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संवेदनशीलता ही प्रेम है || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)

Acharya Prashant

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संवेदनशीलता ही प्रेम है || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)

पुरुष एवेदँ सर्वं यद् भूतं यच्च भव्यम्। उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति॥

जो भूतकाल में हो चुका है, जो भविष्यकाल में होने वाला है और जो अन्नादि पदार्थों से पोषित हो रहा है, यह सम्पूर्ण परम पुरुष ही है और वही अमृतत्व का स्वामी है।

~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (अध्याय ३, श्लोक १५)

आचार्य प्रशांत: समय की पूरी धारा भी वही है; समय की धारा मर्त्य है, और समय की धारा से बाहर जो अमृत है वह भी वही है। इस पूरे श्लोक का सीधा अर्थ यह है। समय की धारा में जो कुछ है, भूत भी, भविष्य भी और जो वर्तमान की माया है वह भी, सब कुछ परमात्मा है और समय की इस मृत्युधर्मा धारा से बाहर जो अमृत है, वह भी परमात्मा है।

कुल बात क्या हुई?

जिस स्रोत से समय निकला है, समय बस उस स्रोत की अभिव्यक्ति मात्र है। समय अपने-आप में हो नहीं सकता था अगर वह किसी ऐसे का आधार ना लिए होता जो समय में नहीं है।

प्रमाण क्या है इसका?

प्रमाण इसका यह है कि समय में जो कुछ भी है वह समय से बाहर जाने को व्याकुल है; और उसका कोई प्रमाण नहीं है। आदमी का मन और उस मन की वेदना ही सब अध्यात्म का मूल है और सारे आर्ष वचनों का प्रमाण है।

समय, समय से तो नहीं आ सकता न। समय में गतिविधियाँ हैं, हर गतिविधि के पीछे कुछ कारण होता है। जैसे कि एक लंबी ज़ंजीर हो, एक शृंखला हो, उसमें एक-के-बाद-एक कड़ियाँ हैं। हर कड़ी से तुम पूछ रहे हो, 'तू कहाँ से आयी?' वो बोल रही है 'पिछली कड़ी से, पिछली कड़ी है, पिछली कड़ी से'। जो आख़िरी कड़ी है वो कोई कड़ी नहीं हो सकती, क्योंकि अगर वह कड़ी होगी तो उसके पीछे भी फिर कोई कड़ी होगी।

इसलिए वह जो आख़िरी है वह कुछ और ही होगा। वह क्या होगा? वह कुछ ऐसा होगा जिसके बारे में मन कल्पना भी नहीं कर सकता है। तो इसीलिए समय की उत्पत्ति ऐसी जगह से, किसी ऐसे कारण से नहीं हो सकती जो स्वयं समय के भीतर का है। समय की उत्पत्ति निश्चित रूप से किसी ऐसे से ही है जो समय में, माने संसार में, माने कार्य-कारण की शृंखला में कहीं दिखाई दे ही नहीं सकता; वहाँ से समय आ रहा है।

और समय की इस धारा में जो कुछ भी है वह तृप्त नहीं है, संतुष्ट नहीं है। यूँ लगता है जैसे ज़बरदस्ती उसे प्रवाह में छोड़ दिया गया है। वह बाहर आने को आकुल है। मृत्यु है समय की इस धारा में और बाहर फिर अमृत है, क्योंकि जहाँ समय ही नहीं वहाँ मौत कैसे होगी?

देखिए, इन बातों से बिलकुल सीधा संबंध वही बैठा पाएँगे जो अपनी चेतना से बहुत निकट के संबंध में हैं, जो अपने हाल से लगातार परिचित रहते हैं। अन्यथा ये बातें आपको बड़ी विचित्र लगेंगी कि समय की धारा में जो कुछ भी है, व्याकुल है और समय से बाहर आने के लिए छटपटा रहा है। आप कहेंगे 'ऐसा तो है नहीं, मेरे साथ तो ऐसा होता नहीं।'

