समझदार हो कर भी लाचार क्यों? || आचार्य प्रशांत, नवरात्रि विशेष, पहला दिन (2021)

Acharya Prashant

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समझदार हो कर भी लाचार क्यों? || आचार्य प्रशांत, नवरात्रि विशेष, पहला दिन (2021)

आचार्य प्रशांत: तो मूल प्रश्न क्या है सप्तशती में? जो वहाँ पर मूल समस्या है, वह कोई दैवीय समस्या नहीं है, वह कोई शास्त्रीय समस्या नहीं है, वह कोई पारलौकिक समस्या नहीं है। वह पूरे तरीक़े से हमारी, आपकी, मानवीय समस्या है। और जो भी ग्रंथ किसी मानवीय समस्या से नहीं उलझ रहा, मूल्यहीन हैच व्यर्थ, त्याज्य, है न?

मनुष्य ग्रन्थ के पास जाता ही क्यों है? अपनी समस्याएँ सुलझाने के लिए न? हमेशा पूछा करो कि यह जो ग्रन्थ है, क्या यह अपने केंद्र में मेरी समस्या को रख रहा है? अगर रख रहा है तो वह ग्रन्थ आपके काम का है। जैसे हमने कहा कि भगवद्गीता में अर्जुन की जो समस्या है, वह हमारी, आपकी, पूरे विश्व की समस्या है। इसीलिए गीता हमारे इतने काम की है।

इसी तरीक़े से सप्तशती में सुरथ और समाधि की जो समस्या है, वह हमारी, आपकी, सबकी समस्या है। इसलिए यह ग्रन्थ हमारे काम का है। और अब मुनि आगे जो कुछ भी बताएँगे, वह बात हमारे काम की है। ध्यान दीजिएगा कि आगे जो कुछ बताया जा रहा है, वह बड़े प्रतीकात्मक तरीक़े से बताया जा रहा है। कोई ऐसी गुप्त बात को सरल करने के लिए बताया जा रहा है, जो यदि सरल नहीं की गयी, तो आम मन में उतरेगी नहीं।

निश्चित रूप से जो बताया जा रहा है, वह इतिहास नहीं है। जिन घटनाओं का वर्णन किया जा रहा है, वो स्थूल घटनाएँ नहीं हैं। वो मानस घटनाएँ हैं, सूक्ष्म घटनाएँ हैं। वो ज़मीन पर नहीं घट रही हैं, वो धरालोक पर नहीं घट रही हैं, वो मानसलोक में घट रही हैं; वो किसी समय पर नहीं घटी थीं, वो हर समय घट रही हैं।

वो किसी काल की बात नहीं है कि इतिहास में आज से इतने हज़ार वर्ष पूर्व या इतने लाख वर्ष पूर्व ऐसा हुआ। वो वह घटना है जो निरंतर हम सब के भीतर घट रही है। वह काल के एक बिंदु में सीमित घटना नहीं है। वह काल का निरंतर प्रवाह ही है घटना। किसी समय नहीं हुई थी बात, वह लगातार हो रही है।

कौनसी बात? आदमी का मोह में ग्रस्त रहना, आदमी का अपमान पाकर के दुख झेलना। यह बात उस समय ही नहीं हुई थी, यह बात आज भी हो रही है।

तो राजा सुरथ हैं। बड़े न्यायप्रिय राजा थे और उनकी जो दण्डनीति है, सप्तशती कहती है कि बड़ी प्रबल थी। प्रजा के शुभेच्छु थे, जनकल्याण में सदा उत्सुक रहते थे और बड़ा उनका राज्य था। लेकिन समय की मार — कोलाविध्वंसी नामक एक समुदाय उनका शत्रु हो गया और इन शत्रुओं ने कम संख्या होते हुए भी राजा सुरथ को युद्ध में हरा दिया। उनके राज्य का बड़ा हिस्सा छीन लिया उनसे।

तो राजा सुरथ वापस अपनी राजधानी में आ गये। जब राजधानी में आते हैं वापस, तो वहाँ क्या पाते हैं कि अब उनको दुर्बल जानकर के, उनके ही मंत्रियों इत्यादि ने उनके विरुद्ध षडयंत्र कर रखे हैं। तो बाहर वो हारे शत्रुओं से और ऐसे शत्रुओं से हारे जिनकी संख्या भी कुछ कम ही थी राजा की सेना की अपेक्षा। ये राजा बड़े पराक्रमी थे। इनका बड़ा नाम था।

