प्रश्नकर्ता: सर, जैसे अभी बात हो रही थी कि इंसान अकेला है जो लालच करता है। लेकिन सर कुत्ते का उदाहरण देखिए, वो भी तो अपना इलाक़ा बनाता है। वो भी अपने इलाके में किसी को आने नहीं देता है, तो क्या वो लालच नहीं है?
आचार्य प्रशांत: जानवर भी इकट्ठा करते हैं, सवाल ये है कि, "क्या जानवरों में लालच की भावना नहीं होती?" होती है, पर उसको लालच कहना ठीक नहीं होगा क्योंकि जानवर संचय करता है पर उतना ही जितना सिर्फ उसके शारीरिक निर्वाह के लिए चाहिए। चींटी शक्कर का दाना लेकर चलती है, चिड़िया भी घोंसला बनाती है, शेर शिकार करता है, कुत्ता अपना क्षेत्र बनाता है। अधिकांशतः सभी जानवर अपना-अपना क्षेत्र निर्धारित करते हैं और उसकी रक्षा भी करना चाहते हैं।
लेकिन तुमने देखा नहीं होगा कि कोई जानवर कई सालों के लिए इकट्ठा करे। ऊँट इकट्ठा करता है क्योंकि उसे पता होता है कि रेगिस्तान में पानी की कमी है; पर कोई ऊँट इसलिए नहीं इकट्ठा करता कि पड़ोसी को दिखाना है। कोई ऊँट इसलिए नहीं इकट्ठा करता कि उसकी सात पुश्तें अमीर रहें, कोई ऊँट इसलिए नहीं इकट्ठा करता कि उसको तमगा मिले या पदवी मिले। तो उनके पास जो कारण होते हैं वो शारीरिक होते हैं।
और अगर जीव है, जानवर है तो शरीर की रक्षा तो करनी ही पड़ेगी न, इतना तो करना ही पड़ेगा। छिपकली है, तुम अच्छे-से जानते हो कि जब बहुत ठण्ड पड़ती है या जब बहुत गर्मी होती है तो क्या होता है, वो हाइबरनेशन (शीतनिद्रा) में चली जाती है। जानते हो न? और उतने समय के लिए उसके शरीर में भोजन संचित होना चाहिए। तो उस हद तक वो इकट्ठा करेगी, पर उससे ज़्यादा नहीं। तुम किसी छिपकली को पोटली लेकर घूमते नहीं देखोगे। तुम अमीर छिपकली और ग़रीब छिपकली नहीं देखोगे। तुम किसी छिपकली को इस बात पर उदास नहीं देखोगे कि वो अरबपति नहीं बन पाई।
संचय जानवरों के साथ कभी बीमारी नहीं बनता, क्योंकि उन्हें अच्छे-से पता है कि उन्हें किस सीमा तक जाना है। इंसान अकेला है जिसे अपनी सीमा का पता नहीं है। इंसान अकेला ऐसा है जो पेट से ज़्यादा दिमाग की ख़ातिर कमाता है।
मैं जब तुमसे पूछा करता हूँ कि “कितना कमाना चाहते हो?”, तो मैं तुमसे साथ में ये भी पूछता हूँ कि, "तुम्हारे मूलभूत जीवनयापन के लिए कितना चाहिए?" उतना अर्जित तो करना पड़ेगा। पर आदमी का लालच वहीं तक सीमित नहीं रहता न। नीड और ग्रीड (ज़रूरत और लालच) का फ़र्क इंसान भूल जाता है। जानवर नीड जानता है, इंसान ग्रीड जानता है। तुम भी वहीं तक जाओ जितना तुम्हारा शरीर माँग रहा है। तुम भी वहीं तक जाओ जितना तुम्हें अपने तन को सुरक्षा देने के लिए चाहिए, तो कोई बात नहीं।
पर जिन्होंने अरबों-खरबों इकट्ठा कर रखे हैं क्या वो उसको खाएँगे? क्या वो उसको पहन सकते हैं? ओढ़ सकते हैं? क्या अपने जीते-जी वो उसका कुछ भी कर सकते हैं? तो वो एक मानसिक बीमारी है फिर। संचय करना, इकट्ठा करना, परिग्रहण, मानसिक बीमारी है इंसान के साथ। ये बीमारी अस्तित्व में कहीं और नहीं पाई जाती।
