संबंधों में आसक्ति || (2020)

Acharya Prashant

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संबंधों में आसक्ति || (2020)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं लोगों से बहुत जल्दी आसक्त हो जाती हूँ। पहले पिता से बहुत आसक्ति थी, फिर पति से, और अब बेटे से आसक्त हूँ, ‘हुक ’ (अंकुड़ा) की तरह फँस जाती हूँ।

पहले मुझे लगता था कि ग़लती दूसरों की है, लेकिन आपको सुना तो जाना कि यह वृत्ति मेरे अंदर ही है।

अभी बेटे से बहुत आसक्ति है। उसका भला चाहती हूँ, पर मैं वह कर नहीं पा रही हूँ। क्या करूँ?

आचार्य प्रशांत: ये हुक है (उँगली से हुक का आकार बनाते हुए)। ये हुक है। इसमें ये चीज़ फँस गई (दूसरे हाथ की उँगली को हुक बने हुए उँगली में फँसाते हुए)। ये (पहली उँगली दूसरी को) इसको उठा भी तो सकती है।

प्र: नहीं, यहाँ तक आने के पीछे और यह समझ आने के पीछे इन हुक ने ही काम किया। क्योंकि जो गहरा दर्द उठा तभी लगा कि इससे छुटकारा पाना है।

आचार्य: इस हुक का सही इस्तेमाल करिए न। हुक में जो चीज़ फँसी है उसको उठाया भी तो जा सकता है न। नहीं समझ रही?

किसी से आसक्त ही तो हो जाती हैं आप। जिससे इतना गहरा रिश्ता बना लेती हैं, उस रिश्ते का इस्तेमाल उसको उठाने के लिए कर लीजिए। या हुक इसी काम आएगा कि किसीको फँसाकर नीचे खींचना है? किसी को हुक में वैसे भी फँसा सकते हैं जैसे मछली फँसाई जाती है। काहे के लिए? कि अब उसका प्राण ही ले लेना है; मार दो, खा जाओ उसको। एक वो भी होता है। और एक हुक वो भी होता है जो सर्जरी में इस्तेमाल होता है। वो किसलिए इस्तेमाल होता है? वो प्राण देने के लिए इस्तेमाल होता है।

प्रकृति ने आपको जो गुण दिए हैं; जैसी आपकी वृत्तियाँ बनाई हैं उन्हीं का इस्तेमाल करके मुक्ति की ओर बढ़ना होता है। और किसका इस्तेमाल करोगे? आपके पास और है क्या? कोई पैदा ही होता है बहुत ऊर्जावान, कोई पैदा होता है शर्मीला, सकुचाता हुआ। एक लड़की पैदा होती है, एक लड़का पैदा होता है। एक पैदा होता है जो शरीर से बहुत ताक़तवर होता है, एक पैदा होता है जिसकी बुद्धि बहुत तीक्ष्ण होती है। ये सब क्या हैं? ये प्राकृतिक गुण हैं।

तो प्रकृति ने सबको कुछ-न-कुछ दिया है। जिसको जो दिया है उसको उसी का इस्तेमाल करना है। आपको अगर मोह दिया है तो मोह का ही इस्तेमाल करना है। किसी को अगर क्रोध दिया है तो उसे क्रोध का ही इस्तेमाल करना है। जिसको जो मिला है उसे उसी का इस्तेमाल करके सही दिशा में आगे बढ़ना है। क्योंकि आप क्या करोगे? आपको चीज़ ही वही मिली है, आपको पैदा ही ऐसा किया गया है। आप अपना मस्तिष्क तो नहीं बदल सकतीं न। आप अपने हॉर्मोन्स तो नहीं बदल सकतीं न। तो फिर?

प्र: नहीं, वस्तु और विचार में नहीं फँसती हूँ, पर व्यक्तियों में फँसती हूँ।

आचार्य: हाँ, तो उन व्यक्तियों के भले के लिए काम करिए। जिससे संबंध है उसकी भलाई नहीं चाहेंगी? तो बस। जिससे संबंधित हो रही हैं उसकी भलाई माँगिए। जब इतनी ऊर्जा है किसी रिश्ते में तो उस ऊर्जा का इस्तेमाल उस रिश्ते को ऊँचाई देने के लिए क्यों न किया जाए। ऐसा हम आमतौर पर देखते नहीं है। आमतौर पर तो मछली वाला ही हुक होता है। लेकिन दूसरा हुक भी हो सकता है। काश कि ऐसा हो पाता कि आपके पास जो वृत्ति का हुक है आप उसको एक मुश्त ही त्याग पातीं। पर वैसा आप कर नहीं पाएँगी।

