श्रीकृष्ण ने सगुण को निर्गुण से और भक्ति को ज्ञान से श्रेष्ठ क्यों कहा? || श्रीमद्भगवद्गीता पर (2020)

Acharya Prashant

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श्रीकृष्ण ने सगुण को निर्गुण से और भक्ति को ज्ञान से श्रेष्ठ क्यों कहा? || श्रीमद्भगवद्गीता पर (2020)

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्। अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते।।

उन सच्चिदानंदघन निराकार ब्रह्म में आसक्त चित्तवाले पुरुषों के साधन में परिश्रम विशेष है; क्योंकि देहाभिमानियों के द्वारा अव्यक्तविषयक गति दुःखपूर्वक प्राप्त की जाती है।

—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १२, श्लोक ५

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कृपया 'देहाभिमान' शब्द का अर्थ बताइए। लगता तो यह है कि साकार ब्रह्म की पूजा देहाभिमान से सम्बंधित है, जबकि इस श्लोक का मतलब कुछ और समझ में आता है। क्या निराकार ब्रह्म की साधना इसलिए कठिन कहा क्योंकि निराकार में चित्त लगाए रखना मुश्किल है? क्या निराकार और साकार ब्रह्म की साधना बिल्कुल अलग-अलग बातें हैं? क्या यह मानना सही होगा कि दो तरह साधनाएँ साथ-साथ चल सकती हैं, जैसे कि ज्ञान, भक्ति, कर्मयोग इत्यादि? कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: साधना की विधि हमेशा साधक को देखकर सुझाई जाती है। इसीलिए गुरु की सलाह, गुरु की सीख दो शिष्यों को एक जैसी नहीं होती।

इस श्लोक में श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि देहाभिमान का युग है यह, अर्जुन। और यह तब जबकि जिस युग बात चल रही है, वो कलियुग भी नहीं है। वो तो कलियुग भी नहीं है और कृष्ण कह रहे हैं कि देहाभिमान का युग है। और देहाभिमानी लोगों के लिए, जो अपनी साकारिता में विश्वास रखते हैं, निराकार की पूजा विशेष रूप से कठिन हो जाती है। कह रहे हैं कि यह बड़ी असंभव बात हो जाती है न। क्या? कि अपनी साकारिता में विश्वास रखे-रखे तुम कह रहे हो कि पूजा मैं निराकार की करता हूँ।

अब दो बाते होंगी। या तो तुम खोखला-सा कुछ विश्वास कर लोगे निराकार में, मात्र शाब्दिक। वो विश्वास किसी दम का नहीं होगा, ज़िन्दगी के ज़रा से आघात से टूट जाएगा। या फिर उससे भी बुरा काम यह करोगे कि निराकार की कोई छवि बना लोगे। कहोगे कि पूजा कर रहा हूँ निराकार की, पर मन-ही-मन निराकार की कोई छवि बना लोगे। निराकार को निराकार कहना भी उसकी एक छवि है। निराकार को अगर तुमने लिख दिया शब्दों में नि-रा-का-र, तो भी समझो छवि बन गई।

तो श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि अर्जुन, इस छल, प्रपंच में पड़ना ही क्यों है। ये आत्मप्रवंचना है, अपने-आपको बेवकूफ़ बनाने वाली बात है। और श्रीकृष्ण की बात सही है। इतिहास ने इस बात को प्रमाणित किया है। बहुत धर्मों ने, ग्रंथों ने, गुरुओं ने निराकार साधना की सीख दी है और वो धर्म और ग्रन्थ और गुरु बड़े ऊँचे दर्जे के थे, उन्होंने कहा कि हम नीचे की बात ही नहीं करेंगे, हम बात ही करेंगे अव्यक्त, अक्षर, निराकार, निर्गुण की। जो फॉर्मलेस (निराकार) है, सिर्फ़ उसकी बात करेंगे हम। वो कहते थे, “न, मूर्त की बात मत करना, मूर्ति की बात मत करना, बस अमूर्त सत्य की बात करो।”

