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श्रद्धा क्या है? आत्मविश्वास से श्रद्धा का क्या संबंध है? || आचार्य प्रशांत, तत्वबोध पर (2019)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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श्रद्धा कीदृशी? गुरुवेदान्तवाक्यादिषु विश्वासः श्रद्धा।

भावार्थः श्रद्धा कैसी होती है? गुरु और वेदांत के वाक्यों में विश्वास रखना ही श्रद्धा है।

~ तत्वबोध

प्रश्न: आचार्य जी प्रणाम। ‘श्रद्धा’ क्या है? ‘आत्मविश्वास’ से ‘श्रद्धा’ का क्या सम्बन्ध है?

उपरोक्त वक्तव्य से यह साफ़-साफ़ समझ आ रहा है कि क्यों गुरु के वचनों को हमें अपने जीवन में उतारना चाहिए। गुरु के जीवन को देखकर हमें अपने जीवन में सुधार लाना चाहिए। इसी को ‘श्रद्धा’ बताया गया है। परन्तु बहुत सूक्ष्म रूप से एक डर बना रहता है कि – कहीं पथ से हट न जाऊँ। मन बड़ा चपल है, माया कब हावी हो जाए मन पर, कुछ भरोसा नहीं।

क्या श्रद्धा के लिए आत्मविश्वास भी आवश्यक है?

आचार्य प्रशांत जी:

श्रद्धा के लिए प्यास ज़रूरी है। अडिग बने रहने के लिए, प्रेम चाहिए।

आत्मविश्वास तो – खुद पर भरोसा – हो गया। तुमने खुद को ही सबसे भरोसेमंद बना लिया? तुम भरोसे के इतने ही काबिल होते, तो फिर श्रद्धा इत्यादि की, किसी साधन की ज़रुरत ही क्या थी?

प्रेम चाहिए।

आदमी स्वार्थ का पुतला है।

गुरु के पास भी तुम्हें स्वार्थ ही लेकर के आएगा, और ये अच्छी बात है। तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम कितने प्यासे हो। तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम्हारा स्वार्थ गुरु के पास सिद्ध हो रहा है, और तुम्हें पता होना चाहिए कि अगर हटोगे तो प्यास फिर जलाएगी तुमको। यही चीज़ अडिग रखेगी तुमको।

नहीं तो तुमने लिखा ही कि- “मन बड़ा चपल है, माया कब हावी हो जाये, मन का कोई भरोसा नहीं। डर रहता है कि कहीं पथ से हट न जाऊँ।”

तुम अस्पताल में भर्ती हो जाते हो, वहाँ तुम्हें चिकित्सक मखमल का गद्दा तो देता नहीं, न तुम्हारी शैय्या पर गुलाब बरसते हैं। हालत देखी है अपनी, कैसी रहती है? लिटा दिये गए हो, चार सुईयाँ घुसी हुई हैं, और ड्रिप चढ़ रही है। और करवट लेना मना है, और नाक में कुछ बाँध दिया गया है, हाथ में कुछ बाँध दिया गया है।

कुछ बहुत प्रिय तो नहीं लग रही है ये छवि। या लग रही है? वहाँ से क्यों नहीं भाग जाते? मन तो चंचल है, मन तो कहेगा कि – “भाग लो।” भाग क्यों नहीं जाते? स्वार्थवश नहीं भाग जाते। क्योंकि पता है कि भागोगे तो अपना ही नुकसान करोगे।

अब वहाँ रुके रहने के लिए आत्मविश्वास से बात नहीं बनेगी। आत्मविश्वास तो तुम्हें बताएगा कि – “भाग लो, कुछ नहीं होगा।” आत्मविश्वास तो तुम्हें बताएगा कि – “तुम बड़े धुरंधर हो। ये नौसिखिया डॉक्टर है, पता नहीं क्या कर रहा है? ये कुछ जानता नहीं। तुम बिना पढ़ाई करे ही डॉक्टर हो। गज़ब आत्मविश्वास। हटाओ ये सब, भागो!”

