
प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी, मैं असम से आई हूँ। मैं बुक स्टॉल लगाती हूँ। तो मेरा प्रश्न है कि मैं आपके जैसा कैसे बन सकती हूँ? बेपरवाह।
आचार्य प्रशांत: अरे, मत बनना भाई, मैं ख़ुद परेशान हूँ अपने जैसा होकर।
प्रश्नकर्ता: नहीं सर, मुझे आपके जैसा बनना है, क्योंकि मुझे बेपरवाह, बेफ़िक्र बनना है। बहुत सारी सिचुएशन्स होती हैं जहाँ पर मुझे रूडली ऐक्ट करना चाहिए, पर लोगों को खुश करने के लिए मैं उनकी तरह, मतलब, उनको खुश करने के लिए उनके हिसाब से चलती हूँ। मुझे नहीं करना है वो सब चीज़ें। बहुत सारी चीज़ें मुझे बतानी हैं, क्लाइमेट चेंज के बारे में, पशु क्रूरता के बारे में।
आचार्य प्रशांत: मैं कभी भी नहीं चाहूँगा कि आप में से किसी की भी किस्मत इतनी ख़राब हो कि उसे मेरे जैसा बनना पड़े। मैं कभी भी नहीं चाहूँगा। मैं काम इसलिए कर रहा हूँ ताकि किसी को भी आगे ये काम न करना पड़े।
आप सब मुक्त होकर के खेलिए, कूदिए। कोई ज़रूरी थोड़े ही है कि बोझ उठाया ही जाए। कोई ज़रूरी थोड़े ही है कि जैसी दुनिया आज मिली है, वैसी दुनिया आगे भी मिले, आगे आने वाले लोगों को।
तो जीवन तो निर्बंध मौज भी हो सकता है, खेल भी हो सकता है, और उसमें कोई पाप नहीं हो जाएगा। ये तो स्थितियाँ ऐसी हो गईं कि अब खेल-मौज सब परे रख कर के संघर्ष ही एकमात्र रास्ता बचा है। पर संघर्ष भी इसीलिए किया जा रहा है ताकि आने वाली पीढ़ियों को संघर्ष न करना पड़े। इसलिए थोड़े कि आज जो तकलीफ़ें हैं, आज जो समस्याएँ हैं, आज जो विभीषिकाएँ हैं, ये बची ही रह जाएँ ताकि आने वाले समय में भी अपने ही जैसे सौ लोगों की ज़रूरत पड़े। अगर आने वाले समय में भी ऐसे ही ज़रूरत पड़ गई और लोगों की, तो फिर मतलब हमारा काम तो सब व्यर्थ ही गया न।
एक डॉक्टर ने कोई काम किया, उसके बाद मरीज़ जा रहा है सात और डॉक्टरों के पास, इसका क्या मतलब है? डॉक्टर का काम तो व्यर्थ ही गया।
आप भी मुझे जैसा देख रहे हो, जब कहते हो मेरे जैसा बनना चाहते हो, आप जैसा मुझे देख रहे हो, ये मेरे व्यक्तित्व का कुछ ख़ास स्थितियों में एक चेहरा है। अभी स्थितियाँ ऐसी हैं, इसलिए आप बस बाहर से मेरा व्यक्तित्व देख पा रहे हो, वो भी उस व्यक्तित्व का बस एक रूप, एक फ़साड, एक पहलू आप देख पा रहे हो।
कोई मुझसे पूछे तो मैं कहता कि कोई और हो गया होता मुझसे पहले, जो काम आज मैं कर रहा हूँ वो कर गया होता, तो मैं भी आज खेल रहा होता। मैं ऐसा हूँ थोड़े ही, मुझे भी खेलना पसंद है। पर खेलने के सामान की जगह हाथ में वक़्त ने अगर हथियार दे दिए तो ठीक है। पर मैं बिल्कुल नहीं चाहूँगा कि आपको भी आगे यही संघर्ष करना पड़े। अपना तो जो जैसा होना था, हुआ।
मुझसे कोई आज से बीस साल, तीस साल पहले पूछता कि क्या आगे अपने आप को ऐसा देखते हो, तो मैं तो नहीं कहता। क्योंकि फिर कह रहा हूँ, संघर्ष बहुत बड़ी बात है, पर निर्बंध आनंद से नीचे की बात है संघर्ष भी। नदियाँ थोड़े ही संघर्ष करती हैं। हवाएँ थोड़े ही संघर्ष करती हैं। प्रकृति में कुछ भी संघर्ष कर रहा है क्या? वहाँ तो सब कुछ सहज बह रहा है, मौज में है।
मनुष्य को भी ऐसे ही होना चाहिए, सहज बहता हुआ। और संघर्ष तो देखो, जब भी मिलेगा, कुछ घाव छोड़ के जाएगा, कुछ कड़वाहट छोड़ कर जाएगा। ये हमारी नियति नहीं है। हाँ, जब ज़िंदगी चुनौती देगी तो हम संघर्ष को स्वीकारेंगे। मैंने स्वीकारा है, पर मैं ये नहीं चाहूँगा कि वो संघर्ष सबकी ज़िंदगी में आए।
जहाँ आपको भी दिखाई दे कि गंदगी है, लड़ो, भिड़ो, साफ़ करो, संघर्ष करो। पर इसका मतलब ये थोड़ी है कि संघर्ष करते ही रहना है। क्योंकि संघर्ष करने के लिए फिर गंदगी ज़रूरी हो जाती है। अगर गंदगी होगी ही नहीं तो संघर्ष किससे करोगे?
