श्रोता १: सर, जो हम बार-बार समय ख़त्म हो जाने की बात करते हैं, वो एक चीज़ समझ नहीं आती|
वक्ता: आप ये चाहते हैं कि समय ख़त्म हो जाये तो उसके बाद क्या होगा, वो आपको पता चल जाये| अगर वो आपको पता चल जाये तो आप शांत हो जायेंगे| सारी दिक्कत यही होती है कि किसी ने कहा कि समय रुक गया और हमारे लिए ये बात बिल्कुल पहेली बन जाती है क्योंकि हम क्या कहते हैं, ‘ठीक है कि समय रुक गया, पर अब क्या होगा?’ मन तलाशने लगता है| मन चाहता है कि किसी तरह की मूर्ति बन जाये, कल्पना बन जाये कि समय के ख़त्म होने के बाद क्या है|
देखिये कि आप क्या चाहते हैं| समझियेगा! आप कह रहे हैं कि घड़ी चल रही है और घड़ी रुक गयी, और अब आप कह रहे हो कि समय रुक गया तो इसके बाद क्या? अरे! घड़ी तो रुक गयी, उसके बाद क्या है? पर मन अब भी यही जानना चाह रहा है कि समय के बाद क्या है| अरे! समय के बाद घड़ी ही नहीं चल रही है तो क्या होगा? यही हो रहा है ना?
श्रोता १: जी|
वक्ता: हमने जब भी अपने संसार में जब भी कोई अंत देखा है तो उसके बाद सदा एक प्रारंभ देखा है| ये कमरा यहाँ अंत होता है तो उसके बाद एक दूसरी जगह शुरू होती है| कुछ भी जहाँ ख़त्म होता है, वहाँ से कुछ न कुछ शुरू ज़रूर होता है| तो जब भी कोई कहता है कि समय खत्म हुआ तो हम अपनी आदत से मजबूर हो कर कहते हैं कि फिर क्या शुरू होता है| हम उसे भी द्वैत के अंदर रखना चाहते हैं कि इसका अंत हो रहा है तो कुछ न कुछ शुरू ज़रूर होगा|
श्रोता २: पर उसकी तो मन बात भी नहीं कर सकता|
वक्ता: पर बहुत अच्छा है ना कि वो मन को पहेली की तरह लगता है| मन को जब तक लग रहा है कि सब कुछ तो मैं जान ही गया, तब तक तो मन संतुष्ट है| पर इस तरह के रहस्य जब मन के सामने आते हैं तब उसको थोड़ी असुविधा होती है कि ये क्या चीज़ हो गयी कि समय खत्म हो गया| अब वो कोशिश कर रहा है उसको पकड़ने की| जैसे कुत्ता कोशिश कर रहा हो अपनी पूंछ पकड़ने की और गोल-गोल घूम रहा है| मन का क्या हल होगा? गोल-गोल घूम कर थक जायेगा और फिर कहेगा कि कोई और साधन चाहिए, ऐसे गोल-गोल घूमने से कोई फायदा हो नहीं रहा है| अच्छा है कि ऐसे सवाल आते हैं कि ये मामला क्या है?
समय को ही ख़त्म क्यों करना? जगह को भी खत्म कीजिए और फिर देखिये कि मन क्या करेगा| आप ऐसी जगह सोचने की कोशिश कीजिए जहाँ जगह नहीं है| मन कोई जगह ढूंढेगा जो खाली है| जब आप कल्पना भी करते हैं कि जगह ख़त्म हुई तो आप एक नयी जगह की कल्पना करना शुरू कर देते हैं| कल्पना होगी कैसे? सारी कल्पना का आधार ही जगह है| आकाश के बिना, फैलाव के बिना कल्पना कैसे हो जायेगी?
श्रोता २: आजकल विज्ञान भी अजीब-अजीब तरह की हरकतें करने लगा है|
वक्ता: विज्ञान नहीं, वैज्ञानिक|
श्रोता ४: पर हम तो वैज्ञानिक की ही लिखी बात पढ़ते हैं| तो हम कहाँ तक उसकी बात पर यकीन कर सकते हैं?
वक्ता: वैज्ञानिक की बात बिल्कुल ठीक है जब तक वो ऑब्जेक्ट्स को, पदार्थ को देख रहा है| आप बिल्कुल उसकी बात पढ़िये, कोई दिक्कत नहीं है| जहाँ वो अपना क्षेत्र छोड़ कर इधर-उधर भटके तो समझ जाईये कि गड़बड़ कर रहा है| विज्ञान ने अपनेआप के लिए एक दायरा तय किया है और दायरा ये है कि जो कुछ भी ऑब्जेक्टिव है, मैं उसको जानूँगा और उसके लिए साइंस के पास अपने उपकरण हैं, अपने तरीके हैं| अगर इसके अलावा कोई बात होगी तो वहाँ पर कुछ गड़बड़ है|
श्रोता ३: क्या कुछ भी ऑब्जेक्टिव है?
