प्रश्नकर्ता: आचार्य जी एक प्रश्न है, “आसक्ति से कैसे बचा जाए?”
आचार्य प्रशांत: क्यों बचा जाए?
श्रोता१: क्योंकि वो नुकसान दे सकती है आपको।
आचार्य प्रशांत : कैसे नुकसान देती है?
श्रोता१: जब आपसे अलग हो जाएगी।
आचार्य प्रशांत : इसमें ये कहाँ पर है कि आसक्ति का मतलब है कि वो अलग हो नहीं सकता? समझना इस बात को। आप ये समझते हो कि किसी की और आकर्षित होने का नाम है आसक्ति। आप ये समझते हो किसी से जुड़ जाने का नाम है आसक्ति। आपने ठीक से देखा नहीं। किसी से जुड़ जाने का नाम नहीं है आसक्ति या आसक्ति। किसी से सतही तौर पर जुड़ जाने का नाम है आसक्ति।
ये किताब है, ये मेज के ऊपर रखी है, इस किताब के नीचे ज़रा सा फेविकोल लगा दो, आसक्ति हो जाएगी। मेज से हो जाएगा। हैना? ठीक है? तुम कहोगे आसक्ति हो गई, मैं कहूँगा कुछ भी नहीं हुआ, सतह से सतह जुड़ी है, एक पन्ना है उसका जो जुड़ गया है, जो उसका आखिरी पृष्ठ है। जो उसका कवर पेज है, वो जुड़ भर गया है नीचे मेज से, बाकी तो किताब नहीं ही जुड़ी है। किताब खंड खंड है, किताब पन्ना-पन्ना है। किताब के बाकी पन्ने तो अपनी कहानी कह ही रहे हैं। पंखा चलेगा, पन्ने उड़ेंगे।
तुम भी कभी किसी से पूरा नहीं जुड़ते, तुम्हारा एक हिस्सा जाकर के ज़रा सा जुड़ जाता है, सतही तौर पर। पूरा तुम उसके साथ कभी एक होते नहीं। इसीलिए अलग किये जा सकते हो, इसीलिए दर्द होता है। इस किताब को फेविकोल के द्वारा इससे चिपकाने के बाद, जब अलग किया जाएगा, तो इसका एक हिस्सा फटेगा। आप कितनी भी सावधानी से हटाओ, थोड़ा सा हिस्सा तो फट ही जाना है। और यहाँ पर आप रख दो पानी, और उसमे मिला दो पानी और अब करदो अलग। दो गिलास लो, एक गिलास में पानी, दुसरे में पानी और मिला दो दोनों को और फिर जुदा भी करदो। वापस भी डाल दो, अलग भी करदो, किसी को दर्द हुआ?
मेज से किताब को अलग करोगे, किताब को दर्द होगा। पानी से पानी को अलग करते हो, पानी को दर्द होता है? तुम्हें दर्द इसीलिए नहीं होता क्योंकि तुम जुड़ गये थे, तुम्हे दर्द इसलिए होता है, क्योंकि तुम पूरी तरह नहीं जुड़े थे। अब तुमने एक बहुत ही झूठा रास्ता चुन लिया है, तुम कहते हो दर्द होता है तो हम जुड़ेंगे ही नहीं। मैं कहता हूँ दर्द इसीलिए होता है क्योंकि पूरी तरह नहीं जुड़े थे। ऐसे मिल जाओ जैसे पानी से पानी, फिर जुदा होने पर दर्द नहीं होगा।
श्रोता 2: लेकिन एक छोटा बच्चा है, वो बिल्कुल अपना जीवन जीता है, खिलौनों के साथ, पर जब वो अलग होता है तो वो बहुत ज्यादा रोता है, खुल कर रोता है, तो वो आसक्ति होती है उसकी?
