संयम और मर्यादा किनके लिए अनिवार्य हैं? || श्रीदुर्गासप्तशती पर (2021)

Acharya Prashant

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संयम और मर्यादा किनके लिए अनिवार्य हैं? || श्रीदुर्गासप्तशती पर (2021)

प्रश्नकर्ता: जैसे वृत्तियाँ होती हैं। वृत्ति होती है, फिर विचार का तल आता है। तो विचारों में कई बार फिर भी होता है कि विचार मन में घूम रहे होते हैं तो आप फिर भी उसे कई बार पकड़ पाते हो कि हाँ, अच्छा ऐसा कुछ चल रहा है और आप उसे ट्रेस बैक करने की कोशिश करते हो। लेकिन बहुत बार ऐसा होता है कि वृत्ति से सीधा कर्म ही निकल जाता है। विचार भी नहीं आता, बस उस तरीके से एक्ट करने लग जाते हो। और आपको पता भी नहीं चलता कि आप बहुत ही अचेतन तरीके से व्यवहार कर रहे हो और यह बार-बार देखने में आता भी है, खुद भी मतलब ऑब्जर्वेशन होता है पूरे दिन भर। तो इसका तरीका और क्या है बचने का?

आचार्य प्रशांत: फिर जो इसकी विधि होती है, वह होती है संयम और मर्यादा। चूँकि यह जो वृत्ति है, यह बहुत स्थूल है इसलिए इस पर सूक्ष्म विधियाँ काम नहीं करेंगी। जब वृत्ति इतनी स्थूल हो कि वह सीधे स्थूल कर्म में परिणित हो जाती हो तो उसमें फिर कोई सूक्ष्म विधि काम नहीं करती है। कर्म क्या होता है? स्थूल। तो यह वृत्ति के स्थूल होने की निशानी है कि वह विचार को भी अनुमति नहीं दे रही, कि वृत्ति विचार भी नहीं बन रही, सीधे कर्म बन जा रही है। भीतर से भावना का आवेग उठा और सीधे कोई कर्म कर डाला। तो यह स्थूल वृत्ति की निशानी है।

स्थूल वृत्ति के लिए फिर आपको स्थूल ही उपाय चाहिए। स्थूल उपाय होता है स्थूल संकल्प। स्थूल संकल्प क्या होते हैं? आचरण में मर्यादा। कुछ बातों को अपने लिए एकदम अपरिहार्य कर देना होगा, अनिवार्य, आवश्यक। और कुछ बातों को माने कर्मों को—क्योंकि सारी बात अभी स्थूल कर्म के तल पर हो रही है—और कुछ कर्मों को अपने लिए बिल्कुल निषिद्ध कर देना होगा, एकदम वर्जित। क्योंकि विचार तो आपके पास है ही नहीं, सीधे वृत्ति है फिर कर्म है।

तो आपको कोई कैसे सिद्धांत बताया जाए। सिद्धांत तो विचार ही बनता है भीतर। और विचार को तो आप बायपास कर रहे हो। विचार को तो आप माध्यम ही नहीं बना रहे हो। वृत्ति सीधे कर्म में परिणित हो रही है। तो इसीलिए आपको अब शब्द काम नहीं आएँगे, क्योंकि शब्द तो विचार हैं। अब आपको आचरण में मर्यादा का संकल्प रखना होगा। यह स्थूल संकल्प कि मैं स्थूल कर्मों में ऐसी स्थूल मर्यादा रखूँगा। अब यही आपके काम आएगा।

आपको अपने-आपको यह आवश्यक करना होगा। आपको स्वयं को प्रणबद्ध करना होगा, शपथ लेनी होगी कि कुछ काम है जो मुझे करना ही नहीं है और कुछ काम है जो मुझे ज़रूर करने हैं। सोचूँगी नहीं क्योंकि सोचने का तो आपकी व्यवस्था में वैसे भी स्थान कहाँ है। आप अगर कुछ सोचने पर छोड़ोगे तो वह कभी होगा ही नहीं, क्योंकि सोच से तो आप हो ही नहीं। तो इसीलिए बस कुछ बातों को अपने को पूरी तरह वर्जित कर दो और कुछ बातों को अपने लिए आवश्यक कर दो, बिना सोचे।

रिचुअल्स का जन्म यहीं से हुआ था और इसीलिए हुआ था। समझ रहे हो बात को? कर्मकांड इसीलिए अपना महत्व पाता है, क्योंकि बहुत लोग ऐसे होते हैं जिनको विचार के तल पर कुछ बताओगे तो वह काम नहीं आएगा क्योंकि विचार को तो वो बायपास करते हैं। तो फिर उनको कुछ बातें कर्म के तल पर आवश्यक या निषिद्ध कर दी जाती हैं कि कुछ काम है जो ज़रूर करने हैं, सोचना ही नहीं है। कि सुबह उठते ही जा करके देवी को प्रणाम करना है या सुबह उठते ही जा करके जो पूज्य जन हैं, उनका चरण स्पर्श करना है। सोचना नहीं है, विचार नहीं करना है कि क्या यह व्यक्ति वास्तव में पूजनीय है।

