सत्य की तलाश में प्रयास साधन या बाधा? || योगवासिष्ठ सार पर (2018)

Acharya Prashant

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सत्य की तलाश में प्रयास साधन या बाधा? || योगवासिष्ठ सार पर (2018)

प्रश्नकर्ता: अद्वैत ज्ञान में अक्सर बताया जाता है कि प्रयास, प्रयत्न, ये सब सत्य प्राप्ति में बाधक हैं। लेकिन योगवासिष्ठ के अध्याय 'मन का विलीन' में प्रयास पर ख़ास ज़ोर दिया गया है। तो प्रयास करें कि न करें? प्रयास लाभप्रद है या हानिप्रद? आध्यात्मिक खोज में जब सत्य लक्ष्य हो तो प्रयास साधन है कि बाधा है?

आचार्य प्रशांत: समझते हैं। प्रयास आप किसको कहते हैं? बिलकुल ज़मीन पर आकर बात करते हैं। आपने रातभर जागकर ग्रन्थ पढ़ा, स्वाध्याय किया, चिंतन-मनन किया, तो आप कहेंगे, “मैंने रातभर प्रयास किया।” ये हाथ बढ़ा और उसने इन पन्नों को उठाया, आप कहेंगे, “आपने प्रयास किया।” प्रयास यही है न? कर्म। कुछ कर्म होता है तो आप नाम लेते हैं प्रयास का। आप कहते हैं, “प्रयास हुआ।”

कर्म मानसिक भी हो सकता है, उसको भी आप प्रयास ही मान सकते हैं। कोई बैठ करके घोर गंभीर चिंतन किए जा रहा है तो उसको भी आप यही कहेंगे कि ये व्यक्ति समझने का प्रयास कर रहा है। कोई सोच रहा है, सोच में डूबा है तो आप कहेंगे प्रयास कर रहा है।

तो ये हाथ बढ़े किधर को, तो प्रयास हुआ। कर्म प्रयास का द्योतक भी है और प्रमाण भी है। तो आप पूछ रहे हैं, “कर्म अच्छा है कि बुरा सत्य की प्राप्ति के लिए?” ज़ाहिर सी बात है, न अच्छा है, न बुरा है।

कर्म कहाँ से आ रहा है? काहे को हाथ बढ़ाया, भाई? सारी बात तो इतनी से ही है न? प्रश्न ही ज़रा निराधार हो जाता है कि कोई पूछे, “सत्य की प्राप्ति के लिए हाथ बढ़ाना उचित है कि अनुचित?” अब हाथ बढ़ाना उचित है या अनुचित, मैं क्या बताऊँ? किसका हाथ है? क्यों बढ़ा, किधर को बढ़ा? किस भावना से बढ़ा, क्या चाहते हुए बढ़ा? सब कुछ इस पर निर्भर करता है न? मात्र कर्म कह देना तो बड़ी निरपेक्ष सी बात हो गई। कोई क्या बोले?

एक दूसरे कर्म का उदाहरण लेते हैं। मैं किसी को कहता हूँ, "आ।” अब ये अच्छा किया कि बुरा किया? क्या पता? किस केंद्र से बुलाया? आहा, आ गई न बात पकड़ में? किस केंद्र से बुलाया? किस भावना से ओतप्रोत है तुम्हारा शब्द? काहे खींचते हो उसे अपनी ओर, या क्यों जाना है तुम्हें उसकी ओर, असली बात यह है न? कभी “आ” कहना शुरू हो सकता, कभी “जा” कहना शुरू हो सकता है, लेकिन सारी बात तो इसकी है कि कहने वाले की आवाज़ कहाँ से रही है।

तो प्रयास न बाधा है, न साधन है। सब निर्भर इस पर करता है कि प्रयास कहाँ से उठा? प्रयास किसने किया? अपने-आप में प्रयास कुछ नहीं है। मोटे तौर पर देखें तो प्रयास करने वाले दो होते हैं हमेशा।

आप किसी से यदि कभी चर्चा में या बहस में संलग्न हुए हों तो आप जानते होंगे कि बातचीत के दो केंद्र होते हैं। आप बहस कर रहे हैं किसी से, एक प्रयास आपका ये हो सकता है कि उसको दबाना है। प्रयास इसमें खूब लगता है, लगता है कि नहीं?

आपने किसी से कभी विवाद किया हो और विवाद के पीछे भावना यह हो कि सामने वाले पर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करनी है, अपना हाथ ऊपर रखना है, इसको साबित कर देना है कि, 'तू अज्ञानी है, तू गलत है'। तो इसमें भी दम खूब लगता है, बड़ी कोशिश, बड़ा प्रयास। ये किस केंद्र से आप कर रहे हो प्रयास? उस केंद्र से जो अपने-आप को बचाना चाहता है। इस प्रयत्नकर्ता का उद्देश्य है, उसके जो प्राण हैं, वो इसी बात में अटके हैं कि खूब कोशिश करो ताकि तुम बने रहो, बचे रहो।

