शरीर के लिए योग, मन के लिए वेदांत || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

Acharya Prashant

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शरीर के लिए योग, मन के लिए वेदांत || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, अर्जुन कहते हैं कृष्ण से कि ‘धृतराष्ट्र पुत्र चाहे मुझे मार भी दें तो भी उनसे लड़ना तो ग़लत ही है।‘ हमारे आम जीवन में भी ऐसे ही चलता रहता है कि हम इमोशनल ब्लैकमेल (भावनाओं से किसी को नियंत्रित करना) करते हैं बहुत बार, या फिर कोई और हमें ब्लैकमेल करता है कि मर जाएँगे अगर तुम ये नहीं करोगे। या कभी हमें पता है कि अपराध करने पर मौत की भी सज़ा हो सकती है फिर भी ख़ुद मिट जाने के लिए तैयार हो जाते हैं शरीर रूप से। कई बार अपने सम्मान के लिए अपनी जान गँवा देते हैं। तो ये क्या है?

आचार्य प्रशांत: पशु ऐसा नहीं करते। दो पशुओं में अगर लड़ाई हो रही हो तो आमतौर पर जो हार रहा हो वो प्राण रक्षा के लिए दुम दबा कर भाग जाता है। पशु ऐसा नहीं करेंगे कि सम्मान की ख़ातिर आख़िरी साँस तक लड़ेंगे। मनुष्य ऐसा इसलिए करता है क्योंकि मनुष्य का तादात्म्य शरीर की अपेक्षा मन से ज़्यादा है। पशु का तादात्म्य शरीर से है तो पशु शरीर रक्षा के लिए कुछ भी कर सकता है; मनुष्य शरीर से ज़्यादा मन है, मनुष्य मन रक्षा के लिए कुछ भी कर सकता है। यहाँ तक कि मनुष्य मन रक्षा के लिए अपने शरीर को सौ तरह के कष्ट दे सकता है, और बहुत ही विरल स्थितियों में वो मन की रक्षा के लिए शरीर की क़ुर्बानी तक दे सकता है।

इसीलिए पशु आत्महत्या नहीं करते। ये अच्छी बात है कि मनुष्य मन को शरीर से ऊपर का स्थान देता है। लेकिन ये बात तो दो रूप ले सकती है। एक तो ये कि मन को उठाने के लिए आप शरीर की बलि दे दो, जैसा ऋषियों ने करा, जैसा बहुत सारे योद्धाओं ने करा कि किसी ऊँचे लक्ष्य के लिए उन्होंने शरीर को क़ुर्बान कर दिया। और उल्टा भी हो सकता है कि मन को गिराने के लिए आप शरीर को बर्बाद कर लो, जैसा एक शराबी करता है।

भाई, मन दोनों चीज़ें माँग सकता है। मन ये भी माँग सकता है कि ‘मुझे कुछ ऊँचा ध्येय पाना है और उसके लिए यदि शरीर की आहूति देनी पड़े तो स्वीकार है।‘ तो शरीर की आहुति दे दी गयी। क्यों? क्योंकि मन की इच्छा थी ऊँची। उल्टा भी हो सकता है, शरीर की आहुति दे दी गयी क्योंकि मन की इच्छा थी नीची। लेकिन दोनों ही स्थितियों में एक बात साझी है — मनुष्यों में मन शरीर से ऊपर आता है, पशुओं में नहीं आता। इसीलिए मन को साधना होता है, शरीर को नहीं। इसीलिए वेदांत का स्थान योग से बहुत ऊपर का होता है।

इसीलिए आप यदि रमण महर्षि से जा करके पूछें कि आसन आदि लगाने से क्या लाभ होगा और उनसे पूछा गया, तो वो हँस कर बोलते थे कि, ‘तुम कब शरीर नामक पशु को पूरी तरह साध पाओगे। ये प्रयत्न व्यर्थ है, मन को साधो, मन को।‘ और यही वजह है कि योग वेदांत से कहीं ज़्यादा प्रचलित भी है, क्योंकि ज़्यादातर लोग पशु के तल पर जीते हैं। तो उनको जब कोई शारीरिक क्रिया वगैरह बता दी जाती है तो उनको ज़्यादा सुविधा रहती है।

आप एक पशु से कहें कि अपने मन को स्वच्छ करो तो वो बेचारा कैसे करेगा? पर पशुओं को शारीरिक तौर पर कुछ प्रशिक्षण दिया जा सकता है, ऐसे दौड़ना है, ऐसे कूदना है, देखा है न? सर्कस में जानवर कूद पड़ते हैं। ऐसे तो ज़्यादातर लोग उसी तल पर जीते हैं। कहते हैं कि ‘हमें शारीरिक तल पर कुछ अभ्यास की बात बता दो तो हमारा चल जाएगा।‘ वेदांत में शारीरिक अभ्यास जैसा कुछ नहीं है। वेदांत कहता है — ये शरीर, (व्यंग में हँसते हुए) इसको अभ्यास दे कर क्या कर लोगे? मन की बात करो, क्योंकि तुम मन हो। पशु शरीर होता है, मनुष्य मन होता है।

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