प्रश्नकर्ता: सर मैं बंगाल से हूँ। बचपन से ही धीर-गंभीर मिजाज़ का रहा हूँ। अब मैं दिल्ली पढ़ने आया हूँ। यहाँ देख रहा हूँ कि सेंस ऑफ़ ह्यूमर (हास्यवृत्ति) को बहुत महत्व दिया जाता है। सेंस ऑफ ह्यूमर नहीं है तो आपके यार दोस्त आपको पसंद नहीं करते हैं। कई लोगों को तो मैंने कहते हुए सुना है कि सफ़ल होने के लिए भी सेंस ऑफ ह्यूमर ज़रूरी है। सर ये सेंस ऑफ ह्यूमर कैसे विकसित करूँ?
आचार्य प्रशांत: देखो, विनोदप्रियता बहुत अच्छी चीज़ है; सेंस ऑफ ह्यूमर का हिंदी नाम है ये, घबरा मत जाना। ये मेरी सेंस ऑफ ह्यूमर है।
तो, अच्छी बात है कि तुम जीवन की साधारण घटनाओं में हास्य देख सको, तुम्हें दिखाई पड़ सके कि ज़्यादातर जो हो रहा है हमारे भीतर और हमारे चारों ओर वो एक चुटकुले जैसा ही है। तुम्हें दिखाई पड़ सके कि ज़्यादातर चीज़े जिन्हें लोग बहुत गंभीरता से लेते हैं, युद्ध हो जाते हैं, गोलियाँ चल जाती हैं, लोग जान ले लेते हैं, जान दे देते हैं, वो सब मज़ाक भर हैं। ये सब तुमको दिख सके तो बहुत अच्छी बात है।
सेंस ऑफ ह्यूमर का असली अर्थ यही है कि दुनिया में जो कुछ चल रहा है और दुनिया से भी पहले अपने भीतर जो कुछ चल रहा है, तुम्हें उसमें जो व्यर्थता निहित है, जो विद्रूपता निहित है, जो अब्सर्डिटी हैं, जो उसमे आंतरिक विरोधाभास है, जो उसमें कॉन्ट्रडिक्शनसंस् हैं, वो तुमको दिखाई दें और उन बातों पर तुमको हँसी आ जाए।
हँसी समझते हो न? जहाँ कहीं सब-कुछ ठीक है वहाँ तुमको हँसी नहीं आ सकती। हँसी तुम्हें तभी आएगी जहाँ पर कुछ डिस्टोर्टेड हो, इंकंसिस्टेंट हो, विकृत हो, विरोधाभासी हो तभी तुमको हँसी आ सकती है। वरना तुमको हँसी नहीं आएगी।
और हमारी जैसी दुनिया है, हमारा जैसा मन है, हमारी जैसी ज़िंदगी है, उसमें तो पल-पल पर और पग-पग पर इंकंसिस्टैंसीज़ (असंगतता) भी हैं और डिस्टोर्शंस (विकृतियाँ) भी हैं। सब कुछ ही उल्टा-पुल्टा है, बिगड़ा, विकृत। और एक पल पर, एक जगह पर हमारे पास एक पैमाना होता है, दूसरे पल पर दूसरा पैमाना होता है। कहते हैं कुछ, और करते हम कुछ और हैं। एक जगह पर हम कुछ और होते हैं, दूसरी जगह पर हम कुछ और जाते हैं।
तो बहुत कुछ है जिस पर हँसा जा सकता है, ठीक है। ये हँसी अच्छी होती है। क्योंकि ये तुमको सच्चाई के करीब लेकर के आती है। इस हँसी में एक साहस निहित होता है। तुम कह रहे हो कि, "मुझमें ताक़त है कि मैं देख पाऊँ कि मेरे जीवन में कितना कुछ ऊटपटांग है। और वो सब कुछ जो उल्टा-पुल्टा है मेरी ही ज़िंदगी में है। मैं उसका सामना कर पा रहा हूँ। सामना ही नहीं कर पा रहा, बल्कि मैं साहस के साथ उस पर हँस पा रहा हूँ।" और जब तुम वो साहस दिखा पाते हो कि अपने ऊपर हँस लिए तब दुनिया में भी जो कुछ हो रहा है, उस पर तंज कसने की, व्यंग्य करने की तुमको छूट मिल जाती है, सिर्फ तब।
जो स्वयं पर नहीं हँस सकता,जो स्वयं को मज़ाक जैसा नहीं मान सकता वो दूसरों पर मज़ाक करे ये शोभा नहीं देता।