वक्ता: जब तक सब्जेक्ट है, तब तक ऑब्जेक्ट है| जब तक उसे देखने वाला अहंकार है| तो साइंस के होने के लिए अहंकार का होना ज़रूरी है| अगर मैं कहना चाहता हूँ कि एक पेंडुलम है और मुझे उसकी समय-अवधि निकलनी है, कि एक मॉलिक्यूल है और मुझे उसको तोड़ना है, या कि एक लहर है| मेरे ये सब कहने के लिए किसकी ज़रूरत है? मेरे होने की|
श्रोता ४: क्या हम ये कह सकते हैं कि विज्ञान अहंकार को बढ़ा रहा है?
वक्ता: दुनिया अहंकार बढ़ा रही है, विज्ञान नहीं| ज़रूरी नहीं तुम वैज्ञानिक हो, तुम पेंटर भी हो सकते हो| जैसे ही तुम कहोगे कि यहाँ एक नोटपैड है, तो उस नोटपैड के होने के लिए तुम्हें भी होना पड़ेगा| तो ये विज्ञान का सवाल नहीं है, ये वैज्ञानिक के दिमाग का सवाल है या पेंटर के दिमाग का सवाल है या कारपेंटर के दिमाग का सवाल है या किसी के भी दिमाग का| विज्ञान बहुत बढ़िया है पर तुम्हें याद रखना होगा कि जब हम एक ऑब्जेक्ट की बात करते हैं, तो यहाँ तुम्हारा होना ज़रूरी है उस ऑब्जेक्ट की बात करने के लिए| और वो ऑब्जेक्ट तुम्हारा क्षेत्र और तुम उस क्षेत्र से चिपके हो|
श्रोता ४: जब हम पैदा होते हैं तब भी अहंकार होता है, वो एहसास कि मैं हूँ|
वक्ता: फिजिकल कंडीशनिंग है वो आपकी| क्या पैदा होता है? अहंकार ही पैदा होता है| जो अहंकार पैदा होता है उससे निजात पाना बहुत मुश्किल है| जो अहंकार समाज ने दिया है उससे निजात पाना फिर भी आसान है| इसलिए बात ही उस अहंकार कि की जाती है जो सामाजिक है| पर याद रहे कि जो शारीरिक है, वो भी अहंकार ही है|
श्रोता ५: ओशो ने एक ग्रेजुअल इवोल्युशन की बात की थी| हम लोग दुनिया में देखते हैं कि सारी चीज़ ग्रेजुअली ही इवॉल्व होती हैं| तो उसका विपरीत क्या होगा?
वक्ता: समय की एक रफ़्तार होती है हमारे मस्तिष्क में| जैसे ग्रामोफ़ोन का रिकॉर्ड होता है वो 60 rpm, 90 rpm, 120 rpm का होता है| वो 60 rpm पर रिकार्डेर है, पर अगर उसे 120rpm पर बजा दें तो आपको अजीब-सा लगेगा| समय की भी एक गति निर्धारित है हमारे मन में| एक मूवी आप फ़ास्ट-फॉरवर्ड पर देखिये तो आप कहेंगे कि ये क्या फालतू चीज़ है| आप जिसको ग्रेजुअल बोलते हैं, वो किसी के लिए बहुत तेज़ हो सकता है और किसी के लिए बहुत धीमा, ये सब कुछ निजी बात है| हमने एक बार चर्चा की थी कि कुछ बरसाती कीड़े ऐसे भी होते हैं जो एक घंटा जीते हैं बस| आपको क्या लगता है, उन्हें अफ़सोस है कि बस एक घंटा जी रहे हैं? नहीं! उसके मन में समय की गति अलग है| वो पूरा जीवन जी रहे हैं, उन्हें कोई अफ़सोस नहीं है| एक घंटा जो आपके लिए एक घंटा है, वो उनके लिए ‘१ घंटा’ नहीं है|
श्रोता ४: उनको पता भी नहीं है की १ घंटा क्या होता है|
वक्ता: वो १-१ क्षण में ज़िन्दगी जिये जा रहे हैं| जिसको आप ग्रेजुअल बोलते हो या जिसको आप तेज़ बोलते हो, वो सब कुछ आपके संदर्भ में है| वो सब कुछ आपको बीच में रख कर है| और जब आप बीच में हो तो क्या बीच में है?
श्रोता ५: अहंकार|
वक्ता: हाँ!
-‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।