इतना श्रम तो फ़कीर भी करतें हैं कि शाम के खाने के लिए प्रबंध कर लें। पर वो ऐसा नहीं करते कि दो साल बाद के खाने के लिए भी प्रबंध करके रखें। तुम अगर ऐसे ही जियो कि “आज के लिए रख लेंगे और बहुत हुआ तो कल के लिए, और मन नहीं माना तो परसों के लिए भी”, तो ठीक। आज, कल, परसों तक ठीक, लेकिन तुम आज, कल, परसों के लिए नहीं तुम बरसों के लिए रखते हो। तब दिक्कत हो जाती है।
दो दिन, चार दिन का प्रबंध करना बीमारी नहीं कहा जा सकता पर भविष्य में लम्बी छलांग मारना और असुरक्षा से ग्रस्त रहना, उसको तो व्याधि ही कहना पड़ेगा।
हम क्यों इकट्ठा करना चाहते हैं, जानते हो? हमें लगता है कोई अनहोनी घट जाएगी कल। आगे पता नहीं क्या हो, तो पहले से इंतज़ाम करके रख लो।
दुनिया में कुछ भी और नहीं है जो इतना डरा हुआ हो। अस्तित्व में कुछ भी इतना ज़्यादा खौफ़ज़दा है ही नहीं जितना इंसान है। सबको भरोसा है, सबको एक आंतरिक भरोसा है कि “जो भी होगा, चल जाएगा काम।” उन्हें सोचने की ज़रूरत भी नहीं पड़ती। उनका भरोसा भी विचार का नहीं है। इतना सोचते भी नहीं हैं, बस भरोसा है।
इंसान अकेला है जो श्रद्धाहीन है। उसे भरोसा ही नहीं है। उसे लगता है “मैंने इकट्ठा नहीं किया तो पता नहीं कल मेरा क्या होगा”। और श्रद्धाहीनता के लिए ही शब्द होता है, ‘कर्ताभाव’- *डूअरशिप*।
जितनी तुम में श्रद्धा की कमी होगी, उतना तुम्हारा कर्ताभाव ज़्यादा होगा। तुम्हें लगेगा कि “अगर मैंने नहीं किया तो मेरा क्या होगा? मुझे ही तो अपना रास्ता बनाना है। अगर मैंने अपनी परवाह नहीं की, तो कौन करेगा? दुनिया मेरी दुश्मन है, मुझे अपनी रक्षा करनी है। मैं एक ऐसी जगह पर आ गया हूँ जो शत्रुवत है।”
उसको ये नहीं लगता है कि अस्तित्व उसका मित्र है। उसको ये नहीं लगता कि कुछ-न-कुछ प्रबंध तो हो ही जाएगा। उसको ये नहीं लगता कि आकस्मिक तौर पर ही सही, कहीं-न-कहीं से उसको मदद मिल ही जाएगी। उसको ये लगता है कि आकस्मिक हमला या दुर्घटना ज़रूर हो सकती है पर आकस्मिक मदद नहीं मिल सकती। ऐसा ही विचार है न हमारा?
प्र: जी, सर।
आचार्य: रात में दो बजे तुम्हारे दरवाज़े पर कोई खटखटाए तो तुममें से कितने लोग सोचते हो कि कोई शुभ सन्देश आया है? तुम सो रहे हो, रात में दो-तीन बजे कोई खटखटाने लग जाए तो हालत खराब होती है न? क्यों खराब होती है? जब तुम्हें पता नहीं है कि क्यों खटखटा रहा है, तो तुम ये भी तो सोच सकते थे कि “हो सकता है कि कोई बहुत बेहतरीन ख़बर आई हो”। पर तुम्हारे दिमाग में ये बात कभी नहीं आती।
तुम्हारे दिमाग में पहली बात ये उठती है, “कुछ गड़बड़ हो गई क्या, कोई अनिष्ट?” इससे पता चलता है कि दुनिया के बारे में तुम्हारी धारणा क्या है? दुनिया के बारे में तुम्हारी धारणा ये है कि “दुनिया बुरी जगह है, ख़तरनाक जगह है। जहाँ कभी भी कोई भी अनहोनी घट सकती है।" और जब तुम इस भाव के साथ जी रहे हो तो जीवन नर्क है। है कि नहीं?