तो आत्मविश्वास नहीं चाहिए, प्यास चाहिए। आध्यात्मिक तौर पर जिसको ‘प्यास’ कहा जाता है, लौकिक तौर पर मैं उसकी तुलना ‘स्वार्थ’ से कर रहा हूँ।

तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम्हारा हित कहाँ है। तुम्हें दिखना चाहिए कि ये चिकित्सक तुम्हारे साथ जो कुछ भी कर रहा है उसी में तुम्हारा फायदा है, और अगर तुम भागोगे तो नुकसान अपना ही करोगे। यही चीज़ तुमको अडिग रख सकती है गुरु के पास। और कुछ नहीं।

प्रश्न २: आचार्य जी, प्रणाम। ‘बोध’ का अर्थ शायद – अनुभूतिपूर्ण अपरोक्ष ज्ञान है। जगदगुरु आदि शंकराचार्य ने इसके लिए जो आवश्यक साधन चतुष्टय बताए हैं, उनको उपलब्ध किए बिना इस ज्ञान का सिर्फ़ श्रवण या पठन क्या एक दुविधा, या एक प्रकार का मानसिक अनुकूलन नहीं पैदा करेगा? ये दुविधा और मानसिक अनुकूलन, या जान लेने का भ्रम, जीव या मनुष्य के संघर्षों की बेचैनी, या तपन को नहीं बढ़ाएगा?

साधन चतुष्टय का इंजन या आधार, श्रद्धा है। आज के कठिन समय में श्रद्धा सबसे दुर्लभ है। गुरु और शास्त्र में एकनिष्ठ विश्वास-रूपी श्रद्धा, बिना गुरु की कृपा से, क्या सिर्फ़ प्रयासों से संभव है? मेरा नितांत निजी अनुभव है कि प्रयासों से श्रद्धा नहीं अर्जित की जा सकती। जीव सिर्फ़ ईमानदारी से रो सकता है।

कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत जी: तो कौन कह रहा है कि साधन चतुष्टय अर्जित किए बिना तुम ज्ञान की दिशा में आगे बढ़ो? समूचा तत्व-बोध है ही इसीलिए कि पता चले कि साधन क्या हैं, और तुम इन साधनों का अपने आप में विकास कर सको। निश्चित रूप से तुमने जो आशंकाएँ व्यक्त की हैं, वो आशंकाएँ निर्मूल नहीं हैं। बिलकुल ठीक कह रहे हो कि जिसमें मुमुक्षा नहीं, जिसमें वैराग्य-विवेक नहीं, जिसमें शम-दम-उपरति-तितिक्षा-श्रद्धा इत्यादि नहीं, वो अगर ग्रंथों का अध्ययन करेंगे तो वो ग्रंथों से अर्जित ज्ञान का, अपने विनाश के लिए ही दुरुपयोग कर लेंगे।

ठीक कह रहे हो।

तो सावधान रहो न। ये जितने साधन बताए गए हैं, इन साधनों पर ज़रा नियंत्रण कसो। इन साधनों को अपनेआप को उपलब्ध कराओ, फिर आगे बढ़ो।

फिर पूछा है ‘श्रद्धा’ के बारे में कि – “श्रद्धा प्रयासों से अर्जित नहीं की जा सकती। जीव सिर्फ़ ईमानदारी से रो सकता है।” तो ठीक है। ईमानदारी से रो लो। आदि शंकर ‘श्रद्धा’ की व्याख्या भी दे गए हैं। कह गये हैं, “गुरु और वेदांत के वाक्यों में, वाणी में, विश्वास रखना, यही श्रद्धा है।”

देखा है अपने अविश्वास को कैसे हवा देते हो? देखा अपने संदेहों, संशयों को कैसे तूल देते हो? जब प्रयास कर-कर के अश्रद्धा निर्मित कर सकते हो, अविश्वास निर्मित कर सकते हो, तो कम-से-कम इतना प्रयास तो करो कि गलत दिशा में प्रयास न करो।

ये न कहो कि – “मेरा नितांत निजी अनुभव है कि प्रयासों से श्रद्धा अर्जित नहीं की जा सकती।” अर्जित न की जा सकती हो प्रयासों से, प्रयास कर-कर के गवाईं तो जा सकती है।

श्रद्धा गंवाने की दिशा में देखा है कितने प्रयास करते हो? संदेह का कीड़ा कुलबुलाया नहीं, कि तुमने संदेह को तूल देना शुरु किया। कोई कुतर्क उठा नहीं, कि तुमने उसे हवा देनी शुरु की। ये प्रयास नहीं है क्या? कम-से-कम इन प्रयासों को विराम दो। यही ‘श्रद्धा’ है।

बिलकुल ही नहीं होता तो, ये झलक भी कहाँ से आती?

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