धीरो लोकविपर्यस्तो वर्तमानोऽपि लोकवत्।
नो समाधिं न विक्षेपं न लोपं स्वस्य पश्यति॥१८- १८॥
अनुवाद: तत्त्वज्ञ पुरुष तो संसारियों से उल्टा ही होता है, वह सामान्य लोगों जैसा व्यवहार करता हुआ भी अपने स्वरुप में न समाधि देखता है, न विक्षेप और न लेप ही।
~ अष्टावक्र गीता ( अध्याय - १८, श्लोक – १८)
आचार्य प्रशांत: न विक्षेप, न लेप, न समाधि। व्यवहार पर मत जाना क्योंकि व्यवहार तो उसका भी संसारियो जैसा ही होगा। व्यवहार पर मत जाना। बल्कि जिसका व्यवहार आम संसारी जैसा न दिखे, उसको तो तुम और घोर संसारी जानना।
जो संसारियों से अलग व्यवहार दिखाए, वह महासंसारी है। उसको संसार ही चाहिए पर वह ज़रा उल्टी दिशा से संसार पाना चाहता है। वह और चतुर है, उसका अपनी बुद्धि पर और यकीन है। जिसको पाओ कि यह तो स्पष्टतया घोषणा ही कर रहा है कि मैं तो संसार से विमुख हुआ, उसको तो जान लेना कि यह तो बड़ा आसक्त है संसार से।
जो वास्तव में संसार से उठेगा, वह बिल्कुल साधारण संसारी जैसा दिखेगा; अष्टावक्र यहीं कह रहे है।
जो साधारण संसारी जैसा न दिखे, उसको तो पहले नंबर पर ही ख़ारिज कर देना कि तुम सबसे बड़े चोर हो, तुम ही झूठे हो। जो स्थत्यप्रज्ञी है, जो ज्ञानी है, व्यवहार उसका वही होगा जो साधारण संसारी का हैं। लेकिन, फिर भी वह संसारियों से अलग होता है, कैसे? कि वह रहता संसार में हैं, सांस सत्य में लेता हैं। भाषा संसार की बोलता है, नाम खुद का लेता है।
आचरण और आवरण पर मत जाना। उसके लिए विक्षेप तो नहीं ही हैं, लेप तो नहीं ही हैं। अब डर जाओगे तुम कि समाधि भी नहीं ही है। समाधि भी नहीं हैं उसके लिए, इसलिए जो घोषणा करते फिरते हो कि वो समाधिस्थ हैं, उनको एक नंबर का झूठा जानना। जो वास्तव में समाधिस्थ हैं, तो उसकी समाधि इतनी सूक्ष्म होगी कि ज़ाहिर नहीं होंगी। समाधि कोई इतनी स्थूल चीज़ नहीं कि भीड़ की नज़र में आ जाएं; कि महाराज अभी समाधि में हैं। यह देखो लेटे हुए है और आसपास मज़मा जुड़ा हुआ हैं। समाधि बड़ी, बड़ी, बड़ी महीन घटना होती हैं। समाधि इतनी आंतरिक होती है कि बाहर से नज़र नहीं आएगी। जो वास्तव में समाधिस्थ होता है, उसकी समाधि तुम पकड़ भी नहीं पाओगे। तुम कहोगे; यह तो चल रहा है, बोल रहा है, खेल रहा है, खा रहा है, पी रहा है, सो रहा है, सारी हरकतें तो इसकी आम जन जैसी ही हैं। जब आम जन दिखाई दे, तभी जानना समाधिस्थ हैं। और जो अपनी समाधि का ढिंढोरा पीटे, और जिसकी समाधि दूर से ही नज़र आए, उसको जान लेना कि उचक्का हैं।
जब अष्टावक्र कहते है कि स्थितप्रज्ञ के लिए समाधि नहीं होती, तो उससे उनका आशय यह है कि उसकी समाधि अति सूक्ष्म होती है, इतनी सूक्ष्म होती है कि शून्य होती है, अर्थात नहीं ही होती। अगर समाधि भी कुछ हो गई, तो फिर तो संसार ही हो गई न।