और ये बहुत ऊँची सीख है, लेकिन ये ऊँची सीख किसके हाथों में पड़ी? ऐसे लोगों के हाथों में जो सदेह जीवन जी रहे थे, जो शरीर से ही तादात्म्य रखते थे, और ऐसे सभी लोग थे। तो सीख ऊँची और सीखने वाला नीचे, क्या नतीजा निकलेगा? हो गया गोबर-गणेश। वो फिर कहने को निराकार की उपासना करते हैं पर निराकार को आकार देने के तमाम मानसिक उद्यम करते रहते हैं।

यह थोड़े ही इरादा था। इरादा यह था कि समझा जाए कि जितने आकार हैं, सब मिथ्या हैं, या कि इन आकारों में कोई भी ऐसा नहीं है जो निराकार के कद का हो, निराकार के दर्जे का हो, तो इन आकारों की पूजा मत करने लग जाना—सीख ये थी। लेकिन क्या फ़र्क़ पड़ा? कहते रहे कि निराकार की साधना कर रहे हैं, निराकार की साधना कर रहे हैं और साधना तो संसार की ही करते रहे।

संसार की साधना ऐसे ही नहीं होती कि कह दिया कि संसार हमारा भगवान है। अगर संसार तुमको बहुत लुभाता है, अगर तुम संसार के पीछे-पीछे चलते हो तो ये भी तो संसार की साधना हो गई न। तुम कहने को यह कह दो कि “मैं फलाने ईश्वर को मानता हूँ, फलाने भगवान को मानता हूँ, गॉड को, अल्लाह को मानता हूँ,” लेकिन अगर तुम पैसे के सामने ही सिर झुकाते हो तो कौन है तुम्हारा ईश्वर? पैसा ही तो ईश्वर है तुम्हारा।

तो निराकार की वास्तव में साधना करना अति कठिन काम है, क्योंकि निराकार की साधना का अर्थ होता है कि तुम साकार से बिल्कुल ही उचटे, तुम्हें साकार की हक़ीक़त पता चल गई है। अब तुम साकार से न ललचाए जाओगे, न झुकोगे उसके सामने, न डरोगे उससे। पर ऐसे तुम हो नहीं पाते न।

श्रीकृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से कि तुम इस झंझट में पड़ो ही मत, अर्जुन, कि निराकार साधना करनी है, तुम सगुण की उपासना करो। तो एक बात तो कह रहे हैं कि सगुण की उपासना और दूसरी बात कह रहे हैं भक्ति। निर्गुण और सगुण में से वो सगुण को श्रेष्ठ बताते हैं। श्रेष्ठ इसलिए क्योंकि वो ज़्यादा व्यावहारिक है, ज़्यादा उपयोगी है। किसके लिए? हम जैसे लोगों के लिए। कह रहे हैं कि सगुण साधना ज़्यादा व्यावहारिक है जैसे लोग इस पृथ्वी पर हैं।

और ज्ञान और भक्ति में से भी वो श्रेष्ठ बताते हैं भक्ति को। कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि ज्ञान में कोई खोट है, कोई कमी है। ज्ञान भक्ति के बिल्कुल बराबर का है, लेकिन जैसे लोग हैं इस दुनिया में, इसके लिए तो भक्ति ही ठीक है, भाई। ज्ञान से तुमको लाभ होगा नहीं। ज्ञान से जिसको लाभ हो सके, वो बहुत ईमानदार चित्त चाहिए। ज्ञान से लाभ हो सके इससे पहले भीतर इतनी सत्यनिष्ठा चाहिए कि अपने भीतर जो पूर्ववर्ती ज्ञान है, उसको ठुकराने का साहस हो, तैयारी हो पूरी। वैसे हम हैं नहीं।