और कोशिश उसे क्यों करनी पड़ रही है? क्योंकि उसके लिए बचे रहना आसान है नहीं, इसीलिए तो कोशिश करनी पड़ रही है। आसमान को हवाओं के खिलाफ बचे रहने के लिए कोशिश करनी पड़ती है क्या? वो तो बहती रहती है, बड़े-बड़े तूफ़ान आते हैं, आसमान को क्या कोशिश करनी है? आसमान को किसी ने हिलते-डुलते, ज़ोर आज़माइश करते देखा है? कोशिश कौन करता है? जिसे खतरा होता है। काहे का खतरा? मिट जाने का, नष्ट हो जाने का, नुकसान हो जाने का।

तो आप जब किसी को बहस में परास्त करना चाहते हो तो भीतर से तो होते आप असुरक्षित ही हो; डरे हो इसलिए आक्रामक हो रहे हो। तो एक प्रयास यह है जो डर से उठता है, जो अपनी गलती पर पर्दा डालने की नीयत से उठता है, जो गलत होकर भी सही का स्थान लेने के इरादे से उठता है।

आप एक ऐसी कुर्सी पर बैठे हो जहाँ आपको बैठना नहीं चाहिए। हवाएँ आपको धक्का दे रही हैं, लहरें आपको थपेड़े मार रही हैं; पूरा अस्तित्व लगा हुआ है आपको उस कुर्सी से उठा देने में। छोटे-छोटे, नन्हें जानवर आ करके, कोई आपका पाँव ज़रा कुतर गया, कोई नन्हा मृग आया, वो आपको सींगें मार रहा है, पाँव के नीचे जो घास का तिनका है, वो भी चुभ रहा है, जैसे सब आपको एक ही सन्देश देना चाहते हों: उठो। कुर्सी भी आपको सन्देश देना चाहती है, वो डगमग-डगमग होती है, वो भी आमादा है कि आपको गिरा ही डाले। अब आपको बड़ा प्रयास लगेगा बैठे रहने के लिए।

तो जीवन के विरुद्ध जो हमारा श्रम लगता है, वह अधिकांशतः ऐसा ही प्रयास है। सब कुछ हमें सिखाना चाहता है, सब कुछ हमें इशारे दे रहा है; सब कुछ हमें हमारी गलत जगह से उठाकर किसी अन्य जगह ले जाना चाहता है, पर हम अड़ियल टट्टू! हम कहते हैं, “हम जहाँ हैं, वहाँ बैठ गए तो बैठ गए।”—इसी का नाम अहंकार है। गलत चीज़ पकड़ ली भले ही, पर पकड़ ली न। अब उसे छोड़े तो साबित हो जाएगा कि चीज़ गलत थी, और चीज़ यदि गलत थी तो पकड़ने वाला भी गलत सिद्ध हो गया, तो छोड़ कैसे दें।

जैसे कोई ऑरेंज आइस क्रीम लेने जाए, लाल-पीले रंग की होती है, और उसकी जगह वहाँ तपता लोहा रखा हो लाल-पीले रंग का और उसे उठा ले। अब उसे बड़ा प्रयास करना पड़ेगा उसे पाँच सेकंड भी पकड़े रहने में। सोचो, कितना प्रयास लगेगा। बड़ी भारी कीमत चुकाओगे न? पर पुरुषार्थी कहलाओगे, “ये देखो, ये अडिग, ये अचल, ये अटल-अचल। अपने संकल्प पर दृढ़। जिसको एक बार पकड़ लिया, जिससे लगन लग गई, उसे नहीं छोड़ते ये।” “एक बार तुम्हारा हाथ पकड़ लिया, प्रिये! अब छोड़ेंगे नहीं, भले ही तुम वो हो न जो हम तुम्हें समझ बैठे थे।” तो एक तो इस कोटि का प्रयास होता है।

एक दूसरा प्रयास भी होता है, जब आप किसी के साथ बहस में हैं और वो साबित किए दे रहा है कि चूक में हैं आप। उसकी बातों में सच्चाई की सुगंध है, उसकी बातों में कुछ ऐसा है कि आप बहुत समय तक इंकार कर नहीं सकते। दिल आपका पसीजता जा रहा है। आप चाह रहे हो कि आप उसकी बात मान लो, आपने मान ली है। उसकी आँखों में आँख डालकर देखते हो, आप उसके हो जाते हो। लेकिन जहाँ आँख से आँख हटती हैं, तहाँ शरीर में दिल के अलावा और चीज़ें भी तो हैं।

दिल तो मान गया है पर इधर भेजा है, इधर नाक है। नाक बड़ी बात है, भाई, नाक नहीं कटनी चाहिए। और भेजा है, ये कहता है, “सिर नहीं झुकना चाहिए। दिल मान गया तो क्या हुआ, हम भी हैं, हम भी तो हैं, हमारी कोई गैरत है कि नहीं?” तो अब ये विद्रोह करते हैं। अब भी तुम्हें प्रयास करना पड़ेगा, अब तुम्हे प्रयास करना पड़ेगा इनके विद्रोह के शमन के लिए। ये बिलकुल दूसरे तरह का प्रयास है।

पहले प्रयास में तुम दबाना चाह रहे थे प्रतिपक्षी को, इस प्रयास में तुम दबाना चाह रहे हो स्वयं को। ये बिलकुल दूसरी कोटि का प्रयास है। प्रयास तो दोनों अवस्थाओं में हो ही रहा है।