अब मैं आपको पढ़ा दूँ कि संघर्ष ही उच्चतम बात है, तो एक तरह से मैंने आपको पढ़ा दिया कि गंदगी ही उच्चतम बात है, क्योंकि संघर्ष करने के लिए गंदगी चाहिए। नहीं, संघर्ष से भी ऊँची बात है निष्प्रयास जीना, सहज जीना, जीवन में जो कुछ भी है उसके साथ बहना। दुनिया ऐसी हो जाए और ज़िंदगी ऐसी हो जाए कि किसी विरोध की ज़रूरत ही न पड़े। पर आज ऐसा नहीं है, आज बहुत कुछ ऐसा है जिसे विरोध की ज़रूरत है। और मुझको ऐसा दिखाई दिया कि आज बहुत कुछ ऐसा है जिसे विरोध की ज़रूरत है, तो मैं वो विरोध कर रहा हूँ।
पर वो विरोध मैं इसलिए कर रहा हूँ ताकि जो कुछ हटाया जाना है, मैं उसको हटा दूँ और मेरे बाद, मेरे अलावा कम ज़रूरत पड़े किसी को उतना जूझने की।
लेकिन मान लो मैं काम नहीं कर पाता पूरा, जिसकी बहुत संभावना है, तो जूझने से डरना मत, ठीक है? जूझना कोई आख़िरी बात नहीं है। किसी को पाओ कि संघर्ष नहीं कर रहा, मस्त मौज में है, तो उसको नीचा मत मान लेना। ये कोई नीची बात नहीं होती।
नदी किनारे आप चुपचाप बैठे हो, इसमें कोई नीची बात नहीं हो गई। लेकिन हाँ, पीछे गाँव में आग लगी हुई है, तब आप नदी किनारे चुपचाप बैठे हो, तो ये नीची बात है।
मैं चाहता हूँ गाँव की आग को मैं बुझा दूँ ताकि सब लोग नदी किनारे चुपचाप, शांत बैठ पाएँ, किसी को संघर्ष न करना पड़े।
लेकिन आग जैसी है, जैसा मैं देख पा रहा हूँ, आग शायद इतनी आसानी से बुझेगी नहीं। हम जानते हैं क्या है ये आग। है न, जानते हो? किस आग की बात कर रहे हैं? आप जानते हो उस आग को।
तो आग अगर नहीं बुझी है, तो नदी किनारे मत बैठ जाना, पानी ले-लेकर भागना, दौड़ लगाना, संघर्ष करना। ठीक है? लेकिन फिर भी याद रखना कि संघर्ष इसीलिए है ताकि एक दिन संघर्ष न करना पड़े। हमारी ज़िंदगी भले ही बीत जाए करने में, पर चलो हमारे बाद किसी को न करना पड़े।
प्रश्नकर्ता: इसी में अपना स्वार्थ आ जाता है, दिखाई देता है कि जो बोलना चाहिए क्लाइमेट चेंज के बारे में या पशु क्रूरता के बारे में, वो नहीं बोल पाती हूँ।
आचार्य प्रशांत: नहीं, स्वार्थ कैसे आ जाता है? क्या स्वार्थ है?
