प्रश्नकर्ता (प्र): आचार्य जी, जब सत्य या चेतना चुनाव करते हैं तो विवेक क्या है? चेतना और सत्य क्या भिन्न हैं? जब हम अध्यात्म की पहली सीढ़ी चढ़ते हैं, तो क्या विवेक ही नहीं है जो बढ़ता है? जहाँ अभी तक समझ में आया है तो ऐसा प्रतीत होता है कि विवेक या बुद्धि तो प्रकृति है, तो विवेक बढ़ने से सत्य का चुनाव कैसे प्रभावित होता है? कृपया समझाएँ।
आचार्य प्रशांत (आचार्य): हमारी चेतना अशुद्ध चेतना होती है, उसका लक्ष्य होता है ‘सत्य’। तो हम जैसे हैं, जीव की जो स्थिति होती है, उसमें चेतना और सत्य बिलकुल भी एक दूसरे के पर्याय नहीं हैं। सत्य अद्वैत होता है, चेतना लगातार द्वैत में काम करती है; सत्य में पूर्णता होती है, चेतना हमेशा आधी-अधूरी होती है; सत्य निष्काम है, चेतना में हमेशा इच्छा है, कामना है। लेकिन चेतना पहुँचना सत्य तक ही चाहती है, क्योंकि उसमें जो दोष है, अशुद्धि है, उसमें जो विकार मिला हुआ है उसके कारण वो कष्ट में रहती है; वो कष्ट ही उसको फिर प्रेरित कर सकता है सत्य तक जाने के लिए।
ठीक है?
तो पहली बात तो चेतना और सत्य को एक न समझा जाए; हाँ, विशुद्ध चैतन्य और सत्य एक होते हैं। लेकिन ये बड़े अहंकार की बात हो जाएगी कि हम जैसे हैं, हमारा जैसा मन है, और हमारी जैसी चेतना है हम उसी को सत्य बोल डालें। चेतना क्या है? ये भाव, “मैं हूँ, और संसार है, और मैं संसार का द्रष्टा हूँ, मैं संसार का अनुभोक्ता हूँ, मैं हूँ संसार में,” यही चेतना है; कोई उसमें लंबी-चौड़ी जटिलता नहीं। संसार है, मैं हूँ, ये मेज़ है (मेज़ की ओर इशारा करते हुए), मैं बैठा हुआ हूँ, ये मेरा शरीर है, शरीर पर मैंने कपड़े पहन रखे हैं। ठीक है? मेज़ मंच पर रखी है, मंच ज़मीन पर बना हुआ है, यहाँ लोग बैठे हैं; ये सब क्या है?
प्र: चेतना।
आचार्य: ठीक है?
दरवाज़ा खुला, कोई अंदर आ गया; ये क्या हुआ? चेतना में किसी का प्रवेश हो गया। ऐसा नहीं है कि इस कमरे में ही किसी का प्रवेश हुआ है; चेतना में प्रवेश हो गया, क्योंकि उस व्यक्ति का आपने संज्ञान लिया, उस व्यक्ति का आपने अनुभव लिया, तो वो बस इस कमरे में ही नहीं आया, वो आपकी चेतना में भी आ गया। ठीक है? आपकी आँखें बंद होतीं और वो कमरे में आता तो क्या होता? फिर वो सिर्फ़ कमरे में आता, आपकी चेतना में नहीं आता। आप सो रहे होते और वो कमरे में आता तो क्या होता? कमरे में आता, आपकी चेतना में नहीं आता। तो ये है चेतना।
पूरा संसार ही चेतना है, और उस संसार के केंद्र पर कौन बैठा होता है? जिसको संसार दिख रहा है, जो संसार को छू रहा है, सुन रहा है, अनुभव ले रहा है; वो है अहं। तो इसलिए मैंने आरंभ में ही कहा कि हमारी चेतना अशुद्ध चेतना है, क्योंकि उसके केंद्र में बैठा हुआ है अहं। अहं बैठा है और अहं हर वस्तु को, विषय को देख रहा है, उसको नाम दे रहा है, उससे संबंध बना रहा है, उसे अच्छा-बुरा घोषित कर रहा है, उसमें गुण-दोष देख रहा है; ये सब काम अहं कर रहा है।
ये पूरी दुनियादारी का खेल कहाँ चल रहा है? चेतना में। ठीक है? तो इसको हम ऐसे कह देते हैं कई बार, कि चेतना का बड़ा समुद्र है जिसमें तमाम छोटे-बड़े विषयों की छोटी-बड़ी लहरें उठती गिरती रहती हैं; कभी-कभी उसमें बड़े तूफ़ान भी आ जाते हैं, कभी सुनामी भी आ सकती है और कभी वो सतह पर बहुत शांत, स्थिर भी हो सकता है। तो ये चेतना है।
इस चेतना में लगातार गति होती रहती है, कंपन होते रहते हैं। सत्य में तो कोई गति, कोई कंपन होता नहीं है, वो तो अचल है, स्थिर; उसको तो हिलने के लिए कोई जगह ही नहीं, तो कहाँ हिलेगा? लेकिन ये जो पूरी गतिशीलता है चेतना की, ये गतिशीलता अंततः विश्राम पाने के लिए है; तो इसलिए हमने कहा कि चेतना का लक्ष्य है ‘सत्य’।
गतिशीलता माने चेतना, विश्राम माने सत्य।
ठीक है?
