तो शादी से पहले तो तुम ख़ुद ही सच्चाई को पर्दे में रखते हो। तुम ख़ुद ही एक दूसरे के सामने सभ्यता का, शालीनता का, भलाई का मुखौटा पहन कर बैठते हो। “नहीं, नहीं तुम बैठो! पॉपकॉर्न मैं ले आता हूँ।“
“नहीं, नहीं तुम क्यों खर्च करोगी, मैं कर रहा हूँ न!”
तो ये लगता है कि, “यह तो बढ़िया आदमी है!” फिर शादी हुई नहीं कि वह, “अरे! कच्छा धो देना मेरा।“
“यह क्या हो गया? कल तक तो मुझे कपड़े ख़रीद-ख़रीद कर देता था, और आज अपने गंदे कपड़े मुझे थमा रहा है कि ‘चल धोकर ला!’ यह क्या हो गया?”
हो कुछ नहीं गया, बदल नहीं गया! वह पहले भी ऐसे ही था, पहले तुमने ज़रा जाँच-पड़ताल नहीं करी।
तुम कितने अच्छे हो और कितने बुरे, यह तो पता ही तब चलता है, जब स्थितियाँ प्रतिकूल होती हैं। और स्थितियाँ कभी-न-कभी तो प्रतिकूल होंगी।