प्रश्नकर्ता: वही कि उन लोगों से जो मिलना था, वो मिलना शायद बंद हो जाएगा।
आचार्य प्रशांत: तो क्या मिला है, जब अभी स्वार्थ बाक़ी रह गया तो? उनसे अगर कुछ मिला होता तो पेट भर गया होता, पेट भर गया होता तो स्वार्थ बचता नहीं। माने उनसे कुछ मिला भी नहीं है और फिर भी उनके सामने ऐसे कटोरा, तो क्या फ़ायदा?
जिससे कुछ मिल रहा हो, अगर हम उससे उम्मीद रखें तो चलो ठीक भी है। उनसे कुछ मिल भी रहा है सचमुच? नहीं मिल रहा तो फिर? जब मिल भी नहीं रहा, तो फिर उनके सामने काहे को खड़े हो, अपने आप को रोककर के? हालत ये कर ली है कि जो सही काम है, वो भी नहीं कर पा रहे, और जिस स्वार्थ की ख़ातिर सही काम रोक रखा है, वो स्वार्थ भी नहीं पूरा हो रहा। दोनों तरफ़ से मारे गए। कोई फ़ायदा?
देखो भाई, ये सब जो हम अभी कर रहे हैं ना, हम ऐसे खड़े हुए हैं, ये आपद् धर्म है। ये आपातकाल की निशानी है। ये कोई ऐसा नहीं है कि अध्यात्म का मतलब ही होता है ये सब करना। ये सब उस समय की निशानी है कि जैसे समझ लो कि रणभूमि में सब खड़े हो गए हैं और सेनाएँ तैयार हैं, ये वो चल रहा है सब। लेकिन इसका मतलब नहीं कि जीवन अपनी सहजता में ऐसा ही होना चाहिए।
श्रीकृष्ण ये थोड़ी कह रहे हैं कि हमेशा लड़ते ही रहो, या कह रहे हैं? पर हाँ, अब कौरव पक्ष इतना सबल हो गया है, हावी हो गया है, तो लड़ो। ठीक है? लड़ो, नहीं तो ये जितने दुर्योधन हैं, ये छाएँगे भारत पर, पूरी दुनिया पर। इसलिए लड़ो। समझ में आ रही है बात?
लेकिन ये कोई आख़िरी बात नहीं है कि लड़ते ही रहना है। आपका जो स्वभाव है, वो संघर्ष का नहीं, विश्राम का है। भूलिएगा नहीं। हाँ, विश्राम तक आने के लिए संघर्ष करना पड़े, तो करो। आपका स्वभाव तो शांति ही है, स्वभाव तो विश्राम ही है, स्वभाव तो सहजता ही है। और इसीलिए जब आप संघर्ष कर रहे होंगे, तो थोड़ा-थोड़ा अखरेगा, अखरना चाहिए। वो अखरना ही आपको ये याद दिलाएगा कि इस संघर्ष के पार भी निकलना है कभी। लेकिन ये नहीं कि अखर रहा है तो आपने संघर्ष रोक दिया। न न, जब तक गंदगी बाक़ी है, तब तक अगर साँस चल रही है तो संघर्ष चलेगा। भले ही हमें भीतर से थकान हो रही हो, बुरा लग रहा हो, शरीर है, मन है, लेकिन फिर भी लगे रहेंगे।
न जाने कितने सत्र होते हैं। जब सत्रों में आपसे मैं खरी-खरी बात बोलता हूँ तो इसमें मैं कुछ मिलावट क्यों करूँ? सत्र से आधे घंटे पहले, एक घंटे पहले मैं ऐसे बैठा होता हूँ, सोच रहा होता हूँ कि किसी तरीके से न हो तो? ये न हो तो?
