सर, आप प्यार से बात क्यों नहीं करते? || आचार्य प्रशांत

Acharya Prashant

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सर, आप प्यार से बात क्यों नहीं करते? || आचार्य प्रशांत

प्रश्नकर्ता: मेरा नाम पंखुड़ी शुक्ला है। आचार्य जी, आप प्यार से भी तो समझा सकते हैं? हमेशा डाँटते क्यों रहते हैं? मुझे अच्छा नहीं लगता है जब मुझे कोई डाँटता है तो।

आचार्य प्रशांत: अब क्या कहें पंखुड़ी, तुम्हारा तो नाम ही ऐसा है। (श्रोतागण हँसते हैं) इसमें तुम्हारी ग़लती भी क्या बताएँ? प्रेम के बारे में भ्रम पालने की, तुम्हारी शुरुआत तो, तुम्हारे नामकरण के दिन ही हो गयी थी। ये नाम कैसे होते हैं? मुझे क्षमा करना, कोई व्यक्तिगत आक्षेप नहीं लगा रहा हूँ, लेकिन ये मुस्कान, पलक, पालकी, पंखुड़ी! ये कैसे नाम देते हो लड़कियों को? ये क्या तरीक़ा है? शक्ति के सैकड़ों नाम हैं; एक नहीं चुने जाते?

फूल जानते हो न क्या होता है। कह रहे हो, पंखुड़ी। फूल पता है क्या होता है? पौधे का जननांग होता है फूल। अपना जननांग तो छुपाए फिरते हो और लड़की को ये ही बोलते रहोगे, कपड़े ठीक से पहन; और नाम उसका रख दिया है, पंखुड़ी, माने जननांग। वहीं से तो सब शुरू हो जाता है न; बात समझ रहे हो?

इतने सुन्दर-सुन्दर नाम हैं सनातन परम्परा में; उसकी जगह ये सब क्या शुरू कर रखा है? सुन्दर और गहरे! और ऐसे-ऐसे नाम जो आपने कभी सुने न हों। वो दीजिए न बच्चों को, नहीं तो फिर देखिए नाम से ही कैसी वारदात शुरू हो जाती है। वो कह रही हैं कि आचार्य जी प्यार से नहीं बात करते, डाँटते रहते हैं।

तुम्हारी प्यार की परिभाषा ही ग़लत है। अब अपने मुँह से क्या बोलूँ, लेकिन जिन्हें प्रेम समझ में आएगा, वो कहेंगे कि जितनी बार आप स्क्रीन पर देखतीं होंगीं, सामने आपको एक प्रेमी ही नज़र आएगा। लेकिन आपके लिए प्रेम का अर्थ ही हो गया है कि कोई आपको बहलाए! फुसलाए! सहलाए! प्यार से बोले! प्यार माने जो आपका वाला प्यार! चू-चू-चू-चू-चू-चू-चू! वाला प्यार जो होता है न वो, हो लू-लू-लू हो लू-लू-लू-लू! (श्रोतागण हँसते हैं) आपका ये तो प्यार है।

वो प्यार अधिक-से-अधिक छः महीने, साल भर के बच्चे तक को शोभा देता है; उसके आगे, आप इस तरह के प्यार की उम्मीद क्यों रखती हैं? आपके भले की बात बोल रहा हूँ पंखुड़ी, कोई मेरे मन में हिंसा है आपके लिए? और मैं डाँट भी नहीं रहा हूँ। लेकिन डाँट शब्द की भी हमारी परिभाषा बिलकुल विकृत हो चुकी है। किसी ने ज़ोर देकर के कुछ बोल दिया, तो हमें लगता है डाँट रहा है। मैं असर्ट (ज़ोर देकर बोलना) कर रहा हूँ, मैं डाँट नहीं रहा हूँ, बाबा।