आचार्य प्रशांत: हममे से यहाँ कोई छोटा बच्चा नहीं है, और न ही ये बातें किसी छोटे बच्चे को कही जाएँगी, आप अपनी बात करें। छोटा बच्चा कुछ होता ही नहीं है। छोटा बच्चा तो बस प्रकृति होता है। छोटा बच्चा तो बस प्रकृति होता है। कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अगर आप कहें कि माँ के गर्भ से थोड़ी सी माँस पैदा होती है। तो छोटे बच्चे की बात न करें, अपनी बात करें। आप चैतन्य में हैं, छोटे बच्चे के पास तो अभी वो शारीरिक उपकरण ही नहीं है जहाँ चेतना उतरे। उसका तो अभी मस्तिष्क ही विकसित नहीं हुआ, उसकी बात न करें, अपनी बात करें।
हमें डर लगता है निकटता में, हम कभी किसी के इतने निकट जा नहीं पाते हैं कि उससे एकाकार ही हो जाएँ। क्योंकि हमें निकटता से डर लगता है, इसीलिए हमें वियोग से डर लगता है, आप जिसके पूरे तरीके से नज़दीक हो गए, आपको उससे अलग होने से कोई डर नहीं लगेगा, कोई अफ़सोस नहीं होगा। क्योंकि अब आप जहाँ भी जाएँगे, उसे ले कर के जाएँगे। पानी जहाँ भी जाएगा, पानी को साथ ले के जाएगा। आपको पता है कि आपकी निकटता अभी इतनी है नहीं कि दूरियाँ बर्दाश्त कर ले, इसीलिए तो आप रो उठते हो। उस रोने में भय भी शामिल होता है। आप जिसकी आसक्ति और मोह में रोते हो, कि कहीं इससे दूर न हो जाऊँ। ज़रा इमानदारी से देखना, उससे दूर होने के बाद आपको ये भय भी सताता है कि कहीं वो आपको भूल न जाए, या आप उसको भूल न जाओ। वो सिर्फ इसीलिए है क्योंकि किताब और मेज कभी एक नहीं हो पाते। सिर्फ सतह का रिश्ता है, सिर्फ खाल का रिश्ता है। पूरी नजदीकी कभी हुई नहीं।
तो ये जो प्रचलित रास्ता है, इसपर मत चलो। कि बिछुड़ने से डर लगता है, इसलिए करीब नहीं आएँगे। अभी ये आपको खूब चलाया है, लोग आ करके बड़ी बुद्धिमत्ता के साथ, बड़े ज्ञान और बड़ी गंभीरता के साथ कहते हैं कि “देखो बहुत निकट जाओगे, तो दूर जाने पर दर्द होगा, इसीलिए बहुत करीब नहीं आना चाहिए।” दो तीन बार मुझे भी बोला गया है। भाई, दर्द इसीलिए होता है क्योंकि तुम करीब जा ही नहीं पाते, समझो इस बात को। छोड़ो इस बात को कि करीब नहीं जाना, मैं कह रहा हूँ इतना करीब जाओ कि फिर दूर हो ही नहीं सकते।
श्रोता 2: आचार्य जी, क्या यह संभव है?
आचार्य प्रशांत: वो संभव नहीं होता, पानी पानी से मिलता है, इसकी कोई सम्भावना थोड़ी ही होती है। पानी के पास बस एक जिद नहीं होती। क्या?
श्रोता: कि अलग हो जाएँगे।
आचार्य प्रशांत: पानी के पास एक जिद नहीं होती जो इस किताब के पास है, क्या? बोलो जल्दी। पानी कहता है “मुझे फर्क नहीं पड़ता मेरा क्या आकार बनेगा। मेरा क्या रूप, क्या रंग बनेगा, मुझे फर्क नहीं पड़ता।” किताब कहती है “फर्क पड़ता है।” किताब कहती है, “मेरे अक्षर जैसे हैं, ऐसे ही रहें, मेरा आकार जैसा है, ऐसा ही रहे, मैं किताब रहूँगी।” पानी को कोई हठ नहीं है। पानी कहता है “घड़े में डाल दो, घड़ा बन जाएँगे, ज़मीन पर डाल दो, बिखर जायेंगे, नदी में डालदो, प्रवाह में आ जायेंगे, और गर्म कर दो, तो भाप बन जाएँगे। पानी को कोई जिद नहीं है। तुम भी जिद मत रखो, अपने आप एक हो जाओगे। तुम्हें क्या लगता है, तुम किसी से मिलते हो, उससे मिलने के लिए, उसके करीब जाने के लिए तुम्हे कुछ ख़ास प्रयत्न या प्रबंध करना पड़ेगा?