प्र: जी, सर।
आचार्य: लगातार डरे हुए हो। कभी कोई पीछे से आकर तुम्हारे कंधे पर हाथ रख देता है तो मुस्कुरा तो नहीं उठते, कि कोई मित्र ही होगा, कोई दोस्ती करने आया होगा, कोई कुछ देने ही आया होगा; तुम चीख़ मार देते हो।
देखा है? क्यों मार देते हो चीख़? थोड़ा सोचो, क्यों मार देते हो चीख़? क्योंकि तुम्हारे मन में लगातार ये बात बैठा दी गई है कि दुनिया ख़तरनाक ताकतों से भरी हुई है, दुनिया में शैतान का वास है, और वो तुम्हें कोई-न-कोई नुकसान ज़रुर पहुँचाना चाहता है। “घर से बाहर मत निकलना! बाहर दुष्ट आत्माएँ घूम रही हैं!”
"सो जा बेटा नहीं तो बाबा उठा कर ले जाएगा।"
(श्रोता हँसते हैं)
जिन लोगों ने अपने अज्ञान में, अपनी मूढ़ता में ये बातें तुम्हारे मन में डाल दीं, उन्होंने तुम्हारा बड़ा गहरा नुकसान कर दिया है, उन्होंने तुम्हें बिलकुल ही विकृत कर दिया है। तुम्हारा मन संकुचित और विकृत हो चुका है। दुनिया को देखने की तुम्हारी जो दृष्टि है बड़ी मलिन हो चुकी है। तुम्हें फूल नहीं दिखाई देते हैं अब, सिर्फ काँटे दिखाई देते हैं। कितनी आसानी से शक कर लेते हो न? कर लेते हो कि नहीं? कुछ भी, कोई अनजाना व्यक्ति हो तो उस पर शक करना ज़्यादा आसान है या यक़ीन करना?
प्र: शक करना।
आचार्य: शक तुम्हारी आदत बन चुकी है। यक़ीन तुम्हें आता ही नहीं क्योंकि यक़ीन का श्रद्धा से बड़ा गहरा सम्बन्ध है।
मन अगर श्रद्धालु नहीं होगा परमात्मा के प्रति, तो वो यक़ीन नहीं कर सकता दुनिया का भी।
और तुम्हें बात-बात में शक है। अभी भी मैं तुमसे बोल रहा हूँ तो तुम्हें मुझपर भी शक है- "पता नहीं क्यों बोल रहे हैं!"
लगातार यही लगता रहता है न, “ज़रूर कोई बात है, ख़ुफ़िया राज़ है, दाल में कुछ काला है”? दाल में कुछ काला नहीं है, तुम्हारी आँखों में धूल पड़ी हुई है। तुम जो कुछ देखोगे तुम्हें उसी में काला-काला नजर आएगा। “कोई षड्यंत्र कर रहा है, ख़ुफ़िया साज़िशें रची जा रही हैं, बच के रहना रे बाबा!” देखा है, टी.वी. में जो इस तरह के सीरियल आते हैं जिसमें कहा जाता है- “बच के रहना! दुनिया खौफ़नाक, ख़तरनाक और हैवानियत से भरी हुई है।” और उसको देखने में कितना उत्साह, कैसा तो मज़ा आता है! और कई लोग हैं जो कुछ नहीं देखते पर वो ज़रूर देखते हैं।
क्या है वो? "चैन से सोना है तो जाग जाओ", और आपको अच्छा लगता है कि कोई आपको जैसे चेता रहा हो, कोई आपका शुभचिंतक हो। वो आपको बता रहा है कि “देखो तुम्हारा पड़ोसी चोर है; देखो तुम्हारा गटर जो है, वो गटर नहीं सुरंग है। कमोड से डकैत निकलेगा।”
(श्रोता हँसते हैं)
प्र: पर, सर, वो जो बोल रहे हैं, बात तो ठीक ही बोल रहे हैं।
आचार्य: क्या ठीक बोल रहे हैं?
