सही राह कौन-सी? || तत्वबोध पर (2019)

Acharya Prashant

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सही राह कौन-सी? || तत्वबोध पर (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। बोध का अर्थ शायद अनुभूतिपूर्ण अपरोक्ष ज्ञान है। जगद्गुरू आदिशंकराचार्य ने इसके लिए जो आवश्यक साधन-चतुष्टय बताए हैं, उनको उपलब्ध किए बिना इस ज्ञान का सिर्फ़ श्रवण या पठन क्या एक दुविधा अथवा एक प्रकार का मानसिक अनुकूलन नहीं पैदा करेगा? यह दुविधा या मानसिक अनुकूलन या जान लेने का भ्रम जीव या मनुष्य के संघर्ष या तपन को नहीं बढ़ाएगा?

साधन-चतुष्टय का इंजन या साधन श्रद्धा है। आज के कठिन समय में श्रद्धा सबसे दुर्लभ है। गुरु और शास्त्र में एकनिष्ठ विश्वासरूपी श्रद्धा बिना अहैतुकी कृपा के क्या प्रयासों से संभव है? मेरा नितांत निजी अनुभव है कि प्रयासों से श्रद्धा नहीं अर्जित की जा सकी, जीव सिर्फ़ ईमानदारी से रो सकता है। कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: तो कौन कह रहा है कि साधन-चतुष्टय अर्जित किए बिना तुम ज्ञान की दिशा में आगे बढ़ो? समूचा तत्वबोध है ही इसीलिए कि तुमको पता चले कि साधन क्या हैं और तुम इन साधनों का अपने-आपमें विकास कर सको।

निश्चित रूप से तुमने जो आशंकाएँ व्यक्त की हैं, वो आशंकाएँ निर्मूल नहीं हैं। बिलकुल ठीक कह रहे हो कि जिसमें मुमुक्षा नहीं, जिसमें वैराग्य, विवेक नहीं, जिसमें शम, दम, तितिक्षा, उपरति, श्रद्धा इत्यादि नहीं, वो अगर ग्रन्थों का अध्ययन करेंगे तो वो ग्रन्थों से अर्जित ज्ञान का अपने विनाश के लिए ही दुरुपयोग कर लेंगे। ठीक कह रहे हो, बिलकुल ठीक कह रहे हो। तो सावधान रहो न। ये जितने साधन बताए गए हैं, इन साधनों पर ज़रा नियंत्रण कसो, इन साधनों को अपने-आपको उपलब्ध कराओ, फिर आगे बढ़ो।

फिर पूछा है, श्रद्धा के बारे में कि "श्रद्धा प्रयासों से प्राप्त नहीं की जा सकती, जीव सिर्फ़ ईमानदारी से रो सकता है।” तो ठीक है, ईमानदारी से रो लो। आदिशंकर श्रद्धा की व्याख्या भी दे रहे हैं, कह रहे हैं, “गुरु और वेदान्त के वाक्यों में, वाणी में विश्वास रखना, यही श्रद्धा है।”

देखा है अपने अविश्वास को कैसे हवा देते हो? देखा है अपने संदेहों, संशयों को कैसे तूल देते हो? जब प्रयास कर-करके अश्रद्धा निर्मित कर सकते हो, अविश्वास निर्मित कर सकते हो, तो कम-से-कम इतना प्रयास तो करो कि ग़लत दिशा में प्रयास ना करो।

यह ना कहो कि, "मेरा नितांत निजी अनुभव है कि प्रयासों से श्रद्धा नहीं अर्जित की जा सकती", अर्जित ना की जा सकती हो प्रयासों से, प्रयास कर-करके गँवाई तो जा सकती है? श्रद्धा गँवाने की दिशा में देखा है कितने प्रयास करते हो? संदेह का कीड़ा कुलबुलाया नहीं कि तुमने संदेह को तूल देना शुरू किया, कोई कुतर्क उठा नहीं कि तुमने उसे हवा देनी शुरू की। यह प्रयास नहीं है क्या? कम-से-कम इन प्रयासों को विराम दो, यही श्रद्धा है।

प्र२: प्रणाम, आचार्य जी। मैंने जब से जीवन के असली या मूल उद्देश्यों को जाना है, तब से मैं ख़ुद को इस पथ पर लाने की सोच रहा हूँ पर मेरी मूलभूत आवश्यकताओं के चलते तीस साल निकल गए। अब मैं इस राह पर चलने में कोई विलंब नहीं करना चाहता। कृपया मार्ग दिखाएँ।

आचार्य: एक तरफ़ तो लिख ही रहे हो कि, "मैं इस राह पर चलने में कोई विलंब नहीं करना चाहता", और उसके आगे कहते हो, “कृपया राह दिखाएँ।” राह दिख रही है, तभी तो कह रहे हो कि, "इस राह पर चलने में कोई विलंब नहीं करना चाहता।" राह पता थी, तभी तो यह कह रहे हो कि तीस वर्ष निकाल दिए, राह पर चले नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि जैसे तीस वर्ष निकाल दिए, ऐसे ही अभी पाँच-सात-दस वर्ष और निकालने का इरादा हो, और इसीलिए जो प्रत्यक्ष राह हो, उसकी अनदेखी करके अनजाने बनकर मुझसे ही कह रहे हो कि, "राह दिखाइए"?

राह तो सामने है। राह कौन-सी है? राह वही है जिसके बारे में तुम कह रहे हो कि तीस वर्ष उस राह पर चले नहीं। कौन-सी राह है? वही राह जिस पर तीस साल चले नहीं। जिस पर तीस साल चले नहीं, उसी पर चल दो।

क्या है राह? जहाँ समय का निवेश नहीं करना चाहिए, वहाँ करना बंद करो। जो काम अज्ञान में किए जा रहे हो, उन कामों को विराम दो। जो रिश्ते तुम्हारी बेहोशी और अँधेरे को और घना करते हैं, उन रिश्तों से बाहर आओ, उन रिश्तों को नया करो। धन का, जीवन का, ऊर्जा का जो हिस्सा तुम अपनी अवनति की तरफ़ लगाते हो, उसको रोको। यही राह है।

और यह राह तुमको पता है, क्योंकि तुम भलीभाँति जानते हो कि तुम्हारे जीवन में दुःख कहाँ है। जहाँ कहीं तुम्हारे जीवन में दुःख है, संशय है, भय है, जहाँ कहीं तुम्हारे जीवन में पचासों तरह के उपद्रव हैं, उस तरफ़ बढ़ना छोड़ो। यही राह है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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