बात उलटी है। मैं पूछना चाह्ता हूँ, दूर रहने के लिए तुम क्या-क्या प्रयत्न करते हो? पास जाना तो सहज बात है, दूर रहना कठिन है, तुम दूर रहने के लिए तो बहुत कुछ करते हो। कभी देखा है नजदीकियाँ न आ पाएँ इसके लिए कितनी मेहनत करते हो तुम? हवा, हवा से न घुल पाए, इसके लिए कितनी दीवारें खड़ी करते हो तुम? खुले आसमान में न उड़ पाओ, इसके लिए कैसे कैसे घर बनाते हो तुम? और घर बनाना तो बड़ी मेहनत का काम है। आदमी ज़िन्दगी भर मेहनत करके घर बनाता है और घर है क्या? आसमान से अपने आप को वंचित कर लेना ही तो घर है। तुम कहते हो अब आसमान मेरा नहीं रहा। अब ये चार दीवारें मेरी हैं। बड़ी मेहनत करके चार दीवारें खड़ी होती हैं। ज़िन्दगी भर की ई.ऍम.आई देते हो।
और फिर तुम पूछते हो, “ये आसमान कैसे हुआ जाता है?” मैं तुमसे पूछ रहा हूँ “ये घर कैसे खड़ा किया जाता है?” किसी से मिला जाना तो सहज है, न मिल पाना मुश्किल है। न मिल पाने के लिए तो तुम्हें धारणाएँ रखनी होती हैं ना। ये गरीब है, इससे कैसे मिल लूँ, ये अजनबी है इससे कैसे मिल लूँ, इसकी आर्थिक स्थिति अलग है, इससे कैसे मिल लूँ? इसकी आर्थिक स्थिति अलग है, इससे कैसे मिल लूँ? ये आदमी है, ये औरत है, इससे कैसे मिल लूँ? ये तो बहुत उम्रदराज़ है, इससे कैसे मिल लूँ? ये तो अपनी ही उम्र का है, इससे कैसे मिल लूँ? न मिलने के लिए देखो कैसे कैसे प्रबंध करते हो। मिलना तो ज़ाहिर सी बात है, स्वाभाविक है। इसका कुछ भरोसा नहीं कल मिलेगा या नहीं, आज कैसे मिल लूँ? इससे मिलना तो व्यर्थ है, ये तो शादीशुदा है, इससे कैसे मिल लूँ?
मिलना तो सहज सी बात है, गए और मिल गए। मिलने के रास्ते में हमने दीवारें और अड़चनें खड़ी करी हैं। आप जब तक आप हो, दूसरा तब तक दूसरा बना ही रहेगा। पराएपन का, बेगानेपन का भाव रहेगा ही। पानी हो जाना पड़ेगा, पत्थर होके काम नहीं चलेगा। पानी हो जाओ फिर जान जाओगे कि मिलने की, घुल जाने की, गुम हो जाने की बात क्या होती है।
श्रोता 3: सर, जो फिर आसक्ति होती है, वो भी तो फिर सही ही होती है?
आचार्य प्रशांत: हाँ बिलकुल।
श्रोता 3: तो उससे बचने का कोई तरीका ही नहीं है?
आचार्य प्रशांत: पानी हो जाओ।
श्रोता 3: अच्छा, वो कैसे हो सकते हैं?