पहले तो बाहर हारने का अपमान झेलना पड़ा, वो भी किसी छोटी सी सेना से। और जब वापस आते हैं अपने राज्य में तो यहाँ पाते हैं कि इन्हीं के लोगों ने इनके विरुद्ध षडयंत्र रच रखे हैं। तो राजा बड़े क्षुब्ध हो गये। भीतर से जैसे टूट गये एकदम। और वो जो शत्रु थे, जिन्होंने राजा के राज्य का बड़ा हिस्सा छीन लिया था, अब वो राजधानी पर भी आक्रमण करने की चेष्टा करने लगे। और राजा के मंत्री वग़ैरह तो सब पहले ही टूटे हुए थे। टूटे हुए थे माने? राजा से विमुख हो चुके थे, सत्ता वगैरह छीनना चाहते थे।

तो राजा एक दिन राजधानी से निकले। बोले शिकार खेलने जा रहा हूँ। भीतर से बड़े विरक्त हो गये थे, अन्यमनस्क हो गये थे। शिकार खेलने के बहाने जंगल गये और वहाँ पाते हैं कि एक मुनि का आश्रम है, ‘मेधा मुनि’। और उस आश्रम में उन्हें एक विचित्र चीज़ दिखी कि कई तरीक़े के पशु वहाँ बैठे हुए हैं और हिंसक कोई हरक़त कर नहीं रहे हैं। छोटे–छोटे जो पशु होते हैं, उनकी तो बात ही अलग है कि पक्षी आ गये हैं या खरगोश आ गये हैं या हिरण आ गये हैं। वो तो वहाँ पर शांति से बैठे हुए थे, ऋषि के आश्रम में। हिंस्र पशु जो होते हैं, वो भी आश्रम के जब आस–पास आते थे, तो उनकी हिंसात्मकता कम हो जाती थी।

राजा ने देखा, वहाँ एक अपूर्व शांति थी। तो, ऐसा नहीं है कि वहाँ आश्रम में अगर गाय है या हिरण है या खरगोश है, तो बाहर के पशु आकर के उन पर आक्रमण कर रहे हैं। बाहर के पशु आये भी हैं, तो वो अपना कुछ खरगोश वग़ैरह को कुछ कह नहीं रहे हैं, अपना बस..।

तो, राजा को अद्भुत लगा। मन उनका पहले से ही बेचैन था। तो वो गये वहाँ पर मुनि के पास। और तभी वह पाते हैं कि एक और व्यक्ति आता है मुनि के पास। उसका नाम था समाधि। और वह एक व्यापारी था, वैश्य था। और इसका एक समय पर बड़ा अच्छा फलता–फूलता, लम्बा–चौड़ा व्यापार होता था। जब इसका अच्छा व्यापार होता था तो इसकी पत्नी, इसके बेटे, इसके भाई, ये सब इसको बड़ा स्नेह, सम्मान देते थे।

फिर समय की बात — समाधि का जो व्यापार था वह चौपट हो गया। जब चौपट हो गया तो समाधि की ही पत्नी ने और पुत्र-पुत्रियों ने और भृत्यों ने समाधि को घर से निकाल दिया। उसी के घर से उसको निकाल दिया — "भागो, तुम किसी काम के नहीं।" और बड़ा अपमान किया।

तो यह व्यक्ति भी बड़ा आहत मन लेकर के जंगल ही निकाल आया। सोचा होगा कि जंगल में अब जा रहा हूँ, कोई जानवर ही खा ले, ख़त्म हो जाऊँ, यही ठीक‌ है। जीने का मन ही नहीं बचा होगा।

यह भी वहाँ आता है तो मुनि का आश्रम देखता है। जंगल में, एकदम एकांत में निर्जन जगह पर, वहाँ मुनि हैं, मुनि के कुछ शिष्य वग़ैरह हैं और ये सब पशु हैं। और ये पशु बड़ी मौज में हैं। तो समाधि को भी विस्मय हुआ कि यह क्या बात है!

तो ये दोनों जाते हैं मुनि के पास और ये जो मुनि से जिज्ञासा करते हैं, वह जिज्ञासा आधारभूत है दुर्गासप्तशती में। वह जिज्ञासा क्या है? समझिए। वह जिज्ञासा अगर हम नहीं समझेंगे तो इससे सम्बन्ध नहीं बना पाएँगे।

जैसे भगवद्गीता में बड़ा आवश्यक है कि पहले ही अध्याय में अर्जुन की स्थिति को समझ लिया जाए, क्योंकि अर्जुन की स्थिति को नहीं समझा तो हम यह भी नहीं समझेंगे कि गीता आवश्यक क्यों है, पहली बात। और दूसरी बात, गीता का हमारे जीवन से क्या सम्बन्ध है?