तो आपने कहा कि अद्वैत ज्ञान में प्रयास की निरर्थकता पर ज़ोर दिया जाता है। कौन से प्रयास की निरर्थकता पर? जो पहली कोटि का प्रयास है। भले ही उस प्रयास में तुम्हारा दावा ये हो कि तुम प्रयत्नशील हो सत्य को पाने के लिए, लेकिन तुम सत्य को पा बस इसीलिए रहे हो कि तुम्हारी कुर्सी बची रहे। मूल भावना क्या है तुम्हारी? कुर्सी बचानी है।

किसी ने बता दिया कि सत्य ले आओगे तो सत्य कुर्सी का पाया बढ़िया बन जाता है, उसको फिट कर लेना। तुम कहोगे, “चलो सत्य ले आते हैं।” अब मिल गया सत्य, हाथ में सत्य है तुम्हारे, मान लो तीन सौ ग्राम का। तुम क्या कर रहे हो सत्य का? पहले तुम उसे अपने अनुरूप ढालोगे, आकर दोगे। तो तुम निराकार को साकार बनाओगे पहले, तुम उसके बारे में कहानियाँ गढ़ोगे। तुम उसे कोई व्यक्ति बना दोगे, तुम उसे कोई धर्म बना दोगे। तुम कुछ उसका करोगे, और फ़िर जब वो ऐसा हो जाएगा कि तुम्हारे अहंकार कि कुर्सी को सहारा दे सके तो तुम उसे बाकायदा जोड़ दोगे। अब ये यहाँ पर बिलकुल सही बैठ गया। इसलिए प्रयास बाधा है। तुम्हारे प्रयत्नों से तुमने बाहर कुछ भी हासिल किया तो अपने लिए हासिल किया।

बाहर की तरफ जो प्रयास किया जाता है और जो प्रयास अंतर्गामी होता है, इन दोनों में एक और मूलभूत अंतर है, समझिएगा। बाहर की ओर जो प्रयास होगा, वो बड़ा स्थूल होगा, प्रकट होगा, दिखाई देगा—सिकंदर दुनिया जीतने निकला है। आपने कटोरा उठा के किसी के सिर पर मारा, छन-छन-छन-छन-छन-छन। जो कुछ होगा इन्द्रियगत होगा, आँखें देख रही हैं कटोरे को भिड़ते हुए, उछलते हुए, कानों में छनछनाहट पड़ रही है।

भीतर की ओर जो प्रयास किया जाता है, उसमें ऊर्जा का व्यय नहीं होता। वहाँ श्रम नहीं, सूक्ष्म चेतना चाहिए। वहाँ ध्यान चाहिए, वहाँ दृष्टाभाव और फ़िर दृष्टाभाव से बढ़कर साक्षीभाव चाहिए। बाहर जब प्रयास किया जाता है तो अंधापन चाहिए; अपने आप को भूलना पड़ता है। अपनी ओर क्या हो जाना पड़ता है? अंधा।

जब वास्तविक प्रयास किया जाता है, अपनी ओर प्रयास किया जाता है तो आँखें खोलनी पड़ती हैं। अपना ही साक्षी बनना पड़ता हैं कि ये चल क्या रहा है? कौन है जो मुझे सत्य के सामने जाने से रोकता है? कौन है जो मुझे प्रकट सच्चाई से एक होने से रोकता है? वहाँ शांत और मूक हो करके बस देखा जाता है। ये आतंरिक प्रयास है, ये इतना महीन प्रयास है, इतना महीन प्रयास है कि एक प्रकार का निष्प्रयास है क्योंकि इसमें ऊर्जा तो व्यय हो ही नहीं रही।

आपने जब कटोरा उठाकर मारा अपने प्रतिद्वंदी को तो ऊर्जा लगी कि नहीं लगी? क्योंकि वहाँ पर वस्तु हिली, पदार्थ हिला। पदार्थ हिला माने ऊर्जा लगी, गतिज ऊर्जा। और भीतर जो होता है, वो अलौकिक है, उसमे पदार्थ संलग्न नहीं है, वो अभौतिक है। उसमे जितने भूत पदार्थ होते हैं, ये हैं ही नहीं। वहाँ तो निराकार दृष्टा है जो बिना पलक झपकाए देख रहा है। पलक झपकाने भर की भी उसको ऊर्जा नहीं चाहिए।

तो भीतर जो होता है, बड़ा सूक्ष्म होता है। है वो प्रयास, पर उसमें ऊर्जा नहीं लगती, ध्यान लगता है। इसलिए फ़िर समझाने वालों ने कहा कि प्रयास की ज़रूरत ही नहीं है क्योंकि असली प्रयास किधर को किया जाए? भीतर को किया जाए। और भीतर वाले प्रयास में ऊर्जा नहीं चाहिए; शक्ति नहीं चाहिए, समर्पण चाहिए, आत्मबल चाहिए—अंतर है दोनों में।

भुजाओं की शक्ति काम नहीं आएगी भीतर; आत्मा का बल काम आता है। और आत्मा का जो बल होता है, वो इतना कमज़ोर होता है, इतना कमज़ोर, इतना क्षीण कि एक घास का तिनका न हिला पाए। पदार्थ की दुनिया में आत्मा का बल घास का तिनका न हिला पाए। वहाँ तो आपकी इच्छाशक्ति ही काम आती है। वहाँ तो आपका मन जब संकल्प करेगा कि मुझे पत्थर उठाना है तो उठाएगा, आत्मा का बल वहाँ काम नहीं आता।