आप में से कुछ लोग जो अब वरिष्ठ हो गए, पैट्रन्स हो गए संस्था में, जो दो साल, पाँच साल से हैं, जिनकी संस्था के लोगों से जान-पहचान हो गई है, वो अगर बात करते होंगे तो बताते होंगे। वो बताएँगे बल्कि इन लोगों को, कि कितनी बार ये तय हो गया है कि आज तो आचार्य जी नहीं ही लेंगे सत्र, क्योंकि न सिर्फ़ मना कर रहे हैं बल्कि गुस्साए हुए हैं कि नहीं लूँगा तो नहीं लूँगा, नहीं लेना। और ये लगभग तैयार हो जाते हैं, और फिर तैयार हो जाते हैं सब बोरिया-बिस्तर बाँध लेते हैं, तो पाते हैं मैं खड़ा हो गया हूँ, कंघी-वंघी करके, “हाँ भाई, कैमरा लगाओ।”
क्योंकि स्वभाव तो विश्राम ही है न। आलस की बात नहीं कर रहा हूँ, किसी दूसरी चीज़ की बात कर रहा हूँ। स्वभाव विश्राम है, धर्म संघर्ष है।
सत्र शुरू होता है, देखा है कैसे शुरू करता हूँ? थोड़ा ख़ुद को गाली दे रहा होता हूँ, थोड़ा कैमरे को, बाक़ी “फिर आ गए सब लेना एक, न देना दो।” और फिर दस–पंद्रह मिनट बीतते हैं और क्या होता है? अब यही है तो फिर यही है, बीच रण विश्राम करेंगे।
और बहुत थकान होती है, बहुत मेहनत लगती है, क्योंकि आदमी जैसे अपना कलेजा निकाल के सामने रख रहा हो। एक तरह का ऑपरेशन होता है भीतरी, कोई तैयारी तो है नहीं कि रटी हुई चीज़ आपके सामने बोल दी। भीतर से कुछ फावड़ा लेकर के जैसे खोदा जा रहा हो, और उसको बाहर निकालना, एक्सकैवेशन है, डिगिंग है, माइनिंग है। उसमें बहुत भीतरी थकान होती है, आपको भी होगी।
इसलिए कह रहा हूँ कि मैं नहीं चाहता कि आप में से किसी को भी मेरे जैसा जीवन मिले, तो मेरे जैसा बनने का प्रयास मत करना। हाँ, किस्मत ऐसी हो कि संघर्ष सामने आ ही गया, तो फिर पीठ भी मत दिखाना, ठीक है? मैं भी चाहता हूँ कि खेलूँ। बहुत कुछ है जो मुझे भी व्यक्तिगत तौर पर करना था, वो सब छूट गया पीछे। आपने किताब की बात करी, मुझे लिखने से ज़्यादा कुछ नहीं पसंद है। पर इतनी किताबें आईं, मैं लिख थोड़ी ही पाया हूँ। क्योंकि लेखन माँगता है कि डूब जाओ लिखने में, फिर ये नहीं कर पाऊँगा मैं कि कलम और माइक के बीच में झूला झूलूँ।
और भी है, जाना है देखना है, जगहें थीं जिनको समझना था; और भी ज़िंदगियाँ थीं जिनको जीना था, वो सब पीछे छूटा। एक तरह से अफ़सोस है, एक तरह से नहीं भी है, क्योंकि जो सबसे ज़रूरी है, वो तो करना ही है न? जब करना ही है, तो फिर अफ़सोस कैसा? लेकिन फिर भी, मुझे करना पड़ा तो करना पड़ा, आपको न करना पड़े।
इधर कोई ग्लैमर नहीं है, बेटा। इधर कोई ग्लैमर नहीं है, मैं बिल्कुल नहीं चाहूँगा कि तुम्हें गुज़रना पड़े इन सब चीज़ों से। और अभी तो कहानी बहुत सारी बाक़ी है। अभी तो तुम्हें ये भी नहीं पता कि मुझे आगे किन-किन चीज़ों से गुज़रना है।
जिस दिशा में ये गाड़ी जा रही है, आगे कोलिज़न होना लगभग तय है। आने वाला समय कोई मेरे लिए अच्छा नहीं होने वाला। मैं क्यों चाहूँगा कि तुम्हें मेरे जैसी ज़िंदगी मिले?
अभी तो आपका समाज, और अभी तो उनको ख़तरे का पता चलना शुरू हुआ है। जैसे-जैसे बात उनको और स्पष्ट होती जाएगी, आपको क्या लग रहा है, वो छोड़ देंगे? मैं उनके सामने वो ख़तरा रख रहा हूँ जो उनको शताब्दियों से नहीं मिला है। बड़े से बड़ा ख़तरा हूँ मैं उनके लिए, छोटा-मोटा नहीं, दशकों वाला नहीं, सेंचुरीज़ वाला। तो कुछ अच्छा तो नहीं होने जा रहा मेरे साथ। मैं क्यों चाहूँगा कि वही आपके साथ भी हो?
ये बद्दुआ की तरह है। मुझे किसी को अगर श्राप जैसा देना होता है तो उसको बोलता हूँ, “एक हफ़्ते के लिए न, मेरे जैसा बनना पड़ेगा।” ये श्राप है, मुझे ही भुगतने दो।