मैं हमेशा कहा करता हूँ – पहले तो तुम मानो कि हम सब अर्जुन हैं अपने-अपने तरीक़े से। जीवन रणक्षेत्र है। अच्छा! रणक्षेत्र दुर्गासप्तशती में भी लगातार है और श्रीमद्भगवद्गीता में भी लगातार है।

जैसे भारत की प्रज्ञा ने इस बात को साफ़ समझा हो कि जीवन संघर्ष तो है ही; यहाँ लड़े बिना बात बनेगी नहीं। बाहरी लड़ाई प्रतीक मात्र है भीतरी लड़ाई का, कि भीतर तो सतत एक संग्राम चलना ही है। वही संग्राम आपको देखने को कहाँ मिलता है? भगवद्गीता में। और वही संग्राम अलग-अलग रूपों में आपको सप्तशती में भी देखने को मिलेगा।

तो ये ऋषि के पास जाते हैं दोनों और ऋषि से जो कहते हैं, समझिए कि वह किस तरीक़े से हम सब की बात है। जैसे अर्जुन की स्थिति हम सब की स्थिति थी। अर्जुन मोहग्रस्त था न? और अज्ञानग्रस्त था। दो चीज़ें थीं जो अर्जुन को पकड़ रही थीं – मोह और अज्ञान। वैसे ही देखिए कि ये जिज्ञासा क्या करते हैं दोनों। और इनकी जिज्ञासा अर्जुन की जिज्ञासा से कम नहीं है वास्तव में।

राजा कहते हैं, “मुझे सब कुछ जानते–समझते भी, मुनिवर बताए कि इतना दुख क्यों है?” राजा कहते हैं, “आपको पता है मैं क्या सोच रहा हूँ? मैं सोच रहा हूँ कि मेरे सब जो प्रजागण थे, यहाँ तक कि दास-दासियाँ थे, इनको मैं बड़े सदाचार में रखता था। मैं इनका राजा ही नहीं था, मैं इनके पिता तुल्य था। तो मैं इनको बड़ा सदाचारी बना के रखता था। मुझे अब यह बड़ा दुख रहता है कि मेरे शत्रुओं ने अब राज्य हाथ में लेकर के मेरे लोगों को कहीं दुराचारी तो नहीं बना दिया। और मैं सोचता हूँ कि मेरा जो प्यारा हाथी था, जिसको मैं इतने प्यार से रखता था, उसका क्या हुआ होगा। उसको कहीं कष्ट तो नहीं मिल रहा! और मैं कोई मूर्ख व्यक्ति नहीं हूँ, मुनिवर। मैं समझदार हूँ लेकिन फिर भी मोह मुझे पकड़े हुए है। यह क्या बात है?"

राजा कहते हैं "मैं समझदार व्यक्ति हूँ, फिर भी मोह मुझे पकड़े हुए है। यह क्या बात है?"

राजा ने, जहाँ तक मैं समझता हूँ, विधिवत शिक्षा पायी होगी, ग्रन्थ पढ़े होंगे। वो भली-भाँति समझते थे कि ये दुष्ट लोग बहुत दिन तक तो चलते नहीं हैं। जिन लोगों ने उनकी सत्ता छीनी और जिन लोगों ने उन पर भितरघात किया, वो लोग स्वयं ही अपने अंत को प्राप्त होंगे। ये सब जानते हुए भी राजा बड़े दुख में थे, जिया नहीं जा रहा था राजा से। और राजा ने कहा, "मुझे अपनी सत्ता का अपने लिए कोई लोभ नहीं है। मैं तो बस कुछ ऐसा चिटक सा, दरक सा गया हूँ भीतर से कि शत्रुओं का सामना करने की जगह मैं आज बस यूँही घोड़ा लेकर के जंगल निकल आया।" यह राजा की मनोस्थिति है।

अगर आप यह समझ पाये कि यह आपके भी जीवन का हाल है तो आगे फिर आपको देवी से बोध और आशीर्वाद प्राप्त होगा।

