सेक्स अच्छा है या बुरा?

Acharya Prashant

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सेक्स अच्छा है या बुरा?
सेक्स अच्छा या बुरा नहीं होता। अगर आपके जीवन में हर चीज़ के लिए उलझाव है, निर्णय नहीं ले पाते, तो आप सेक्स के बारे में भी अच्छा-बुरा, सही-गलत सोचेंगे। अगर आप सही जिंदगी जी रहे हो, हक़ीक़त के साथ हो, तो सेक्स पर सोचना नहीं पड़ेगा। होगा तो होगा, नहीं होगा तो नहीं होगा। जीवन में एक प्रवाह रहेगा, और तुम्हारे मन पर सेक्स एक बोझ की तरह नहीं रहेगा। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: बहुत समय से मेरे मन में ये सवाल था, आज पूछना चाहता हूँ: सेक्स, अच्छा या बुरा?

आचार्य प्रशांत: बस सेक्स! ना अच्छा ना बुरा! साँस लेते हो तो पूछते हो अच्छा या बुरा? पानी पिया, अच्छा या बुरा?

प्रश्नकर्ता: धर्म ग्रंथों में क्यों कहा गया है कि ब्रह्मचर्य आवश्यक है?

आचार्य प्रशांत: ब्रम्हचर्य बिल्कुल आवश्यक है, पर ब्रम्हचर्य का अर्थ होता है—ब्रह्मचारी, जो ब्राह्म में जिए। 'ब्रह्म' माने हकीकत। जो हकीकत में जिए, वो ब्रह्मचारी है। ब्रह्मचारी का ये मतलब थोड़े ही है जो सेक्स नहीं करता! ये किसने बता दिया? जो सत्य में जिए, वो ब्रह्मचारी है। कृष्ण ब्रह्मचारी नहीं हुए फिर तो? कृष्ण से बड़ा ब्रह्मचारी कौन है? अगर ब्रह्मचारी की यही परिभाषा है कि वो कभी सेक्स, संभोग ना करे तो फिर तो कृष्ण ब्रह्मचारी हुए ही नहीं। ये तो बड़ा गड़बड़ हो गया! तुमने अवतार को ही कह दिया कि ये ब्रह्मचारी नहीं हैं।

ब्रह्मचारी माने जो ब्रह्मचर्या करे। जैसे दिनचर्या होती है न? दिनचर्या, दिन बीतता है, वैसे ही जो ब्रह्म में लगातार जिए, वो ब्रह्मचारी।

सेक्स, अच्छा बुरा नहीं होता, आप जैसे हो आपका सेक्स वैसा ही होता है। उसी आतंकवादी का उदाहरण ले लेते हैं: वो पानी पिएगा और कहेगा, "आ...हा...हा... अब गला तर हो गया है, कहाँ है मेरी एके-47?” वो गोली मारेगा पानी पीकर।

आप जैसे हो, आपके जीवन में सब कुछ वैसा ही रहेगा। आप अगर उलझे हुए हो तो आपका सेक्स भी उलझा हुआ रहेगा। आप जो अपने सारे जीवन भर की उलझन है, वो आप सेक्स पर भी डाल दोगे। आप सुलझे हुए हो तो आपका सेक्स भी सुलझा हुआ रहेगा। जीवन में जैसे एक प्रवाह होता है, सेक्स में भी वैसे एक प्रवाह रहेगा। प्रभाव समझते हो? फ्लो। सोचना नहीं पड़ेगा फिर उसके लिए, विचार नहीं करना पड़ेगा।

आपके जीवन में हर चीज़ के लिए उलझाव है। निर्णय ही नहीं ले पाते। अच्छा-बुरा, सही-गलत सोचते हो, तो आप सेक्स के लिए भी सोचोगे अच्छा-बुरा, सही-गलत। सेक्स कोई बड़ी बात है ही नहीं। जैसे अभी कहा न साँस लेने के लिए नहीं सोचते कि लें कि न लें, अपने आप हो जाता है। अगर सही जिंदगी जी रहे हो, अगर सत्य के साथ हो, वही ऑब्ज़र्व कर रहे हो, हक़ीक़त के साथ हो, तो सेक्स सोचने की बात नहीं होगी। होगा तो होगा, नहीं होगा तो नहीं होगा। जब हो रहा होगा तो तुम रोकने नहीं आओगे। तुम नहीं कहोगे गलत चीज़ है, अच्छी बात है, बुरी बात है; तुम कहोगे ठीक है जैसे पूरा दिन बीता वैसे अभी ये हो रहा है और जब नहीं हो रहा होगा तो तुम खींजोगे नहीं कि सेक्स क्यों नहीं मिल रहा है। तुम उस में अड़ंगा डालोगे ही नहीं। जीवन में एक प्रवाह रहेगा, उस प्रवाह में जो कुछ भी हो रहा होगा, तुम उसके सामने झुके हुए रहोगे। सेक्स हो रहा है, तुम झुक जाओगे; सेक्स नहीं हो रहा है, तो भी झुक जाओगे।

तुम्हारे मन पर सेक्स एक बोझ की तरह नहीं रहेगा। ज़्यादातर जवान लोगों के लिए सेक्स एक बोझ होता है: हो जाए तो भी बोझ होता है। हो गया तो दो दिन तक सोचेंगे "क्या सेक्स था!” नहीं हुआ तो कलपेंगे-रोएंगे कि मिल क्यों नहीं रहा है! बात समझ रहे हो? सेक्स क्या, कुछ भी बोझ नहीं होना चाहिए। जो मन पर चढ़ गया वही बोझ हो गया। जिस चीज़ के साथ तुमने अपनी पहचान जोड़ ली, वही बोझ हो गया। सेक्स हल्की बात है—हो गया तो ठीक है। हो रहा है तो रोकना क्यों है?

