प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मेरे दिमाग में चौबीस घंटे, कुछ-न-कुछ चलता रहता है, और या फिर मैं शिकायत कर रहा होता हूँ, ऐसा क्यों?
आचार्य प्रशांत: पहली बात तो ये, कि बधाई हो। सब कुछ वैसे ही हो रहा है, जैसा सदियों से होता आया है। जहाँ कहीं भी ढर्रे होते हैं, पैटर्न्स , तो वो तो अपना ही तयशुदा रास्ता पकड़ते हैं। तो उनको पहले से ही प्रेडिक्ट (अनुमान) कर देना, उनका अनुमान लगा लेना, आसान होता है।
तुम्हारे साथ भी करीब-करीब वही हो रहा है। जो घटना तुम्हारे साथ घट रही है वो बहुत पुरानी है। पहले तो तुम बिलकुल ही नहीं हो – बुद्ध से लेकर के आज तक जिसकी भी आँखें खुलनी शुरू हुई हैं, उसके साथ ठीक वही हुआ है, जो अभी तुम्हारे साथ हो रहा है। और अभी से लेकर समय के अंत तक भी, जिस किसी की आँखें खुलनी शुरू होंगी, उसको इसी रास्ते से गुज़रना होगा। विवरण अलग हो सकते हैं, स्पेसिफिक्स , डिटेल्स , वो अलग हो सकते हैं। देश अलग हो सकता है, समय अलग हो सकते हैं, परिस्थितियाँ अलग हो सकती हैं। पर अगर गौर से देखोगे तो तुम पाओगे कि सार वही है, थीम वही है। उनका भाव वही है| जो सेंट्रल आईडिया होता है न, किसी की भी कहानी का, वो वही है। तो तुम जो कह रहे हो, वो अच्छी खबर है, प्रत्याशित खबर है, एक्सपेक्टेड (अपेक्षित), और सुनी-सुनी सी खबर है। लेकिन बात वही होती है न कि गुलाब को आपने पहले कितनी भी बार सूँघा हो, जब आप अगली बार उसकी सुगंध लेते हो, तो ताज़ी ही लगती है।
तो ये खबर मैंने पहले बहुत बार सुनी है, लेकिन अभी तुम्हारे मुँह से सुन रहा हूँ, तो उसमें एक नई खुशबू है, एक नई ताज़गी है, अच्छा लग रहा है।
मन जैसे-जैसे, सच्चाई के संपर्क में आता है, उसके साथ दो घटनाएँ घटती हैं। पहली तो ये, कि डर छोड़ता जाता है, और दूसरी ये कि क्योंकि वो डर से ही पोषण पाता था, डर पर ही ज़िंदा रहता था, तो डर छोड़ने के कारण बेचैन होता जाता है। ये तो उसको दिखता है, कि डर छोड़ा है, तो हल्कापन है। ये तो उसको दिखता है, कि ज़िम्मेदारी छोड़ी है, भविष्य की चिंता छोड़ी है, तो एक हलकापन है। लेकिन आदत से मजबूर होता है। पुरानी आदत लगी होती है न। पुरानी आदत उससे बोलती है, कि, "तूने ज़िन्दगी में जो भी पाया, जितनी भी सफलता, जितनी भी सक्सेस पायी, वो हिंसा से पायी, डर से पायी, प्रतिस्पर्धा से पायी। तुलना से पायी, चिंता से पायी, योजना से पायी।" तो मन, तर्क ये देता है कि, "अगर तूने ये सारी चीज़ें छोड़ दीं, सफलता की चाह, योजना बनाना, तुलना करना, डर में जीना, लक्ष्य पाने के तनाव में रहना। अगर तूने ये सारी चीज़ें छोड़ दीं, तो तेरा होगा क्या? क्योंकि आज तक तो तू इन्हीं पर ज़िंदा रहा है, और आज तक तुझे जो मिला है, वो इन्हीं के चलते मिला है। तू इन्हें छोड़ देगा, तो तेरा होगा क्या?" ये मन का तर्क है।
अब ये दोनों बातें, परस्पर विरोधी होते हुए भी, एक साथ रह लेती हैं। कैसे रह लेती हैं, थोड़ा समझेंगे। विडंबना है, बड़ी विचित्र बात है, कि मन में ये दोनों स्थितियाँ, ये दोनों केंद्र, एक साथ रह लेते हैं। पहला ये कि समझ गया है, समझ भी गया है, और उसको भला सा भी प्रतीत हो रहा है। उसे अच्छा लग रहा है ये हल्कापन। उसे रास आ रहा है। वो और चाहता है। उसे और मिले तो और ग्रहण करेगा। और मिले क्या? जहाँ मिले, वहाँ जाना चाहेगा। तुम उड़ कर आ रहे हो।
तो एक तो ये बात कि जो मिल रहा है, वो सुन्दर है, और शुभ है, उसको दिख रहा है। और दूसरी ये बात कि जो मिल रहा है, उसको ले कर वो बेचैन भी है। ये दोनों बातें एक साथ चलती हैं। प्रश्न ये उठता है, कि ये दोनों विरोधी बातें एक साथ कैसे चल लेती हैं? अगर अच्छा लग रहा है, तो डर क्यों रहा है? अगर शुभ है, तो बेचैनी क्यों?