पर आत्मा का बल इतना ज़बरदस्त होता है कि एक पहलवान को अंदर से बदलकर रख दे, कि गाड़ी वहीं रह गई, चालक बदल गया। बाहर-बाहर से लगेगा कुछ नहीं बदला, भीतर-भीतर सब कुछ बदल गया। गाड़ी वहीं है बाहर-बाहर से स्थूल, चालक बदल गया। शरीर वैसा ही दिख रहा है, भीतर जो पंछी था, वो बदल गया—कौवा हंसा हो गया। पाँव वही है, चाल बदल गई; कंठ वही है, बात बदल गई; आँखें वही है, दृष्टि बदल गई—ये आतंरिक प्रयास से होता है। और उसके लिए पहलवान नहीं चाहिए, वहाँ दंड-बैठक लगाकर नहीं होगा। वहाँ समर्पण से होता है—अपना ही समर्पण करना होता है।

आतंरिक प्रयास में समर्पण से होता है, इसका क्या अर्थ है, ये भी समझ लीजिए आगे के लिए ताकि कभी कोई दुविधा ही न रहे। ये जो दिल के अलावा बाकी सब हैं—होंठ, और आँख, और नाक और भेजा—ये जो विद्रोह में उठते हैं दिल के खिलाफ, ये क्या कहकर विद्रोह करते हैं?

दिल आपका तो आपने दे दिया गुरु को। और वो आपके सामने होता है तो सब बढ़िया-बढ़िया होता है कि नहीं होता है? लेकिन और भी तो चीज़ें हैं न? मूलाधार में चीज़ें बैठी हैं, वो उठ खड़ी होती हैं कि “उधर खतरा है, भाई। आदिपुरुष ही हो जाना है या पौरुष भी बचाकर रखना है?”

सब बोलते हैं। कंधे क्या बोलते हैं? ‘ज़िम्मेदारियाँ निभानी हैं, हमारे ऊपर बड़ी ज़िम्मेदारियाँ हैं।’ दिल बेचारा इधर से मिचमिचाता ही रह जाता है। जैसे रहीम कहते हैं न कि जब पावस ऋतु आती है तो कोयल चुप हो जाती है, कि अब तो मेंढक ही टर्राएँगे। तो अब कंधे भी शोर मचा रहे हैं कि ज़िम्मेदारी निभानी है, नाक कह रही है: ‘अभिमान नहीं जाना चाहिए’, होंठ कह रहे हैं: ‘वचन दे रखा है किसी को, उसका पालन करना है’, और भेजा तो पता नहीं क्या-क्या कह रहा है। कान कह रहे हैं: ‘जो कुछ आज तक सुना क्या वो झूठ था?’ और मूलाधार जो कह रहा है सो कह ही रहा है। पेट क्या कह रहा है? ‘भूखा मारोगे क्या, भाई? दिल पर ही चलना है? हमारा भी तो कुछ ख्याल करो।’

ये सब क्या कहकर विद्रोह कर रहे हैं, मैंने पूछा?

हम जानना चाहते थे कि आतंरिक प्रयास में समर्पण की क्या भूमिका है। तो मैं पूछ रहा हूँ, कंधे क्या बोलकर आपके खिलाफ विद्रोह करते हैं? आँखें क्या बोलती हैं? आँखें तो बोलती हैं: हमने भी दुनिया देखी है। दिल की ही सुनोगे या कुछ हमारी भी सुनोगे? पर ये जो भी तर्क दे लें, उन तर्कों के मूल में क्या बात है?

एक श्रोता: जैसा चल रहा है, चलता रहे।

दूसरे श्रोता: बिना करे ही तृप्ति मिल जाए।

तीसरे श्रोता: अपने आप को बचाए रखना चाहते हैं।

आचार्य: और गहरे जाइए। दिल के खिलाफ जो भी आवाज़ उठती है, वो क्या बोलती है? बोलती है: ‘मैं तुम हूँ। बेटा, मुझे नहीं बचाया तो तुमने अपने आप को नहीं बचाया। तुम मुझे खतरे में नहीं डाल रहे है, तुम अपने आप को खतरे में डाल रहे हो। मैं तुम हूँ।’

कंधा यह थोड़ी बोलता है कि कंधे की ज़िम्मेदारी है। कंधा क्या बोलता है, कौन ज़िम्मेदारी उठा रहा है? तुम्हारी है। आँखें ये थोड़ी बोलती हैं कि हमने कुछ देखा। आँखें क्या बोलती हैं कि किसका अनुभव था, किसने ज़माना देखा है? तुमने। इसलिए समर्पण ज़रूरी हो जाता है। ये सब ‘मैं’ बनकर बात करते हैं। ये तुम्हारे करीबी बनकर बात करते हैं, ये तुम्हारे हितैषी बनकर बात करते हैं। और ये जितना तुम्हारे हितैषी बनकर बात करेंगे, जितना तुम्हारे निकट आएँगे, उतना तादात्मय होता जाएगा। "वह मैं हूँ" – तद आत्म।