और बहुत दूर हो, आपको डाँटने भी क्यों आऊँगा? मेरी डाँट खाने का हक़ भी जो मेरे बहुत क़रीब होते हैं, उनको होता है। इस समय इस हॉल में, बमुश्किल चार-पाँच लोग बैठे हैं, जो हक़दार हैं मेरी डाँट खाने के; और वो खाते भी हैं। मैं ऐसे ही थोड़े ही डाँटने चला जाऊँगा। डाँट बहुत क़ीमती चीज़ होती है, ऐसे ही नहीं बर्बाद की जाती। डाँट की बात छोड़ो, पहले बताओ तुम्हारे लिए प्यार का क्या अर्थ है?

ये जो बोलते हो कि आप आचार्य जी, प्यार से नहीं बोल सकते? मैं क्या करूँ, जो तुम्हें लगेगा कि मैं बहुत मीठा, प्यारा और गुड़ जैसा आदमी हूँ? क्या? क्या करूँ मैं? मैं यहाँ पर आकर के पहले फ़्लाइइंग किस (अभिनय करते हुए) दिया करूँ नमस्कार की जगह? (श्रोतागण हँसते हैं) क्या किया करूँ? अब आवाज़ तो अपनी बदल नहीं सकता। कहते हैं, ‘आपकी आवाज़ में घर्षण है।’ तो मैं क्या करूँ, ऐसा ही गला है, और इतना बोलता हूँ, तो खुल और गया है, एकदम। तो ऐसी ही आवाज़ निकलती है।

हाँ, समझ गया। ‘आप मुस्कुराते क्यों नहीं हैं?’

ज़बरदस्ती कैसे मुस्कुरा दूँ भाई? तुम्हारा नाम है पंखुड़ी; मैं मुस्कुरा कैसे दूँ? कुछ दुनिया में मुस्कुराने लायक़ हो रहा हो, तो मैं मुस्कुराऊँ भी। बाक़ी अगर मैं नहीं भी मुस्कुरा रहा, तो वो मेरी सहज स्थिति है; उसमें आपको आपत्ति क्या है? दिक्क़त क्या है, अगर एक आदमी जैसा होता है, वैसा बैठा हुआ है? क्योंकि ये सवाल सिर्फ़ उन्हीं देवी जी का नहीं है; आपमें से बहुत लोगों का होगा। आपका नहीं होगा तो आपके आसपास वाले बोलते होंगे कि ये बदतमीज़ है, डाँटता है, चिल्लाता है। जो भी है। बहुत सारी बातें।

मैं तो साधारण हूँ, सरल हूँ, सहज हूँ, ऐसा ही हूँ! ऐसा होने का हक़ नहीं है मुझको? या मैं प्रेम की आपकी विकृत परिभाषा पर खरा उतरने के लिए एक नक़ली आदमी बन जाऊँ? अभी आपसे जो कुछ भी बोलता हूँ, खरा-खरा बोलता हूँ, असली बोलता हूँ; यही प्यार है मेरा। बोलो तो झूठ-मूठ का मीठा-मीठा बोलना शुरू कर दूँ। पर वो मीठा-मीठा बोलने वाले, पंखुड़ी जी, आपकी ज़िन्दगी में पहले ही बहुत लोग होंगे न? ज़िन्दगी में भी होंगे, इर्द-गिर्द भी होंगे, स्क्रीन पर भी हैं, टीवी पर भी हैं, पॉलिटिक्स में भी हैं, गुरु लोग भी हैं। वो सब बहुत मीठा-मीठा बोलते हैं।

उस इतनी बड़ी भीड़ में इस अदने आदमी को जोड़कर के आप क्या पाएँगी? सौ पहले ही हैं आपके पास मीठे लोग; एक-सौ-एक हो जाएँगे तो आपको लाभ क्या होना है? पर अभी मैं जैसा हूँ, एक, आपके बहुत लाभ का हूँ। इस एक को एक-सौ-एक का हिस्सा मत बनाइए। अगर मुझमें क्रोध है भी तो आपके भले के लिए है।