अब हम इस बात को ज़रा सम्बोधित करेंगे।
ये इसीलिए हो पा रहा है, क्योंकि मन के दो तल हैं। एक, लगा लो कि ज़मीनी तल है, या कह दो कि पहली मंज़िल है। और दूसरे को मान सकते हो कि दूसरी मंज़िल है। क्या ये नहीं हो सकता कि घर की पहली मंज़िल पर, उधमी, मनचले, शरारती लोग रहते हों। और दूसरी मंज़िल पर कोई शांत लेखक, या कोई प्रबुद्ध कवि रहता हो। ये हो सकता है न? घर एक ही है। घर एक ही है, लेकिन तलों का अंतर है। स्तरों का, डायमेंशन का अंतर है। एक घर में, एक तल पर, रह रहे हैं ऐसे लोग, जो उचटे हुए चित्त – जिनका चित्त बहका रहता है, चिंता में रहता है, इधर-उधर दौड़ता रहता है। और उसी घर में, उससे ऊपर के तल पर रह रहे हैं, ऐसे लोग, जो शांत हैं, गंभीर हैं, मौन हैं। ये हो सकता है न?
तो मन के साथ भी यही होता है। दो अलग-अलग तल हैं| एक तो तल है आत्मा का है, उस तल पर जो होता है, बस होता है। वहाँ तर्क, स्मृति और ये सब नहीं चलता। इसलिए तुम अभी कह रहे थे, कि तुम्हें जो समझ में आ गया, सो आ गया। तुमको याद नहीं है कि क्या समझ में आया।
जब हमारी बात शुरू हुई, तो तुमने इस तरीके से अपनी दशा बताई थी, कि जो आ गया समझ में वो आ गया। ये आत्मा की निशानी है, ये बोध की निशानी है। ये दूसरी मंज़िल की निशानी है| वहाँ जो होता है, वो पहले तल को छोड़ कर के, बाई-पास कर के होता है। स्मृति, पहले तल पर है। चित्त, पहले तल पर है। योजना, पहले तल पर है। अन्तःकरण पूरा, पहले तल पर है। वो जो अंदर की पूरी व्यवस्था है न, जो तुलना करती है, तर्क देती है, जो किसी निर्णय पर पहुँच कर के, अपने आप को संतुष्टि और सांत्वना देती है। वो पूरी व्यवस्था, पहले तल पर है।
दूसरे तल पर जो है, वो बड़ा अकारण है। वो पहले तल की पकड़ में नहीं आता। पहले तल पर तो बुद्धि बैठी है, स्मृति बैठी है, चंचलता बैठी है। बेक़रारी बैठी है, बेचैनी बैठी है। पहले तल की समझ में ही नहीं आता, कि दूसरे तल पर चल क्या रहा है। तुम खुद ही सोच लो, कि वास्तव में अगर कोई ऐसा घर हो जहाँ पहली मंज़िल पर, मनचले कुछ युवक रहते हों। वो शराब पीते हैं, वो इधर-उधर के कामों में मशगूल रहते हैं। चंचलता उनकी प्रकृति है। और दूसरे तल पर कोई धीर गंभीर कवि रहता हो। इन पहले तल वालों को कभी समझ में आएगा कि वो दूसरे तल वाला क्या है? ये जो पहले तल वाले हैं, ये इधर-उधर, सफलता की चाह में घूम रहे हैं। ये जब देख रहे हैं, बाहर संसार की ओर ही देख रहे हैं। इन्हें सारा आकर्षण बाहर का है, इनकी सारी प्रतिस्पर्धा बाहर से है। इन्हें जो मिलना है, इन्हें लगता है बाहर से मिलना है, इन्हें जो खोना है, इन्हें लगता है बाहर को खोना है।