उपनिषद् ऐसों से ही कहे गए थे जो बहुत संवेदनशील श्रोता थे। संवेदनशील इस अर्थ में ही नहीं कि गुरु के वचनों के प्रति संवेदनशील, संवेदनशील माने जीवन के प्रति संवेदनशील। उनके मन में कोई लहर उठती थी, उनको भनक लग जाती थी कि मन विचलित हुआ। उनके भीतर शोक, क्षोभ, ईर्ष्या, भय उठते थे और वो तुरंत पकड़ लेते थे कि 'इस वक़्त मेरी हालत वह नहीं है जो होनी चाहिए। मैं किसी ऐसी जगह पर आ गया हूँ जहाँ मैं ठीक नहीं अनुभव कर रहा।' ऐसे लोगों से बात कही गई थी कि वही भूत है, वही भविष्य है, वही अन्न से पोषण पाता हुआ यह प्रकट शरीर है और वही वह अमृत है जो काल की धारा से अतीत है।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अभी हम उपनिषद् पढ़ रहे हैं और आपसे समझ रहे हैं तो आप बार-बार दोहराते हैं कि ब्रह्म, परमात्मा आदि से संबंधित ग्रंथों का पाठन करो तो अपनी ओर देखो। लेकिन अगर कोई स्वयं से पढ़ता है तो यह कर पाना मुश्किल होता है। तो उस सन्दर्भ में यदि उपनिषद् को पढ़ा जाए बिना किसी गुरु के सानिध्य में तो उससे कितना लाभ होगा?

आचार्य: उपनिषद् तो देखिए उपकरण हैं, है न? और उनका आविष्कार ख़ास तरीके से प्रयुक्त होने के लिए ही हुआ था। उपनिषद् तो लिखे भी बहुत बाद में गए, पहले तो परम्परा श्रुति की ही थी। तो ऐसा तो सोचा ही नहीं गया था कि कोई व्यक्ति उपनिषद् नामक ग्रंथ लेकर के स्वाध्याय करेगा। स्वाध्याय माने 'ख़ुद पढ़ना'। तो ऐसा तो कल्पित नहीं था, पूरी बात ही यही थी कि गुरु के निर्देश तले ही इनको पढ़ा जाएगा।

और जब कोई समझाने वाला होता है तो एक ही श्लोक के, श्रोता के अनुसार वह अलग-अलग अर्थ दे पाता है। सुनने वाले लोग एक प्रकार के हैं तो एक तरीके से समझाया जाएगा, दूसरे तरीके के लोग हैं सुनने वाले तो दूसरे तरीके से समझाया जाएगा। तो सारी रचना ही इन ग्रंथों की इस तरीके से की गई थी कि एक जीवित चेतना शिष्य के सामने होगी, शिष्य को देख सकती है, समझ सकती है, उसकी जीवन स्थिति से परिचित हो सकती है और फिर उसकी जीवन स्थिति के अनुसार वह श्लोकों का वर्णन और अर्थ कर सकती है।

स्वाध्याय में कुछ खतरा तो निश्चित रूप से है, लेकिन बिलकुल ही ना पढ़ने से तो बेहतर ही है कि स्वाध्याय ही कर लो। अंततः तो सबकुछ अपने मन की शुद्धता पर निर्भर करता है। मन की शुद्धता से मेरा आशय है अभीष्ट की शुद्धता, इरादे की शुद्धता, नीयत साफ़ है कि नहीं। अगर नीयत साफ़ है और आप उपनिषद् पढ़ने बैठें और ना समझ में आए, तो आपको स्वयं ही स्पष्ट हो जाएगा कि आपको मार्गदर्शक की आवश्यकता है।

और नीयत साफ़ ना हो, आप पढ़ने बैठें और ना समझ आए, तो या तो आप कह देंगे कि 'ग्रंथ ही बेकार है, मुझे समझ में नहीं आता', या फिर अपने मन मुताबिक कोई ऊल-जुलूल अर्थ श्लोक के ऊपर प्रक्षेपित कर देंगे। आप कहेंगे 'समझ में नहीं आ रहा, कोई बात नहीं; हम तुक्का लगा लेते हैं कि ऐसा ही कुछ अर्थ होगा।' अपने हिसाब से आप उसका कुछ अर्थ बैठा लेंगे और संतुष्ट होकर, प्रसन्न होकर अगले श्लोक पर पहुँच जाएँगे।

तो ये ख़तरे रहते हैं अशुद्धि के साथ आगे बढ़ने में। कोई अगर समझाने के लिए सामने बैठा है तो निश्चित रूप से ख़तरे कम हो जाते हैं।

प्र२: आचार्य जी, आपने कहा कि उपनिषद् जिनसे कहे गए थे उनके चित्त बहुत संवेदनशील थे और वो अपने मन के हाल से लगातार परिचित रहते थे। संवेदनशीलता अगर मन के हाल के प्रति रखनी है तो ऐसा कैसे हो सकता है कि मन के हाल के प्रति भी संवेदनशील रहें और जो रोज़मर्रा के काम हैं वो भी पूरी गति के साथ करते रहें?

