जो वासना परमार्थ के लिए की जाए, वो शुभ होती है। —योगवासिष्ठ सार
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, वासना यदि सत्य की ओर उन्मुख हो जाए तो वो सही किस प्रकार है?
आचार्य प्रशांत: राम की ओर दिल भागता है। संत कहेंगे कि अच्छा तो यह होता है कि स्थिर ही हो जाता है, पर स्थिर होने लायक तुमने उसे छोड़ा नहीं। तो अब राम की ओर भागे तो ठीक है, कम-से-कम वहाँ जाकर स्थिर हो जाएगा। और दूसरी चीज़ें भी होती हैं, उनकी ओर भी भागता है, वहाँ तकलीफ़ यह है कि वहाँ चला भी गया, पहुँच भी गया, तो भी स्थिर नहीं हो पाएगा।
प्र२: तो यहाँ पर उसी के लिए बताया है कि वासना-रहित?
आचार्य: वासना-रहित तो तब होगा न जब जो चाहिए था, वो मिल जाए। उसके बिना वासना-रहित नहीं होगा, उसके बिना तो वासना बनी ही रहनी है। वासना-रहित होने के लिए भी ज़रूरी है कि सदवासना की ओर पूरी ताक़त से दौड़ लगा दो। एक बार तो अपने-आप को पूरा भरना पड़ेगा न? जब तक इसी भावना में बैठे हुए हो कि, "खाली हैं, खाली हैं", तब तक स्थिरता, पूर्णता शब्द मात्र हैं बस।
देखिए, व्यावहारिक रूप से जितना ज़रूरी है एक आम आदमी के लिए अपने-आप को कुत्सित वासनाओं से बचाना, उतना ही ज़रूरी है राम की वासना में पड़ना, क्योंकि तुम अगर सच्चाई के पास नहीं हो, राम के, आत्मा के पास नहीं हो, तो तुम अपने-आप को दूसरी चीज़ों से बचा भी कब तक लोगे? अपने बूते पर बचाओगे? कैसे बचाओगे?
जिस घर का कोई मालिक नहीं, उस घर में कितनी देर तक तुम सफ़ाई रख लोगे? उस घर को कितनी देर तक तुम चोर-लुटेरों से, आक्रांताओं से बचा लोगे? निश्चित और आख़िरी उपाय तो एक ही है न, कि घर उसके सुपुर्द कर दो, जिसका है। घर में मालिक को बैठा दो, अब कोई नहीं घुसेगा। अन्यथा तुम एक व्यर्थ लड़ाई लड़ रहे हो। कुछ समय तक तुम्हें ऐसा लग सकता है कि तुम सफल हो, पर तुम थक जाओगे, तुम्हें हारना पड़ेगा।
जितना ज़रूरी है व्यर्थ से लड़ना, उतना ही ज़रूरी है सत्य के प्रेम में भी पड़ना, क्योंकि अंततः वो लड़ाई तुम्हारी अपनी नहीं होने वाली। तुम जीत नहीं पाओगे। उस लड़ाई को भी अगर तुम्हें लड़ना है और जीतना है तो तुम्हें लड़ने के सारे अधिकार मालिक को देने पड़ेंगे, कि “मालिक! अब तुम लड़ो मेरी जगह क्योंकि जीत तो तुम ही सकते हो। मैं कुछ समय के लिए प्रतिरोध कर सकता था, मैं चौकीदारी कर सकता था, वो मैंने कर ली। पर पूरा खेल तो तुम ही खेलोगे, पूरी जीत तो तुम ही जीतोगे।”
इसीलिए जो शून्यवादी हैं, उन्हें अकसर ज़्यादा तकलीफ़ का सामना करना पड़ता है। वो हर चीज़ का नकार तो करे जाते हैं, पर बिना उसके सामने सर झुकाए जो नकार करने की ताक़त देता है। नतीजा यह निकलेगा कि नकारने की हिम्मत भी कुछ समय बाद शिथिल पड़ने लग जाती है। कब तक ‘ना-ना’, ‘ना-ना’ बोलते रहोगे, बिना यह स्वीकार किए कि भीतर कोई है जो ‘ना’ बोलने की हिम्मत देता है? उसको तो ‘हाँ’ बोलना पड़े न? वो तो है, तो ‘हाँ’ तो बोलिए न उसके प्रति। "वो है?", "हाँ, वो है!" अब उसको ‘हाँ’ तो तुम बोल नहीं रहे, ‘ना-ना’, ‘ना-ना’ करे जा रहे हो—ये भी झूठा, वो भी झूठा।
थोड़े दिनों बाद तुम पाते हो कि अब झूठा बोलने का मन नहीं कर रहा। कौन ये एकरस, एक-धुन जीवन जीये कि जो सामने आए, उसी को बोल रहे हो ‘ना’, निषेध, नेति-नेति? और तुम्हारी कौन करे? ये जो ‘ना-ना’ बोले जा रहा है, इसको कौन हटाएगा?
तो फिर कहते हैं, “अच्छा, हमने ख़ुद को भी हटा दिया। अब मात्र मौन है।” अच्छा, इस मौन को कौन हटाएगा? तुम्हारा तो मौन भी एक चीज़ है, एक वस्तु है, करीब-करीब इन्द्रियगत है। कहीं-न-कहीं आकर ‘हाँ’ बोलना पड़ता है। मैं कह रहा हूँ, ‘हाँ’ बोलना उतना ही ज़रूरी है जितना ‘ना’ बोलना। ‘ना’ बोलने की ताक़त भी ‘हाँ’ बोलने से आती है।
एक सज्जन से इसी हफ़्ते अभी बात हुई, वो लंदन में बड़े डॉक्टर हैं। बड़े परेशान हैं। बोले, “ज़ेन का कायल हूँ। ज़ेन साहित्य पूरा पढ़ा है पर परेशानी नहीं जाती।”
मैंने कहा, ज़ेन तो यही बताता है कि, "सब मूर्खता है, मन किधर को भी चला, व्यर्थ विचलन है। कुछ भी कोई अर्थ नहीं रखता, कोई मायने नहीं रखता।" तो ये परेशानी कैसे आपके लिए मायने रखती है? पूरे संसार को तो आपने कह दिया कि अर्थहीन है, सारहीन है, तो परेशानी में अर्थ कैसे है, परेशानी में सार कैसे है? बोले, “यही समझ नहीं आता।”
मैंने कहा कि आप ज़ेन अभी हटाइए। ज़ेन को काम करना होता तो एक झटके में कर गया होता। सिख थे, मैंने कहा कि आप आदिग्रन्थ की शरण में जाएँ, जपुजी साहिब से शुरुआत करें।
परमात्मा, सत्य निर्गुण, निराकार है, ठीक है। पर तुम्हारी तो साकार में आस्था है न? तुम्हारी तो अपनी देह में आस्था है, देह तो साकार है। तो तुम परमात्मा के सकारात्मक रूप को भी पूजना सीखो। ‘हाँ’ बोलना भी सीखो। सिर झुकाना भी सीखो। पूर्ण निषेध कर रहे हो न? तो निषेध से पहले ‘पूर्ण’ आता है, भूलना नहीं। पूर्ण नहीं आया है तो निषेध भी नहीं होगा और आधा-अधूरा अधकचरा निषेध करोगे।