प्र: आचार्य जी, बेटे को हैंडल करना बहुत मुश्किल काम होता है।

आचार्य: बेटे की बात नहीं है। बात आपके अपने हुक की है। आपसे अगर मैं कहूँ कि "त्याग दो मोह-माया है, आसक्ति मिथ्या है।" तो मैं कह तो दूँगा पर आप कर नहीं पाएँगी। तो उससे कईं बेहतर क्या है? कि आसक्ति का सही उपयोग करना सीखो, मोह का सही उपयोग करना सीखो। जो भी आपको प्राकृतिक तौर पर मिला है उसका आप भलाई की खातिर, शुभता की खातिर, मुक्ति की खातिर प्रयोग करना सीखो।

यही लगता है न — बेटा नज़रों के सामने रहे, बेटा आगे बढ़े। तो फिर ठीक है, आगे बढ़ने का असली अर्थ क्या होता है ये जानिए और बेटे को आगे बढ़ाइए। यही लगता है न कि, "मेरे बेटे की ज़िंदगी में खुशियाँ आ जाएँ, सब रहे अच्छा रहे"? तो असली खुशी क्या होती है ये जानिए और बेटे की ज़िंदगी में असली खुशी लाइए।

प्र२: प्रणाम गुरुदेव, सादर चरण स्पर्श! एक अनुरोध कर रहा हूँ, कि ऐसे हमारी मानसिक स्तिथि है कि एक बेचैनी, एक झटपटाहट सी है। लेकिन वो समझ में भी नहीं आती और समझना भी नहीं चाहता हूँ इसे। जैसे कि आपके समक्ष आता हूँ जब भी तो कोई प्रश्न करने की इच्छा नहीं भी है फिर भी बिना किए रहा भी नहीं जाता है।

आचार्य: कुछ समझने का पुरज़ोर प्रयास करना या किसी निष्कर्ष पर ज़बरदस्ती पहुँचने की ज़रूरत नहीं है। शांतिपूर्वक, मौन से अपने-आपको मौका देते चलें समझने का। जिस बेचैनी की आप बात कर रहे हैं वो कम होने लगेगी।

जल्दबाज़ी करके अगर कोई निष्कर्ष निकाल लेंगे तो वो निष्कर्ष ठीक होगा नहीं। हम जब आमतौर पर कहते हैं न कि, “मैं कुछ समझ गया।” तो वो समझ जाने का अर्थ बस इतना ही होता है कि, "मैंने कोई निष्कर्ष निकाल लिया।” वो निष्कर्ष नहीं होता, वो बस एक अँधा अनुमान भर होता है। उससे लाभ नहीं होता। उससे कईं अच्छा है कि धैर्यपूर्वक सुनने की और समझने की प्रक्रिया को चलने दें। अंदुरूनी तौर पर फिर जो होना है वो अपने-आप होता रहेगा।

इस पूरी प्रक्रिया में संदेह भी उठेंगे, भाव भी उठेंगे, मन में कई तरह के चक्रवात से चलेंगे। उनको सबको चलने दीजिए। उनको किसी को भी बहुत महत्व देने की ज़रूरत नहीं है। ठीक है?

बल्कि ये जो कई तरीके की भावनाएँ उठती हैं और भीतर से आवेग, उद्वेग उठते हैं इनको भी माया का ही रूप जानिए। इनका भी जैसे प्रयोजन यही है कि ये आपको जानने-समझने से रोकेंगे। क्योंकि आप जैसे बैठे हैं, सुन रहे हैं उस वक़्त भीतर से कोई भी प्रचंड भाव अगर उठने लगा तो क्या होगा? आपके सुनने में बाधा पड़ेगी; खासतौर पर अगर आपने उस भाव को वरीयता दे दी।

तो ये जो सब भावनाएँ उठती हैं भले ही वो भावनाएँ बड़ी हार्दिक हों, भले उनमें बड़ा सौहार्द हो, मान लीजिए मेरे लिए ही तो भी उनको बहुत महत्व मत दीजिए।

जब आपने इतना संबंध बना लिया है मुझसे, तो आपके भीतर से मेरे प्रति कोई विरोध की या कटुता की भावना तो उठ सकती नहीं। तो भावना जो उठेगी वो तो मीठी ही होगी। उसमें तो स्नेह ही होगा। लेकिन उस मिठास को, उस स्नेह को भी आप ज़रा सावधानी से ही लें। क्योंकि स्नेह में पड़कर, अपनेपन में पड़कर कही सुनना ना कम हो जाए। भावना के आवेग में अगर आँखे छल- छला गईं तो दिखना कम हो जाएगा न।

आँसू वैसे तो प्रेम के प्रतीक और परिणाम होते हैं। लेकिन आँसू ये भी तो करते हैं कि आपके देखने की क्षमता कम कर देते हैं। तो कितने भी मीठे आँसू हों, उनको भी बहुत तवज्जो नहीं देनी है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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