प्र: सर, वो घटनाएँ होती तो हैं।
आचार्य: कितने घरों में हो जाती हैं?
प्र: सर, कई घरों में होती ही हैं।
आचार्य: और कितने घरों में नहीं होती हैं?
प्र: सर, फिर भी डरना तो पड़ता ही है, बिना डरे कोई जी ही नहीं सकता।
आचार्य: (व्यंग करते हुए) ये देखो “बिना डरे कोई जी नहीं सकता।” अच्छा, बिना डरे एक साँस लेकर दिखाओ।
(सब हँसते हैं)
ले ली साँस? जब एक साँस ले सकते हो तो एक और भी ले सकते हो, और एक और ले सकते हो तो एक और भी ले सकते हो। ‘प्रिंसिपल ऑफ़ मैथमेटिकल इंडक्शन’ (गणितीय आगमन का सिद्धांत) क्या होता है? ‘इफ इट इज़ ट्रू फॉर १,२,३,४….n, देन इट विल आल्सो बी ट्रू फॉर n+१’ (यदि कोई सिद्धांत n प्राकृत संख्या के लिए सत्य है तो वह n+१ के लिए भी सत्य होगा)।
बिना डरे एक साँस ली?
प्र: हाँ।
आचार्य: एक और लो। क्या जी नहीं रहे हो अभी? अभी डरे हुए हो?
प्र: सर, ऐसे कोई डरेगा नहीं तो तेज़ रफ़्तार में गाड़ी चलाएगा, और कुछ हो जाएगा।
आचार्य: जिसे डर नहीं है वो क्या पागल है? तुमने डर का विकल्प बस पागलपन समझा है? “इंसान दो ही तरह का हो सकता है, या तो डरा हुआ, अन्यथा पागल”। किसी तीसरी अवस्था को नहीं जानते क्या? अभी डरे हुए हो? अभी, जब मुझसे बात कर रहे हो?
प्र: नहीं सर, खुलकर बात कर रहा हूँ।
आचार्य: अभी खुलकर बात कर रहे हो तो डरे हुए नहीं हो न। तो पागल होगे? तुम्हीं ने कहा कि आदमी अगर डरा हुआ नहीं रहेगा तो पागल हो जाएगा। इधर-उधर बाइक घुसेड़ देगा।
(सब हँसते हैं)
तो ऐसा हो सकता है न कि आदमी न डरा हुआ रहे और न विक्षिप्त? एक तीसरी हालत सम्भव है कि नहीं है? पर तुमने जो बात कही, वो बात महत्वपूर्ण है। क्योंकि हमें सिखाया यही गया है। हमसे कहा गया है कि “अगर डरोगे नहीं तो उच्छृंखल हो जाओगे, उद्दंड हो जाओगे, उपद्रव करोगे, नुकसान करोगे।” यही कहा गया है न?
