श्राप और वरदान का वास्तविक अर्थ || महाभारत पर (2018)

Acharya Prashant

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श्राप और वरदान का वास्तविक अर्थ || महाभारत पर (2018)

प्रश्नकर्ता: उर्वशी ने अर्जुन को श्राप दिया था कि तुम नपुंसक हो जाओगे।

श्राप क्या है? श्राप किस-किसको लग सकता है, और क्या श्राप से कुछ भी बिगड़ता नहीं है?

आचार्य प्रशांत: कुछ नहीं बिगड़ता। कोई दूसरा श्राप नहीं देता तुम्हें, किसी दूसरे को कोई ज़रूरत ही नहीं है तुम्हारा नुकसान करने की। हम हैं तो तैयार, अपना नुकसान ख़ुद करने के लिए। कोई दूसरा क्यों श्राप दे हमें?

तो इस चक्कर में मत रहना कि बुरा करोगे तो किसी दूसरे का श्राप लग जाएगा, कोई दूसरा आकर तुम्हारा अहित कर जाएगा। जो ग़लत जी रहा है, वो अपना अहित कर चुका। अब उसे किसी दूसरे-तीसरे की ज़रूरत ही नहीं है फल भुगतने के लिए; वो फल वो भुगत चुका।

अर्जुन कुछ ग़लत कर नहीं रहा था, तो कथा भी बताती है कि उसे कोई फल इत्यादि लगा भी नहीं। अपितु कथा तो ये कहती है कि वो श्राप उसके काम ही आ गया। अर्जुन का पौरुष कुछ दिनों के लिए क्षीण हो गया तो बृहन्नला बन गया और बृहन्नला बन करके, नर्तक बन करके उसको एक साल अज्ञातवास बिताने में, छिपने में मदद मिली। तो श्राप उपयोगी सिद्ध हुआ, कुछ नहीं बिगड़ गया, क्योंकि बाहर वाला कोई कुछ तुम्हारा बिगाड़ ही नहीं सकता, अच्छे से समझ लो।

और मैं ये नहीं कह रहा कि बाहर वाला कोई तुम्हारा कुछ बना सकता है। न बिगाड़ सकता है, न बना सकता है, तुम ही काफ़ी हो। अरे भाई, जब तुम्हीं मात्र हो, तो तुम्हीं काफ़ी भी होओगे। दूसरा क्या बनाएगा, क्या बिगाड़ेगा जब दूसरा वास्तव में है ही नहीं?

तुम हो और तुम्हारी दृष्टि है। तुम चुनते हो यदि कि तुम्हारी दृष्टि जड़ रहे तो तुम जड़ रहोगे और ब्रह्माण्ड को जड़-ही-जड़ देखोगे, तुम्हें पदार्थ-ही-पदार्थ नज़र आएगा। और चुनते हो तुम कि तुम्हारी दृष्टि चैतन्य रहे, तो चिन्मय रहोगे तुम और ब्रह्माण्ड तुम्हारे लिए चिन्मात्र रहेगा। ये तुम्हारा बड़ा दुर्भाग्य है कि चुनना तुम्हें हर समय पड़ेगा।

क्या है श्राप?

ग़लत चुनाव ही श्राप है।

किसने दिया वो श्राप?

तुमने दिया अपने-आपको।

क्या है वरदान?

सही चुनाव ही वरदान है।

किसने दिया तुम्हें वो वरदान?

तुमने दिया अपने-आपको।

तुमसे बाहर कोई है ही नहीं। न तुमसे बाहर कोई भगवत्ता है, न तुमसे बाहर कोई माया है, न भगवान है तुमसे बाहर, न शैतान है; तुम ही हो। और क्या देखना है तुमको, और कैसा जीवन जीना है तुमको, तुम ही चुनते हो। ठीक चुनो, ठीक जियोगे।

किसकी संगत में जीते हो तुम लगातार?

अपनी ही। और तुम्हारे ही भीतर साधु है, तुम्हारे ही भीतर शैतान है। तुम चुनो कि तुम्हें किसकी संगत में जीना है।

चुनाव और संगत एक ही बात है, जिसको तुम चुन रहे हो, उसकी ही संगत कर रहे हो। तो मत घबराना कि कोई आ करके तुम्हारा अहित कर जाएगा और मत ढूँढ़ना अपने से बाहर किसी सत्य को।

दुनिया तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकती, दुनिया तुम्हें कुछ दे भी नहीं सकती है। हाँ, तुम अपने साथ क्या करते हो, ये तुम जानो। और कोई नहीं है जो तुम्हारी इस स्वतंत्रता को छीन सके, जो तुम्हारे इस हक़ में विघ्न डाल सके। तुम्हें ही चुनना है, पूरा हक़ है तुम्हारा।

मैं जितनी बातें बता रहा हूँ, उनको सुनने के बाद भी पूरा हक़ है तुम्हें कि तुम कुछ समझो ही नहीं। मैं थोड़े ही आ करके ज़बरदस्ती तुम्हारा जीवन जीना शुरू कर दूँगा।

ज़िन्दगी तो तुम्हारी तुम्हें ही जीनी है, प्रति-पल चुनाव तुम्हें ही करना है। तुम ग़लत चुनाव करो, तुमने अपने-आपको शापित किया; तुम सही जियो, तुमने स्वयं को वर दिया।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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