सही चुनाव का समार्थ्य || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

Acharya Prashant

32 min
162 reads
सही चुनाव का समार्थ्य || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

आचार्य प्रशांत: बताइए, क्या प्रश्न हैं? प्रश्न भी कुछ जन्माष्टमी विशेष जैसे ही होने चाहिए। ये न हो कि अभी बातचीत हुई और प्रश्न स्थूल कोटि के आ गए।

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी।

आचार्य: खीर वगैरह बनी कि नहीं बनी?

प्र: नहीं, आचार्य जी। खीर नहीं बनी है।

आचार्य: तो अभी बनेगी न रात तक?

प्र: मैं अकेले रहता हूँ, परिवार के साथ नहीं रहता।

आचार्य: अकेले नहीं रहते होते तब तो खीर वाला कार्यक्रम होता ही?

प्र: हाँ, घर पर होता है। घर पर तो होगा-ही-होगा बिलकुल। हाँ, उसको मना नहीं कर सकते। मेरे साथ तो और भी ये है कि पहले ही पतले हो रहे हो, सेहत का ध्यान नहीं रखते और दूध-घी नहीं खाओगे तो पता नहीं क्या होगा।

आचार्य: (व्यंग करते हुए) तो खा लीजिए, आज तो जन्माष्टमी है, दूध वगैहरा ले लीजिए।

प्र: जी, ठीक है। आचार्य जी, तो मेरा प्रश्न…

आचार्य: पहले मेरा प्रश्न तो बताइए न। ठीक रहेगा न, आज तो चलेगा?

प्र: नहीं मेरे को अन्दर से अब मन नहीं होता है खाने का। मतलब पहले तो कभी-कभार होता था, अब लगभग दो साल हो गए हैं दूध-घी छोड़े हुए। पहले मन करता था शुरुआत के तीन-चार महीने, लेकिन अब नहीं। क्योंकि मैं ऋषिकेश में रहता हूँ तो यहाँ पर तो गायें सड़कों पर इतनी ज़्यादा होती हैं कि खीर-दूध कम दिखता है, जानवर ज़्यादा दिखते हैं।

आचार्य: चलिए प्रश्न बताइए।

प्र: आचार्य जी, पिछले सत्र में आपने बताया था कि जो हमारा जेनेटिक कोड (जैविक सामग्री) है उससे ये बताया जा सकता है कि हम कैसा जीवन जीने वाले हैं, हमारा आगे का जीवन कैसा होगा मतलब सब पूर्वनिर्धारित होता है। तो फिर इसमें हमारे चुनाव की जगह कहाँ बचती है? क्या ये भी निर्धारित है कि मैं अध्यात्म की ओर जाऊँगा या नहीं?

आचार्य: ये नहीं निर्धारित होता। आप बात को उल्टा ही कर दिए हैं बिलकुल। जो कुछ भी पाशविक है आपके जीवन में, वो निर्धारित होता है आपकी जैविक संरचना द्वारा। आप कृष्ण की ओर जाएँगे या नहीं जाएँगे, ये आपकी चेतना का चुनाव होता है। चेतना पूरी तरह यांत्रिक नहीं होती। वो हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती है। यदि जीवन में चुनाव का, विवेक का कोई स्थान नहीं होता तो फिर तो सारा अध्यात्म बेमतलब है बिलकुल। आम-आदमी बेहोश रहता है, आम-आदमी अचेत है, तो इसके लिए फिर उसके पास कोई चुनाव नहीं बचता है। वो बिलकुल वही करता है जो उसको उसका शरीर करवाता है। ये सामान्यतया होता है, पर ये अनिवार्य नहीं है। और ये न हो इसी के लिए गीता ज्ञान है कि वैसे ही मत जियो जैसे तुमसे ये शरीर और समाज चाहता है। तुम कुछ और हो और जो तुम हो वास्तव में, तुम्हें वैसे जीना चाहिए।

प्र: अध्याय तीन, श्लोक चौबीस जिसमें कहा है कि भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि अर्जुन सब लोग पूरी ताक़त से लगे हुए हैं कर्म में, लेकिन लालच में अंधे होकर लगे हुए हैं और तुम उस लालच के बिना पूरी तीव्रता से लड़ो। तो आचार्य जी, इसमें तीव्रता का मतलब मेरे जीवन में कैसे दिखता है? चुनाव करके या कुछ और भी?

