की आदतें डाल देंगे खाने की, तो भविष्य क्या है? भारत का? विश्व का? पशुओं का? पर्यावरण का? मानवता का? और अध्यात्म का?
अब आते हैं कुर्बानी की बात पर - बकरीद पर। देखिए बहुत बार मैं समझा चुका हूँ, फिर कहे देता हूँ- धर्म के केंद्र में करुणा बैठी है। ये सही हो ही नहीं सकता कि धर्म के नाम पर जानवर की बलि दी जाए। बिल्कुल साफ़, स्पष्ट, बेबाक, दो टूक रख रहा हूँ - ये ठीक नहीं है! और मैं समझता हूँ कि जो लोग इस तरह के कृत्यों में शामिल हैं उन्हें खुद भी पता है कि ये बात ठीक नहीं है। बस एक प्रवाह है, एक गति है अतीत की, और एक ज़ोर है पूरे समुदाय का, कि सब ऐसा कर रहे हैं तो हमें भी तो करना है। नहीं तो ये बात तो किसी साधारण बुद्धि वाले आदमी को भी दिख जाएगी कि ईश्वर के प्रति, अल्लाह के प्रति प्रेम दिखाने का ये क्या तरीका है कि तुम एक बकरे पर, या ऊँट पर, या भैंसे पर चढ़कर के उसकी गर्दन काट दो। कोई तुक है? कोई बात है ये?
अध्यात्म से मेरा संबंध है, मुझे ये मत बताइएगा कि ये सब जो हो रहा है वो किसलिए हो रहा है। मैं भी जानता हूँ इसके पीछे की कहानी, लेकिन मैं कहानी से आगे का भी कुछ जानता हूँ। मैं कहानी का मर्म भी जानता हूँ, सार भी जानता हूँ, कहानी किधर को संकेत कर रही है मैं ये भी जानता हूँ। आप सिर्फ़ इतना जानते हैं कि पैगंबर इब्राहिम थे, उनको सपना आया और उनको कहा गया कि अपने बेटे इस्माइल की कुर्बानी देदो, तो वो अपने बेटे को लेकर गए कुर्बानी देने। बस कुर्बानी देने ही वाले थे तभी फरिश्ता आ गया, और फरिश्ते ने कहा कि तुमने ये जो भाव और ये निष्ठा, ये जो श्रद्धा दिखाई है तो ईश्वर प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा है कि कोई आवश्यकता नहीं है बच्चे को मारने की। इतनी देर में एक भेड़ दिखाई दी, उस भेड़ के जो सींग थे वो कहीं झाड़ी में फँस गए थे, तो फिर बच्चे की जगह उस भेड़ की कुर्बानी दे दी गई। और तब से ये प्रथा चल पड़ी है कि भाई चलिए ईद-उल-अज़ा में बकरे को मारा जाएगा, या किसी जानवर को मारा जाएगा, उसकी कुर्बानी देकर के उसका मांस बाँटा जाएगा, वगैरह-वगैरह।
इसका अर्थ क्या है कहानी का आप ये भी तो समझिए न। देखिए ये जो पशु है न, ये पशु, ये बहुत बड़ा संकेत है, और ये दुनिया के सब धर्मों-पंथों में पाया जाता है; कभी अश्व के रूप में, बकरे के रूप में, भैंसे के रूप में, साँप के रूप में। लगभग सभी धर्म उस पशु की बात करते हैं, कि, “एक पशु है और उससे सावधान रहना है, उसकी कुर्बानी देनी है, या उसपर वश कर लेना है।