संसार को जानना है तो स्वयं को जानो || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)

Acharya Prashant

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संसार को जानना है तो स्वयं को जानो || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)

तिलेषु तैलं दधनीव सर्पिरापः स्रोतः स्वरणीषु चाग्निः । एवमात्मात्मनि गृह्मतेउसौ सत्येनैनं तपसा योउनुपश्यति ।।

~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (श्लोक १५)

अनुवाद: जिस प्रकार तिलों में तेल, दही में घी, स्रोत में जल, और काष्ठों में अग्नि आदि तत्व छिपे रहते हैं, उसी तरह परमात्मा अपने अन्तःकरण में ही छिपा हुआ है। जो साधक परमात्मा को सत्य तथा तप के द्वारा मनन-पूर्वक देखता है, परमात्मा उसी साधक के द्वारा ग्रहण किया जाता है।

आचार्य प्रशांत: तुम्हारे ही केंद्र में, तुम्हारे ही अन्तःकरण में है वो। क्या चाहिए? सत्य और तप। सत्य और तप होगा तो प्राप्ति हो जाएगी।

क्या अर्थ है सत्य और तप का? सत्य से आशय है - प्रेम सत्य के प्रति। भई, सत्य ही जब लक्ष्य है तो हम क्यों कहते हैं कि सत्य ही साधन भी है? क्यों कह रहे हैं उपनिषद् में कि 'जो साधक परमात्मा को सत्य तथा तप के द्वारा मनन-पूर्वक देखता है'? इन शब्दों से तो लगता है कि जैसे सत्य को साधन की तरह कहा जा रहा है। कहा जा रहा है, “जो साधक परमात्मा को सत्य के द्वारा देखता है,” तो यहाँ सत्य को कैसे बताया गया है? जैसे सत्य साधन हो, जैसे सत्य कारण हो। तो जब कहा जाए कि साधक में सत्य होना चाहिए, तो वास्तव में उसको ऐसे पढ़ना कि साधक में सत्यता होनी चाहिए; और सत्यता का अर्थ होता है सत्य के प्रति प्रेम।

तो जब कहा गया है कि साधक में सत्य और तप हों, तो उसको ऐसे पढ़ो कि साधक में प्रेम और तप हों। प्रेम किसके प्रति? सत्य के प्रति। प्रेम और तप क्यों चाहिए? प्रेम चाहिए ताकि तुम अपनी परिधि को छोड़कर केंद्र की ओर आकर्षित हो रहे हो। बैठे कहाँ हो तुम? परिधि पर। पर आकर्षित किधर को हो रहे हो? केंद्र की ओर। तो वो (प्रेम) तो बड़ा ज़रूरी है न? नहीं तो केंद्र की ओर तुम बढ़ोगे ही क्यों अगर आकर्षण ही नहीं है? तो इसीलिए पहली शर्त है भाई, प्रेम होना चाहिए; भले ही आप परिधि पर बैठे हैं, पर प्रेम केंद्र से हो गया है।

और तप क्यों चाहिए? क्योंकि परिधि को छोड़ने में कष्ट तो होगा न, उसी कष्ट को झेल जाने का नाम है तप। परिधि को छोड़ोगे तो ताप उठेगा, कष्ट उठेगा, वो कष्ट तुम स्वीकार कर लोगे अगर तुम्हारा प्रेम गहरा है।

तो उपनिषद् ने साधक में ये दोनों गुण बताए हैं। साधक में अगर ये दोनों लक्षण पाए जाएँ, तो समझ लेना उसे सफलता मिलेगी।

सर्वव्यापिनमात्मान क्षीरे सर्पिरिवार्पितम् । आत्मविद्यातपोमूल तद्ब्रह्मोपनिषत्परं तद्ब्रह्मोपनिषत्परमिति ॥

~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (श्लोक १६)

अनुवाद: साधक दूध में निहित घृत की भाँति आत्मा में स्थित जिस परमात्म-तत्त्व को आत्म-विद्या और तप के आधार से प्राप्त करता है, वह उपनिषदों में वर्णित परमतत्त्व ब्रह्म ही है।

आचार्य: अपने भीतर पहुँचकर के, अपनी परिधियों को, अपने संस्कारों को काटकर के तुम जिसको पाते हो, वो वही है जिसकी सारे उपनिषदों ने चर्चा और पूजा करी है।

“अयम् आत्मा ब्रह्म”: वह आत्मा जो तुम्हें अपने भीतर की शुद्धता में प्राप्त होगी, वही इस विश्व का मूल तत्व ब्रह्म है; दोनों में कोई अंतर नहीं है।

बाहर खोजने निकलोगे, कठिन होगा, करीब-करीब असंभव; तो संसार का सत्य जानना है, अपने भीतर चले जाओ, वहाँ मिल जाएगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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