आचार्य प्रशांत: तुम कैसे नहीं हो पानी? पानी न होने का तो तुमने एक प्रबंध तो यही कर रखा है कि तुमने कुछ रिश्तों को अहम् मान रखा है, और कुछ रिश्तों को दोयम दर्जा दे रखा है, अभी भी सवाल पूछा तो ये पूछा, “माँ-बाप”। अब चाचा चाची आए हैं और यहाँ माँ बाप हैं, वहाँ मिलोगे ही नहीं, “ये तो चचा चाची हैं इनसे थोड़े ही एक होना है, इधर माँ बाप हैं, ये अपने हैं।” देखो ना तुम्हारे सवाल में ही छुपा हुआ है क्यों नहीं तुम एक हो पाते। क्योंकि तुम्हें पहले ही पता है कि तुम्हें किससे मिलना है और किससे नहीं। तुम्हें पहले ही पता है कि कुछ लोग तो पराये हैं। जो पराया है, उसको तो तुमने परिभाषित ही कर दिया कि मिलने योग्य नहीं है, और कुछ लोगों को परिभाषित ही कर दिया कि इनसे तो मिलना ही मिलना है। अब जाके जबरदस्ती किसी से मिलो, चढ़ ही जाओ उसके ऊपर, तो हो चुका मिलना। तू तो अपना है, तुझसे तो मिलना ज़रूरी है, पति पत्नी ये खूब करते हैं, “तू तो मेरी है, आजा।” अब मिल लो।
मन शांत रखो, मन में धारणाएँ नहीं रखो, डरे हुए मत रहो, साफ़ नज़र से सामने वाले को देखो, मिलना अपने आप हो जाएगा, तुम्हें नहीं करना पड़ता है। जादू जैसी बात है, अपने आप होता है।
श्रोता 4: आचार्य जी, तो सब एक ही हैं। माँ-बाप जो हैं बाहर सब एक ही हैं?
आचार्य प्रशांत: क्या नहीं हैं?
श्रोता 4: आचार्य जी, ये तो जाहिर सी बात है कि आसक्ति है अगर सतही तौर पर तो जब अलग होंगे तो दिक्कत होगी ही?
आचार्य प्रशांत: होगी, उसका कोई निवारण नहीं है। कोई हल नहीं है।
श्रोता 4: सवाल ही बेकार है?
आचार्य प्रशांत: बेकार है। असंभव बात मांग रहे हो, जो हो नहीं सकती उसकी मांग है। तुम कह रहे हो रिश्ता सतही भी रहे और उसमे तकलीफ भी न रहे। जो भी सतही है, उसमें तकलीफ होगी ही होगी।
श्रोता 4: आचार्य जी,जितने भी सम्बन्ध हैं, ये सब नकली हैं, समय के अन्दर ही आते हैं?
आचार्य प्रशांत: इसपर निर्भर करता है कि तुम पत्थर हो या पानी? क्योंकि रिश्ते तुम्हारे हैं।
श्रोता 4: अगर मैं कुछ हूँ, तो सम्बन्ध हैं?
आचार्य प्रशांत : जैसे तुम हो, वैसे ही तुम्हारे सम्बन्ध होंगे।
श्रोता 4: अच्छा और हमारे जितने भी सम्बन्ध होते हैं, सारे एक व्यापार ही होते हैं। कुछ पाने कुछ खोने के लिए।
आचार्य प्रशांत : तुमपर निर्भर करता है।
श्रोता 5: सम्बन्ध हमपर कैसे निर्भर करता है, अगर दूसरा पत्थर है और हम पानी?
आचार्य प्रशांत : पानी तो पत्थर के पास भी जाएगा तो पत्थर नहीं हो जाएगा। पानी तो पानी ही रहेगा न?
श्रोता 5: समस्या नहीं होगी?
आचार्य प्रशांत: तकलीफ तुम ये थोड़े ही कह रहे हो कि सामने वाले को होती है। जब तुम कह रहे हो कि आसक्ति जब टूटती है, तकलीफ होती है, तो अपनी बात कर रहे हो ना? पानी पत्थर से टकराए तो भी उसे तकलीफ नहीं होती। तो तुम्हें तो नहीं ही होगी ना, सामने वाला रहा है पत्थर। तुम अगर पानी हो, तो तुम ये प्रश्न नहीं करोगे कि आसक्ति में तकलीफ है। तुम अपनी तकलीफ की बात कर रहे हो या सामने वाले की? अपनी तकलीफ की?
