संसार है रसोई और परमात्मा है पकवान || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)

Acharya Prashant

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संसार है रसोई और परमात्मा है पकवान || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)

यस्मात्परं नापरमस्ति किंचिद्यस्मान्नाणीयो न ज्यायोऽस्ति कश्चित्। वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकस्तेनेदनं पूणं पुरुषेण सर्वं॥

जिससे कोई भी न तो सूक्ष्म है और न ही बड़ा। जो अकेला ही वृक्ष की भाँति निश्चल आकाश में स्थित है, उस परम पुरुष से ही यह संपूर्ण विश्व संव्याप्त है।

~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (अध्याय ३, श्लोक ९)

आचार्य प्रशांत: "जिससे न तो कोई सूक्ष्म है और न ही बड़ा।" न उससे कोई ज़्यादा छोटा है, न ही कोई उससे बड़ा है। न उससे कोई सूक्ष्मतर है, न स्थूलतर है, वह ऐसा है।

आशय क्या है इससे?

आशय इससे यह है कि तुम जब सूक्ष्म की दिशा में जाते हो तो वहाँ भी तुम्हारी सीमाएँ खड़ी हो जाती हैं। आँखें हों या कान हों, या तुम्हारी कोई भी और इन्द्रियाँ हों, वह एक सीमा से ज़्यादा सूक्ष्मता का अनुभव कर ही नहीं सकती। कोई चीज़ छोटी होती जाए, होती जाए तुम्हारी आँख के सामने, ऐसा नहीं कि वह कितनी भी छोटी होती जाए तुम्हें दिखती ही रहेगी। एक बिंदु आएगा जिसके बाद वह तुम्हें प्रतीत होना ही बंद हो जाएगी।

मन भी ऐसा ही है। यह मत सोचना कि मन सूक्ष्म-से-सूक्ष्म बात भी समझ सकता है, पकड़ सकता है; या जो कुछ अति सूक्ष्म हो, मन उसका अवलोकन, चिंतन कर सकता है। नहीं कर सकता। मन भी एक बिंदु पर जाकर ठहर जाता है।

तो जब तुमसे कहा जा रहा है कि वह जो है, ब्रह्म या सत्य, वह सूक्ष्म-से-सूक्ष्मतर और स्थूल-से-स्थूलतर है, तो वास्तव में तुम्हें बताया जा रहा है कि तुम्हारी पहुँच से बाहर का है। माने तुम्हारी पहुँच में जो कुछ है वह तो ब्रह्म नहीं है। वह क्या है फिर, दुश्मन है हमारा? नहीं। वह ब्रह्म तक पहुँचने की युक्ति हो सकता है। वह ब्रह्म तक पहुँचने का साधन हो सकता है, माध्यम हो सकता है, वाहन हो सकता है, पर उसे ब्रह्म मत मान लेना। सारी गड़बड़ यही है।

देखो, दुनिया में दो ही चीज़ें हैं, या तो वह या उसकी प्रकृति। सूफ़ियों से कहोगे, वे कहेंगे या तो ऊपर वाला है या उसकी क़ुदरत। ठीक है? वेदांत से पूछोगे तो कहेंगे या तो निराकार ब्रह्म या साकार ब्रह्म। तीसरा तो कुछ होता ही नहीं। जो तीसरा है उसी को माया बोलते हैं, कि वह है नहीं पर लगता है कि है। तो यही दो होते हैं न, या तो सगुण ब्रह्म या निर्गुण ब्रह्म। यही दो होते हैं।

तो फिर दुनिया हमारी दुश्मन कैसे हो गई, बाबा? अगर समस्त यथार्थ या तो निर्गुण सत्य है या सगुण सत्य है, तो दुनिया में पाप कहाँ से आ गया, आसुरी शक्तियाँ कहाँ से आ गईं? दुनिया में कुछ भी त्याज्य कैसे हो गया? कुछ भी गर्हित कैसे हो गया, निंदित कैसे हो गया? कैसे हो गया?

वह ऐसे हो गया कि जो कुछ भी तुम्हारे ज्ञान में नहीं आता तुम उसे अपना दुश्मन बना लेते हो। तुम समझ नहीं पाए कि उसका इस्तेमाल कैसे करना था, इसलिए तुम उसका दुरुपयोग कर बैठे। चूँकि तुम उसका दुरुपयोग कर बैठे, इसलिए तुम्हें नुकसान हो गया। तुम्हें नुकसान हो गया, तुम कह रहे हो यह चीज़ ही बुरी है।

दुनिया में जब सत्य-ही-सत्य है, तो कुछ भी बुरा कैसे हो गया? पर तुम्हारे लिए बुरा हो जाता है; कब बुरा हो जाता है? (कलम हाथ में उठाकर श्रोताओं से कहते हुए) जब तुम यह पकड़े हुए हो और जानते नहीं कि इसका प्रयोग कैसे करना है। यह तुम्हारे सामने है, तुम इससे उपनिषद् भी लिख सकते थे। लिख सकते थे न? पर तुम्हें पता ही नहीं है इसका करना क्या है।

एक साहब आए, उन्होंने इससे (कलम से) किसी की हत्या करने का कार्यक्रम लिख डाला। एक आए जिन्होंने घृणा में भरा हुआ पत्र लिख डाला। तुम्हें पता ही नहीं है इसका करना क्या है। और भी होते हैं करतूती, उनको यह भी नहीं पता था कि यह लिखने की चीज़ है। वह आए, इसको देखा और मुँह में डाल लिया। अब हलक में फँस गया है और 'हाय-हाय!' करके चिल्ला रहे हैं और कह रहे हैं 'चीज़ ही बुरी है, चीज़ ही बुरी है!'