संसार होता है, जिसमें कुछ होता है; समाधि को तो ना कुछ होना होता हैं। समाधि का अर्थ है, भीतर एक आंतरिक मौन है, एक शून्यता है, उसे समाधि कहते हैं। समाधि कोई दर्शाने की चीज़ नहीं, विज्ञापित करने कि चीज़ नहीं। समाधि का अर्थ यह नहीं है कि शरीर किंचित्त किसी अवस्था में आ जाएगा। समाधि का अर्थ यह नहीं है कि आंखें मूंद जाएगी। समाधि का अर्थ यह नहीं है कि होंठ नहीं हिलेंगे। मौन कोई होठों का मोहताज़ नहीं हैं कि साहब अभी मौन में हैं, तो बोलेंगे नहीं। शांति आंख बंद करने से नहीं आती कि महाराज समाधि में हैं तो अभी आंखें बंद हैं। वास्तविक समाधि वहीं जो खुली आंखों और चलते होठों के साथ हों। और अगर तुम्हारी समाधि सिर्फ तब हैं जब तुम आसन मार चुके हों, या लेट चुके हों, आंखें मूंद चुकी हैं और शरीर शिथिल हो गया हैं, और होंठ चुप हो गए हैं, तो तुम्हारी समाधि तो बड़ी परतंत्र समाधि है। इसमें तो शर्त जुड़ी हुई हैं। इसमें तो विकल्प जुड़ें हुए हैं, संकल्प जुड़े हुए हैं। तुम्हारी समाधि तो अभी लक्षणों की, चिन्हों की मोहताज और गुलाम है। समाधि तो तब, जब चलती फिरती समाधि हो। समाधि तो तब जब पता भी न लगें कि समाधि हैं। और उसके अलावा और कोई समाधि होती नहीं। बाकी सब मात्र आडंबर हैं।
प्रश्नकर्ता: जीसस ने जो प्रदर्शित की समाधि, फिर उसका क्या?
आचार्य: जीसस ने कब प्रदर्शित की समाधि?
प्र: जैसे की बताया गया।
आचार्य: बताना तो इसलिए होता है कि लोग समझ जाए। पर समाधि नहीं होती प्रदर्शित करने की वस्तु। जीसस से ज़्यादा साधारण जीवन किसी ने जिया था क्या? जीसस कब राजा बन बैठे जेरुसलेम के? जीसस को कब बहुत आदर सम्मान मिल गया? जीसस कब आंठ हाथ और बारह टांगे दिखाने लगे? जीसस तो बेचारे इतने गरीब, इतने असहाय कि उनके उठा कर टांग दिया गया सूली पर तो टंग गए। और जब कीले गाड़ी गई हाथ में और पांव में खूँटियाँ, तो क्या दूध या अमृत फूटा था? खून ही तो बहा था, जैसे साधारण मानव का खून होता है। और जैसे तुमको तकलीफ होगी, पहाड़ पर बोझा ढोने में, वैसे ही उनको भी तकलीफ हो रही थी कि खूटियां गड़ी हुई है और कह दिया गया हैं कि भई क्रॉस को ले करके चलो आगे। उन्हे भी तकलीफ हो रही थी; बेहोश ही हो गए थे, तुम भी बेहोश हो जाओगे। मर ही गए थे करीब करीब। जीसस से ज्यादा साधारण जीवन किसका होगा? तुम धोखा खाते हो, वे भी धोखा खा रहे है। तुम भी स्वजनों से धोखा खाते हो, उनको भी उनके ही शिष्य ने धोखा दे दिया। तुम्हें असफलता मिलती है कि तुम आंकड़े नहीं जुटा पाते, जीसस के पास भी तो कुल दस ही शिष्य थे। सांसारिक दृष्टि से देखोगे तो यहीं तो कहोगे। इधर उधर घूमते रहे, उपदेश देते रहे, सभाएं करते रहे। और लोग कुल कितने मिले? दस। तो जीसस ने कब यह दर्शाना चाहा कि वह अलौकिक हैं। दर्शाया तो कभी भी नहीं। एक कपड़ा लपेटे बेचारे मौत के मुंह में जा रहे थे, दुबले-पतले।
प्र: बुद्ध और शंकराचार्य।
आचार्य: वह भी कब दर्शाते थे? बुद्ध ने कब कहा कि मैं पूरी पृथ्वी को स्वर्ग बनाने के लिए अभी वरदान दिए देता हूं। नंगे पांव बेचारे गांव-गांव भटकते थे। आखिर में पेट की बीमारी हो गई। दस्त करते मरे थे। कोई बुद्ध पुरुष कभी मुनादी नहीं करवाएगा। वह भोंपू लेकर नहीं घूमेगा कि मैं बुद्ध पुरुष हूं। उसका जीवन तो अतिसाधारण रहेगा। उसके जीवन में वही सारे संघर्ष रहेंगे जो आपके जीवन में रहते हैं। आपको मच्छर काटते हैं, उसको भी काटते हैं। आपको भूख सताती हैं, उसको भी सताती हैं। आपको बीमारी लगती है, उसको भी लगती हैं। अंतर बस वहीं हैं, जिसकी आज हम खूब चर्चा कर चुके हैं कि आप जब बीमारी में लिप्त होते हो, तो आप बीमार हो ही जाते हो। वह बीमारी में होने के बाद भी स्वस्थ रहता हैं। उसके पास एक ऐसा बिंदु होता हैं जिसे कोई बीमारी कभी छू नहीं सकती।