अब प्रश्न उठता है, “विवेक क्या है?” विवेक चेतना को उपलब्ध एक वैकल्पिक शक्ति है; आप उसका प्रयोग चाहे तो करें, चाहे तो न करें। आप उसका प्रयोग करें तो विवेकी कहलाते हैं; विवेक को अगर आप चुनें, विवेक का प्रयोग करें तो आप कहलाएँगे विवेकपूर्ण या विवेकी। और नहीं चुनें विवेक को, ऐसा अधिकार भी आपके पास है, तब आप अविवेकी हो जाएँगे; विकल्प है।
विकल्प किसके पास है? उसी के पास होगा जो चेतना के केंद्र पर बैठा है, क्या नाम है उसका? अहं। तो अहं को पहुँचना तो सत्य तक ही है लेकिन सत्य तक पहुँचने के लिए सीधा रास्ता वो चुन भी सकता है, नहीं भी चुन सकता है। सीधा रास्ता सत्य तक पहुँचने का चुन लिया तो वो क्या कहलाएगा? विवेकी। नहीं चुना तो? अविवेकी। सीधा रास्ता न चुनने के पीछे तर्क क्या होता है अहं के पास? क्योंकि पहुँचना तो उसे सत्य तक ही है, सीधा रास्ता नहीं चुन रहा तो कुछ तो उसने अपने-आपको तर्क, कुछ बहाना बताया होगा न?
क्या तर्क बताता है? वो कहता है, “सीधा रास्ता कुछ ठीक नहीं है, सीधे रास्ते पर अड़चन ज़्यादा होगी। ये लोग जो सीधा रास्ता चुनते हैं, बहुत होशियार नहीं मालूम पड़ते। मैं ज़रा ज़्यादा बढ़िया रास्ता चुनूँगा।" ऐसा कहकर वो टेढ़ा-टपरा रास्ता चुनता है; इधर से कुछ करेगा, उधर से कुछ करेगा, वो ज़्यादा होशियारी बताता है। ये सहज बुद्धि के ऊपर जटिल मार्ग को वरीयता देना, यही अविवेक है।
विवेक क्या है? जो चाहिए उसको सीधे ही माँग लिया, कि, “जब सत्य तक जाना है तो घूम-फिरकर के क्या जाएँ, शांति ही तो चाहिए न? पचास माध्यमों को अपनाकर शांति तक क्यों पहुँचें?”
ठीक है?
प्र: आचार्य जी, क्या विवेक और बुद्धि प्रकृति के ही हैं, और क्या विवेक बढ़ने से सत्य का चुनाव भी प्रभावित होता है?