इसी तरीक़े से जो बात वैश्य ने कही, वो तो और भी ज़्यादा मार्मिक है। ग्रन्थ में प्रस्तुति इस तरीक़े से है कि समाधि वैश्य, वास्तव में सुरथ राजा से थोड़ा अधिक ही समझदार है। वह बात आप तब भी देखेंगे कि जब देवी अंततः उन्हें वर देती हैं, तो राजा क्या माँगते हैं और वैश्य ने क्या माँगा। वह बात आपको तब भी दिखाई देगी पर अभी बस मैं इतना बता देता हूँ कि वैश्य और ज़्यादा समझदार है लेकिन फिर भी वह मोहग्रस्त है। राजा तो है ही।

वैश्य कहता है, “मैं तो सब जानता हूँ, समझता हूँ।“ आध्यात्मिक आदमी रहा होगा अपनी तरह का। "लेकिन फिर भी मैं, देखिए कितना टूटा हुआ हूँ। कोई ऐसा सिद्धांत नहीं जीवन का जो मुझे स्पष्ट न कर दिया गया हो। मैं विचार करने बैठूँ, तो मुझे साफ़ दिखाई देता है कि ये सब परिवार के लोग, व्यापार, धन, समृद्धि, प्रतिष्ठा आदि, ये तो आवागमन की चीज़ें हैं। इनसे क्या मन लगाना और इनके खोने पर क्या दुख पाना? मान-अपमान तो मिथ्या हैं। लेकिन मैंने जो धन खोया है, जो प्रतिष्ठा खोयी है और फिर जो मैंने अपमान पाया है, उसकी चोट छप गयी है, भूलती ही नहीं। जानता मैं सब हूँ लेकिन फिर भी वह ज्ञान मेरे काम नहीं आ रहा।"

ऋषि का जो उत्तर है, उसका आरम्भ ही ऐसा है कि जो समझ ले, वह तर जाएँ।

ऋषि कहते हैं, "हाँ, समझदार तो हो तुम दोनों। पर समझदार तो मेरे आश्रम के यह सब पशु-पक्षी भी हैं। तुम उतने ही समझदार हो जितनी समझदारी पशुओं में होती है।" बड़ी गहरी बात है यह। ऋषि कहते हैं, “समझदार तो तुम हो, पर तुम्हारी सारी समझदारी पशुओं की समझदारी है।” मतलब समझ रहे हो? पशु माने प्रकृति और बुद्धि माने भी प्रकृति।

आपकी बुद्धि और आपके विचार का फैलाव आपको समझदार नहीं बना देता। ठीक वैसे जैसे सारे पशु प्रकृति से आते है न? वैसे ही मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार, यह जो अंतःकरण चतुष्टय है, यह भी पूरा प्राकृतिक ही है।

तो पशु अपनी वृत्ति से जो कुछ करता है और मनुष्य अपनी बुद्धि से जो कुछ करता है, वह सब एक ही तरह की समझदारी है मूलतः। पशु अपनी वृत्ति से जो कुछ करता है और मनुष्य अपनी बुद्धि से जो कुछ करता है, वह एक ही तरह के हैं। मनुष्य की बुद्धि उसे पशुओं से भिन्न नहीं बना देती। मनुष्य को यदि पशुओं से भिन्न होना है तो उसे कुछ और चाहिए। बुद्धि भर से काम नहीं चलेगा।

बहुत-बहुत बुद्धिमान जानवरों जैसे ही होते हैं। बुद्धि तुम भरपूर रखकर के भी पशु ही रहोगे क्योंकि बुद्धि भी प्राकृतिक ही है। स्मृति भी प्राकृतिक है। पूरा अंतःकरण ही प्राकृतिक मात्र है।

एक पशु अपनी वृत्ति पर चलकर के अपने शत्रुओं को जीतना चाहता है, ठीक? मनुष्य की भी वृत्ति उसे शत्रुओं से उलझाती है। बस उसके पास बुद्धि है, तो शत्रुओं से उलझने के बड़े बुद्धमत्तापूर्ण तरीक़े ढूंढ लेता है।

जंगल में दो पशु लड़ेंगे तो वो बस अपने दाँतों से, पंजों से, सींगों से और खुरों से लड़ेंगे। दो मनुष्य लड़ेंगे तो हो सकता है दोनों के हाथ में अत्याधुनिक बंदूक एके-47 हो। दो राष्ट्र लड़ेंगे तो उनके पास मिसाइलें (प्रक्षेपास्त्र) होंगी, बम (विस्फोटक) होंगे। पर बात तो एक ही है न? है तो ये सब तुम्हारी प्राकृतिक वृत्तियों का ही निरूपण। या कुछ अलग है?

