असंसारस्य तु क्वापिन हर्षो न विषादिता। स शीतलहमना नित्यं विदेह इव राजये॥
~ अष्टावक्र गीता, अध्याय १८, श्लोक २२
अनुवाद: संसार मुक्त पुरुष को ना कहीं कोई हर्ष होता है, ना विषाद, उसका मन सदा शीतल होता है और वह विदेह के समान शोभायमान होता है।
आचार्य प्रशांत: विदेह के समान राज करता है। असंसारी है वो, ना उसे हर्ष है, ना विषाद है, शीतल मना है। विदेह के समान शोभायमान रहता है। विदेह समझते हो? जिसकी देह ही ना हो। जब ना हर्ष है, ना विषाद है, तब हर्ष भी है, विषाद भी है। जब हर्ष होता है तब हर्ष महत्वपूर्ण होता है। जब विषाद होता है तब विषाद महत्वपूर्ण होता है। हर्ष महत्वपूर्ण हो गया तो विषाद से घबराओगे। विषाद महत्वपूर्ण हो गया तो हर्ष की ओर भागोगे। विषाद से लड़ोगे।
ना हर्ष है, ना विषाद है, मतलब ना हर्ष महत्वपूर्ण है, ना विषाद महत्वपूर्ण है। हर्ष ऐसा हो गया कि जैसे हवा आयी तो पत्ते को ही धर ले गई, पत्ते का कोई प्रतिरोध नहीं। खुशी दे रहे हो हँस लेंगे, हँस लिया। और विषाद ऐसा कि हवा आयी तो पत्ते को उधर ले गई। और उधर ले गई तो उधर जाने में भी हमें कोई अड़चन नहीं है। उधर ले जा रहे हो, उधर चले जाएँगे। विषाद के भागी हो जाएँगे। कौन सा हमारी जड़ काँपी जा रही है। कौन सा कुछ मूलभूत बदला जा रहा है। मुखौटे हैं, एक के बाद एक धारण करते जाते हैं। एक उतरता है, दूसरा पहन लेते हैं। कौनसा हमारा नैसर्गिक चेहरा गन्दा हुआ जा रहा है। जो अपने नैसर्गिक चेहरे में ही रहते हैं, उन्हें धन्यता ये मिलती है कि अब वो हज़ार अन्य चेहरे पहन सकते हैं। वो सारे चेहरे अब जीवन हैं उनके लिए, अब गति हैं, अब क्रीडा है, शोभा है, अभिव्यक्ति है। और जिसके पास अपना चेहरा नहीं, वो भी हज़ार अन्य चेहरे पहनता है। उसके लिए वो सारे चेहरे विवशता हैं, मजबूरी है, एक कार्यण्विक कद्रदान है।
तुम्हारे पास तुम्हारा चेहरा हो और फिर तुम सौ अन्य चेहरे पहनो, ये तुम्हारा ठाठ है, ये तुम्हारा वैभव है। ये संपन्नता हुई तुम्हारी, ये तुमने अपनी हस्ती का प्रदर्शन करा है। और तुम्हारे पास ना हो तुम्हारा चेहरा, तब तुम धारण करो अन्य चेहरे, तो अब ये बड़ी विवशता की बात है। तुम्हें धारण करना ही था, मजबूरी थी, क्योंकि तुम्हारे पास अपना नहीं था। अब तो इस धारण किए हुए चेहरे के ग़ुलाम बन जाओगे। तो इन नकली चेहरों को कभी उतार कर फेंक नहीं पाओगे। उतारते-फेंकते डर लगेगा, कहोगे कि, "ये उतर गए, फिक गए, तो हम कहाँ बचे। हम और हैं क्या, हम क्या हैं? ये जो नकली चेहरे हैं, यही तो हम हैं!" अब ये नकली चेहरे तुम्हारे नहीं हैं; अब तुम इन नकली चेहरों के हो। अब तुम राज नहीं कर रहे हो बल्कि ये चेहरे तुम पर राज कर रहे हैं। ये चेहरे तुम्हें हुड़की देंगे। तुमसे कहेंगे, "हमें उतार कर फेंक मत देना। हमें उतारा तो फिर तुम ही उतर गए क्योंकि हमारे अलावा तुम्हारे पास है क्या?"