“ ये बात क्या है? ये बात ये है कि आदमी भी बहुत हद तक पशु ही है। आदमी भी जंगल की ही पैदाइश है, और जंगल बहुत सारा हमारे भीतर मौजूद है; ये जो हमारे भीतर मौजूद है जंगल, वो हमसे जानवरों-सा बर्ताव करवाता है। जानवर कौन है? जानवर वो है जो बस खाने-पीने, भोगने, *सेक्स * करने, सोने में अपना मस्त रहता है। जानवर कोई नैतिकता नहीं जानता, जानवर अच्छाई-बुराई नहीं जानता। जानवर को ज़िंदगी में बोध नहीं चाहिए, मुक्ति नहीं चाहिए। जानवर में एक अपनी प्रकृतिगत मासूमियत है, वो उसी में अपना लिप्त रहता है। उसे कोई यात्रा नहीं करनी, उसे बेहतर नहीं होना है। कुत्ता जैसा पैदा हुआ है उसे वैसा ही मर जाना है; शेर को भी, जिराफ़ को भी, चूहे को भी, खरगोश को भी, साँप को भी; सबको।
आदमी ऐसा नहीं है। आदमी के भीतर एक जानवर बिल्कुल मौजूद है जो बिल्कुल वैसी ही हरकतें करता है, वैसी ही वृत्तियाँ, वैसी ही टेंडेंसीज़ रखता है जैसे वो जंगल वाला जानवर। लेकिन आदमी के भीतर उस जंगल के अलावा भी कुछ मौजूद है; उसे चेतना बोलते हैं। आदमी की चेतना विशिष्ट है। आदमी की चेतना पशुओं जैसी नहीं है, और ये जो चेतना है- ये बढ़ना चाहती है, बेहतर होना चाहती है; इसकी बेहतरी के रास्ते में वो जो जानवर है वो रुकावट होता है। चेतना चाहती है कि उसे ज्ञान मिले, जानवर कहता है, “नहीं, मुझे नींद चाहिए,” क्योंकि जंगल का जानवर देखिए मस्त सोता है। आपने कोई जानवर नहीं देखा होगा जो किसी ऊँचे उद्देश्य के लिए अपनी नींद की कुर्बानी देदे। चेतना कहती है,” मुझे मुक्ति चाहिए,” भीतर का जानवर कहता है, “नहीं, मुझे तो खाना चाहिए, कुछ-भी करके, चुराकर भी खाना मिले, चलेगा। मुझे भोग करना है। मुझे सेक्स करना है।“ आप बेहतर हो सकें उसके रास्ते में सबसे बड़ी बाधा आपके भीतर का जानवर है; ये जो भीतर का जानवर है इसकी कुर्बानी देनी होती है। बाहर वाले जानवर की कुर्बानी देकर क्या मिल जाएगा? पागलपन है बाहर जानवर को मार देना; पागलपन है, क्रूरता है, अमानवीय है।
आप समझ रहे हैं?
कहानी का मर्म समझिए। कोई भी साधारण पिता होता तो उसमें अपने बच्चे के प्रति पशुओं जैसी ही ममता होती, जैसे कि सब साधारण माँ-बाप में होती है। आप पशुओं में भी देखिएगा, जो पशुओं के बच्चे होते हैं पशुओं को उनसे लगाव होता है, ये पाशविक ममता है, ये एनिमल अटैचमेंट * है। ये जानवरों में भी पाया जाता है, इसमें कोई ऊँचाई वाली बात नहीं है, इसमें कोई समझदारी वाली बात नहीं है, ये बस है। इंसानों में भी होता है, जानवरों में भी होता है। इसी के पार जाना होता है कि मेरा मेरे बच्चे से मोह है, निश्चित रूप से है। पैगंबर क्या संदेश दे रहे हैं? समझिए। वो कह रहे हैं, “मेरा मेरे बच्चे से मोह है;“ मोह, * अटैचमेंट ; “ लेकिन बच्चे से मेरा जो मोह है उससे ज़्यादा मेरा दैवीयता के प्रति प्रेम है और निष्ठा है। बच्चे से मेरा एक मोह है, बिल्कुल उसकी एक ताकत है मोह की, वो मुझे रोक रही है, लेकिन दूसरी तरफ़ क्या है? दूसरी तरफ़ एक बहुत ऊँची चीज़ है, और अगर वो मुझे आदेश देगी तो मैं बच्चे के लिए अपने मोह को पीछे छोड़ दूँगा।“ ये कहानी का मर्म है।