दुनिया में कुछ बुरा नहीं है। दुनिया में जो कुछ भी है, वह इसलिए है कि तुम उसका सार्थक उपयोग करके उसके पार निकल जाओ।

तुम्हें जो कुछ भी जगत में प्रतीत हो रहा है, जो कुछ भी तुम्हारी इन्द्रियों के अनुभव क्षेत्र के भीतर है, वह ब्रह्म तो नहीं है पर वह ब्रह्म का विपरीत भी नहीं है, क्योंकि ब्रह्म के विपरीत कुछ होता ही नहीं। तो फिर वह क्या है?

तुम्हें यह बात पूछने जैसी नहीं लगती कि, “आचार्य जी, आप अद्वैत को पूजते हैं और अद्वैत में तो दो क्या, एक भी नहीं होता। अद्वैत में तो किसी दूसरे की सत्ता होती ही नहीं। तो फिर ये आप 'माया-माया' क्या कहते रहते हैं। और ये सब उपनिषद् ये क्या बातें कर रहे हैं कि 'वह मन से बाहर है'? यह अंदर और बाहर करते ही कितने हो गए? दो। तो यह बात तो अद्वैत का उल्लंघन हो गई न?"

नहीं, उल्लंघन नहीं हो गई। उसकी (ब्रह्म की) माया है। यह सब कुछ जो तुमको साकार दिखाई दे रहा है, सगुण दिखाई दे रहा है यह उसका विस्तार है। वह तो नहीं है। इसको ही तुमने अगर सत्य मान लिया, इसी से मन लगा बैठे, इसी को समर्पित हो गए, तो फँसोगे, मरोगे। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि यह जितना कुछ है इसका तिरस्कार, बहिष्कार करना है। इसका क्या करना है? इसका समुचित प्रयोग करना है।

अरे, भाई वहाँ पर रसोई में कढ़ाई रखी है और चिमटा रखा है और तवा रखा है। रखा है कि नहीं रखा है? रखा है न? वही खा लोगे? संसार क्या है? चिमटा, कढ़ाई, तवा और भगौना। ये नहीं खाए जाते। इनसे तुम्हारी प्यास नहीं बुझेगी। पर अगर तुम इनका सही इस्तेमाल करना जानो, तो इनसे वह पककर निकलेगा जिससे तुम्हारी प्यास बुझ जाएगी।

हम कौन हैं? हम कढ़ाई चाट हैं। हम कढ़ाई में पकाना नहीं जानते, हम खाली (सिर्फ़) कढ़ाई को चाटना जानते हैं। ये सांसारिक आदमी है, ये दुनियादारी है। क्या? कढ़ाई क्यों दी गई थी? पकाओ, ज़रा कला दिखाओ। और करने क्या लग गए? पका तो रहे नहीं, उसको चाटे जा रहे हैं, चाटे जा रहे हैं। लिप्त हो गए दुनिया में ही और फिर कह रहे हैं, "प्यास नहीं बुझती, भीतर बड़ा सूनापन रहता है!" किया क्या है ज़िंदगी में? चिमटा अंदर ले लिया है, कढ़ाई सर पर डाल रखी है, कान में दो चम्मच लटक रहे हैं। यह तुम्हारी ज़िंदगी भर की करतूत है रसोई में।

दुनिया क्या है? रसोई। रसोई नहीं चाटते, रसोई का सदुपयोग करते हैं। और रसोई में जो चाकू है वह इसलिए नहीं है कि एक-दूसरे की गर्दन काट दो। वह इसलिए है ताकि रसीली तरकारी तैयार हो।

ब्रह्म पकाओ, ब्रह्म; ज़िंदगी इसलिए है। तुम अहंकार हो, दुनिया रसोई है और ब्रह्म इस रसोई का उद्देश्य है।

तिरस्कार नहीं करना है रसोई का। कोई कहे, ‘रसोई को तो हमने बिलकुल भर्त्सना करके बंद कर दिया है’, तो वह हमेशा भूखा ही रहेगा फिर। जो दुनिया की भर्त्सना करेगा उसे ब्रह्म का सौभाग्य कभी नहीं मिलेगा। तुम जाकर रसोई में ताला लगा दो, कुछ खाने को पाओगे? और कहो, "आचार्य जी बता गए थे कि इस रसोई में जो कुछ भी है वह ब्रह्म नहीं है। बताया था न आचार्य जी ने कि इस रसोई में जो कुछ भी है वह ब्रह्म नहीं है? तो हम क्या करेंगे? हम रसोई में ताला मार देंगे।"

पागल, रसोई में ताला मार दिया तो भी ब्रह्म नहीं पाओगे। रसोई को चाटने से भी ब्रह्म नहीं मिलेगा और रसोई को ताला मारने से भी ब्रह्म नहीं मिलेगा। रसोई में प्रवेश करना है, वहीं पर पसीना बहाना है, वहीं पर आग जलानी है, वहीं से ब्रह्म पकाना है।

ये दो तरह के लोग होते हैं, भ्रमित संसारी और भ्रमित संन्यासी। भ्रमित संसारी कौन है? जो कढ़ाई चाट रहा है। और भ्रमित संन्यासी कौन है? जिसने रसोई में ताला मार दिया।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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