अष्टावक्र के ज्ञानी के पास, क्योंकि अपना चेहरा है, आत्मा है इसीलिए वो अब सौ अन्य चेहरे पहन सकता है। हर्ष भी पहन सकता है, विषाद भी पहन सकता है। क्योंकि उसके अपने चेहरे पर ना हर्ष है, ना विषाद है, ना आलंबन है, ना वासना है, ना परतंत्रता है। जब कुछ नहीं चाहिए, तब चाह सकते हो। जब ग़ुलामी का कोई डर नहीं तब ग़ुलाम हो सकते हो। परमात्मा और क्या करता है? उसे छोटे हो जाने का कोई डर नहीं है, तभी तो वो रेत का एक कण बनने में भी संकोच नहीं करता। उसे गन्दे हो जाने का कोई डर नहीं है तभी तो वो धूल-धूसर और तमाम मलिनता बन जाने में भी पीछे नहीं हटता। उसे द्वैत का कोई डर नहीं है, इसीलिए उसने पूरा संसार ही द्वैतात्मक रचा है।
तुम जिसके पार होते हो, तुम उसके मालिक हो जाते हो।
'पार होने' का अर्थ इसीलिए 'त्याग' नहीं होता। त्याग का वास्तविक अर्थ है मालकियत। जो तुमने त्याग दिया, तुम उसके मालिक हो गए। ये अजीब बात है। जब तक तुमने त्यागा नहीं था, तब तक तुम्हें लगता था तुम मालिक हो। जब तक तुमने त्यागा नहीं था, तब तक तुम नहीं मालिक थे। तब तक वो वस्तु मालिक थी, जिसको तुम पकड़े बैठे थे। पकड़ का यही तो खेल है। जब भी तुम कुछ पकड़ कर रखते हो तो तुम्हें लगता है तुमने पकड़ रखा है। बात हरदम ये होती है कि
जिसको तुमने पकड़ा है, उसने तुम्हें पकड़ रखा होता है।
तुम कभी किसी वस्तु के, व्यक्ति के मालिक नहीं होते। तुम जिसका भी अपने को मालिक समझ रहे हो, वो तुम्हारा मालिक हो जाता है। तो त्याग की खूबसूरती इसी में है, छोड़ा तो पा लिया। अब पकड़ा तो पकड़े गए।
त्याग से लोग घबराते हैं, कहते हैं, "त्याग देंगे तो चीज़ छूट जाएगी।" ना, त्याग दोगे तो उसके राजा हो जाओगे। सन्यासी के लिए इसीलिए दोनों नाम होते हैं; पहला 'त्यागी', दूसरा 'स्वामी'। अब बात को समझ लेना जो त्यागी है, वही स्वामी है।
परमात्मा ने एक अर्थ में इस संसार को त्याग रखा है। तभी तो वो इसका मालिक है। नित्य नहीं, वो परमात्मा ने छोड़ ही दिया है। तुम करो अपनी मर्ज़ी। परमात्मा कभी आता है तुम्हारे कान ऐंठने?
संसार है, संसार के सिद्धांत हैं, कर्मफल हैं, कार्य-कारण के क्रम हैं, करो जो करना है। परमात्मा त्यागे बैठा है, वह साक्षी मात्र है, वह दृष्टा है, वह कुछ नहीं करता, त्याग है। क्योंकि त्याग है इसीलिए मालिक है। किसी दिन उसको आसक्ति पैदा हो जाए, वो कहे, "अरे-अरे-अरे बड़ा दुराचार फैला है, हम चलकर कुछ करें।" आएगा नहीं कि पकड़ा जाएगा यहाँ। आप ही लोग जो बैठे हैं, वही पकड़ लेंगे। कहे, "परमात्मा जी आएँ, परमात्मा जी आएँ, लाओ पाँव मींच दें, पकड़ा गया!"