समर्पण का अर्थ होता है, अपने शरीर को कहना कि तुम्हें दिया। मैं ‘तुम’ हूँ ही नहीं। मैं तो ह्रदय में हूँ। भाई, तेरी बात ठीक होगी पर तेरी बात तेरी बात है, मेरी नहीं है। मुझे दूर रखो, मेरा कोई लेना-देना नहीं।

इसलिए आतंरिक प्रयास में शक्ति नहीं, संकल्प नहीं, सत्य और समर्पण चाहिए। एक के अलावा बाकी जिनसे-जिनसे रिश्ता बैठा रखा था, उन सारे रिश्तों को समर्पित किया। एक ही काफी है, बाकियों की अपनी जगह है—हम उनका आदर करते हैं, पर कुछ मामले ऐसे होते हैं जिनमे हम आँख, भेजा, कान, नाक और कंधे की नहीं सुनेंगे।

कुछ जगहों पर भीड़ लेकर नहीं जाते। भीड़ की भी अपनी अहमियत है। तमाम लोग हैं, किसी से कोई नाता, किसी से कोई नाता। पर अंतःपुर में, गर्भगृह में भीड़ लेकर नहीं जाते। वहाँ तो बस इसके (ह्रदय) के साथ जाएँगे जिससे प्यार है, बाकियों को पीछे छोड़ जाएँगे—ये समर्पण है। “भाई लोगों, तुम्हारे लिए अब कपाट बंद होते हैं। तुम्हें छोड़ा।” ये समर्पण है।

तुम अपनी-अपनी जगह पर जाओ, तुमसे हमारी कोई दुश्मनी नहीं है। पर तुम्हारी सीमा है, तुम्हारी सीमा है; क्योंकि तुमने ही अपने-आप को सीमित के रूप में परिभाषित किया है। अब अब जा रहे हैं असीम के पास। तो तुम्हारी जहाँ सीमा है, वहाँ तुम रुक जाओ, उसके आगे मत आना। ये समर्पण है।

हम नहीं कह रहे हैं आज तक आँखों ने जो देखा, वो झूठ था; हम बस ये कह रहे हैं कि सीमित था। हम नहीं कह रहे कि मन आज तक जो अनुभव लिए और उनका जो निष्पादन किया और उनसे जो निष्कर्ष निकाले वो झूठ थे; हम बस ये कह रहे हैं कि सीमित थे। हम नहीं कह रहे कि हमने जो बातें आज बोलीं उससे हम सबको बेवकूफ ही बना रहे थे और झूठ प्रचारित कर रहे थे; हम बस ये कह रहे हैं कि इंसान जो कुछ कह सकता है, वो सीमित है। अभी हम किसके साथ जा रहे हैं? असीम के साथ। तो भाई लोगों, तुम आराम करो अपनी-अपनी जगह। हम जहाँ जा रहे हैं, वहाँ तो तुम वैसे भी जा सकते नहीं, तो तुम काहे तकलीफ लेते हो?

आँखें अदृश्य को देखने की कोशिश करें, फालतू नेत्र चिकित्सक के पास जाना पड़ेगा और कुछ नहीं। कान अनकहे को सुनने की कोशिश करें तो पागल और घोषित हो जाओगे। “इसके कान बजते हैं। जो कहा नहीं गया, वो ये सुन रहा है।” दिमाग अचिन्त्य पर चिंतन करे तो? बावरा नहीं हो जाएगा, और क्या करेगा? तो उसको बोलो, “तुम रुको, इसके आगे मत आना।” ये समर्पण है।

तो प्रयास करना भी है और नहीं भी। कौन सा नहीं करना, पहले ही अच्छे से समझ लीजिए। अपने को बचाने का प्रयास नहीं करना है। वो हम खूब करते हैं, बड़ी तरकीबें लगा-लगाकर करते हैं। सबसे पहले उस प्रयास को श्रद्धांजलि, “तुम चलो, भाई।” किसी से यदि बहस में हैं, किसी से बात में हैं, तो उसको दबाना नहीं है, सत्य को पाना है। ये दो बड़ी अलग दृष्टियाँ हैं।

हम तेरे साथ बात में इसलिए संलग्न हुए हैं ताकि सत्य को पा सकें। हो सकता है कहीं पर पूर्वाग्रहग्रस्त हों, हो सकता है कहीं पर कुछ बातें हमें दिख न रही हों। तुझसे बात करेंगे, नए-नए पक्ष उभरेंगे तो अपने ही अंधेपन को देखना ज़्यादा आसान हो जाएगा इसलिए तुझसे बात कर रहे हैं। न ये महत्वपूर्ण है कि तू जीता, न ये महत्वपूर्ण है कि मैं जीता; महत्वपूर्ण ये है कि साथ बैठकर दोनों ने सच्चाई का अनुसन्धान किया कि नहीं किया। जब बातचीत ख़त्म हो, जब विचार-विमर्श ख़त्म हो तो उसके बाद दोनों की चेतना और ऊँचे स्तर पर पहुँची कि नहीं पहुँची। दबाने वाला प्रयास नहीं करना है। झूठ को बचाने वाला प्रयास, कुर्सी को, गद्दी को बचाने वाला प्रयास नहीं करना है।