कुछ चीज़ें हैं जो किसी को अच्छी नहीं लगनी चाहिए, वो मुझे नहीं अच्छी लगतीं। एक आदमी बेवकूफ़ी से अपना भी नाश कर रहा है और दुनिया भी बर्बाद कर रहा है, मैं मुस्कुराऊँ उसको देख करके? बोलो तो मुस्कुराऊँ। जो बातें सहज ही आपको समझ में आ जानी चाहिए, आपके सिर के ऊपर से निकल जा रही हैं, इसीलिए नहीं कि आप बुद्धिहीन हैं, इसीलिए, क्योंकि आपने न समझने का अभ्यास कर लिया है, कहो तो मैं मुस्कुराऊँ। बार-बार कहा करता हूँ कि जितनी देर में हमने ये सत्र किया, उतनी ही देर में, जीवों की, दर्जनों प्रजातियाँ विलुप्त हो गयीं, इन्हीं दो घंटे में; कहो तो मैं मुस्कुराऊँ। मुझे भली-भाँति पता है कि अभी एक घंटे बाद आप लोग यहाँ से चले जाओगे, और न जाने किस दुनिया में दोबारा खो जाओगे, ये सारी बातें बहुत पीछे छूट जाएँगी।

मैं ज़ोर देकर के आपसे कुछ कहना चाहता हूँ; या कहो तो मैं मुस्कुराऊँ? एक घंटा है बस मेरे पास! ज़ोर देकर समझाऊँ या बैठकर के मॉडल की तरह मुस्कुराऊँ? बोलो।

पर बुरा तो सभी को लगता है, उन्हीं को थोड़े ही लग रहा है, आप लोगों को भी लग रहा होगा? किसी को बोल दिया कुछ, वो एकदम ऐसा हो जाता है, ‘अँ-हँ-हँ-हँ-हँ!’ और ये कोई बहुत आपत्ति वाली बात नहीं। किसी को भी, कुछ भी जब थोड़ा सा टेढ़ा बोला जाता है तो उसको एक बार को बुरा लगता है। बिलकुल। मुझे भी लगता है। सबको। लेकिन हमारे भीतर से जो पहली प्रतिक्रिया उठती है, उससे ज़्यादा ताक़तवर हमारे पास कुछ है या नहीं? बोध, समझदारी भी कोई चीज़ होती है कि नहीं होती है? या बस जल्दी से बुरा मान जाएँगे?

और क्षमा कीजिएगा, लेकिन महिलाओं के साथ ये समस्या कुछ ज़्यादा बड़ी है कि हमसे ऊँची आवाज़ में मत बोल देना, हमसे डाँटकर मत बोल देना। हमसे तो जो भी बोलना है, वो फूल देकर समझाओ। वो तुम्हें फूल नहीं दिया जा रहा, तुम्हें फूल बनाया जा रहा है, दोनों अर्थों में। अंग्रेज़ी वाला भी और हिन्दी वाला भी। भूलना नहीं कि फूल क्या होता है।

यूट्यूब हो, इंस्टाग्राम हो, कुछ हो, इन सब पर, जो हमारे फ़ॉलोअर्ज (अनुयायी) हैं, उसमें महिलाओं का प्रतिशत पन्द्रह-अठारह है बस। वो दूर-दूर ही रहती हैं। रह लो मुझसे दूर-दूर। लेकिन ये भी तो देख लो मुझसे दूर रहकर किसके पास जा रही हो।

जिनके पास जा रही हो, उन्होंने तुम्हारा कुछ भला करा है या तुमको मीठा-मीठा बोलकर बस तुमको लूटा ही है?