श्रोता 5: जी, आचार्य जी।
आचार्य प्रशांत: एक बात अच्छे से समझना, संसार अपने आप में कोई वस्तुगत तथ्य नहीं है। तुमसे हट कर के उसकी कोई सच्चाई नहीं है। पत्थर से पत्थर सौ बार भी मिल लें, सौ बार भी पत्थर से पत्थर मिल लें तो वो एक नहीं हो जायेंगे। वो चूरा चूरा ज़रूर हो सकते हैं। वो चूर्ण मिल सकते हैं आपस में। पर जो चूरा मिला है, वोभी अलग अलग किया जा सकता है। मिट्टी के चूरे में तुम लोहे का चूरा मिला दो, और उसके ऊपर से एक चुम्बक फिरा दो। तुरंत लोहा एकदम अलग हो जाएगा। लेकिन पानी जब पत्थर से मिलता है तो ये ज़रूर हो जाता है धीरे धीरे कि पत्थर पानी बन जाता है। कभी किसी पहाड़ी नदी को देखना, वहाँ यही चल रहा होता है। पत्थर पानी हो रहा होता है। गोल गोल क्यों होते हैं पत्थर नदी के? क्योंकि वो पानी हो गये होते हैं।
श्रोता 5: आचार्य जी, तो फिर वो मतलब जो आपने पानी का उदाहरण दिया, तो उसमे उसका अस्तित्व भी उसे याद नहीं रहेगा और सामने वाले का भी याद नहीं रहेगा। मतलब तो फिर वो वज़न हो गया या कुछ भी नहीं होगा?
आचार्य प्रशांत : वो जैसा भी होगा, हमसे बेहतर होगा। हम जिस हालत में हैं, उस हालत में हमें क्या पता उसको क्या होगा? हम तो बस ये कह सकते हैं कि हम जिस हालत में हैं वो कुछ ख़ास पसंद नहीं हमें। वैकल्पिक हालत कैसी होगी, उसका अंदाजा क्या लगाना? वो जैसी भी हालत होगी, उसका अनुमान अभी लगा पाना ज़रा संभव नहीं है। हाँ इतना कहा जा सकता है कि “पानी कागज़ की तरह फटेगा नहीं।” नहीं फटेगा।
देखिये मन ढर्रों पर चलता है, मन करता है एक लीनिअर प्रोजेक्शन , एक रेखा पकड़ लेता है, मन कहता है कि रेखा सीधी जा रही है तो आगे और सीधी बढ़ेगी, उसके आगे और जाएगी, और जाएगी, और जाएगी, ढर्रा पकड़ लिया तो ढर्रा सोचता है कि चलता ही जाएगा। वो ये नहीं समझता कि ढर्रे में अचानक कोई विक्षेप आ सकता है, अचानक कुछ बदल सकता है। आप देखना शुरू करते हो, पूरी प्रक्रिया क्या है, इसको समझिएगा, आप कहते हो कि किसी व्यक्ति से आप दूर थे, तो आप कहते हो कि उस व्यक्ति कि वजह से जीवन में कोई व्याघात नहीं था। किसी तरह कि कोई बेचैनी नहीं थी क्योंकि आप उससे दूर थे। आप उसे जानते ही नहीं थे, अनजाना था वो अजनबी। आप करीब आए, उस व्यक्ति का महत्त्व बढ़ने लगा आपके लिए। महत्त्व बढ़ा, तो परेशानी भी बढ़ी, क्योंकि अब दूर जाना हो तो थोड़ा बुरा लगे।
