वक्ता: सवाल ये है, ‘किसी को हमसे गलतफहमी है तो क्या करें?’
सबको ग़लतफहमी है। यथार्थ में कौन जी रहा है? वास्तविकता से, सत्य से किसका परिचय है? सब गलतफ़हमियों में ही तो जी रहे हैं। तुम कब तक दुखी रहोगे ये सोच कर की किसी को गलतफ़हमी है क्योंकि सबको ही गलतफ़हमी है। फिर तो तुमने तय कर लिया है की जीवन भर मुझे दुखी ही रहना है क्योंकि गलतफ़हमी में सभी हैं, पूरे तरीके से। दूसरे की मदद बेशक करो, लेकिन दूसरे की मदद करने के लिए तुम्हें इस काबिल रहना होगा कि मदद कर पाओ। दूसरा अफ़सोस में है, उदास है, परेशान है, अच्छा है कि उसकी उदासी दूर करो। पर क्या उसकी उदासी दूर कर पाओगे खुद उदास हो कर?
एक डॉक्टर क्या खुद मरीज़ रहकर दूसरे मरीज़ को ठीक कर सकता है? ऐसे तो ठीक नहीं कर पाऐगा, मदद नहीं कर पाऐगा। तुम क्या किसी और की गलतफ़हमी दूर कर पाओगे, अगर खुद गलतफ़हमी में हो? दूसरा देख नहीं पा रहा, उसकी आंखें बंद है। एक अँधा क्या दूसरे अंधे को रास्ता दिखा सकता है?
श्रोता १: नहीं, सर।
वक्ता: तो किसी और की गलतफ़हमी दूर करनी है, इसके लिए शर्त क्या है? इसके लिए क्या ज़रूरी है कि पहले तुम्हें गलतफ़हमी में नहीं होना चाहिए। क्या हम यथार्थ जानते हैं? क्या हमें सच्चाई पता है? क्या हम बात को ठीक-ठीक देख पा रहे हैं? हमारी परेशानी इस कारण नहीं है कि वो गलतफ़हमी में है, हमारी परेशनी इस कारण है की हम भी गलतफ़हमी में हैं, गलतफ़हमी के बारे में। हमें नहीं पता कि झूठ क्या है। एक सोता हुआ आदमी क्या ये बता पाऐगा की दूसरा कौन सो रहा है और कौन जग रहा है? पहले मुझे जगना होगा, तभी तो मैं जानूँगा कि कौन सो रहा है और कौन जग रहा है। हम खुद कहाँ गलतफ़हमी से बाहर हुए, हम खुद कहाँ दुःख से बाहर हुए। तुम सब दूसरों को सुख देना चाहते हो, अपने माँ-बाप को सुख देना चाहते हो, कोई दोस्त को सुख देना चाहता है। खुद दुखी हो और दूसरों को सुख देना चाहते हो। ये कर कैसे दोगे तुम? खुद अँधेरे में हो और दूसरों को रोशनी देना चाहते हो। ये कर कैसे दोगे तुम? ये ऐसी ही बात हुई कि कोई भिखारी कहे कि मैं अपनी दौलत लुटाना चाहता हूँ। ढिंढोरा पीटो, आज साहब अपनी दौलत लुटाएंगे, सब लोग आऐं। जो तुम्हारे पास नहीं है, वो दूसरों में कैसे बाँट दोगे?
तुम दूसरे की गलतफ़हमी की बात कर रहे हो। मुझे बहुत अच्छा लगता अगर तुम अपनी बात करते और तुमने अपनी बात की, तुमने कहा की दूसरों की गलतफ़हमी से मैं परेशान हो जाता हूँ। ये प्रमाण है इस बात का कि सच का तुमको भी पता नहीं। गलतफ़हमी वास्तव में क्या होती है इससे तुम भी वाकिफ नहीं, पर दूसरों की बड़ी फ़िक्र है। यही दूसरे जो हज़ार किस्म के बंधन और उलझनों का कारण हैं, हमें उनकी बड़ी फ़िक्र है। पहले अपनी फ़िक्र नहीं है, कि पहले मैं मुक्त हो लूँ तब तो दूसरों को मुक्ति दे पाऊँगा। पहले मैं तो पा लूँ, तब तो दूसरों में बाट पाऊँगा। मैं तुमसे कुछ कह रहा हूँ, मैं बिना जाने ये सब कह पाऊँगा क्या? किसी को गलतफ़हमी है तो उसे तुम कुछ कहते हो या करके दिखाते हो, वो तुम कैसे कर पाओगे अगर तुममें स्वयं में स्पष्टता नहीं है। अपनी स्पष्टता की तलाश करो, उसको पाओ, देखो की उसके ऊपर क्या धूल जमी है, उसको हटाओ। दूसरे बाद में आते हैं, पहले तुम आते हो। पहले अपना दिमाग साफ़ रखो, तुम्हारा दिमाग अगर साफ़ है तो दूसरों की गलतफहमियाँ अपने आप दूर होने लग जायेंगी।
तुम्हारा दिमाग जब साफ़ होगा तो उसका पहला लक्षण ये होगा की तुम्हें दूसरों से कोई विशेष अंतर नहीं पड़ेगा। बाहर-बाहर पड़ेगा, पर भीतर तुम स्थिर रहोगे, भीतर कुछ डोलने नहीं लगेगा की किसी ने आकर तुम्हें कह दिया कि तुम तो बड़े बेवकूफ हो, और तुम विचलित हो गए। अब तुम्हें पता है की गलतफ़हमी की बात है, पर तुम फिर भी हिल गए, अंदर सब कांप गया, ऐसा नहीं होगा। पहले खुद स्थिर होना सीखो, पहले खुद स्पष्टता पाओ, फिर दूसरों तक वो अपने आप पहुँचेगी।
पहला लक्षण: दूसरों की गलतफ़हमी तुम्हें प्रभावित नहीं करेगी।
दूसरा लक्षण: तुम्हारे पास जो होगा वो अपने आप बँटना शुरू हो जाएगा, तुम्हें बाँटने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी, अपने आप बँटेगा।
पर भूलना नहीं मैंने बार-बार एक ही बात कही है कि शुरुआत स्वयं से करो, शुरुआत वहीं से करो जहाँ पर तुम हो। ठीक है?
– ‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।