और फिर, ये कभी-कभी उस कवि को देखते हैं, वो जो ऊपर बैठा हुआ है। और पाते हैं कि वो तो अपने में ही गुम रहता है। और अपने में कुछ ऐसा खोया है, कि उसने सब पा लिया है। चुप है, लेकिन बड़ा मुखर है, उसकी कविताएँ देखो। इधर-उधर कहीं भटकता नहीं, जहाँ बैठा है, वहीं आनंदित है। तो इन लोगों को कभी समझ में नहीं आता कि वो आनंदित हो कैसे सकता है? अब एक मज़ेदार बात सुनना। ये जितना उसको आनंदित देखते हैं, ये उतने ज़्यादा और बेचैन हो जाते हैं।
आप देखो मन में क्या चल रहा है। मन जितना ज़्यादा अपनी ही शान्ति को देखेगा वो उतना बेचैन और हो जायेगा, क्योंकि मन को जो चाहिए, वो कारणवश चाहिए। मन कहता है, शान्ति भी मिले तो कारण से मिले। मन कहता है, अच्छा कुछ हाँसिल किया, कहीं पहुँच गए, किसी को जीत लिया, कोई उपलब्धि है, शान्ति मिली, अब ठीक है, अब शान्ति का कारण दिखाई दे रहा है। और दूसरी मंज़िल पर जो शान्ति है, उसका कोई कारण नहीं है। मन बिलकुल हक्का बक्का रह जाता है, क्योंकि मन की हस्ती पर, मन के अस्तित्व पर ही सवाल लग जाता है। मन ने तो अपने होने को हमेशा यह कह कर जायज़ ठहराया था, कि, "शान्ति आएगी ही तब जब बुद्धि लगायी जाए। जब तर्क लगाए जाएँ, जब होशियारी लगाई जाए।" मन ने कहा था, "मेरी उपयोगिता ही यही है, कि मैं शान्ति ला कर के दूँगा, मैं सत्य ला कर के दूँगा। मैं प्रेम और चैन ला कर के दूँगा।" तो मन ने कहा था, "मेरा होना ज़रूरी है।" मन कहता है, "मैं विचार ही इसलिए करता हूँ, ताकि अंततः सत्य मिल जाए।" और वो ऊपर देखता है, दूसरी मंज़िल पर, वहाँ पाता है कि सत्य मिला हुआ है, बिना विचार के। वो पाता है, शान्ति मिली हुई है, बिना योजना के। वो पाता है, प्रेम मिला हुआ है बिना बुद्धि के, बिना तर्क के। तो ये उसके लिए, बहुत भयावह है।
मन जब अपने ही दूसरे तल को देखता है, तो बिलकुल परेशान हो जाता है, विक्षिप्त हो जाता है। उसके लिए मरण जैसी हालत आ जाती है। वास्तव में दूसरे तल को जितना देखेगा, उतना उसके लिए मौत खड़ी होगी।
यही हम सबके साथ होता है। हम अपने ही चैन से घबरा जाते हैं। दुनिया में दो तरह की तकलीफें होती हैं, एक तो वो जो चैन के ना मिलने पर होती हैं, और दूसरी वो जो चैन के मिलने पर होती हैं। और इस दूसरी वाली को कमतर मत समझ लेना। ये जो दूसरी तकलीफ है, इसमें भी बहुत ताक़त है। इसमें इतनी ताक़त है, कि ये चैन को छीन सकती है। मिले हुए चैन को छीन सकती है। ऐसा बहुतों के साथ होता है, हो सकता है। दो अलग-अलग तल हैं। ये जो नीचे मनचले बैठे हैं न, ये इतना ईर्ष्या में उत्तेजित हो सकते हैं, कुपित हो सकते हैं, कि ये ऊपर जा कर के कवि को