तो ज्ञान की साधना माँगती है कि पहले तुम अपने-आपको खाली करते चलो और भक्ति कहती है विनम्रतापूर्वक – 'मो सम कौन कुटिल खल कामी'। “मैं अपने-आपको खाली कर ही नहीं सकता। दयानिधान, अब तुम ही आकर कुछ अनुकम्पा कर सकते हो तो कर दो।” तो भक्ति का रास्ता ज़्यादा श्रेष्ठ है, ज़्यादा उपयोगी है।

जो काम ज्ञान नहीं कर सकता, भक्ति उसको विनम्रतापूर्वक स्वीकार कर लेती है, “हमसे न होगा, प्रभु।” आप हमसे बहुत ऊँची माँग रहे हो। हमारी हालत देखो, हमारी हैसियत देखो, हम आपकी माँग नहीं पूरी कर पाएँगे। हम कूड़े-कचरे से भरे हुए हैं, हमने ख़ुद ही मान लिया, अब हमसे कोई आशा मत रखना। हमने मान लिया कि एक तो हम कूड़े-कचरे से भरे हैं और दूसरे, हममें कोई दम नहीं है। तो हम सारी ज़िम्मेदारी लेने से इंकार करते हैं। सब आपका है, आप ही संभालो। ये भक्ति का मार्ग है। भक्ति का मार्ग फिर एक तरह से ज़्यादा ईमानदारी का हुआ। वो बता देता है कि हमसे न हो पाएगा। लेकिन भक्ति के मार्ग की भी बड़ी एक मजबूरी है। क्या? विनम्रता।

ज्ञान में समस्या यह है कि ख़ुद को खाली करने में बड़ी तकलीफ़ होती है। उसके लिए जो श्रम, जो साधना, जो ताकत चाहिए, वो आदमी नहीं कर पाता। नेति-नेति का मार्ग है न, उसमें खाली करना पड़ता है अपने-आपको। भक्ति के मार्ग में सुविधा यह है कि खाली करना ही नहीं है, कुछ भी नहीं करना है ख़ुद। धम्म से बैठ जाना है ज़मीन पर, “मुझसे कुछ नहीं होगा।” लेकिन भक्ति के मार्ग में समस्या क्या है? कि धम्म से ज़मीन पर बैठ जाने के लिए बड़ा सरल ह्रदय चाहिए, एक मासूमियत चाहिए और विनम्रता चाहिए।

अब अगर कोई ऐसा हो कि उसके भीतर कचरा भी भरा हो और उसमें अकड़ भी खूब हो, तो उसके लिए कौन सा मार्ग है? उसके लिए न ज्ञान मार्ग है, न भक्ति मार्ग है। उसके लिए फिर कुरुक्षेत्र का मार्ग है कि “अर्जुन, बाण चला।” इसके लिए यही मार्ग है। बाकियों के लिए मार्ग हैं, इसके लिए मार है।

अगर श्रमपूर्वक, साधनापूर्वक अपने-आपको खाली करने को तैयार हो, नेति-नेति की तलवार से ख़ुद को काटने को तैयार हो, तो ज्ञान मार्गी हो सकते हो, जाओ। और अगर विनम्रतापूर्वक झुक जाने को तैयार हो और स्वीकार करने को तैयार हो कि हम अशक्त हैं, असमर्थ हैं, तो भक्ति का मार्ग है तुम्हारे लिए।

पर अगर तुम बेहूदे हो, कचरे से भरे हुए हो और साथ-ही-साथ तुममें अकड़ भी बहुत है, तो अर्जुन, उधर (बाण चला)। अब दुर्भाग्यवश अधिकाँश लोग ऐसे हैं जिनमें न तो वीरता है ख़ुद को काटने की और न ही विनम्रता। अरे बाबा, अब क्या होगा? न वीरता है, न विनम्रता है तो पिटोगे, और कोई रास्ता नहीं है।

ज्ञान कहता है कि ख़ुद कर लूँगा, वीर हूँ। और करता है, पूरी ताकत लगाकर करता है। ज्ञान कहता है कि अपना अहंकार ख़ुद काटूँगा; बिल्कुल निर्मम होकर ख़ुद को काट दूँगा, वीर हूँ। भक्त कहता है कि विनम्र हूँ; जान गया हूँ कि ख़ुद नहीं काट सकता, तू काट दे। इन दोनों का काम हो जाता है। उसका काम नहीं होता जो ख़ुद भी नहीं काट सकता और किसी की शरण में भी नहीं जाता कि सहायता ले लूँ। उसका काम बिल्कुल नहीं होगा।

फिर पूछा है, “क्या निराकार और साकार की साधना बिल्कुल अलग-अलग बाते हैं?”