तो जो ये चीज़ है सेंस ऑफ ह्यूमर ये है तो अपने-आप में अच्छी ही। लेकिन हम लोग ऐसे हैं कि अच्छी-से-अच्छी चीज़ हमारे हाथ में पड़ जाए तो हम उसको खराब कर ही देते हैं। तो सेंस ऑफ ह्यूमर आजकल, ज़्यादा जैसी देखने को मिल रही है, वो खराब हो चुकी है। सही सेंस ऑफ ह्यूमर क्या है? अभी उस पर चर्चा कर ली है। सही सेंस ऑफ ह्यूमर है कि तुम सबसे पहले ये देख पाओ कि तुम्हारे भीतर क्या-क्या है जो बिगड़ा हुआ है, जो डरा हुआ है, जो टूटा हुआ है।
और तुम उस पर हँस पाओ, तुम उसे गंभीरता से ना लो। जिस चीज़ पर तुम हँस सकते हो उसे तुम बदल सकते हो। जिस चीज़ को तुमने गंभीरता से ले लिया, तुम उसकी पूजा करना शुरू कर देते हो, तुम उसकी रक्षा करना शुरू कर देते हो। तुम उसको कभी बदलोगे नहीं।
अब तुम्हारे भीतर, मान लो, ईर्ष्या बैठी हुई है, अंहकार बैठा हुआ है। तुम्हारे भीतर मोह बैठा है, अटैचमेंट । तुम इन चीज़ों पर अगर हँस सकते हो, तो फिर तुम इन चीज़ों को बदल भी सकते हो। लेकिन अगर तुम इनको गंभीरता से लेने लग गए। किसी ने आ करके तुम्हें इन बातों के बारे में कुछ बोल दिया कि, "भई, तुम्हारे अंदर न इग्नोरेंस बहुत है, अटैचमेंट बहुत है।" और ये बात तुमको बुरी लग गई, चोट खा गए तो फिर तुम बदलोगे कैसे?
तो सही जो सेंस ऑफ ह्यूमर होती है वो अपनी और दूसरों की ज़िंदगी बेहतर करने का एक तरीका बन जाती है। वो हर तरफ सुधार लाने का एक उपकरण बन जाती है। और जब मैं कह रहा हूँ सही सेंस ऑफ ह्यूमर अपनी और दूसरों की ज़िंदगी बेहतर करने का तरीका बनती है तो पहले किसकी ज़िंदगी? पहले अपनी ज़िंदगी।
पहला तंज स्वयं पर कसना है। पहला व्यंग्य स्वयं पर करना है। पहला चुटकुला खुद पर कहना है। फिर किसी और पर। जो ये कर लेगा वो बेहतर बेहतर और बेहतर होता जाएगा। इसलिए सेंस ऑफ ह्यूमर बढ़िया है।
अब सेंस ऑफ ह्यूमर ख़राब कैसे हो जाती है? सेंस ऑफ ह्यूमर तब ख़राब हो जाती है जब वो दूसरे को दबाने का तरीका बन जाती है।
तुम बंगाल से हो, दिल्ली आए हो। तुम कह रहे हो यहाँ पर सेंस ऑफ ह्यूमर को बहुत महत्व देते हैं। और आगे यार दोस्त भी चाहते हैं कि सेंस ऑफ ह्यूमर हो। और कहा जाता है कि सफ़ल होने के लिए भी सेंस ऑफ ह्यूमर ज़रूरी है। ये सब बातें अच्छी हैं। लेकिन उस तरह की सेंस ऑफ ह्यूमर से बचना है जो दूसरों को बस नीचा दिखाती है। उस तरह की सेंस ऑफ ह्यूमर से बचना जिसमें तुम दूसरे पर चुटकुला इसलिए कसते हो ताकि तुम दूसरे से श्रेष्ठ हो जाओ, ऊपर हो जाओ। दूसरे को किसी तरीके से डोमिनेट कर सको। दूसरे पर अपना वर्चस्व बना सको।
इसको दिल्ली की भाषा में कहते हैं दूसरे की ले लेना। और यही संस्कृति यहाँ खूब चलती है। ले लेना , दे देना कल्चर। कि हँसी के नाम पर ही तुमने दूसरे को बिलकुल मज़ाक बना डाला। और वो बेचारा बिलकुल सिकुड़ गया, दब गया तुम्हारे सामने। और किस बात पर? कोई ऐसी सी बात जिससे उसके जीवन में कोई सुधार नहीं आने वाला। कोई ऐसी सी बात जो उसके जीवन में बहुत महत्वपूर्ण भी नहीं है। उस चीज़ को ले करके तुम उसका बिलकुल मखौल बनाए हुए हो। और वो दबा जा रहा है तुम्हारे सामने। ये कोई सेंस ऑफ ह्यूमर नहीं है।