आचार्य: नहीं, वो तीव्रता से तो बस कामना के वेग का पता चल रहा है न। यही तो वो कह रहे हैं कि बाकि लोग तीव्रता से अपनी-अपनी अंधी कामनाओं की पूर्ति में लगे हैं, तुम उतनी ही बराबर की तीव्रता से मेरे प्रेम में, मेरी सेवा में, निष्कामता में लगो।

कामना के वेग, कामना के धार की बात हो रही है। कह रहे हैं, ‘जो आदमी पागल है, बिलकुल जानवर है, उसमें तो देखो कितनी जान है, पूरे प्राण उसने अर्पित कर रखे हैं अपने अंधे लक्ष्य को। वो कहीं कोई कमी-कोताही नहीं कर रहा और जो लोग कहते हैं कि वो कृष्ण को समर्पित हैं, उनकी ज़िंदगी अधिक-से-अधिक बस गुनगुनी है, उसमें कहीं कोई ताप, उबाल नहीं दिखाई देता।‘ ये जो गुनगुना अध्यात्म होता है, ये जो आधा-अधूरा, मिश्रित, लुचुर-पुचुर प्रेम होता है, इसके विरुद्ध कृष्ण इस श्लोक में सीख दे रहे हैं। कह रहे हैं – तीव्रता चाहिए, उबाल चाहिए, गर्मी चाहिए; या सारी गर्मी बस दुष्कर्मियों के लिए ही छोड़ रखी है?

आप अगर देखोगे तो जितने कामी-क्रोधी, पापी घूम रहे हैं, ये सब अपने-अपने कामों को बड़ा समर्पित रहते हैं और ये अपने लक्ष्यों को बड़ी दृढ़ता के साथ, बड़ी योजना के साथ, बड़े अनुशासन के साथ पाते हैं। है न? तो कृष्ण वही कह रहे हैं कि, ‘ये जितने भी गुण हैं जो काम आ सकते हैं जीवन में कुछ करने के, ये सब क्या पापियों और लोभियों के लिए ही छोड़ रखें हैं? जो मेरे साथ के लोग हैं, वो कब दिखाएँगे दृढ़ता, अनुशासन, बुद्धि, संकल्प, तीव्रता?’ इनका सदुपयोग तब है जब ये किसी कृष्ण के प्रेमी के हाथों में हों।

अनुशासन बहुत अच्छी बात है, तीव्रता बड़ी अच्छी बात है, संकल्प अच्छी बात है, दृढ़ता अच्छी बात है, बुद्धिमत्ता अच्छी बात है, पर इन सबका उपयोग करने वाला सही व्यक्ति होना चाहिए न। होता ये है कि इनका उपयोग करने के लिए जो ग़लत लोग हैं, वो आगे-आगे रहते हैं और सही आदमी में ये सब चीज़ें पायी नहीं जातीं। वो बस यही बोलकर संतुष्ट हो जाता है कि ‘मैं तो सही आदमी हूँ, मैं तो कृष्ण का हूँ; जो करेंगे कृष्ण करेंगे, मैं क्यों कोई संकल्प लूँ? मैं युद्ध क्यों करूँ?’ कृष्ण कह रहे हैं, ‘नहीं, जितनी जान लगाकर के दुर्योधन युद्ध कर रहा है अर्जुन, तुम उतनी ही जान लगाकर के मेरे लिए युद्ध करो। दुर्योधन युद्ध कर रहा है सिंहासन पाने के लिए, तुम युद्ध मेरे लिए करो, तुम निष्काम होकर युद्ध करो।‘

प्र: आचार्य जी, जब भी हम काम करते हैं और जैसे मान लीजिए मैं आध्यात्मिक काम कर रह हूँ, उसमें कहते हैं वो धीरे-धीरे हो रहा है। जैसे आपने पहले भी बताया, सामान्यतया जो छवि है आध्यात्म की समाज में कि वैसा व्यक्ति तो एकदम शांत, बिलकुल सौम्य होता है और उसमें क्रोध नहीं है, बिलकुल आग नहीं है…

आचार्य: वो समाज की साज़िश है कि आध्यात्मिक आदमी की ऐसी तस्वीर बना दो, ताकि जितने आध्यात्मिक लोग हैं वो बिलकुल नि:शस्त्र हो जाएँ; ऊर्जाहीन, निष्प्राण से हो जाएँ। जबकि होना ये चाहिए कि वास्तविक आध्यात्मिक आदमी ऊर्जा से सराबोर, प्रेम में दीवाना-सा, दृढ संकल्प से युक्त, तीव्र गतिमान व्यक्तित्व हो उसका।

लेकिन समाज ने षडयंत्र करा है। समाज ने कहा कि आध्यात्मिक तो वो है जो कहीं जाकर कोने में बैठ गया है और बस अपना आँख बंद करके ध्यान कर रहा है या रामनामी या माला और कुछ करता-वरता नहीं है। दुनिया में कुछ भी हो रहा हो, इससे उसको न कोई विरोध होता है, न कोई रोष होता है। कहीं कोई अन्याय हो रहा हो, वो युद्ध नहीं करेगा, धनुष नहीं उठाएगा। समाज ने ऐसी छवि बना दी है, और तुम देख नहीं पा रहे हो ये छवि समाज क्यों बनाएगा? ताकि जितने आध्यात्मिक लोग हैं वो सब पंगु से हो जाएँ बिलकुल।

प्र: आचार्य जी, जैसे मैंने आपसे पिछली बार छांदोग्योपनिषद् में भी पूछा था कि किसको महत्व देना है, तो अपने कहा था कि नहीं, आपको चीज़ों को निगेट करना है, कुछ चीज़ों को छोड़ना है तभी आप अपनेआप को समेट पाओगे। तो उसमें एक तो चुनाव, प्रतिपल चुनाव है, और उसमें क्या है जिसका मुझे ध्यान रखने की ज़रूरत है?