वह बिंदु आपके पास भी हैं, पर आप उस बिंदु से कहीं दूर जाकर बैठ गए हो।
महावीर को पकड़ लेते थे और उनको डंडे पत्थर मारते थे। वह बोले ना, लोग इसी बात से चिढ़ जाते थे कि तुम मूक क्यों खड़े हो! कोई आकाश से देवता नहीं उतरते थे फिर कि, यह तो सिद्धजन हैं, इनकी रक्षा की जाए। कुछ नहीं होता था ऐसा।
एक आम आदमी तो फिर भी अपने आप को बचा ले, सिद्धपुरूष तो और नहीं बचा पाता अपने आप को। कहते है महावीर के कानों में जा करके पिघला हुआ शीशा डाल आए थे कुछ लोग; चिढ़ गए थे इस बात से कि जवाब तो तुम देते नहीं, चुप ही खड़े रहते हो। यानि कि सुनाई नहीं देता तुझे, तो यह कान किस लिए है; ले हम भरे देते हैं।
छोटे से छोटा आदमी, कमज़ोर से कमज़ोर इंसान, कुछ तो कर लेता अपने आप को बचाने के लिए। वह तो कुछ भी नहीं कर पाए; अति साधारण थे - अष्टावक्र यहीं कह रहे हैं।
जो वास्तविक होगा, वह अति साधारण होगा। वहां पर तुम अनूठेपन के चिन्ह मत खोजना। तुम्हारी आंखों में नहीं आयेंगे। उसका अनूठापन बहुत सूक्ष्म हैं। आंखो से पकड़ में आने वाला नहीं। जो आंखो से पकड़ में आ जाए, उसको तुम वेशभूषा, लेप, आडंबर और पाखंड जानना। कभी-कभी आपको वह सब ज़िक्र मिल जाएंगे जहां महापुरुषों की अलोकिक्ता का वर्णन आता हैं; किसी ने कुछ जादू कर दिया, किसी ने कुछ कर दिया। पर ऐसे हर वाक्ए के पीछे, दस वाक्ए ऐसे मिलेंगे जहा दिखाईं देगा कि वे बिल्कुल ही साधारण थे।
राम की देखो पत्नी उठा ले गया। यह तो आम संसारी भी कर लेता हैं न कि उसकी बीवी को किसी तरह सुरक्षित रख लें। अब कोई आया हिरण बन कर और इनको चकमा दे गया। यह कैसे भगवान हैं?
बाद में आप कह देते हो कि लीला हैं। अष्टावक्र कहते है कि यह लीला इत्यादि नहीं है; वे होते ही साधारण हैं। वह खा ही जाते है चकमा, जैसे हर साधारण आदमी चकमा खाता हैं। राम का वैलक्षण्य इसमें नहीं हैं कि वह जान जाएं कि यह जो स्वर्ण मृग हैं, यह झूठा हैं। वह किसी और चीज़ में हैं। जादूगर इत्यादि थोड़ी हैं, जादू देखना है तो चले जाओ, बहुत जादूगर घूम रहे हैं। बंबूरा गांव में अजूबा सर्कस लगा हुआ है। अभी अभी चमौसी से आया है। वहां जादूगर मिल जाएंगे। वह कुछ गायब कर देते हैं, कुछ कर देते हैं, कहीं से कुछ निकाल देंगे। वह मेज़ पर लड़की काटते हैं, आरा चलाते हैं, देखा हैं? और फिर वह एक हो जाती हैं। तो हैट के भीतर से खरगोश निकाल देते हैं। मुंह के भीतर से कुछ निकाले जाते हैं। ये कोई सिद्ध पुरुष हो गए? जादू हो रहा हैं; ये अगर सिद्ध पुरुष है तो यह सिद्धाई तो खूब सीखी जा सकती हैं, कहीं भी। जाओ और पी. सी. सरकार की शिष्य बन जाओ।
इन लक्षणों की तलाश में मत रहना कि दिव्य ज्योतियां विस्तीर्ण हो रही होगी उनके ललाट से। अहा! अहा! वह की जा सकती है फिर। इलेक्ट्रॉनिक्स बहुत आगे बढ़ गई हैं। कौनसी दिव्य ज्योति चाहिए, बताओ? और जहां से चाहिए, वह वहां से निकलेगी। नन्हें-नन्हें से लाते है; दांत से निकालनी हैं दिव्य ज्योति, निकलेगी; ज़बान से निकालनी है, निकलेगी; दाढी-मूंछ से निकालनी हैं, नाक से निकालनी हैं, कान से निकालनी हैं, शरीर के जिस अंग से दिव्य ज्योति चाहिए और जब चाहिए, तब निकल आएगी, यह सब!