ये तो विकृति है, अश्लीलता है। जैसे दिल्ली के लड़के हैं, उनको बंगाल वाला कोई मिल गया। और वो कपड़े कैसे पहने है इस बात को ले करके उसको बिलकुल उड़ा डाला। और मज़े ले रहे हैं उसके और हा-हा, हू-हू चल रहा है। और चार लोग जुड़ गए हैं तो फिर तो चार लोग व्यर्थ ही किसी पर हँसना शुरू कर दें तो वो बेचारा डर जाता है, दब जाता है कि, "अरे इतने लोग मुझ पर हँस रहे हैं तो मुझमें ही कोई खोट होगा।"
ये 'ले ली' जो कल्चर है न, उससे बच कर रहो। ये सेंस ऑफ ह्यूमर नहीं है। ज़्यादातर जो रोस्टिंग होती है, कॉमेडी शोज़ होते हैं, जो स्टैंड-अप आर्टिस्ट अपने-आपको बोलते हैं, अस्सी प्रतिशत काम ये यही कर रहे होते हैं। ये ऐसी बातें बहुत कम बोल रहे होते हैं जिससे इनमें कुछ बेहतरी आएगी या समाज में कुछ सुधार होगा। ये ज़्यादातर बातें वो ही बोल रहें हैं कि कोई भी था, उसको कुछ बोल करके उसकी ले ली। इससे क्या मिल गया? इससे बस तुम्हारे अहंकार को बढ़ावा मिल गया। इससे बस सुनने वालों को एक सस्ता मज़ा आ गया। एक चीप प्लेज़र आ गया। कि देखो फलाने की ले ली गई।
इसमें कुछ रखा नहीं है। और अगर तुम्हारा इस तरह के लोगों से वास्ता पड़ता ही है जो फ़िज़ूल मज़ाक उड़ा रहे हैं, हा-हा-हा कर रहे हैं, तो ऐसों को उनके हाल पर छोड़ दो। वो नफरत के भी पात्र नहीं हैं, वो दया के पात्र हैं। वो दया के भी पात्र नहीं हैं इस सीमा के बाद। बस उनकी उपेक्षा की जा सकती है।
तो, जिस शब्द से शुरू करा था फिर उस पर वापस आऊँगा। विनोदप्रियता बहुत अच्छी बात है। लेकिन सबसे पहले अपने ऊपर हँसना सीखो। अपने आपको गंभीरता से मत लो। जो अपने ऊपर जितना हँस सकता है वो पाएगा कि उसका अहंकार उतना हल्का होता जा रहा है। वो पाएगा कि वो उतना ज़्यादा आज़ाद होता जा रहा है अपने-आपको बदल पाने के लिए।
जब तुम अपने-आप पर हँस सकते हो तब तुम आज़ाद हो गए अपने-आपको बदल लेने के लिए भी। क्योंकि तुम हँस दिए न उस चीज़ पर। जिस चीज़ पर तुम हँस दिए, वो चीज़ तुम्हारे लिए कैसी हो गई अब? छोटी हो गई। जो चीज़ छोटी हो गई अब उसको बदल सकते हो। जिस चीज़ को तुमने बहुत बड़ा बना रखा है, जिस चीज़ को लेकर तुम बहुत गंभीर हो गए हो, उस चीज़ को कभी तुम नहीं बदल पाओगे।
तो हँसना सीखो। बात-बात पर खुद पर हँसना सीखो। खुद पर रो तो सभी लेते हैं, खुद पर हँस भी लिया करो थोड़ा। ये असली सेंस ऑफ ह्यूमर है। और अगर कभी दूसरे का मज़ाक उड़ाना है, कभी दूसरे को ले करके ताना कसना है, व्यंग्य कसना है तो अपने-आपसे एक बार पहले पूछ लेना कि, "दूसरे की भलाई के लिए कर रहा हूँ? या दूसरे को सिर्फ नीचा दिखाने के लिए, उस पर चढ़ बैठने के लिए, उसको डोमिनेट करने के लिए कर रहा हूँ?" अगर उसकी भलाई के लिए उसका मज़ाक उड़ा रहे हो बहुत अच्छी बात है। दूसरे की भलाई के लिए चाहे तुम दूसरे का मज़ाक उड़ा दो, चाहे दूसरे को गाली भी दे दो, तो भी ठीक है; भलाई तुम्हारा अगर उद्देश्य है तो। नहीं तो दूसरे से बहुत मतलब रखो मत। हम खुद बहुत बड़े चुटकुले हैं, अपने पर ही हँस लिया करो, वो असली सेंस ऑफ ह्यूमर है।
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