आचार्य: बिलकुल, विवेक के बढ़ने का मतलब ही यही है कि जीवन की दिन-प्रतिदिन की घटनाओं में जो निरंतर आपके निर्णय होते हैं, उनमें आप और ज़्यादा तीव्रता से सत्य का ही चुनाव कर रहे हैं; क्योंकि चुनना तो बार-बार पड़ता है। तो पहली बात, कितनी तीव्रता है, इंटेंसिटी , आपके चुनाव में, दूसरी बात, कितनी आवृत्ति है, फ्रीक्वेंसी , सत्य के चुनाव में; ये दोनों बातें देखनी होती हैं। इन्हीं दोनों बातों से विवेक तय होता है, और इन दोनों में ही घपले का काम हम कर देते हैं।
संभावना पूरी है कि हम कुछ-न-कुछ गड़बड़ कर देंगे। कैसे? सत्य चुना, लेकिन चले सत्य के रास्ते पर; सत्य माने सच्चाई, सीधी बात। ठीक है? चले सच के रास्ते पर, सही रास्ते पर कुछ अड़चन आ गई, जल्दी से हार मान ली; यहाँ किस चीज़ की कमी थी? आपके चुनाव में क्या नहीं थी? तीव्रता नहीं थी, जान नहीं था, प्राण नहीं था, एक आवेग नहीं था, सच का चयन आप पर छा नहीं पाया। सच को आपने चुना तो, पर ऐसे ही जैसे कोई इस तौलिए को चुन ले (अपने हाथ में तौलिया उठाते हुए), कि अभी हाथ में चुन लिया है, पकड़ लिया है, और अभी छोड़ भी दिया। ऐसा नहीं हुआ कि सच ने आप पर पूरे तरीके से अधिकार कर लिया, आप आविष्ट हो गए, आप पज़ेस्ड (अधीन) हो गए, आप चार्ज्ड (आवेशित) हो गए ऊपर से लेकर नीचे तक; वो नहीं हो पाया है। तो एक तो ये कमी हो सकती है।
दूसरी कमी ये हो सकती है कि काम चलाने के लिए, औपचारिकता निभाने के लिए दिन में जब पाँच-दस निर्णय के मौके आए, उसमें से एक-दो बार सही निर्णय कर लिया; यहाँ पर क्या गड़बड़ है? आवृत्ति; और आप अपने-आप को ये दिलासा भी दे रहे हो कि मैं तो दिन में देखो कम-से-कम एक-दो बार तो सच्चा काम करता हूँ न? ये दोनों ही चीज़ें नहीं चलेंगी।
हाँ, बुद्धि प्रकृति की होती है। ठीक है? अहं भी प्रकृति का ही होता है। और अहं के पास जो ताकत है, अधिकार है, कि वो अपने लिए कष्ट चुन सकता है या मुक्ति, आनंद, सहजता, ये भी समझ लो कि प्रकृति के पास ही होता है। सत्य के पास कोई अधिकार नहीं होते; सत्य के पास न अधिकार है, न आधार है। अधिकार किस पर चलाएगा सत्य? हालांकि हम प्रचलित मुहावरे में ऐसा बहुधा कह देते हैं कि, “सच का अधिकार तो सब पर चलता है, पूरी दुनिया पर चलता है,” लेकिन वो बस ऐसे ही कहने-सुनने की, कामचलाऊ बात है। सच्चाई तो ये है कि सच के पास कोई अधिकार नहीं है, वो अधिकार का प्रयोग किस पर करेगा? वहाँ तो कोई दूसरा है ही नहीं।
इसी तरीके से सच वास्तव में निराधार होता है। हालांकि निराधार शब्द का इस्तेमाल हम प्रचलित बोलचाल में थोड़ा निंदा जताने के लिए करते हैं, है न? हमें किसी की कोई बात में दम नहीं लगेगा तो उसको हम कह देंगे कि आपकी बात निराधार है; निराधार नहीं होती है, मूर्खता से भरी हुई बात भी आधार रखती है। आधार क्या होता है मूर्खता का? आदमी की वृत्तियाँ; तो वहाँ आधार होता है।
एक आदमी कोई बहुत ही घटिया हरकत कर रहा है या बहुत ही व्यर्थ बात बोल रहा है, वो बात निराधार नहीं है, उसका आधार है। क्या आधार है? उसे भाई अपना अहंकार बचाना है, या कोई अपना स्वार्थ पूरा करना है, तभी तो वो ऐसी हरकत कर रहा है; तो आधार है वहाँ मौजूद। निराधार तो वास्तव में सिर्फ़ सच्चाई होती है; सच्चाई का न आगा न पीछा, उसका कोई आधार नहीं होता, वो बस है, ऐसे ही है। क्यों है? नहीं, ऐसे ही है बस।
सच्चाई के पीछे भी अगर कुछ ‘क्यों' है, तो वो सच्चाई नहीं स्वार्थ हो गई न फिर? सच्चे काम की यही पहचान होगी, उसके पीछे कोई बहुत ठोस कारण आप बता नहीं पाएँगे। हाँ, बातचीत में यूँ ही किसी को थमाने के लिए कोई सस्ता आपको कारण बताना हो तो आप बता सकते हैं; पर आप खुद से ही पूछेंगे, हृदय की गहराई में झाँकेंगे, तो आप पाएँगे कि सच्चे काम के पीछे कोई वजह होती नहीं है, सच अपनी वजह आप होता है।
तो अहं मुक्ति के लिए लालायित रहता है। बुद्धि को भी संचालित करने वाला कौन है? अहं। ये सब शक्तियाँ हैं, संसाधन हैं, जो अहं को उपलब्ध हैं: बुद्धि, तर्क, स्मृति, बल, समय, स्थान; ये सब अहं को उपलब्ध संसाधन हैं। अब अहं पर निर्भर करता है कि वो इनका उपयोग कैसे करता है।