प्रश्न : हमें कभी लगता है कि हम सही हैं, और हम वही चीज़ कर रहे हैं, पर हमें उस रास्ते पर लोगों के इतने कटाक्ष मिलते हैं कि हम उस रास्ते पर चल ही नहीं पाते।
आचार्य प्रशांत जी: डर लगा रहता है?
कितने साल के हो?
प्रश्नकर्ता: अट्ठारह!
आचार्य प्रशांत जी: ना आठ साल के हो ना अस्सी के हो, ना बच्चे हो ना बूढ़े। जवान हो? जवान होने का मतलब समझते हो? क्या मतलब होता है? डरपोक होना? दुनिया आएगी, दस बातें बोलेगी, पीछे हट जाना?
कुछ नहीं करा जा सकता अगर डरते हो। कुछ भी नहीं करा जा सकता।
(हिंदी फ़िल्म के एक गाने की पंक्तियाँ गाते हुए)
“कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना!”
कौन-कौन डरता है? और जो हाथ उठा रहे हैं, वो कम-से-कम अपने डर को देख पा रहे हैं! ऐसे ही जीना है?
श्रोतागण: नहीं, आचार्य जी!
आचार्य प्रशांत जी: मज़ा आता है डरने में? कितना मज़ा आ रहा है! “तू चलेगी डरने, आ डरते हैं! साथ में डरेंगे मज़ा आएगा।”
(हँसी)
हाँ भाई, सामूहिक डर का आयोजन किया गया है!
(हँसी)
पर हम हैं हीं ऐसे! तुमने देखा है कि हम कैसे जीते आए हैं?
“अरे! फ़र्क़ नहीं पड़ता यार। जो नाम भी है, वो तुम्हारा नहीं है। मेरा नाम यहाँ कितने लोगों को पता है? क्या फ़र्क़ पड़ता है उससे? सुन तो रहे हो ना? और थोड़ी देर में पता चले कि जो नाम पता था वो ग़लत है, तो उससे क्या बात बदल जाएगी? तो क्यों इस बात पर इतने आकर्षित हो रहे हो?
देखा है तुमने कि हम कैसे जीते हैं?
क्या कभी इस बात पर गौर किया है कि जितनी फ़िल्में बनती हैं, उनमें बड़ी संख्या डरावनी फ़िल्म की होती है। क्या देखा है कभी इस बात को? ग़ौर किया है?
श्रोतागण: जी!
आचार्य प्रशांत जी: और क्या तुमने देखा है कि जो एक सामान्य फ़िल्म भी होती है, उसमें कहीं-न-कहीं ऐसे दृश्य ज़रूर डाले जाते हैं जो तुम्हारे भीतर डर ज़रूर जगाएँ – कि पहाड़ की एक चोटी है, और उस पर हीरो की गाड़ी है, और वो गिर भी सकता है और बच भी सकता है। जानते हम सब हैं कि तब भी मरेगा नहीं! पर वो दृश्य डाला ज़रूर जाता है कि तुम्हारे भीतर डर जगाया ज़रूर जाए!
ये डर जो है, ये एक प्रकार की खुजली है। ठीक है? उसमें बात ये है कि खुजली बुरी होती है, इर्रिटेटिंग होती है, पर खुजाने में आनंद बड़ा आता है।
(हँसी)
हाँ, समझो इस बात को! यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है। हँसो मत बस, हा-हा-हा। किसी को भी खुजली अच्छी नहीं लगती है, पर हम सबने यह महसूस किया होगा कि बार-बार खुजाने में कितना आनंद है! तो डर हमारे जीवन में यही भूमिका अदा करता है।
जो उत्साह एक सच्चे जीवन में होना ही चाहिए, उसका एक नकली विकल्प है – डर। क्या तुमने देखा है कि जब तुम डरते हो, तो पूरी तरह से सतर्क हो जाते हो? आदमी क्या, जानवर भी! कभी किसी खरगोश को देखना, डरा हुआ, जिसके दोनों कान खड़े हुए हों पूरे रडार की तरह। देखा है? एक डरे हुए जानवर को देखो, कैसे सतर्क हो जाता है।
चूँकि हम सतर्क जीवन नहीं जीते, तो इसलिए उसकी हमारे जीवन में भरपाई होती है इस नकली सतर्कता के द्वारा। हमारे जीवन में कमी है ऐसे पलों की जिसमें हम सतर्क होते हैं, तो इसलिए हम ऐसे क्षण ढूँढ़ते हैं जब हम पूरी तरह जग जाएँ। डर में कम-से-कम ये भ्रम होता है कि – “अभी मैं जग गया हूँ पूरी तरह।”
एक डरे हुए आदमी की आँखें देखी हैं कैसी रहती हैं? पूरी तरह से खुली हुई, जगी हुई, ग्रहणशील, सतर्क।
सिर्फ़ एक बीमार आदमी ही डर को पसंद कर सकता है। और हम सभी डर पसंद करते हैं। हम ये दावा कर सकते हैं कि हमें डर अच्छा नहीं लगता, सच ये है कि हम डर को आमंत्रित करते रहते हैं। वरना हम डरावनी फ़िल्में देखने नहीं जा सकते!
हम पैसे दे-देकर डर देखने जाते हैं। इसका अर्थ तो समझो! तुमने देखा है, ज़्यादातर मॉल्स में वो सब होते हैं, वो डरावनी गुफाएँ होती हैं। भूत बंगला! तुमने कभी समझा है कि इसका अर्थ क्या है? कोई क्यों पैसे देकर के अपनी हालत की ऐसी-की-तैसी कराएगा। और घुस रहे हो, और चीखें मार रहे हो!
क्या तुमने कभी देखा है कि ये सब जो बड़े-बड़े झूले होते हैं, उस पर जो लोग होते हैं, वो कैसे चीखें मार रहे होते हैं? जब झूला एक तरफ़ को जाता है, तो आ-आ-आ! वास्तव में हालत ख़राब हो रही होती है। उनमें चेतावनी लिखी होती है कि – जिनका दिल कमज़ोर हो, वो इस पर चढ़े ही ना, क्योंकि डर बहुत ज़ोर का लगेगा। पर आप फिर भी चढ़ते हो। क्यों चढ़ते हो? क्योंकि जीवन इतना रूखा-सूखा है, उसमें रोमांच की, उत्साह की इतनी कमी है, कि आपको इस तरीके से पूरा करना पड़ता है कि – झूले पर बैठ लो, और ये कर लो, और वो कर लो!
डर बीमारी है जो हमने खुद पाल रखी है। और डर पर सीधा हमला नहीं किया जा सकता, क्योंकि डर एक अधूरे जीवन की पैदाइश है। जीवन पूरा कर लो, डर अपने आप चला जाएगा। जो एक पूरा-पूरा जीवन जी रहा है, वो डर नहीं सकता। डर आता है ताकि रोमांच आ सके। जिसके जीवन में रोमांच पहले से ही है, उसके जीवन में डर की कोई जगह नहीं है।
बात समझ रहे हो?
तो अगर आप एक सम्पूर्ण, समन्वित, संघटित जीवन जी रहे हैं, तो आप कहेंगे, “ये डर क्या होता है? मुझे पता नहीं कि डर क्या चीज़ है!”