कौन सा प्रयास करना है? जो सूक्ष्म है, जो आतंरिक है, जो अपनी ही वृत्तियों के खिलाफ है, जो अपनी ही काया से उठती तमाम आवाज़ों के खिलाफ है।

पर उन आवाज़ों के खिलाफ आप सशस्त्र दमन मत करने लग जाइएगा। हमने क्या कहा? उन आवाज़ों से लड़ नहीं जाना है, उन आवाज़ों का दृष्टा होना है, साक्षी होना है। इतना काफी होता है। भीतर की दिशा में आप लड़े कि हारे? लड़ने का अर्थ समझते हो क्या हुआ? लड़ने का अर्थ ये हुआ कि हम तेरे ही तल पर आ गए। और साक्षी होने का अर्थ होता है कि तू कुछ भी करता रह, हम पर असर नहीं पड़ता। ये असर न पड़ने की बात ही साक्षित्व का सार है। दृश्य में कुछ भी चल रहा है, साक्षी पर असर नहीं पड़ रहा। वो सिर्फ साक्षी है।

तो भीतर की दिशा में प्रयास नहीं करना होता है, हालाँकि हो कुछ जाता है। कुछ होता है जो दब जाता है, कुछ होता है जिससे आप पिंड छुड़ा लेते हैं, कुछ होता है जिसका समर्पण हो जाता है और आप उससे आगे निकल जाते हैं। पर वो उस अर्थ में प्रयास नहीं है जिस अर्थ में आमतौर पर प्रयास करने की बात की जाती है, कि पहाड़ पर चढ़ जाओ, या इतने ग्रन्थ पढ़ लो, या तीर्थ कर आओ, या उछल-कूद कर लो या बोझ उठा लो।

साक्षित्व प्रयासों में प्रयास है पर फ़िर भी प्रयास नहीं है। कैसे? उसका परिणाम देखेंगे तो वो ऐसा कुछ कर देता है जो बड़े-से-बड़ा प्रयास नहीं कर पाता, पर उसकी प्रक्रिया देखेंगे तो उसमें कोई प्रयास नहीं किया गया है, इसलिए दोनों बातें कह रहा हूँ।

वो प्रयासों में यदि परिणाम देखो, परिणाम क्या निकलता है साक्षित्व का? आदमी बदल गया भीतर से। अरे बाप रे! जो काम कोशिश कर-करके नहीं होता, या प्रबलतम कोशिश के बाद होता शायद कभी, उसका भी पक्का नहीं, वो काम हो गया। तो इसलिए कह रहा हूँ कि साक्षित्व महाप्रयास है परिणाम के तौर पर। लेकिन प्रक्रिया के तौर पर उसमें घास का तिनका भी नहीं हिलता। बल्कि उसमें जो कुछ हिल रहा होता है वो अकंप हो जाता है। इसी को कहते हैं कि सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी। कुछ किया भी नहीं और सब हो गया!

साक्षित्व एक तल पर कहें तो अकर्ता भाव है, दूसरे तल पर महाकर्ता भाव है। कुछ किया भी नहीं और परम परिवर्तन आ गया। परम परिवर्तन आता ही तभी है जब तुम करने के इरादों से मुक्त हो जाते हो। फ़िर परम परिवर्तन आ जाता है। हमने बस जाना। आज तक अंधे थे, आज बस जाना। आँख खोल दी। आसान था आँख खोलना। डरते थे इसलिए खोलते नहीं थे। क्या डरते थे? जानते थे कि आँखें खोलेंगे तो दिखेगा क्या। जानते तो हम सभी कुछ हैं इसी मारे आँख नहीं खोलते थे। आज खोल ही दी। थोड़े बेबाक हुए, बिंदास आँख खोल दी। ये साक्षित्व है।

अब इतना बोलने के बाद प्रयास करना है कि नहीं करना है, आप जानिए। मैंने आपको काफी उलझा दिया है।

आदमी कड़ी-से-कड़ी मेहनत करने के लिए राज़ी हो जाएगा, आदमी अपना दायाँ हाथ कटाने के लिए राज़ी हो जाएगा, बस आदमी झूठ को झूठ बोलने के लिए राज़ी नहीं होगा। आप किसी से उसकी पूरी संपत्ति छीन लीजिए, वो सिर्फ रोएगा, कलपेगा, सिर पटकेगा। आप किसी से उसके झूठ छीन लीजिए, उसके प्राण निकल जाएँगे। हम जैसे हैं, हम साँस पर, भोजन पर, पानी पर नहीं जीते हैं, हम अपने झूठों पर जीते हैं और उनको बचाने के लिए हम बड़ी-से-बड़ी कीमत देते हैं, पर उन्हें बचाते ज़रूर हैं।

हम बड़े महाप्रयासी लोग हैं। उन झूठों को बचाने के लिए ही हम निरंतर प्रयास में ही संलग्न रहते हैं—हमारा जीवन कोशिश का ही तो दूसरा नाम है—सुबह से शाम तक छीना-झपटी ही नहीं चल रही है, ज़ोर आज़माइश ही नहीं चल रही है। मशक्कत ही तो चल रही है न? स्ट्राइफ (संघर्ष) ही तो है, तनाव ही तो है, कुछ इधर से खिंच रहा है, कुछ इधर से खिंच रहा है, ये क्या हो रहा है? क्या बचा रहे हो, देखो न इसको।

कुछ तो बचा ही रहे हो, नहीं तो सुबह से शाम तक तुम्हें यह क्यों लगता कि तुम खतरे में हो? कुछ तो बचा ही रहे हो, नहीं तो तुम्हें यह क्यों लगता कि ये जो अजनबी दुनिया है, ये तुमसे कुछ छीनने को आतुर है?