और मैं फिर कह रहा हूँ; मेरी कोई नीयत नहीं है किसी पर हावी होने की या किसी को नीचा दिखाने की। अब इस बात का तो आपको यक़ीन ही करना पड़ेगा, मैं सिर्फ़ कह सकता हूँ कि ऐसा मेरा कोई इरादा नहीं है। मैं जब बोल रहा होता हूँ तो बस एक बात होती है कि तुम समझ जाओ। वो जो समझने का वक़्त है, मैं उसको क्यों डाँटने में बर्बाद करना चाहूँगा? लेकिन अभी भी जो मैंने बोला, मैंने अपनी ओर से बहुत शान्त रहकर के बोला है। मैंने अभी भी जो बोला वो बहुत लोगों को बड़ा तीखा-कड़वा लग गया होगा।

मैं आपसे सवाल करता हूँ न, फिर आपने अपनी आदत इतनी ख़राब क्यों कर ली? ये कौन लोग हैं आपकी ज़िन्दगी में जिन्होंने आपको बिलकुल शहद और गुड़ और शक्कर ही से लपेट दिया है? पूरी ज़िन्दगी ही बस उन्होंने सूक्रोज़ (चीनी) बना दी है। शक्कर कि सच्चाई?

और मैं बहुत अच्छा मुस्कुराता हूँ। पर ऐसे नहीं मुस्कुरा पाऊँगा। बिकाऊ नहीं है मुस्कुराहट मेरी, कि कैमेरे के लिए मुस्कुरा दीजिए। कई बार कोशिश की गयी है कि आज फ़ोटो ख़ीचेंगे। वो ऐसा मेरा मुँह आता है न, जब मैं ज़बरदस्ती मुस्कुराता हूँ, कि पूरा फ़ोल्डर ही डिलीट करना पड़ता है।

और मैं बहुत ज़ोर से हँसता भी हूँ। बहुत-बहुत ज़ोर से। पर बात अच्छी हो, सच्ची हो, गहरी हो, मज़ेदार हो, और अपनों के बीच हो तब। बाज़ारू मुस्कान है क्या कि कहीं भी चले जा रहे हैं, ‘हाय!’ जो दिखा उसको देखकर फेंक रहे हैं कि उछालते चलो। कहीं-न-कहीं तो कुछ मिल ही जाएगा या लोगों पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा, छवि अच्छी रहेगी।

वो कहेंगे, ‘नहीं-नहीं, हम लोगों को दिखाने के लिए नहीं मुस्कुराते। हम तो अन्दर से खुश हैं।’ तुम अन्दर से किस बात पर खुश हो? अपनी हालत देखो और दुनिया की हालत देखो।

दो ही चीज़ें होती हैं — अपनी हालत और दुनिया की हालत। तुम खुश हो किस बात पर? तुम्हारी हालत भी बर्बाद है और दुनिया का भी नाश पिट रहा है।

तुम खुश किस बात पर हो? और जब दुनिया गर्त में जा रही है, उस वक़्त तुम खुश हो, तब तो तुम्हारी मुस्कान बहुत ख़तरनाक है। बहुत ज़्यादा ख़तरनाक है। कि जैसे किसी के सामने हत्या हो रही हो, बलात्कार हो रहा हो और वो मुस्कुरा रहा हो।

कितनी ख़ौफ़नाक मुस्कुराहट होगी न वो?

अन्तर बस ये है कि आपको दिखाई नहीं देती वो हत्याएँ। मुझे वो दिखाई देती हैं। और आपको भी दिखाई देंगी अगर आप देखना चाहेंगे। आपने अपनी आँखे बन्द कर रखी हैं क्योंकि आप डरे हुए हैं। और मैं कह रहा हूँ, डरने की कोई ज़रूरत नहीं है, भाई। ऐसी मुस्कान का क्या फ़ायदा जो भीतरी डर से निकलती है वास्तव में?

होंगे, अभी भी रूठे हुए लोग होंगे। अभी पिछले तीन दिन में, जिनको भी थोड़े कड़वे जवाब मिल गये हैं वो सब रूठे हुए होंगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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