बातें अलग-अलग नहीं हैं, लोग अलग-अलग हैं। चूँकि लोग अलग-अलग हैं, तो फिर उनको तरीके अलग-अलग बताने पड़ते हैं न। ब्रह्म तो एक ही है, हम अलग-अलग हैं, हममें बड़ी विविधताएँ हैं। मुक्ति तो एक ही है, बंधन नाना प्रकार के हैं। चूँकि बंधन नाना प्रकार के हैं तो इसीलिए बंधनों के अनुसार उन्हें काटने की विधियाँ भी अलग-अलग होती हैं।

तुम रस्सी से बंधे हो और तुम लोहे की बेड़ियों से बंधे हो, एक ही विधि थोड़ी चलेगी। रस्सी से बंधे हो तो कोई लौ ला करके तुम्हारा बंधन काट सकता है, कि थोड़ी से आग ले आया तुम्हारे हाथों से रस्सी को जला दिया। अब उसी लौ से अगर तुम लोहे की बेड़ी गलाने लगे तो बेटा लोहा पिघलेगा तो नहीं, गरम हो सकता है खूब। तुम गरम कर-करके लोहा पिघलाना चाह रहे हो, पिघलने से पहले वो क्या होगा? खूब गरम होगा, तपेगा और पहन तुम्हीं ने रखा है। मुक्ति तो मिल जाएगी पर वो वाली नहीं जो चाहते हो।

तो बंधन किस तरह के हैं, इसके अनुसार साधना की विधि अलग हो जाती है। मन ही बंधन है। चूँकि मन विविध प्रकार के हैं, इसीलिए साधना की विविध पद्धतियाँ हैं आपके मन के अनुसार। आपके लिए क्या विधि चलेगी? वो आपके मन पर निर्भर करता है। लेकिन आपके लिए क्या विधि चलेगी, ये चुनने में मनमर्ज़ी मत कर लेना। मन मुक्त होना चाहता नहीं तो मन वही विधि चुनेगा जो नहीं चलेगी।

मन के बंधन के अनुसार मुक्ति की विधि चुननी है, ठीक? और मन बंधन में रहना चाहता तो मन से कहोगे भाई, मन मर्ज़ी से विधि चुन ले, तो वो कौन सी विधि चुनेगा? वो ठीक वही वही विधि चुनेगा जो पक्का असफल रहनी है। वो देखेगा कि इनमें से कौन सी विधि है जो काम कर जाएगी, इसको हटाओ। कौन सी है जो थोड़ा बहुत काम कर सकती है, इसमें भी ख़तरा है, इसको भी हटाओ। कौन सी है जो मेरे ऊपर पक्का असफल रहेगी? हम मोटी खाल के हैं, ये वाली विधि तो पक्का काम नहीं करेगी। ये ठीक है, मैं ये वाली साधना करूँगा।

तो जो लोग अपने मुताबिक ही साधना चुन लेते हैं, वो आश्वस्त रहें कि उन्होंने वही साधना चुनी होगी जो उनके किसी काम की नहीं है। इसी तरीके से जो लोग अपने अनुसार किताबें और ग्रन्थ उठा लेते हैं, वो हमेशा वही किताब उठाएँगे जो उनके काम नहीं आनी है। मन वो किताब उठाएगा जो उसे रुचेगी, वो किताब थोड़ी उठाएगा जो उसे तोड़ देगी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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