तुम मूल में जो पशु हो, वही पशु अभिव्यक्ति पा रहा है। और बुद्धि का भी अपनी अभिव्यक्ति के लिए प्रयोग भर कर रहा है। बुद्धि उसे पशु से अलग नहीं बना रही है, बुद्धि उसकी पशुता को और ज़्यादा विस्तार दे रही है। और यह कितनी ख़तरनाक बात है।

आपकी बुद्धि आपको पशुओं से अलग नहीं बना देती है, आपकी बुद्धि बस आपकी पशुता को और बल दे देती है।

समझना आगे कि फिर दैत्य कौन होता है। दैत्य के पास भी बड़ा बल होता है। तो बल पाने से आप देवता छोड़िए, मनुष्य भी नहीं हो जाते। बल तो दैत्यों के पास भी होता है। मनुष्य आपको कुछ और है जो बनाता है। वह क्या है वह हम समझेंगे।

मैं जो श्लोकों का अनुवाद ही है, इस स्थान पर उसको आपके लिए पढ़ लेना चाहता हूँ। बड़ा रोचक है।

"सुरथ और वह समाधि नामक वैश्य, दोनों साथ–साथ मेधा मुनि की सेवा में उपस्थित हुए और उनके साथ यथायोग्य, न्यायानुकूल, विनयपूर्ण बर्ताव करके बैठे। तत्पश्चात वैश्य और राजा ने कुछ वार्तालाप आरम्भ किया।"

यह प्रथम अध्याय ही है। हम लगभग छत्तीसवें श्लोक पर हैं। सप्तशती का पहला अध्याय। तो राजा ने कहा, “मैं आपसे एक बात पूछना चाहता हूँ। मेरा चित्त मेरे अधीन न होने के कारण, यह बात मेरे मन को बहुत दुख देती है। जो राज्य मेरे हाथ से चला गया है, उसमें और उसके सम्पूर्ण अंगों में मेरी ममता बनी हुई है।” चला गया है राज्य और राज्य सम्बंधित जो कुछ था, उसमें मेरा ममत्व बना हुआ है। “मुनिश्रेष्ठ, यह जानते हुए भी कि वह अब मेरा नहीं है, अज्ञानी की भाँति मुझे उसके लिए दुख होता है। यह दुख क्या है?”

यह सवाल देखिए। "यह दुख क्या है? मैं जानता हूँ, लेकिन नहीं जानता। यह जानते हुए भी कि राज्य चला गया है, अज्ञानी की भाँति मुझे दुख होता है।" यह है यहाँ पर मूल-प्रश्न – विचार की विफलता। विचार के तल पर जानता हूँ, वृत्ति के तल पर नहीं जानता। यह मूल समस्या है जिसको ग्रन्थ सम्बोधित कर रहा है।

“इधर यह वैश्य भी घर से अपमानित होकर आया है।“ राजा कह रहे हैं, “इधर यह वैश्य बैठा हुआ है। यह भी घर से अपमानित होकर आया है। इसके पुत्र, स्त्री और भृत्यों ने इसे छोड़ दिया है। स्वजनों ने भी इसका परित्याग कर दिया है तो भी यह उनके प्रति अत्यन्त हार्दिक स्नेह रखता है।” उन्होंने इसको छोड़ दिया है और यह उनकी याद में और चिंता में व्याकुल है अभी भी। इस प्रकार यह तथा मैं (सुरथ और समाधि) दोनों ही बहुत दुखी हैं।”

और अब जो वाक्य आएगा, ध्यान दीजिएगा। “जिसमें प्रत्यक्ष साफ़-साफ़ दोष देखा गया है, उस विषय के लिए भी हमारे मन में ममताजनित आकर्षण पैदा हो रहा है।” – यह बात नहीं समझ में आ रही। यह केंद्रीय प्रश्न है। समझे?

हम जानते हैं कि उस विषय में दोष है। मेरी स्त्री, मेरे पुत्र, ये ग़लत लोग हैं; इन्होंने मुझे घर से निकाल दिया सिर्फ़ इसलिए कि मेरा व्यापार ठप हो गया था। लेकिन फिर भी मेरे दिल से उनकी ललक जाती नहीं। मेरे मन से उनका स्नेह और आकर्षण मिटता नहीं – यह प्रश्न है कि ऐसा क्यों। ज्ञान अपर्याप्त सिद्ध हो रहा है। यह क्या हो रहा है? ज्ञान अपर्याप्त सिद्ध हो रहा है।

फिर ऋषि को सम्बोधित करके कहते हैं, “महाभाग, हम दोनों समझदार हैं।” इन दोनों को अभी तक यह भ्रांति बनी हुई है कि दोनों समझदार हैं।

तो ऋषि से कहते हैं, "हे महाभाग! हे विप्रवर! हम दोनों समझदार हैं, तो भी हममें जो मोह पैदा हुआ है, वह क्या है?”