तो कहानी का मर्म ये है कि, “चेतना के ऊँचे उद्देश्यों के लिए अपने भीतर की पाशविकता को पीछे छोड़ो। चेतना के ऊँचे उद्देश्यों के लिए अपने भीतर के जानवर की सुनना बंद करो।“ जानवर क्या चाहता है?जानवर वही सब चाहता है जो जंगल का जानवर चाहता है। हमारे भीतर का जानवर वही सबकुछ चाहता है जो जंगल का जानवर चाहता है। जैसे जंगल का जानवर भी चाहता है उसका एक क्षेत्र हो, उसके अधीनस्थ एक क्षेत्र हो, एक टेरिटरी हो, उसको भी टेरिटोरियल ऑक्यूपेशन करना होता है। कुत्तों को देखा है न? वो जो अपना क्षेत्र है उसपर ऐसे एक निशान बनाते हैं, और उसमें अगर कोई और कुत्ता आ जाए तो बहुत ज़ोर से भौंकते हैं। वैसे ही इंसान के भीतर का जानवर कहता है, "नहीं! नहीं! मुझे भी एक टेरिटरी पर कब्ज़ा करना है।" शुरुआत होती है एक घर से, फिर और, और ज़्यादा, कि, “यहाँ पर भी मेरा हुकुम चलना चाहिए, वहाँ भी हुकुम चलना चाहिए। अब ये जो पूरा इलाका है ये मेरे कब्ज़े में है।“
ये आपके भीतर का जानवर है, जो काम कर रहा है। समझ रहे हैं? तो इसको पीछे छोड़ना है। कहानी का मर्म ये है- भीतर के जानवर को वशीभूत करना है। और वही संकेत आता है जब उदाहरण के लिए बात होती है- अश्वमेध, अजमेध। उसका क्या मतलब है? उसका मतलब ये नहीं है कि अश्व को या अज को, घोड़े को या बकरे को मारदो। उसका मतलब है कि ये सब जानवर तुम्हारे भीतर ही हैं, और अध्यात्म कह रहा है, “तुम्हें ऊँचे उठना है, ऊँचे उठना है, तो इन जानवरों को पीछे छोड़ना होगा, नीचे छोड़ना होगा।“ बाहर के जानवर को मारकर तो तुम भीतर के जानवर को ही और बलवान बना रहे हो पागल! ये क्या हरकत कर रहे हो? बाहर के जानवर को मारकर और उसका मांस खाकर के तो तुम भीतर के जानवर को और ताकत दिए दे रहे हो। जबकि धर्म का पूरा उद्देश्य ही यही है कि भीतर के जानवर को कमज़ोर करो, तभी तो इंसान कहला पाओगे न। और तुम्हें सिर्फ़ इंसान ही नहीं होना है; तुम्हें इतना ऊँचा इंसान बनना है कि तुम आसमान से मिल जाओ।
बात आ रही है समझ में?
तो जबतक अध्यात्म बच्चे-बच्चे तक नहीं पहुँचेगा, जबतक ज़िंदगी का असली अर्थ और हमारी असली पहचान सबको नहीं बताई जाएगी, तबतक धर्म के नाम पर बहुत तरह की क्रूरताएँ और मूर्खताएँ होती ही रहेंगी। मैं बिल्कुल हाथ जोड़कर सबसे आग्रह कर रहा हूँ, मैं निवेदन कर रहा हूँ कि अपनी नासमझी की सज़ा मासूम जानवरों को मत दीजिए, उनका खून बहाकर आपको चैन नहीं मिलेगा। वो खून चाहे फिर मस्जिद में बहता हो, मंदिर में बहता हो, चर्च में बहता हो, कहीं बहता हो, किसी रेस्त्राँ में बहता हो, किसी गली में बहता हो, चाहे किसी घर की रसोई में बहता हो। बहुत कुछ है जो मैंने बोला हुआ है इस मुद्दे पर। मुझे मालूम है मैंने जो बातें बोली हैं उनको लेकर के बहुत लोगों को बहुत आपत्तियाँ होंगी। आपने जो आपत्तियाँ उठाई हैं उनके जवाब मैं बहुत पहले दे चुका हूँ, आपकी सारी आपत्तियाँ निराधार हैं।