सतह पर निःसार, केंद्र में सार || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)

Acharya Prashant

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सतह पर निःसार, केंद्र में सार || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)

अग्निर्यत्राभिमथ्यते वायुर्यत्राधिरुध्यते। सोमो यत्रातिरिच्यते तत्र सञ्जायते मनः॥

जहाँ अग्नि का मंथन किया जाता है, जहाँ वायु का विधिवत निरोध किया जाता है, जहाँ सोमरस का प्रखर आनंद प्रकट होता है, वहाँ मन सर्वथा शुद्ध हो जाता है।

~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (अध्याय २, श्लोक ६)

आचार्य प्रशांत: अग्नि का मंथन किया जाता है, वायु का निरोध या नियंत्रण किया जाता है और जहाँ सोमरस का आनंद होता है, मन वहाँ शुद्ध होता है। अग्नि, वायु, ये प्रतीक हैं उन सब पदार्थों के जिनसे तुम्हारा शरीर और संसार बना है। वहाँ जाना है जहाँ उन तत्वों का उल्लंघन कर दिया गया है जो तुम्हें सत्य के पार्थिव होने का अनुभव कराते हैं।

हम दुनिया को देखकर यही कहते हैं न, 'सच है, है'? और दुनिया माने यही पंचभूत, पंचतत्व। वहाँ पहुँचना है जहाँ दिखता हो साफ़-साफ़ कि दुनिया उस अर्थ में बिलकुल भी सत्य नहीं है जैसी हमें दिखाई देती है। वहाँ पहुँचना मुश्किल इसलिए होता है क्योंकि दुनिया को मिथ्या मानना आसान है, लेकिन स्वयं को मिथ्या मानना मुश्किल। और हमने अपनी पूरी हस्ती को, अस्मिता को जोड़ रखा है दुनिया के साथ। दुनिया को अगर मान लिया कि खोखली है, तो ये मानना पड़ेगा कि हम भी खोखले हैं। तो इसलिए हम माने चलते हैं कि दुनिया है, है, असली है, असली है।

सूत्र कह रहा है 'अग्नि का मंथन', आग को मथ डालना। जब तुम मथ डालते हो, जैसे दूध को, तो उसमें से क्या निकलता है? घी। वो जो दूध के भीतर था, वो जो दूध का तत्व था पर दूध में दिखाई नहीं दे रहा था। यही आशय है भूतों का मंथन करने से तत्वों का, कि अग्नि दिखाई देती है पर अग्नि के भीतर क्या है वह दिखाई नहीं देता, तो मथ कर उसको निकालो।

समझो कि यह पदार्थ, यह प्रकृति के सब तत्व, ये प्रकृति ही आ कहाँ से रही है, इसके अंदर क्या घुसा हुआ है। ऊपर-ऊपर क्या है वह तुम्हारी आँखें, इंद्रियाँ दिखा देती हैं। उसके अंदर क्या है यह तुम्हें श्रम-साधना के द्वारा मथ कर निकालना पड़ेगा।

इसी तरीके से वायु का निरोध, जैसे मन है वो बहता रहता है, बहता रहता है। मन वायु है; प्राण वायु है, जीवन वायु है, बहता रहता है। उस बहाव के कारण कभी वो दिखाई नहीं देता जो बहता नहीं है और स्थिर है। बहना माने बदलना। सब बदल रहा है उसके कारण वो नहीं दिखाई देता जो बदल बिलकुल नहीं रहा।

श्लोक कहता है - भूतों के पार जाकर के, जो दिखाई नहीं दे रहा है, उसको भी देखकर के, मन आनंद में पहुँच जाता है जैसे, सोमरस पीकर के मदमस्त हो जाता है। मदांध नहीं, मदमस्त। मद माने? मद माने 'नशा'।

वैदिक अर्थों में जब मद का प्रयोग हो तो समझ लेना कि कहा जा रहा है कि तुम्हें सामान्यतया जो नशा रहता है चेतना पर, उसको उतार दे जो नशा, उसको कहते हैं सोम। सांसारिक अर्थों में सोम या शराब का अर्थ होता है वो चीज़ जो तुम्हारे नशे पर नशे की एक और परत बनकर चढ़ जाए। तुम दिन भर तो नशे में थे ही और रात में तुमने शराब पी ली, नशे पर नशा चढ़ा दिया। और आध्यात्मिक अर्थों में जब बात की जाए सोम या सोमरस की तो उसका अर्थ होता है वो जो तुम्हारे पूर्ववर्ती नशे को काट दे, क्योंकि नशे में तुम जी ही रहे हो। वो जो तुम्हारे नशे को काट दे, वो सोम।

नशे को क्या चीज़ काटती है इसके लिए ये देख लो कि नशा क्या है। जो दिखाई पड़ रहा है वही नशा है। आग नशा है, आग का मंथन करके आग के केंद्रीय तत्व तक पहुँच जाओ, वहाँ सोम है। वायु की गति नशा है; वायु की गति के मध्य जो स्थाई बैठा है उस तक पहुँच जाओ, वहाँ सोमरस है। वहाँ मन शुद्ध हो जाता है, शांत हो जाता है, आनंद में आ जाता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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