हम जिसको बचाए पड़े हैं, वो बचाने लायक नहीं, पहली बात। दूसरी बात, उसको बचाने की हम बहुत बड़ी कीमत दे रहे हैं। और तीसरी बात सुनना, उतनी बड़ी कीमत देने के बाद भी बचा पाओगे नहीं। तुम्हें जितने दिन खुद को झाँसा देना है, दे लो कि बचाया, बचाया।

एक श्रोता: दरअसल हमें पता ही नहीं है कि बचा रहे हैं इसलिए झाँसा दिए जा रहे हैं।

आचार्य: हाँ। तो उसके लिए जीवन को प्रमाण बनाओ न। हमेशा मैंने इन्हीं दो बातों पर ज़ोर दिया – ग्रंथों का अध्ययन और जीवन का अवलोकन। ये दो अगर हैं तो तुम फरेब में नहीं आ सकते। ज़िन्दगी पर पैनी निगाह रखना बहुत ज़रूरी है, ज़िन्दगी के प्रति ईमानदार रहना बहुत ज़रूरी है।

अगर सुबह से शाम तक तनाव में हो, तो तनाव से लड़ने से थोड़ी सी छूट लो। घंटे भर का समय निकालो और पूछो अपने आप से कि लड़े ही जाऊँगा या कभी जानूँगा भी कि क्यों लड़े जा रहा हूँ और किससे लड़े जा रहा हूँ? लड़ाई तो चौबीस घंटे, अनवरत। कभी इससे उलझ गया, कभी उससे जूझ गया, कभी वो बुरा लग गया, कभी उसने चोट पहुँचा दी। लगातार क्या हो रहा है? संघर्षरत हूँ, जीवन कुछ नहीं है, प्रतिपल संघर्ष है।

फ़ोन उठाता हूँ, उसमें कुछ देखा, “अरे, संघर्ष है।” लैपटॉप खोला उसमें कुछ है, उसमें भी तनाव है, टीवी तनाव है, पड़ोसी तनाव है, सड़क तनाव है, दफ्तर तनाव है, घर तनाव है। बाहर खाना खाने गए, वहाँ भी कुछ ऐसा हो गया। हो जाता है कि नहीं हो जाता है?

फल खरीदने गए हो अंगूर, और उसने कुछ ऐसा बोल दिया कि लंगूर सी शक्ल निकल आई। अरे, होता है कि नहीं होता है? ये क्या चल रहा है ज़िन्दगी में? गए तो थे क्या लाने? अंगूर। और लेकर आए हो लंगूर सी शक्ल। ये बड़ी अनहोनी बात नहीं है? अनघट घटना घटी। एक फल वाले ने तुम्हें ऐसी चोट पहुँचा दी कि तुम्हारी लंगूर सी शक्ल निकल आई। ये रोज़ घट रहा है कि नहीं घट रहा है?

सड़क पर अनजाने लोगों से भिड़ गए। अब दे जूतम पैजार, जूते, मोज़े उछल रहे हैं हाइवे पर। रुकने वालों की भीड़ आ रही है। फुटवियर की वर्षा हो रही है। ये साधारण घटना तो नहीं है, ये तो दैवीय चमत्कार है! ये हो नहीं सकता था पर हुआ। तुम गाड़ी ले करके कहाँ के लिए निकले थे और ये रास्ते में क्या हो गया, कैसे हो गया? पर होने के बाद तुम नंगे ही पाँव तुम एक्सेलेरेटर दबा-दबाकर चल देते हो।

जब ये हो जाए तो गाडी ज़रा किनारे लो, पेड़ के नीचे लगाओ और वहाँ ज़रा ध्यान में बैठ जाओ। पूछो अपने आप से, “ये क्या हुआ? ये क्या हुआ? ये क्या हो रहा है प्रतिपल? ये मैं क्यों लड़-लड़ जाता हूँ, ये मैं क्यों उलझ-उलझ जाता हूँ? क्यों पूरा ज़माना ही मुझे विपक्षी लगता है, जैसे मैं पैदा हुआ हूँ और सब तरफ सब बंदूकें, तलवारें, तोपें लिए मेरे खिलाफ खड़े हों।”

तुम जितना संवेदनशील होते जाओगे, तुम्हें उतना पता चलता जाएगा कि तुम लगातार युद्ध में हो। इसलिए तुम्हारा हर समय मूड ख़राब रहता है। दरवाज़ा खोला और दरवाज़ा ज़रा कीं-कीं करके खुला, और देखो क्या होता है। घर से बाहर निकले और फुंहार पड़ गई, फ़िर देखो क्या होता है। याद आ रहा है ये सब कुछ? सड़क पर ट्रकवाले ने धुआँ मार दिया, फेसबुक पर किसी ने कमेंट मार दिया, जैसे दंगल में किसी ने उठाकर पटक दिया। लग गई चोट। यदा-कदा नहीं हो रहा है, लगातार हो रहा है। संवेदनशील होते जाओगे, तुम्हें दिखता जाएगा कि एक भी क्षण ऐसा नहीं है कि जब तुम्हें चोट न लग रही हो।