हम समझदार तो इतने हैं, लेकिन फिर भी मोह नहीं छूट रहा।

“विवेकशून्य पुरुष की भाँति, मुझमें और इसमें भी यह मूढ़ता प्रत्यक्ष दिखाई देती है।"

मूढ़ता तो दोनों को प्रत्यक्ष दिखाई देती है, लेकिन फिर भी लगे हुए हैं अपनेआप को समझदार बोलने में। और यही उनके सामने बड़ी विडंबना है कि ये हो कैसे रहा है। हम समझदार हैं, लेकिन फिर भी हममें इतना मोह, इतनी ममता क्यों, जैसे अविवेकी हों।

तो ऋषि बोलते हैं, "देखिए, विषय मार्ग का ज्ञान सब जीवों को है।”

विषयों में आसक्ति सब जीवों को है‌, आप अकेले नहीं हैं।

“इसी प्रकार विषय भी सबके लिए अलग-अलग हैं।”

बस विषय सबके अलग-अलग होते हैं।

“जैसे कि कुछ प्राणी दिन में नहीं देखते हैं, दूसरे रात में नहीं देखते।”

कुछ के विषय दिन के होते हैं, कुछ के विषय रात के होते हैं।

“तथा कुछ जीव ऐसे हैं जो दिन-रात में बराबर ही देखते हैं।”

कुछ ऐसे होते हैं, दिन में भी देखते हैं, रात में भी।

“विषयों का अंतर है।” माने किन विषयों का? जिनसे तुम्हारी आसक्ति होती है, जिनसे तुम सम्बन्ध, ममता, स्नेह वग़ैरह बना लेते हो।

"यह ठीक है कि मनुष्य समझदार होते हैं।" राजा का मन रखने के लिए ऐसा कह दिया। लेकिन आगे क्या कहा है, वह समझ लो।

"यह ठीक है कि मनुष्य समझदार होते हैं।" इसको ऐसे पढ़ो – यह ठीक है कि मनुष्य अपनेआप को समझदार मानते हैं। "लेकिन केवल मनुष्य ही समझदार नहीं होते।" वो यह नहीं कह रहे। अगर साफ़-साफ़ कहते मुनि, तो कह देते कि तुम समझदार नहीं हो। राजा है सामने तो कह रहे हैं कि ठीक है तुम समझदार हो, लेकिन तुम अकेले समझदार नहीं हो, और भी हैं समझदार।

कौन हैं समझदार? अब सुनो। यह मुनि का विशेष तरीक़ा है कहने का।

यह ठीक है कि मनुष्य समझदार होते हैं, किन्तु केवल वे ही समझदार नहीं होते। पशु-पक्षी और मृग आदि सभी प्राणी समझदार होते हैं।

वो कह रहे हैं राजा से कि ‘बेटा, अगर तुम समझदार हो न, तो मेरा यह घोड़ा भी समझदार है। इतनी ही समझ है तुममें। अगर तुम समझदार हो, तो यह जो यहाँ गाय चर रही है और जो खरगोश घूम रहा है, यह भी समझदार हैं। तुम्हारी समझदारी का स्तर इतना ही है।‘

सीधे-सीधे राजा को यह नहीं कहा, शालीनता की बात है कि तुम नासमझ हो या अविवेकी हो। क्योंकि राजा को यह बात समझ में आनी होती तो स्वयं ही आ गयी होती। पर राजा तो कह रहे हैं कि हम तो विवेकपूर्ण होते हुए भी मोहग्रस्त हैं। तो राजा से कहा कि तुम समझदार हो और मेरी बिल्ली भी समझदार है। अब तुम ख़ुद समझ लो कि तुम कितने समझदार हो।

"पशु-पक्षी और मृग आदि सभी प्राणी समझदार होते हैं। मनुष्यों की समझ भी वैसी ही होती है जैसी उन मृग और पक्षियों की होती है।" बिलकुल खुलासा कर दिया है। तुम्हारी समझ है तो, लेकिन वैसी ही जैसी मृग की होती है, पक्षियों की होती है।

"तथा जैसी मनुष्यों की समझ होती है, वैसी ही उन मृग, पक्षियों आदि की होती है।”