इन्हीं सब कि तलाश में मत रह जाना। खुद भी यही बनने की चेष्टा मत करने लग जाना। यह बड़ा प्रलोभन देता हैं। हमारी आंखें कुछ रूहानी हो जाएं; रूहानी आँखें देखी हैं? वह बड़ी बड़ी आंखें कर लेंगे, ऐसे काज़ल लगा कर। आंखों से आध्यात्मिकता बिल्कुल बह रही हैं। देखी! रूहानी आँखें! दिव्य स्त्रियों की। रूहानी तेज़! कोई नाचेगी तो ऐसे करेगी कि उसपर पता नहीं, आविष्ट हो गई हो, अभी-अभी माता आईं हो।
सूक्ष्मतम् हो, स्थूल मत बना बैठना। यह दो बहुत अलग-अलग बातें होती हैं। स्थूल में सूक्ष्मतम् को देख लेना एक बात हैं, और सूक्ष्मतम को ही स्थूल कल्पित कर लेना बिल्कुल दूसरी बात हैं।
माया में भी सत्य देख लेना एक बात है और सत्य को माया कल्पित कर लेना बिल्कुल दूसरी बात हैं। उन्नीसवे में तो कह दिया है कि वह तो वासना रहित होता हैं। अभी थोड़ी देर पहले ख रहे थे कि वह महान् वासना में भी लिप्त हो सकता हैं।
अब आप समझ रहें है न, महान् वासना में लिप्त होते हुए भी वासना रहित होता है।
जो वास्तविक होगा, वह अति साधारण होगा। वहां पर तुम अनूठेपन के चिन्ह मत खोजना। तुम्हारी आंखों में नहीं आयेंगे। उसका अनूठापन बहुत सूक्ष्म हैं। आंखो से पकड़ में आने वाला नहीं। जो आंखो से पकड़ में आ जाए, उसको तुम वेशभूषा, लेप, आडंबर और पाखंड जानना। कभी-कभी आपको वह सब ज़िक्र मिल जाएंगे जहां महापुरुषों की अलोकिक्ता का वर्णन आता हैं; किसी ने कुछ जादू कर दिया, किसी ने कुछ कर दिया। पर ऐसे हर वांक्या के पीछे ऐसे हर वाक्ए के पीछे दस वाक्ए ऐसे मिलेंगे जहा दिखाईं देगा कि वे बिल्कुल ही साधारण थे। राम के रूपी पत्नी उठा ले गया। यह तो आम संसारी भी कर लेता हैं न कि उसकी बीवी को किसी तरह सुरक्षित रख लें। अब कोई आया हिरण बन कर और इनको चक्मा दे गया। यह कैसे भगवान हैं?