प्रश्नकर्ता: मैंने बचपन में बहुत सारी धार्मिक किताबें पढ़ी हैं। मैंने उन किताबों में देखा है कि ब्रह्मचर्य शांति के लिए बहुत ज़रूरी है और साधु को लड़कियों से दूर रहना चाहिए। मैंने बचपन में ये सारी चीज़ें ख़ूब पढ़ी हैं।

आचार्य प्रशांत: जब 'साधु' कहा जाता है न और 'लड़की' कहा जाता है तो उसका अर्थ होता है 'पुरुष' और 'प्रकृति'। इसीलिए ये सारे ग्रंथ किसी गुरु के साथ हुए बिना नहीं पढ़ने चाहिए, भ्रम हो जाता है। ये ग्रंथ संकेतों में बात करते हैं। हम क्या करते हैं कि आम भाषा से ही उनका अर्थ निकाल लेते हैं। प्रचलित धारणा यही रहती है न कि "किताब ही तो है, कोई भी पढ़ सकता है। मुझे किसी गुरु के पास जाने की जरूरत क्या है? मैं भी किताब उठाकर पढ़ लूँगा।" तुम पढ़ तो लोगे, लेकिन अर्थ का अनर्थ कर लोगे।

ये बात बिल्कुल ठीक है कि साधु को 'स्त्री' से दूर रहना चाहिए पर जब 'स्त्री' कहा जा रहा है उसका मतलब है 'प्रकृति', जब 'साधु' कहा जा रहा है तो उसका मतलब है 'पुरुष'। प्रकृति में देह भी आती है। पुरुष कौन है? वही (साक्षी) जो चाय पी रहा है ग्रीन टी, उसे कहा जाता है पुरुष। प्रकृति मतलब वो सब कुछ जो हिलता है, डुलता है, जो गतिमान है, जो हो रहा है—उसमें देह भी आती है। मतलब ये है इसका कि जो तुम्हारा चाय पीने वाला है (साक्षी), वो सब कुछ देख रहा है—सेक्स को भी होते हुए देख रहा है, अड़ंगा नहीं डाल रहा।

सेक्स नहीं हो रहा है तो वो क्या कर रहा है? (साक्षी है) चाय पी रहा है। सेक्स हो भी रहा है तो भी वो क्या कर रहा है? (साक्षी है) चाय पी रहा है। अब ये मज़ेदार बात है कि नहीं? तुम सेक्स के बीचों-बीच हो, एकदम ऑर्गेज़्मिक हालत में हो, लेकिन अभी भी भीतर कोई है जो शांत है, वो चाय पिए जा रहा है, उसको साधु कहते हैं। उसको सेक्स से कोई मतलब नहीं, वो स्त्री से दूर था।

तुम्हारा जो शरीर था, तुम्हारा जो लिंग था, वो स्त्री के पास था, तुम स्त्री के शरीर में पूरा समा गए थे लेकिन कोई था जो नहीं समाया था। कौन था जो नहीं समाया था? जो चाय पी रहा है ( साक्षी है)। वो देख रहा था, "हाँ, अब ये औरत का शरीर है। ये खुला है। मैं संभोगरत हूँ। अब मैं इसके शरीर में प्रवेश कर रहा हूँ।" लेकिन साधु बैठकर चाय पी रहा है (साक्षी है)। वो दिल में बैठा हुआ है। वो ये सब देख रहा है। इसको कहा गया है कि साधु स्त्री से दूर रहता है। शरीर नहीं दूर रहता, साधु दूर रहता है।

साधु कहाँ है? हृदय में। वो ऑब्ज़र्वर है। जब आप सेक्स कर रहे हों तब भी ऑब्ज़र्व करें, इसी को साधुता कहते हैं। यही ब्रम्हचर्य है कि जब मैं सेक्स भी कर रहा हूँ तो भी उसका ऑब्ज़र्वर हूँ। खो नहीं गया, पागल नहीं हो गया। भीतर कुछ है जिसे कोई औरत नहीं छू सकती। मैं कितने भी सेक्शुअल एक्साइटमेंट में हूँ पर भीतर कुछ है जिसे दुनिया की कोई औरत कभी छू नहीं पाएगी। कभी नहीं छू पाएगी, इसी को साधुता कहते हैं। इसी को कहा गया है कि साधु स्त्री की संगति नहीं करता।

अगर साधु स्त्री की संगति नहीं करता तो इतने ऋषि थे, वो बीवियाँ क्यों रखे हुए थे? उपनिषदों के ऋषि हुए हैं जिनके आश्रमों में उनकी एक नहीं अनेक बीवियाँ रहती थीं। उनके बच्चे हुए हैं, और जो उनके बच्चे हुए हैं वो भी फिर बड़े होकर ऋषि हुए हैं। तो वह बच्चे कहाँ से आ गए अगर साधु को स्त्री की संगति नहीं करनी? तो यह बच्चे कहाँ से आ गए? समझ रहे हो?