तुम अगर अपने विचार पर इस निर्णय को छोड़ दोगे तो कोई निर्णय कभी होगा ही नहीं, क्योंकि विचार पर तो तुम चलते ही नहीं। तुम्हारे पास जो निर्णय आएगा, वह विचार से ही नहीं आएगा, वृत्ति से आएगा। तुम्हारी वृत्ति बोलेगी कि हाँ चरण स्पर्श कर लो, तुम कर लोगे। नहीं बोलेगी तो नहीं करोगे। वृत्ति काहे को कुछ बोलेगी, उसको तो बस अपना स्वार्थ चाहिए। तो फिर तुमको संयम और मर्यादा के आचरण की बेड़ियों में स्वयं को बाँधना होगा, कि कुछ काम है जो मैं नहीं ही करूँगी कुछ भी हो जाए। मन और विचार और वृत्ति कुछ भी बोल रहे हो, मैं करूँगी ही नहीं। और कुछ काम है जो करने हैं, भले ही भीतर से कितना भी विरोध आ रहा हो, वह तो करने-ही-करने हैं।

यह कोई बहुत ऊँची विधि नहीं है, पर माया की बात यह है कि यह सबसे ज़्यादा लाभप्रद विधि है। सबसे ज़्यादा लाभ इसी तल की विधियों ने दिलाया है। हालाँकि ये विधियाँ एक बिंदु पर जा करके न सिर्फ़ अनावश्यक हो जाती हैं बल्कि हानिकारक भी हो जाती हैं, फिर तुम्हें इन विधियों से आगे जाना होता है। पर इन विधियों से आगे वह जाए जिसने पहले इन आचरण मूलक विधियों से पूरा लाभ अर्जित कर लिया हो। जब इन विधियों से तुम्हें जो लाभ मिलना था, वह मिल चुका, तब इन से आगे चले जाना, तब कहना कि अब मुझे आचरण के तल पर कोई व्यवस्था नहीं चाहिए, कोई शपथ नहीं चाहिए। पर अभी तो तुम्हें आचरण के तल पर ही एक मर्यादा की ज़रूरत है कि मैं इस मर्यादा का उल्लंघन तो कभी भी नहीं करूँगा। और मर्यादा में दो ही बातें आती हैं: क्या करना है, क्या नहीं करना है। करना, न करना स्थूल तल की बातें हैं। यही आपको चाहिए।

फिर इसीलिए पाप-पुण्य का महत्व हो जाता है। जो नहीं करना है, अपने-आपको साफ़ बता दो कि यह करा तो पाप लगेगा और यह करा तो पुण्य लगेगा। ज्ञानी के लिए तो पाप-पुण्य जैसा कुछ होता नहीं, पर ज्ञानी होते ही कितने हैं! इसीलिए पाप-पुण्य की अवधारणा बड़ा महत्व रखती है और लाभप्रद है।

देख नहीं रहे हो मर्यादा की बात, कि युद्ध करने के लिए भी अगर खड़े हुए हैं तो पहले चरण स्पर्श करेंगे। यह मर्यादा की बात है। इसमें विचार जैसा कुछ नहीं है, मर्यादा। और यह मर्यादा, मैं कह रहा हूँ, बड़ी लाभप्रद होती है। मैं कुरुक्षेत्र की बात कर रहा हूँ। सामने अगर द्रोण भी आ गए हैं शत्रुरूप में तो पहले प्रणाम करेंगे फिर तीर चलाएँगे। पहले प्रणाम, विचार नहीं कि यह तो अभी दुश्मन हैं तो मैं प्रणाम काहे को करूँ? हार हो रही हो, जीत हो रही हो, सूर्यास्त हुआ नहीं कि युद्ध थम जाना चाहिए। मर्यादा की बात है। विचार करेंगे तो विचार तो यही कहेगा कि अभी जीत रहे हैं, रुकना नहीं, अभी रात में ही मार दो, रुकना नहीं, मार दो। नहीं, मर्यादा, क्योंकि हमें पता है कि जो हमारी बुद्धि है, वह तो वृत्ति ग्रस्त है। उस पर छोड़ा तो बड़ी गड़बड़ हो जाएगी। तो चुपचाप जो मर्यादाबद्ध आचरण हैं, वही करते चलो।

कुछ काम ज़रूर करने हैं और कुछ काम करने का विचार आने ही नहीं देना है, आए भी तो सुननी नहीं है उनकी।

मैं बिल्कुल समझ रहा हूँ कि इस पूरी चीज़ में बड़ी संभावना रहती है पाखंड की, दोगलेपन की, बिल्कुल। तो इस उपाय की जो हानियाँ हैं, त्रुटियाँ हैं, उनसे मैं एकदम परिचित हूँ। लेकिन मैं यह भी जानता हूँ कि जो लोग स्थूल तल पर हैं, उनको ऐसा ही उपाय चाहिए। जब यह उपाय आपके लिए फलीभूत हो जाए, तब उसके बाद दूसरा उपाय करेंगे, सूक्ष्म उपाय करेंगे तब कुछ और। अभी तो यही।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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