आचार्य: यह तो सवाल ही उल्टा है न। रोज़मर्रा के व्यर्थ के काम तो आप जानें, उसका मुझे पता नहीं, पर अगर सही काम हैं आपके पास रोज़ाना और वो आपसे नहीं होते, तो उसकी वजह ही यही है कि आप संवेदनशील नहीं हैं। आपसे काम हो ही इसीलिए नहीं रहा न क्योंकि आपमें ये संवेदनशीलता, ये सेंसिटिविटी ही नहीं है कि यह काम कितना ज़रूरी है। आपको यह पता हो कि यह काम कितना संवेदनशील है तो आप उस काम के साथ कोताही, गुस्ताख़ी, धृष्टता कर कैसे लोगे?

अभी कुछ दिन पहले आपमें से एक ने मुझसे बड़ी शिकायत करी, बोले, "आप डाँटते बहुत हैं!" मैंने कहा मैं डाँटता हूँ तो कोई वजह तो होगी न। बोले, "हाँ, वजह तो होती है लेकिन आप छोटी-छोटी वजहों पर बहुत ज़्यादा डाँट देते हैं।" मैंने कहा तुम्हें कैसे पता वजह छोटी थी? तुम्हें कैसे पता कि वो ग़लती छोटी है, यह तुम्हें कैसे पता?

बात बस इतनी सी है कि संवेदनशीलता नहीं है, है न? जैसे कि कोई सितार हो और उसको मैं उँगली से ज़रा सा छेड़ दूँ तारों को तो झनझना उठेगा। छोटी सी चीज़ हुई है, वह समझ जाएगा कि बहुत बड़ी बात है और झनझना उठेगा। और ईंट पड़ी हो बहुत सारी और उसको मैं बजाता भी रहूँ तो उसमें से कोई प्रतिक्रिया ही नहीं आएगी।

संवेदनशीलता का मतलब है यह पता होना कि जो आप काम कर रहे हो वो इतना ज़रूरी है कि उसमें थोड़ी सी ढील, थोड़ी सी कोताही बहुत भारी पड़ रही है।

कोई बिलकुल मृत्यु शय्या पर पड़ा हुआ है और डॉक्टर आपको कहता है कि 'नीचे जाओ भाग करके और डिस्पेंसरी से ये दवाई ले आओ।' बड़ा अस्पताल है, ठीक है? और डाक्टर की उम्मीद है कि आप नीचे जाओगे और तीन से चार मिनट के भीतर ले आओगे। उसने तो उम्मीद ये करी कि आप भाग कर जाओगे नीचे, वहाँ डिस्पेंसरी में भी शोर मचा दोगे कि, "ऊपर कोई बिलकुल मर रहा है, डॉक्टर ने बोला है जल्दी से दवाई दो!" सबसे पहले आप दवाई लोगे, दवाई अगर चार सौ की है तो आप पाँच सौ का पत्ता फेंकोगे और सौ रुपए वापस लेने के लिए भी नहीं रुकोगे; भागते हुए आप ऊपर आओगे और जल्दी से डॉक्टर को दवाई दे दोगे।

और आप नीचे गए, आपने तसल्ली से पहले तो दस मिनट में दवाई ली कतार में खड़े होकर। आपने कहा, "भई, नियम यही है न कतार में खड़ा होना है, मैं नियम का ही तो पालन कर रहा हूँ। कोई ग़लती थोड़े ही करी है। मुझ पर कोई इलज़ाम ना लगाए कि मैं कोई ग़लती कर रहा हूँ, मैं तो नियम का पालन कर रहा हूँ।"

उसके बाद डिस्पेंसरी से बाहर निकले तो कैफे था। आपने कहा, "इतना भागकर नीचे आया तो मैं थक भी तो गया हूँ, तो अब तो इनसाफ़ की बात है कि एक समोसा खाऊँगा।' आपने तसल्ली से वहाँ पंद्रह मिनट बैठकर एक समोसा खाया और उसके बाद आप डॉक्टर के पास पहुँचे और डॉक्टर से आप कह रहे हैं कि, "आपके पास कुल पच्चीस मिनट में दवाई ले तो आया हूँ, आप मुझे डाँट क्यों रहे हो?"

डॉक्टर ने कहा, "तुमने देर कर दी न!"

आप बोल रहे हो, "देर करी तो है पर थोड़ी सी देर करी है। आप मुझे इतना ज़्यादा क्यों डाँटते हो?"