स्त्री से नहीं दूर भागना है, तुम्हारा शरीर और स्त्री का शरीर एक है। कोई पुरुष ये सोचे कि स्त्री से बच लेगा तो नहीं बच सकता, तुम्हारा शरीर बनाया ही गया है, स्त्री शरीर के पास आने के लिए। तुम्हारे शरीर में जो कुछ है वो स्त्री के शरीर की तरफ़ आकर्षित हो रहा है और तुम्हारे शरीर में जो कुछ है वो स्त्री शरीर को आकर्षित कर रहा है—और सिर्फ मैं, जननांगों की ही बात नहीं कर रहा। तुम्हारे शरीर में सब कुछ—तुम्हारी भौहें, तुम्हारी आँखें, तुम्हारे बाल, तुम्हारे कान, तुम्हारी आवाज़, तुम्हारे हाथ—ऐसे ही हैं जैसे समझ लो कि प्लग और सॉकेट। तुम्हारा और स्त्री का शरीर म्युचुअली कंपैटिबल ही बनाया गया है एक दूसरे के लिए। दूर रख ही नहीं पाओगे। दूर रखोगे तो तड़पोगे। जो पुरुष ये कहे कि स्त्री से दूर रहूँगा, वो दिन-रात बस जलेगा और तड़पेगा। जो स्त्री ये कर ले कि पुरुष से दूर रहूँगी, पास नहीं आऊँगी, संभोग नहीं करूंगी, वो अपनी ही आग में जलेगी, तड़पेगी।

ब्रह्मचर्य का ये मतलब नहीं है कि पुरुष स्त्री से संभोग नहीं कर रहा है, या स्त्री पुरुष से संभोग नहीं कर रही है; ब्रह्मचर्य का मतलब ये है कि स्त्री जब पुरुष के साथ है तो भी चाय पी रही है (साक्षी है); पुरुष जब स्त्री से संभोग कर रहा है, तब भी चाय पी रहा है (साक्षी है)। तो सेक्स करो चाय पीते-पीते (साक्षी भाव में रहकर), इसी को ब्रम्हचर्य कहते हैं।

ब्रह्मचर्य की ये परिभाषा है: चाय पीते-पीते (साक्षी भाव में रहते हुए) सेक्स करने को ब्रह्मचर्य कहते हैं। बस ग्रीन टी होनी चाहिए (बस ईमानदारी होनी चाहिए)। अब जब अगली बार सेक्स करना तो सिरहाने ग्रीन टी रखना (ईमानदारी), ताकि याद रहे। ख़ुद भी पीना, उसको भी कहना, "तू भी चुस्की लेते चल"।

मन साफ़ रखो, सही लड़की अपने आप जीवन में आएगी और सही लड़की ही चुनोगे। मन साफ़ रखो तो उस सही लड़की के साथ सही मौका क्या है संभोग का ये भी जान जाओगे, फिर सब सही होता है। मन साफ़ रखो और मन को एक ही चीज़ साफ़ रखती है कि सच से प्यार है, सच के अलावा किसी से प्यार नहीं। सच से प्यार है इसीलिए हमेशा सच्चाई को देख रहे हैं, इसी को ऑब्ज़र्वेशन कहते हैं। सच से प्यार को ही 'भक्ति' भी कहते हैं, ज्ञान भी कहते हैं, सब कुछ यही है।

झूठ पसंद ही नहीं भाई हमें! झूठ वो नहीं जो ज़बान से निकलता है, झूठ वो जिसको मन पकड़ लेता है। सच से प्यार है। अभी बात क्या है? साफ़ देखनी है, पर्दे नहीं चाहिए। हक़ीक़त बताओ हक़ीक़त, पर्दे नहीं चाहिए। और हक़ीक़त कोई और नहीं बताएगा, हमारा अपना जो साफ़ दिल होता है वही हक़ीक़त बता देता है।

प्रश्नकर्ता: ये बहुत बड़ा सवाल था, अब सुन कर कुछ समझ आया है। मतलब सब कुछ होता था लेकिन बाद में एक तरह का अपराधबोध रहता था कि मैंने कुछ सही नहीं किया।

आचार्य प्रशांत: और सेक्स से ज़्यादा अपराधबोध तो हमें किसी चीज़ की होती ही नहीं, है ना?

प्रश्नकर्ता: और मैंने सुन रखा था कि ये सब सही नहीं है तो एक अपराधभाव उठता था पर अब लग रहा है कि सब चीज़ सही हो गई है।

आचार्य प्रशांत: ये भी नहीं कह दिया गया है। समझ रहे हो न? मेरी इन कही सारी बातों को मिसयूज़ मत कर लेना।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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