तो परमात्मा की महानता इसी में है कि वो जान छुड़ाए अलग बैठा हुआ है। त्याग से मत घबराइएगा। घबराहट को ही त्याग दीजिएगा। जो घबराहट को त्याग देगा, अब वो घबराहट का मालिक हो जाएगा। इसीलिए अब वो खुलकर घबरा पाएगा। हम तो घबराते हुए भी लज्जाते हैं। घबराहट में कोई शर्म नहीं। पर घबराहट में शर्माना बड़े शर्म की बात है। कभी बिना शर्म के घबराए हो? घबराते हो तो छुपाते हो। खुलकर घबराओ! जैसे पत्ता वायु वेग में खुलकर कम्पन करता है। पत्ता लज्जाता है क्या? "अरे मैं ज़रा सा, मेरी बित्ते भर की हस्ती, हवा चली मैं काँप गया!" पत्ता खुलकर कम्पित होता है, और ज़्यादा तेज़ हवा चले तो टूट भी जाता है। उड़ने लगा हवा के साथ। आदमी अकेला होगा जो अगर पेड़ से टूटे पत्ते के माफ़िक तो उड़ेगा नहीं, टूट कर के पीछे से अपने समुदाय को, अपने परिवार को, बीवी-बच्चों को आवाज़ देगा। "हरी पत्ती बचाने आ!" और पत्ती अगर होगी सती, तो वो भी टूट-टाटकर चलेगी पीछे बचाने के लिए। ये हरकतें आदमी की हैं।
अष्टावक्र का पत्ता टूटने के लिए स्वतंत्र है। लगा हुआ था तो लगने के लिए स्वतंत्र था। टूट गया तो टूटने के लिए स्वतंत्र है। यही तो भाव का मज़ा है। स्वतंत्रता में लगे हुए थे, स्वतंत्रता में टूट भी गए। अब ऐसी स्वतंत्रता हमारे पल्ले नहीं पड़ती। हम कहते हैं, "स्वतंत्रता का मतलब कुछ ऐसा होगा न पक्का कि, स्वतंत्रता में ऐसा होता है।" ना, स्वतंत्रता में मात्र ऐसा होता और कुछ नहीं होता तो वो परतंत्रता हो गई। क्योंकि जो सीमित हो वो स्वतंत्रता नहीं हो सकती। जो विभाजित हो वो स्वतंत्रता नहीं हो सकती।
स्वतंत्रता का अर्थ होता है जीने के लिए भी आज़ाद हो और मरने के लिए भी।
आज़ादी में जिए और आज़ादी में मर भी गए। स्वतंत्रता का मतलब ये नहीं कि जाने भर की आज़ादी है। स्वतंत्रता का मतलब आने की भी आज़ादी है। स्वतंत्रता का मतलब ये कि अब हमें परतंत्र रहने की भी आज़ादी है।
समर्पण जानते हो न? आम आदमी क्यों नहीं कर पाता? क्योंकि वो सोचता है कि आज़ादी का मतलब ही है 'आज़ादी'। संपूर्ण सिर्फ वो कर पाएगा, जो जानेगा की आज़ादी का मतलब होता है कि आज़ादी में भी आज़ाद हो और ग़ुलामी में भी आज़ाद हो। तभी तो समर्पण कर पाओगे। वरना ग़ुलामी कर कैसे पाओगे! समर्पित हुई वही सत्ता है, जो जान ले कि समर्पण आज़ादी की उच्चतम अभिव्यक्ति है।
जिसको झुकने में बड़प्पन नहीं दिखा, वो झुक कैसे पाएगा? इसीलिए जो बड़प्पन के कायल होते हैं, वो कभी बड़े नहीं हो पाते। बड़े वही हो पाते हैं जिन्हें छोटा होना स्वीकार होता है। छोटे में बड़े को देख लो, तब तुम बड़े में स्थापित हुए। और जो बड़े-बड़े के पीछे भागता रहा, छोटे से कतराता रहा, वो इतना छोटा होगा कि उसे ना बड़ा समझ आएगा, ना छोटा।