समझ और होश कैसे विकसित हो?

Acharya Prashant

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समझ और होश कैसे विकसित हो?

प्रश्नकर्ता: समझ कैसे साधे? क्या ध्यान विधियों के निरन्तर अभ्यास से एक दिन ऐसा आता है कि होश पूरे दिन रह पाता है। रोज़ की दिनचर्या के काम को कैसे होशपूर्वक किया जाए? विधि के अभ्यास के बाद कभी-कभी तो होश थोड़ी देर अपनेआप रहता है वो होश बाकि दिन दिनचर्या के काम करने की कोशिश में रह ही नहीं पाता। ऐसा क्या करें कि ध्यान, होश इत्यादि सब बातें दिमाग से निकल जाए और ये सारा समय, प्रतिक्षण हमारा जीवन्त अनुभव बन सके? प्रणाम।

आचार्य प्रशांत: सवाल अभी भी यह पूछे रहे हो कि रोज़मर्रा के काम को कैसे होशपूर्वक किया जाए। (दोहराते हुए) ‘रोज़मर्रा के काम को कैसे होशपूर्वक किया जाए?’ ये तो तुमने तय ही कर रखा है कि रोज़मर्रा का जो काम है वो तो करेंगे। उस मुद्दे पर कोई बहस नहीं, कोई सवाल नहीं। उस मुद्दे पर तुम कोई चर्चा चाहते ही नहीं, उद्‌देश्य की बात तो छोड़ दो।

तुम जो कर रहे हो रोज़-रोज़, उसको तुम वार्तालाप के लिए खोलना ही नहीं चाहते। तुम कह रहे हो, ‘नहीं साहब, उस विषय पर तो कोई चर्चा नहीं होगी क्योंकि हम जो कर रहे है वो कर रहे हैं, वो हमने चुन रखा है पहले ही। आखिरी निर्णय हो चुका है वो ही सब कर रहे हैं। गुरुजी, आप तो बस इतना बता दीजिए कि जो कर रहे हैं वो करते हुए शान्त कैसे रह जाएँ।’ जो कर रहे हो वो करते हुए शान्त कैसे रह जाएँ? तो मैं कहूँगा जब तुमने बड़ी बात चुन ही ली है स्वयं, तो छोटी भी स्वयं ही चुन लो, छोटी के लिए भी मेरे पास क्यों आते हो?

आखिर इतनी समझदारी है तुममें, तुमने बार-बार होश और समझ की बात की है, अगर इतनी समझदारी है तुममें कि तुम जानते हो कि जैसी ज़िन्दगी तुम जी रहे हो, जैसी दिनचर्या तुम बिता रहे हो, यही ज़िन्दगी होती है। जो दिनचर्या तुम बिता रहे हो, उसी का नाम ज़िन्दगी है और थोड़े ही कोई ज़िन्दगी होती है।

वो ठीक है तो फिर उसी समझदारी का उपयोग करके उसी दिनचर्या में तुम शान्ति भी ले आ लो। जैसे तुम समझदार हो दिनचर्या चुनने के लिए, वैसे ही समझदार हो जाओ, दिनचर्या को शान्त रखने के लिए। नहीं साहब, जो दिनचर्या आपने चुनी है वो आपकी भूल है उसका प्रमाण यह है कि उस दिनचर्या में अशान्ति बहुत है। यही प्रमाण है तुम्हारी भूल का। तुम्हारी दिनचर्या, अगर सही चुनी होती तुमने तो क्या उसमें अशान्ति होती, नहीं होती पर अभी तो अशान्ति है इसीलिए तुम पूछ रहे हो कि दिनचर्या में शान्ति कैसे रखें।

शान्ति रखने की तो बात ही तब उठती है न, जब वहाँ पहले अशान्ति मौजूद हो। क्यों अशान्ति मौजूद हो? अशान्ति यूँही नहीं आ गयी, अशान्ति तुम्हारे मूल चुनाव के साथ आयी है। जो ज़िन्दगी तुमने अपने लिए चुनी है अशान्ति उसका अभिन्न अंग है। तुम लाख चाह लो, तुम लाख विधियाँ आज़मा लो, ये कभी नहीं होने वाला कि तुम जीवन वैसा ही जियो, जैसा जी रहे हो और उसमें से अशान्ति भी हट जाए। वो नहीं होगा तो नहीं होगा।

शान्ति बड़ी जिद्दी चीज़ है वो कुछ शर्तों पर आती है। उस‌की पहली शर्त है सत्य। झूठा जीवन जी रहे हो तो शान्ति नहीं मिलेगी। शान्ति की दूसरी शर्त है निर्लिप्तता। लालच भरा जीवन जी रहे हो, शान्ति नहीं मिलेगी। तीसरी शर्त है निर्भयता। जो कर रहे हो अगर वो डर के कारण कर रहे हो, तुम्हारी रोज़मर्रा की दिनचर्या में डर बहुत है शान्ति नहीं आएगी। चौथी शर्त होती है अनन्तता। शान्ति और क्षुद्रता का कोई साथ नहीं। जो तुम कर रहे हो, अगर उसमें हीनता, क्षुद्रता, लघुता बहुत है तो शान्त नहीं रह पाओगे। तो तुम जो माँग कर रहे हो, उसकी पूर्ति असंभव है।