तू सेंसिटिव नहीं है, तुम्हें समझ में ही नहीं आ रहा कि मामला कितना संवेदनशील है। वो मर गया! बस वहाँ जो मर गया वो एक जीवित स्थूल प्राणी था तो तुमको लाश दिखाई दे जाएगी। रोज़मर्रा के कामों में जब तुम भ्रष्टाचार करते हो, बदनीयती करते हो, तो जो मर रहा है वो सूक्ष्म है; तुमको दिखाई नहीं देता तुम्हारी स्थूल आँखों से, या ये कहो कि बेईमानी के चलते तुम देखना नहीं चाहते, तो तुम स्वीकार ही नहीं करते कि तुम हत्यारे हो, तुमने जान ले ली किसी की। उल्टे तुम शिकायत करने आ जाते हो, "आचार्य जी आप मुझे इतना डाँटते क्यों हैं छोटी-छोटी बातों पर?" वो छोटी बातें हैं?

तुम्हें कैसे पता कोई चीज़ छोटी है या बड़ी है? पैमाना क्या है तुम्हारे पास, मुझे समझाओ? तुम किसी चीज़ को छोटा और किसी को बड़ा घोषित कैसे करते हो, मुझे समझाओ? तुम्हें कैसे पता कि तुमने बस एक छोटी सी भूल कर दी है? मेरी नज़र में वह बहुत बड़ी भूल है। तुम्हें कैसे पता वह भूल छोटी है? सिर्फ़ बात यह है कि तुम वीणा के तार नहीं हो, तुम कोल तार हो जिस पर कितना भी पाँव पटक लो, चिप-चिप हो सकती है, झंकार नहीं उठती।

अब यह क्या प्रश्न है कि 'संवेदनशील होते हुए भी रोज़मर्रा के काम कैसे सही रखें'? यह तो पूछा ही नहीं कि रोज़मर्रा के काम खराब क्यों हो रहे हैं। जिसको खबर होगी कि क्या चीज़ दाँव पर लगी हुई है, वह आलस, बेईमानी, कोताही, झूठ, फरेब, ये सब कर कैसे लेगा?

एक वीडियो था, कृष्णमूर्ति बोल रहे थे, अचानक से वो बिलकुल फनफना जाते हैं और बोलते हैं, "सच लवलेस पीपल !" (कैसे प्रेमहीन लोग!) यही है, लवलेस (प्रेमहीन) हो, प्रेम की कमी है। प्रेम क्या होता है तुम्हें पता ही नहीं। प्रेम का मतलब होता है कीमत देना किसी चीज़ को; तुम कीमत देना जानते ही नहीं। तुम्हारे लिए तुम्हारे ये छोटे-छोटे दुर्गुणों की और दुर्गन्धों की ही बहुत कीमत है, तुम इन्हीं में लिपटे रहते हो बस। कुछ है जो तुमसे बहुत ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है और उसकी बहुत बड़ी कीमत है, यह तुम्हें समझ में ही नहीं आता। तुम्हें लगता है कि जैसे तुम हो वैसे ही दुनिया के सब काम हैं, मूल्यहीन।

"*सच लवलेस पीपल*।" तुमने एक चीज़, जो छः महीने पहले हो सकती थी, उसे छः महीने विलंबित करा दिया। तुम मुझे बताओ, ये छोटी सी भूल कैसे है? तुमने छः दिन भी अगर उसमें देर करा दी तो ये छोटी सी भूल कैसे है, मुझे बताओ? तुम्हें दवाई लाने भेजा था, तुम कतार नहीं तोड़ पाए, तुम कानून का पालन कर रहे थे, छोटी सी भूल कैसे है? तुम काम पर गए थे, तुम समोसा खा रहे थे, ये छोटी सी भूल कैसे है?

महत्व ही नहीं समझ रहे न। महत्व देना और प्यार करना एक बात होती है बिलकुल, जानते हो न? प्यार उसी से कर सकते हो जिसको महत्व देते हो। और तो कोई प्यार के काबिल होता नहीं। और किससे प्रेम करोगे, किसी महत्वहीन चीज़ से?

मूल्य व्यवस्था ही विकृत है, फ्लाॅड वैल्यू सिस्टम * । समझते ही नहीं हो क्या * वैल्युएबल ( मूल्यवान) है, क्या वर्थलेस (मूल्यहीन) है। जिस चीज़ की दो कौड़ी की कीमत नहीं उससे लिपटे रहते हो, और जो असली चीज़ है उससे मुँह चुराते रहते हो। उसी बेईमानी का नतीजा ये है कि चेहरे पर भय साफ़ दिखाई देता है। भय ही मौत है।

बिना बेईमानी के जीकर के तो देखो। ठसक के साथ जीने का मज़ा दूसरा होता है। फिर मुँह छिपाना नहीं पड़ता है कि यहाँ से डर रहे हैं, वहाँ छुप रहे हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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