तो आपने देखा कि दूरी ज्यादा है तो तकलीफ कम है, दूरी ज़रा सी कम हुई, तो तकलीफ ज्यादा हुई। तो आपने कहा, “अच्छा अच्छा, दूरी जितनी ज्यादा, तकलीफ उतनी कम।” फिर आप और करीब आए, आपने देखा दूरी कम हुई, तकलीफ और बढ़ी, तो आपका जो संदेह था, वो पुख्ता हो गया, आपने कहा कि इसका मतलब दूरी जितनी कम होगी, तकलीफ और बढ़ेगी। फिर आप और ही करीब आ गए। तब आपने देखा, अब तो बिछड़ने में और तकलीफ होती है। इससे आपने ये अनुमान लगा लिया कि दूरी जितनी कम करते जाएँगे, तकलीफ उतनी बढ़ती जाएगी, और अगर कहीं दूरी शून्य हो गई, तो तकलीफ अनंत हो जाएगी। आप कह रहे हो, दूरी कम हो रही है, तकलीफ बढ़ रही है, तो इससे निष्कर्ष आप यही निकालोगे ना कि अगर दूरी कहीं शून्य हो गयी तो तकलीफ असीमित हो जाएगी।
श्रोता 5: लेकिन अगर ऐसी कोई स्टेज आ जाए कि लगे कि करना है, तो शायद दुःख न हो।
आचार्य प्रशांत: अंत में जादू हो जाता है। बढ़ती रहती है तकलीफ, बढ़ती रहती है, बढ़ती रहती है, बढ़ती रहती है, बढ़ती रहती है, और फिर अचानक शून्य हो जाती है। वहाँ तक जाने के लिए श्रद्धा चाहिए। और श्रद्धा आपकी परीक्षा लेती रहेगी क्योंकि आप जितना आगे बढ़ोगे, तकलीफ उतनी बढ़ेगी। और फिर एक दिन जादू हो जाता है अचानक। पूरा मिले नहीं के तकलीफ फिर शून्य हो जाती है। बढ़ती रहेगी, बढ़ती रहेगी, और मन को यही लगेगा, मन को पूछोगे, तो यही कहेगा “ये तो तुम आत्महत्या कर रहे हो।” तकलीफ बढ़ती जा रही है और तुम उसे बढ़ने दे रहे हो, बढ़ने दे रहे हो। बढ़ती हुई तकलीफ, अनायास कम भी हो जाती है। पर उस बिंदु तक धैर्य रखना होता है। वहाँ तक पहुँचने के लिए धैर्य रखना होता है। उस धैर्य का नाम है प्रेम।
अब कहते हो तकलीफ होगी कोई बात नहीं, चलने दो। कोई बात नहीं चलने दो, आगे बढ़ने दो, और बढ़ते बढ़ते एक दिन आप पाते हो कि तकलीफ कम होनी शुरू हो गई है, अब तकलीफ होती नहीं। अचानक कम हो जाती है तकलीफ। तो मन कि मत सुनियेगा, मन तो ढर्रे जानता है। मन तो एक लीनिअर प्रोजेक्शन कर देगा। एक सीधी रेखा में नहीं चलता ना? जितनें भी ये रेखीय प्रक्षेपण हैं, ये गलत ही निकलने हैं। इनमें जादू के लिए कोई जगह नहीं है।
किसी व्यक्ति के निकट जाना हो, या आपने जीवन के निकट जाना हो, दोनों में ही ये बात लागू होती है। तथ्य को देखोगे, तकलीफ होगी, तकलीफ को देखते जाओ, झेलते जाओ, तकलीफ का विरोध मत करो, तकलीफ को होने दो। जितना ज्यादा उसे देखोगे, पाओगे कि उसका मिटना आरम्भ हो गया है। अब वो मिट रही है, अब वो नहीं है। शुरू में होती है। फिर मिट जाती है।
श्रोता 6: आचार्य जी, बोध, समझ और परिपक्वता क्या होती है?