बाद में आप कह देते हो कि लीला हैं। अष्टावक्र कहते है कि यह लीला इत्यादि नहीं है; वे होते ही साधारण हैं। वह खा ही जाते है चकमा, जैसे हर साधारण आदमी चकमा खाता हैं। राम का वैलक्षण्य इसमें नहीं हैं कि वह जान जाएं कि यह को स्वर्ण मृग हैं, यह झूठा हैं। वह किसी और चीज़ में हैं। जादूगर इत्यादि थोड़ी हैं, जादू देखना है तो चले जाओ, बहुत जादूगर घूम रहे हैं। बंबूरा गांव में अजूबा सर्कस लगा हुआ है। अभी-अभी चमौसी से आया है। वहां जादूगर मिल जाएंगे। वह कुछ गायब कर देते हैं, कुछ कर देते हैं, कहीं से कुछ निकाल देंगे। वह मेज़ पर लड़की काटते हैं, आरा चलाते हैं, देखा हैं? और फिर वह एक हो जाती हैं। तो हैट के भीतर से खरगोश निकाल देते हैं। मुंह के भीतर से कुछ निकाले जाते हैं। ये कोई सिद्ध पुरुष हो गए? जादू हो रहा हैं; ये अगर सिद्ध पुरुष है तो यह सिद्धाई तो खूब सीखी जा सकती हैं, कहीं भी। जाओ और पी. सी. सरकार की शिष्य बन जाओ।
इन लक्षणों की तलाश में मत रहना कि दिव्य ज्योतियां विस्तीर्ण हो रही होगी उनके ललाट से। अहा! अहा! वह की जा सकती है फिर। इलेक्ट्रॉनिक्स बहुत आगे बढ़ गई हैं। कौनसी दिव्य ज्योति चाहिए, बताओ? और जहां से चाहिए, वह वहां से निकलेगी। नन्हें-नन्हें से लाते है; दांत से निकालनी हैं दिव्य ज्योति, निकलेगी; ज़बान से निकालनी है, निकलेगी; दाढी-मूंछ से निकालनी हैं, नाक से निकालनी हैं, कान से निकालनी हैं, शरीर के जिस अंग से दिव्य ज्योति चाहिए और जब चाहिए, तब निकल आएगी, यह सब!
इन्हीं सब कि तलाश में मत रह जाना। खुद भी यही बनने की चेष्टा मत करने लग जाना। यह बड़ा प्रलोभन देता हैं। हमारी आंखें कुछ रूहानी हो जाएं; रूहानी आँखें देखी हैं? वह बड़ी बड़ी आंखें कर लेंगे, ऐसे काज़ल लगा कर। आंखों से आध्यात्मिकता बिल्कुल बह रही हैं। देखी! रूहानी आँखें! दिव्य स्त्रियों की। रूहानी तेज़! कोई नाचेगी तो ऐसे करेगी की उसपर पता नहीं, आविष्ट हो गई हो, अभी-अभी माता आईं हो।
सूक्ष्मतम् हो, स्थूल मत बना बैठना। यह दो बहुत अलग-अलग बातें होती हैं। स्थूल में सुक्ष्मतम को देख लेना एक बात हैं, और सूक्ष्मतम को ही स्थूल कल्पित कर लेना बिल्कुल दूसरी बात हैं।
माया में भी सत्य देख लेना एक बात है और सत्य को माया कल्पित कर लेना बिल्कुल दूसरी बात हैं। उन्नीसवे(श्लोक – १९) में तो कह दिया है कि वह तो वासना रहित होता हैं। अभी थोड़ी देर पहले कह रहे थे कि वह महान् वासना में भी लिप्त हो सकता हैं। अब आप समझ रहें है न, महान् वासना में लिप्त होते हुए भी वासना रहित होता है।
भावाभावविहीनो यस्-तृप्तो निर्वासनो बुधः।
नैव किंचित्कृतं तेन लोकदृष्ट्या विकुर्वता॥१८- १९॥
अनुवाद: तत्त्वज्ञ भाव और अभाव से रहित, तृप्त और कामना रहित होता है । लौकिक दृष्टि से कुछ उल्टा-सीधा करते हुए भी वह कुछ भी नहीं करता ॥१९॥
- अष्टावक्र गीता ( अध्याय - १८, श्लोक – १९)
आचार्य: उसकी चाल उसकी अपनी होती हैं। कभी ऐसा लगेगा कि साधारण जन जैसा चल रहा है, कभी ऐसा भी लगेगा कि साधारण जन जैसा नहीं चल रहा हैं। पर जब लगे कि दाएं चल रहा हैं, जब लगे कि बाएं चल रहा हैं, दोनों ही स्थितियों में वह अचल हैं। वह चल ही नहीं रहा। जो चल ही न रहा हो, उसको पूरी आज़ादी हो जाती है, किधर को भी चलने की। तो उसकी चाल पर मत जाना। उसकी चाल वास्तव में अचलता हैं। उपनिषद् कहते हैं आत्मा के बारे में; कि न चलते हुए भी वह जो सबसे तीव्र गति से चलता है, उससे भी तीव्र हैं। वह चलती तो नहीं हैं, लेकिन जो तीव्रतम हैं, उससे भी ज़्यादा तेज़ चलती हैं।
दा रेस इज़ वॉन बाई दा वन हू डीड नॉट रन
जो नहीं चलेगा, वहीं उनसे आगे चल जाएगा जो बहुत चल रहें हैं। आगे निकलने के लोभ के मारे यह बात ग्रहण मत कर लेना।
बोध में ग्रहण करो, लोभ में नहीं!