जब यदा-कदा लगती है चोट, तुम्हारे लिए सुविधा हो जाती है। तुम कहते हो, “उसने आकर मारा, उसने आकर मारा। सुबह दस बजे वो मारने आया था, फ़िर चोट लगी मुझे चार बजे शाम को।” अब तुम्हारे लिए सुविधा है। तुम इल्ज़ाम उस पर रख सकते हो, उस पर रख सकते हो। तुम्हें यदि दिख जाए दस से लेकर चार बजे तक तुम्हें आठ हज़ार मर्तबा चोट लगी है, अब तुम किसी और पर इलज़ाम कैसे लगाओगे?

वो आठ हज़ार बार तुम्हारी चेतना पर अंकित नहीं हुई क्योंकि तुम इतने संवेदनशील नहीं हो। वो जो बाकी चोटें थीं, वो ज़रा हल्की थीं तो वो निशान नहीं छोड़ी, उनका तुम्हें पता नहीं लगा चैतन्य तौर पर। पर चोट तुम्हें लगातार लग रही है। हवा का झोंका भी आता है तो तुम्हें सहलाता नहीं है, चटियाता है, तुम्हें चोट ही लगती है उससे भी। तुमसे कहा जाए कविता लिखो तो कहोगे, “आई पगली पुरवैया और चांटा मारकर चली गई।”

संवेदनशील होने से बेईमान होना मुश्किल हो जाता है। अब दूसरे पर इल्ज़ाम नहीं रख पाओगे, अब पूछना पड़ेगा कि “अगर लगातार मुझे चोट लग रही है तो ज़िम्मेदार कौन है? चल क्या रहा है मेरे भीतर?” वही चल रहा है कि तुम एक ऐसी कुर्सी पर बैठ गए हो अस्तित्व में जिस पर तुम्हें बैठना चाहिए नहीं।

तुमने कुछ ऐसी धारणा बना ली है जीवन के बारे में जो मूलतः झूठी और गलत है। अब पूरा अस्तित्व तुमको बार-बार चेता रहा है, चीटियाँ तुम्हारे कपड़ों में घुस जा रही हैं, कौवा ऊपर से तुम्हारे कंधे पर गन्दगी कर दे रहा है; हर चीज़ जैसे आमादा है तुम्हें ये जताने के लिए तुम गलत बैठे हो, इसीलिए तुम्हारी लगातार लड़ाई चल रही है।

कुछ ऐसा पकड़ लिया है तुमने जिसे पकड़ा नहीं जा सकता, कम-से-कम लम्बे समय तक नहीं पकड़ा जा सकता। छोटे समय में भी पकड़ रहे हो तो बड़ी कीमत दे रहे हो। छोड़ दो; मत करो इतनी कोशिश, सुबह से शाम तक मत करो पहलवानी।

तुम जानते हो कैसे दिखते हो, ज़्यादातर मानवता कैसी दिखती है? कि जैसे कोई बिलकुल बियाबान रेगिस्तान में नख-शिख कवच पहन कर घूमे और दोनों हाथों में दो तलवारें, “मार दूँगा, छोडूँगा नहीं।” अरे भाई, किसको मार दोगे? और ऐसा भारी कवच पहना है नख से लेकर शिख तक कि न तुम्हारा मुँह दिखाई पड़ता, न तुम्हारी आँख दिखाई पड़ती। और ऐसे-ऐसे इधर-उधर देख रहे हो। रेत उड़ती है तो तुम्हें लगता है प्रेत उड़ रहे हैं, 'प्रेत मेरे आँखों में पड़ गए', वो रेत थी ज़रा सी।

या कि जैसे कोई अस्पताल में घुस आया हो, अमेरिकन काउबॉय * । दो बंदूकें उसने जूतों में लगाई हुई हैं, दो कमर में खोसी हुई हैं, दो हाथ में हैं, और वो अस्पताल में सोच रहा है कि यहाँ दुश्मन-ही-दुश्मन हैं। घोड़े पर है अपने, भाई, * काउबॉय है। और जिसको देखो उसको धमका रहा है, जिसको देखो उससे उसको खौफ हो जा रहा है कि ये मुझे मार देगा, वो मुझे मार देगा, वो मेरा दुश्मन है। ये सारे काम वो कहाँ कर रहा है? अस्पताल में।

कोई ज़रूरत नहीं है, बिलकुल कोई ज़रूरत नहीं है जीवन को समर-क्षेत्र बना देने की। निन्यानवे प्रतिशत जो तुम प्रयास कर रहे हो, जो तुम तनाव ले रहे हो, जो तुम ज़ोर लगा रहे हो, वो व्यर्थ है, वो मूर्खता है। तुम अपनी ही छाया से लड़ रहे हो। तुम जीतोगे कैसे!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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