मृग, पक्षी की जैसी समझ है, वैसी ही तुम्हारी है और तुम्हारी जैसी है, वैसी मृग और पक्षी की है।

“यह बात तथा अन्य बातें भी प्रायः दोनों में समान ही हैं।”

मनुष्यों में और पशु पक्षियों में यह बात भी समान है और बाकी सब बातें भी समान हैं कि तुम पशुओं से ज़्यादा अलग हो नहीं अभी।

“समझ होने पर भी इन पक्षियों को तो देखो न! ये स्वयं भूख से पीड़ित होते हुए भी मोहवश बच्चों की चोंच में कितने चाव से अन्न के दाने डाल रहे हैं।"

वहाँ पक्षी रहे होंगे तरह-तरह के। तुम कल्पना कर सकते हो कि भोर का या साँझ का समय है और पक्षी ला-लाकर के अपने बच्चों को दाना खिला रहे हैं, या मुर्गा है वहाँ पर मुर्गी है। ऋषि का आश्रम है, वो घूम रहे हैं वहाँ पर पास ही और ऋषि उसकी और ऐसे संकेत करके कह रहे हैं, “देखो, यह मुर्गी ख़ुद भूखी है और ये आठ-दस पीछे-पीछे चूजें हैं, उनको खाना खिला रही है। तुम अकेले हो जो मोह ग्रस्त हो? मादा हिरण है, उसका देखो अपने शावक से क्या सम्बन्ध है। वह गाय है देखो, उसका अपने छौने से क्या सम्बन्ध है। उस मुर्गी का अपने चूज़ों से। मादा खरगोश का भी छोटे–छोटे खरगोशों से। देखो, इनका सम्बन्ध देखो। तुम इनसे अलग कैसे हो? तुम्हें ममता है, इन्हें भी तो ममता है।

"नरश्रेष्ठ, क्या तुम नहीं देखते कि मनुष्य समझदार होते हुए भी लोभवश अपने किये हुए उपकार का बदला पाने के लिए ही पुत्रों की अभिलाषा करते हैं?"

तुम कह रहे हो तुम्हें अपने पुत्रों से ममता है। क्या तुम्हें नहीं पता कि तुम पुत्रों की अभिलाषा करते ही इसीलिए हो ताकि तुम पुत्रों पर उपकार करो और बाद में तुम्हें उस उपकार का फल मिले पुत्रों से। क्या कह दिया मुनि ने?

कल्पना करो कि समाधि वैश्य को कैसा लग रहा होगा अभी यह सुनकर। वह कह रहा है कि..। जानते हो मुनि से उसने क्या कहा था? बोला कि मुझे तो बड़ी चिंता होती है कि कहीं मेरे जो बेटे हैं, जिन्होंने मुझे घर से निकाल दिया है, कहीं वो बिगड़ न गये हों। कहीं मेरा धन वग़ैरह पाकर के वो ग़लत मार्ग पर न चल दिये हों।

तो मुनि से कह रहा था कि मुझे तो बड़े निःस्वार्थ भाव से अपने पुत्रों की चिंता होती है। और मुनि ने कह दिया कि बेटा, पुत्र तो तुम पैदा ही इसीलिए करते हो कि तुम उनपर उपकार करो और फिर वो जो बच्चे हैं तुम्हारे, वो आगे चल करके तुम्हारे उपकार का तुमको बदला चुकाएँ। यह आज ही नहीं हो रहा है, तब से यही चल रहा है कि जो बार-बार आप पाएँगे कि साहित्य में, धार्मिक साहित्य में भी हर जगह मनुष्य जब संतान माँग रहा है तो वो कहते भी यही हैं, ‘पुत्र चाहिए’। पुत्री नहीं कहते हैं। जब वरदान भी माँगने जाते हैं तो कहते हैं कि स्त्री हो, पुत्र हो, धन हो, प्रतिष्ठा हो; पुत्री नहीं कहते हैं, कारण यही है।

आगे चलकर के भविष्य में सुख पाने की संभावना पुत्री की अपेक्षा पुत्र से ज़्यादा होती है। तो मनुष्य फिर कहता आया है कि पुत्री की जगह पुत्र मिल जाए तो बेहतर है। कुछ नहीं है, लाभ-हानि का गणित है बस। और कुछ नहीं है। सीधा-सीधा स्वार्थशास्त्र है। उसी स्वार्थशास्त्र को हम अर्थशास्त्र भी बोलते हैं, इकोनोमिक्स।