शान्ति असंभव नहीं है पर पुरानी दिनचर्या और पुराने ढर्रे कायम रखते हुए शान्ति को पाना असंभव है। शान्ति तो बहुत सम्भव है, शान्ति तो अति सरल है पर शान्ति के सामने तुमने जो शर्तें लगा दी हैं, शान्ति उनको नहीं मानने वाली क्योंकि शान्ति बहुत जिद्दी है, उसकी अपनी दूसरी शर्तें होती है। तुम्हारी शर्तों का पालन नहीं करना।

समझ रहे हो?

जिन्होंने ने भी तुम्हें यह बता दिया है कि जैसा जी रहे हो जियो, बस ध्यान की कुछ विधियों का अभ्यास करते जाओ तो शान्ति मिल जाएगी। वो झूठ बोल रहे हैं, वो तुम्हें क्या समझाएँगे, वो खुद नासमझ हैं। ऐसा नहीं हो सकता तो नहीं हो सकता। एक घटिया जीवन जीते हुए तुम दिन के बीस-बीस घंटे ध्यान कर लो, तुम शान्त नहीं हो पाओगे। और सही जीवन जो जी रहा है, समझ ही गये होंगे कि फिर उसे ध्यान की किसी विधि की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। सही जीवन ही ध्यान की सर्वोत्तम विधि है और गलत जीवन पर कोई भी विधि कामयाब होगी नहीं।

तुम कर लो। ये ऐसी-सी बात है कि जैसे कोई नाश्ते में, दोपहर में, रात्रि में — तीनों वक्त ज़हर खाता हो और फिर पूछे कि चिकित्सा की कौनसी विधि मुझे स्वस्थ रखेगी। कोई विधि तुम पर असर करेगी ही नहीं क्योंकि जैसी ज़िन्दगी तुम जी रहे हो, जिन चीज़ों को तुम ग्रहण कर रहे हो, जिन प्रभावों में तुम हो, जैसी तुम्हारी मानसिकता है, ज़हर के प्रति तुम्हारा जो प्रेम है उसके चलते कोई दवाई तुम पर कामयाब नहीं होने वाली।

और जिस दिन तुमने ज़हर छोड़ दिया, उस दिन दवाई की ज़रूरत होगी ही नहीं। तो ले-देकर दवाई का काम क्या? ज़हर छोड़ा नहीं तो दवाई की कोई हैसियत नहीं और ज़हर छोड़ दि‌या तो दवाई की ज़रूरत क्या है? पर तुम तो ज़हर की बात ही नहीं करना चाहते। ज़हर की बात करो। मूल ज़हर की बात करो।

तो मैंने एक छोटी-सी बात कही है वो एक न-विधि है, वो एक अ-विधि है। मैंने कहा है देख लो न कि दिन में कहाँ-कहाँ तुम ज़हर का सेवन कर रहे हो, उसको मैं कहता हूँ, ‘सतत अपना अवलोकन करते रहो, लगातार ध्यान बना रहे।’ कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि जो कर रहे हो उसका अनुभव तो हो ही रहा है। बस ज़रा खरे रहो। तुम्हारा अनुभव ही तुम्हें सब बता देगा। बशर्ते है कि तुम उस अनुभव को दबाओ नहीं, छुपाओ नहीं, रंग-रोगन न करो, सजाओ नहीं, सुन्दर नाम से अलंकृत मत करो। सब तुम्हें बता देगा कि यहाँ-यहाँ-यहाँ मैं ज़हर का सेवन करता हूँ। और यहाँ-यहाँ-यहाँ तुम ज़हर का सेवन करते हो तो मैं तो छोटी-सी विनती किया करता हुआ सब से ज़हर का चस्का छोड़ दो! और वो छूट हो जाएगा। छूट जाता ही है जैसे ही तुमने एक बार एक बार ईमानदारी से कह दिया कि जो मैं ये खा रहा हूँ, ये ज़हर है।

जब तक तुम कहते रहोगे कि नहीं, ज़हर थोड़े ही है, मिठाई है। तब तक मुश्किल है। वो अस्वीकृति ही चुनौती है और मैं उसी के लिए प्रेरित करता रहता हूँ। कुछ मेरी बात मान लेते हैं, उनका जीवन रूपान्तरित हो जाता है। रूपान्तरित ही नहीं होता, मौलिक रूप से बदल जाता है। कुछ मेरी बात नहीं मानते, वो विधियाँ आजमाते रहते है तो मैं उनके लिए प्रार्थना करता हूँ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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