आचार्य प्रशांत: तीन सत्रों में आना, तब तीन सवाल पूछना। कैंप के बाद अचानक से प्रकट हो गए हो और दनादन दाग रहे हो, कोई उत्तर नहीं मिलेगा तुम्हें अब। मैं सवाल का जवाब नहीं देता न, मैं सवाल पूछने वाले का जवाब देता हूँ। ट्रैकर तुम्हें दिया गया है कि उसपर पढो, लिखो। तुम्हें पढ़ने के लिये दी गईं थी, करीं होती तो ये जवाब कब के मिल गये होते। ऐसा जीवन है हमारा। जो प्रकट है, सामने है, वो करा नहीं है। जो प्रकट है, सामने है, जिससे कबका लाभ हो गया होता, जिससे सवाल कब के हट गए होते, वो करने में रूचि नहीं है। जो घर बैठे हो सकता है कि लो पढ़ो और मोबाईल में टाईप कर दो, वो नहीं करेंगे, इतनी दूर उठ करके रमण केंद्र आ सकते हो, और घर बैठे रीडिंग नहीं कर सकते और अब सवाल पूछ रहे हो, बोध और ये और वो।
मैं क्यों दूँ जवाब, मुझे तुम्हारे इस आतंरिक षड़यंत्र में साझेदार थोड़ी न बनना है। तुम तो अपने ही खिलाफ साजिश कर रहे हो। मैं उसका हिस्सा क्यों बनूँ? देख रहे हो ना, जीवन ऐसे चलता है। ये आपके साथ ही थे ना कैंप में? ( दूसरे श्रोता से )। नहीं। साहब जब से लौट के आए हैं तो कैंप से समझ लीजिये एक तरह का गृह कार्य दिया गया था कि एक महीने करना। और एक महीने कर लिया अगर तो तरोगे। कुछ नहीं करा। उधर ही कहीं रहते हैं, वहाँ से बोधस्थल नहीं आ सकते, इतनी दूर लोधी रोड आ गये हैं। हम सब ऐसे ही हैं। पप्पा के घर जाना है। जो सामने है, वो तो ओछा है। हम लोग घूमने फिरने कहीं निकल जाते हैं, नैनीताल गए थे वहाँ वो दुकानों से चीज़ें खरीद रहे हैं, और जो चीज़ें खरीद रहे हैं, वो दिल्ली से नैनीताल आती हैं। वहाँ दोगुने दाम पर लेना उन्हें मंज़ूर है, दिल्ली से नैनीताल जाके, दूने दाम पर वो चीज़ें लेते हो, जो दिल्ली से नैनीताल जाती हैं बिकने के लिए।
श्रोता 7: आचार्य जी, अमेरिका जाते हैं, भारतीय चीज़ खरीदते हैं।
आचार्य प्रशांत: हम ऐसे हैं। ये आप देख रहे हैं ना क्या है? ये परमात्मा को अपने से दूर स्थापित कर देने का नतीजा है कि हमेशा दूर कि ही चीज़ें अब अच्छी लगेंगी। जो घर में बैठा है, उससे कोई लेना देना नहीं। कोई ज़रा दूर है, प्रेमी वगैरह है, तभी तक तो आप फिर भी उसकी कद्र कर लोगे, पति हो गया। अभी कल ही झगड़ा हुआ मुझे बताया गया, अभी नाम नहीं लूँगा पर, जो सामने है वो बेकार है। और इस पूरी भावना की उत्पत्ति होती है परमात्मा को अपने से दूर कर देने से, जो ऊँचे से ऊँचा है, जब वो दूर है तो निश्चित सी बात है जो सामने है, वो बेकार ही होगा। और देखो नाम लिया और हाज़िर हो गए।
फिर जो पास वाला है, उससे रोज़ लड़ोगे, तो उसके पास भी फिर अपनी कीमत बढ़ाने का एक ही तरीका रहता है, कि दूर हो जाए। वो कहता है भाई तुम तो कीमत ही तभी करते हो, जब कोई दूर होता है। जो दूर है, उसी की कीमत है। परमात्मा की कीमत है। क्यों? क्योंकि अप्राप्तय है। मिल ही नहीं सकता इसीलिए कीमती है, तो फिर ठीक है भाई, कीमती ही वही है जो मिल ही नहीं सकता, तो फिर हम मिलेंगे ही नहीं। अब कीमत हो जाएगी। जो सामने है, उसकी कीमत करना सीखो। आपकी भी ज़िन्दगी में जो लोग मौजूद हैं ना, वो दूसरों कि आँख के तारे हैं। फिर आपको जिद मचती है, जलन होती है। वो दूसरों कि आँख के तारे हैं इसीलिए कि उनसें दूर है, आपकी नज़र में कूड़ा करकट है, क्योंकि आपके सामने है।