तो यहाँ पर आकर के जो है समाधि वैश्य ने मुनि से कहा, “मैं तो बड़ा अच्छा आदमी हूँ। देखिए, मुझे अपने घर की चिंता इसलिए हो रही है कि कहीं मेरे बच्चे बिगड़ न जाएँ। मैं निःस्वार्थ भाव से उनकी चिंता कर रहा हूँ।“

मुनि ने उस पर घड़ों पानी डाल दिया। किसको बना रहे हो? मैं मुनि हूँ। मनुष्य संतान पैदा इसलिए करता है ताकि आगे चलकर के संतान से सुख वसूल सके।

"क्या तुम नहीं देखते कि मनुष्य समझदार होते हुए भी लोभवश अपने किए हुए उपकार का बदला पाने के लिए पुत्रों की अभिलाषा करते हैं? जैसे तुम कहते हो, तुममें समझ की कमी नहीं है, वैसे ही यद्यपि उन सबमें समझ की कमी नहीं है।“ व्यंग है मुनि का, “यद्यपि उन सब में समझ की कमी नहीं है। “तथापि वे संसार की स्थिति माने जन्म-मरण की परंपरा बनाए रखने वाली भगवती महामाया के प्रभाव द्वारा ममतामय भँवर से युक्त मोह के गहरे गर्त में गिराये जाते हैं।"

महामाया आ गयीं। भगवती देवी आ गयीं। समझ तुममें पूरी है, लेकिन फिर भी भगवती महामाया ने, जो यह मोह का भँवर रचा है, इसमें सब गिरते हैं। तुम्हारी समझ माया के आगे नहीं चलती।

तो इस तरीक़े से जो आधारभूत ढाँचा है ग्रन्थ का, वह रखा जा रहा है कि एक क्षत्रिय और एक वैश्य; क्षत्रिय ने क्या खोया? राज्य खोया। वैश्य ने क्या खोया? धन खोया। और दोनों कुछ खो करके बड़े क्षुब्ध मन के साथ मुनि के सामने आ रहे हैं और कह रहे हैं कि हम बहुत समझदार लोग हैं, ऊँचे लोग हैं, हमने यह हासिल किया, वह किया, ऐसा-वैसा। और हमने अब खो दिया है, बड़े विवेकी हैं हम, लेकिन फिर भी जो खोया है उसके लिए बड़ी ममता है।

तो ऋषि कह रहे हैं, ममता इसलिए है क्योंकि वह ममता महामाया तुम्हारे भीतर संचारित करती है। उस महामाया के आगे तुम्हारा विवेक, विचार और बुद्धि कुछ नहीं हैं, पशुओं जैसे हैं।

दोहरा रहा हूँ – "यद्यपि मनुष्य में समझ की कमी नहीं है, तथापि वे भगवती महामाया के प्रभाव द्वारा ममतामय भँवर से युक्त मोह के गहरे गर्त में गिराये जाते हैं।"

तो, कहाँ से आया तुममें मोह? भगवती महामाया ने भेजा है, इसलिए आया।

"इसमें कोई आश्चर्य नहीं करना चाहिए। जगदीश्वर भगवान विष्णु की योगनिद्रा रूपा जो भगवती महामाया हैं, उन्हीं के कारण जगत मोहित हो रहा है।“

जगत मोह में इसीलिए फँसा हुआ है क्योंकि विष्णु की योगनिद्रा स्वरूप जो भगवती महामाया हैं, वो जगत को मोहग्रस्त करे हुए हैं।

“वे भगवती महामाया ज्ञानियों के भी चित्त को बलपूर्वक खींच करके मोह में डाल देती हैं।"

अरे! तुम होगे बड़े ज्ञानी। तुम होगे बड़े ज्ञानी। महामाया तुम्हारे चित्त को खींचेंगी और मोह में डाल देंगी। उन्होंने तो भगवान विष्णु को भी सुला रखा है योगनिद्रा में। उन्होंने तो भगवान विष्णु को भी योगनिद्रा में सुला रखा है। तुम क्या चीज़ हो?

"भगवती महामाया ही सम्पूर्ण चराचर जगत की सृष्टि करती हैं तथा वे ही प्रसन्न होने पर मनुष्यों को मुक्ति देती हैं।"

यह जो जन्म-मरण युक्त संसार है, इसकी सृष्टि भी वही करती हैं और अगर प्रसन्न हो गयीं, तो मुक्ति भी तुम्हें वही देंगी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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