प्र: जी, सर।
आचार्य: तो नियम में बंध कर रहो, डर कर रहो। ये मानकर चलो कि तुम्हारा कोई नुकसान हो सकता है। ऐसा कुछ नहीं है। ना डर ज़रूरी है और ना पागलपन ज़रूरी है। बिना डर के और बिना विक्षिप्तता के शांत, सयंमित होकर, बोध-युक्त तरीके से जिया जा सकता है। जैसे अभी बैठे हो तुम, अभी न तुम भयभीत हो, न तुम विक्षिप्त हो। तुम अभी ऐसे हो सकते हो तो हमेशा भी ऐसे हो सकते हो।
और समझना इस बात को, बात हमने संचय से शुरू करी थी। जो जितना डरा हुआ रहेगा वो भविष्य के बारे में उतना विचार करेगा, उतना संचय करेगा, उतनी तैयारी करेगा, उतनी योजनाएँ बनाएगा।
तुम्हारा डर कितना गहरा है, ये जानना हो तो बस ये देख लो कि तुम्हारे मन में भविष्य कितना घूमता रहता है।
या फिर किसी से कह दो कि, "कभी यूँ ही रात के तीन बजे मेरा दरवाज़ा खटखटा देना।" कितने पसीने आते हैं इससे जाँच लेना कि कितने डरे हुए हो। दरवाज़े तक नहीं आ सकता हो तो उससे इतना ही कह देना कि रात तीन-साढ़े तीन बजे मुझे फ़ोन कर देना किसी अनजान नंबर से, और देखो कैसे ख्याल आते हैं मन में।
तुम्हें किसी डरावनी जगह पर नहीं फेंक दिया गया है। ये दुनिया भी उसी स्रोत से आई है, जिस स्रोत से तुम आए हो। अगर तुम भले हो तो दुनिया बुरी कैसे हो सकती है? या तुम्हारा और दुनिया का उद्गम अलग-अलग है? अलग-अलग है क्या? कि “दुनिया तो गन्दी जगह है पर तुम बड़े साफ़ हो”? कुछ ऐसा है? दोनों एक ही हो, तुम में और दुनिया में कोई अंतर नहीं है। तो डरते किससे हो?
और सवाल ये है, तुम दुनिया से डरते हो तो फिर दुनिया किससे डर रही है? तुमसे। अब पहले ये तय कर लो कि तुम ज़्यादा ख़तरनाक हो या दुनिया ज़्यादा ख़तरनाक है? दोनों पड़ोसी डरे हुए हैं। पहला दूसरे से डर रहा है और दूसरा पहले से, और दोनों का दावा यही है कि दूसरा ज़्यादा ख़तरनाक है। अब तय कर लो कौन ख़तरनाक है।
कोई ख़तरनाक नहीं है। ख़तरनाक सिर्फ डर है। ये जो डर है एक-दूसरे का, ये तुमसे हिंसा करवाएगा और ये तुम्हें लगातार द्वंद्व में रखेगा, भीतर से चीरे हुए रखेगा।
प्र: सर, जैसे आपने अभी कहा कि डरा हुआ आदमी ही भविष्य के बारे में विचार करता है। तो सर क्या इंसान को भविष्य के बारे में विचार करना ही नहीं चाहिए?
आचार्य: इतना समझ में आ रहा है कि भविष्य का विचार कब सघन हो जाता है? ये समझ में आ रहा है? जब तुम पूछते हो कि “इंसान को भविष्य का विचार करना चाहिए या नहीं?” तो तुमने ये प्रश्न कुछ ऐसे पूछा है जैसे मैं कह दूँ कि नहीं करना चाहिए, तो (तुम्हें ऐसा लगे जैसे) तुम्हारे बस में हो ना करना। अगर मन डरा हुआ है तो वो भविष्य का विचार करेगा-ही-करेगा। उसमें चाहिए या ना चाहिए का कोई सवाल ही नहीं है।
ये कोई नैतिकता का प्रश्न थोड़े ही है कि, "करें कि ना करें?" तुम में हिम्मत है अपने विचारों को रोक पाने की? तो 'चाहिए' का क्या सवाल है? जब मन में कोई ख्याल उमड़ता है तो रोक सकते हो? रोककर दिखाओ?
(सभी चुप हैं)
तो क्यों पूछ रहे हो कि आगे का ख्याल करें या ना करें? ख्याल तो आ ही रहा है और आता रहेगा जब तक मन डरा हुआ है। डरे हुए हो तो सोचोगे आगे की और ज़बरदस्ती अपनेआप को रोक नहीं पाओगे सोचने से, सोचते ही रहोगे क्योंकि डर सोच ही है। डर हटा दो, अपनेआप दिख जाएगा कि अब भविष्य की कितनी कीमत बची। फिर भविष्य की इतनी ही कीमत बचेगी कि अगर तुम्हें पता है कि ट्रेन इतने बजे छूट रही है तो तुम उसी अनुसार पैकिंग करके निकल लोगे। इतनी तब भी बचेगी, बस इतनी ही बचेगी लेकिन।