मारपीट कर भगा सकते हैं। कोई दिन ऐसा हो जब ये अपनी ही दुर्गंध में सड़ रहे हों, कोई दिन ऐसा हो जिस दिन ये आपस में ही मारपीट कर रहे हों, तनाव में जी रहे हों, नर्क में जी रहे हों; और तभी इन्हें अचानक ऊपर से किसी भीनी कविता की सुगंध आये। ये इतना चिढ़ जाएँगे, ये ईर्ष्या में इतना जल जाएँगे कि ये ऊपर जा कर के, उस कवि को मारपीट कर भगा भी सकते हैं।
तुमने वो बंदर और चिड़िया वाली कहानी सुनी है न? बंदर बारिश में भीग रहा था, चिड़िया अपने घोंसले में सुरक्षित थी। बंदर कभी इधर भागे, कभी उधर भागे। बारिश में भीग रहा है, घर तो उसके पास है नहीं। फिर उसने चिड़िया को देखा, चिड़िया चैन से अपने घोंसले में आराम कर रही है। उस पर बारिश लग ही नहीं रही। और चिड़िया ने इतना और बोल दिया, कि बंदर भाई, अगर तुमने भी अपने लिए, कोई छत, कोई नीड़, जुटा लिया होता, तो यूँ ना भीग रहे होते। बंदर ने क्या किया? बंदर ने घोंसला तोड़-फोड़ कर, नोच कर फेंक दिया। तो ये जो पहली मंज़िल के लोग हैं, तुम इनकी ताक़त को कम मत आँकना। मैंने बहुत किस्से देखे हैं, जहाँ योग होते-होते भ्रष्ट हो गया।
बुझता हुआ जो दिया होता है, बड़ी जोर से फड़फड़ाता है। इसी तरीके से माया पर भी जब आखिरी घात हो रहा होता है, जब उसका गला घुट रहा होता है, तब वो आपातकाल में, इमरजेंसी में, कुछ भी कर जाती है। वास्तव में, माया सबसे कड़ा प्रहार तभी करती है, जब वो सत्य के सम्पर्क में आ रही होती है। क्योंकि उसको पता होता है कि अब मरे। उसको पता होता है, कि अभी विद्रोह नहीं किया, अगर अभी छूट कर नहीं भागे, तो हमेशा के लिए फँस जाएँगे। या तो अभी भाग लो, अभी विद्रोह कर लो, नहीं तो गए।
पहली मंज़िल और दूसरी मंज़िल सदा साथ-साथ नहीं चल सकते। पहली मंज़िल वाले जान जाते हैं कि अगर दूसरी मंज़िल पर जो हो रहा है, वो वास्तविक है, तो उसका होना प्रमाण है इस बात का कि हमारा होना झूठा है। अगर कवि जैसा जीवन जिया जा सकता है, तो हम जैसा जीवन जी रहे हैं, उसकी निरर्थकता साबित हो जाती है। ये बात बहुत चिढ़ाती है। ये बात बहुत अपमानित करती है। और अहंकार अपमान नहीं सह सकता। आपके सामने कोई ऐसा आ जाए जो आपसे कहीं कहीं कहीं कहीं, श्रेष्ठ हो। आप जिन बातों को मानते हों, उनमें से किसी को ना मानता हो, आप जिन ढर्रों पर चलते हों, उन में से किसी पर भी ना चलता हो, और उसके बाद भी बहुत चैन में हों, सुकून में हो, शान्ति में हो, आपको बहुत बुरा लगेगा। लाज आ जाएगी अपने होने पर। आप ईर्ष्यावश ये भी कर सकते हो कि उसे गोली मार दो। मन शान्ति के साथ यही करता है।
पहली मंज़िल, दूसरी मंज़िल के साथ ये कर सकती है, सतर्क रहना।