आचार्य: जिसको चुन लिया उसका साथ निभाना भी तो पड़ता है न? और साथ निभाने के लिए अगर दौड़ लगानी पड़े, तो दौड़ भी लगानी पड़ती है, मेहनत भी करनी पड़ती है। सिर्फ़ सांकेतिक रूप से या मौखिक रूप से चुन लेने से नहीं होता न? चुनने का मतलब होता है एक वादा जैसा, फिर उसको निभाना भी पड़ता है। उसको जान देकर निभाना पड़ता है। जो वो फिर मूल्य माँगे वो मूल्य दो, जो श्रम माँगे वो श्रम दो। नहीं तो ऐसी-सी बात हो जाएगी कि घोषणा कर दो, ‘मैं सैनिक हूँ। चुनाव कर लिया है मैंने कि सैनिक रहूँगा।’ और जहाँ लड़ाई चल रही है उसके तुम आसपास भी फटकते नज़र नहीं आते, तो ये फिर कौनसा चुनाव हुआ?

प्र२: नमस्ते आचार्य जी, श्लोक सैंतीस में है कि ये काम और क्रोध ही है जो रजोगुण से उत्पन्न होकर, हमें सही कर्म करने से रोकता है। और ये अर्जुन के संदर्भ में है, आपने कहा था कि इसलिए रजोगुण की बात की गई। मेरा सवाल ये है कि अर्जुन संभवतः अपने रजोगुण के कारण ही सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बने हैं। अपने जीवन में रजोगुण के कारण ही वो श्रेष्ठ बने। और संसार में श्रेष्ठता पाने के बाद अब जो उनका दुख है कुरुक्षेत्र में, वो धर्म-सम्बन्धी है। पर उन अनेक लोगों का क्या, जिसमें से मैं भी हूँ, जिन्होंने अभी सांसारिक श्रेष्ठता भी नहीं प्राप्त की है? वे सिर्फ़ औसत लोग हैं। औसत से श्रेष्ठ बनने के लिए कामना करना क्या अनिवार्य नहीं है?

तो मेरे पास दो विकल्प आ रहे हैं, एक है जो सुनकर अच्छा लगता है, जो आपके अनुसार, गीता के अनुसार श्रेष्ठ है, दूसरों के लिए है। लेकिन मैं फिर भी अगर वो करना चाह रही हूँ तो अपने लिए करना चाह रही हूँ। कि अच्छा ये करके मुझे अच्छा लगेगा, मैं श्रेष्ठ दिखूँगी शायद। पर अब परेशानी आ रही है इन दो विकल्पों में से चुनाव करने में।

आचार्य: अर्जुन को एक बार भी नही बोलते हैं कृष्ण कि इसलिए लड़ो क्योंकि तुम सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर हो। लड़ने की वजह ये नहीं होती कि मेरे पास कोई ज़बरदस्त योग्यता है, मैं इसलिए लड़ूँगा। जो जहाँ होता है, उसे वहाँ ही अपना धर्म युद्ध लड़ना पड़ता है, क्योंकि आप जहाँ भी खड़े हैं, है तो कुरुक्षेत्र ही। क्या फर्क़ पड़ता है आपकी कितनी पात्रता है, कितनी नहीं है, क्या है, आप रणभूमि में ही खड़े हुए हैं। अर्जुन को भी लड़ना है, एक कम योग्य योद्धा को भी लड़ना है, और जो बिलकुल ज़मीनी पैदल सैनिक है उसको भी लड़ना है, लड़ना तो सभी को है न।

अर्जुन में विशेषता ये थोड़े ही है कि वो सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे, वो नहीं भी होते सर्वश्रेष्ठ तो भी कृष्ण उनको वही बात बोलते जो अभी बोली है गीता में। गीता में इस पर कहाँ ज़ोर है कि अर्जुन इसलिए लड़ो क्योंकि तुम सर्वश्रेष्ठ हो? गीता में तो कह रहे हैं कि अर्जुन लड़ो क्योंकि धर्म यही माँग कर रहा है, इसलिए लड़ना तो पड़ेगा ही। अगर तीर है तो तीर से लड़ो, तलवार है तो तलवार से लड़ो, भाला है तो भाले से लड़ो, जो भी तुम्हारे पास है उससे लड़ो।

देखिए, ये बड़ी खतरनाक बात हो जाती है कि मैं पहले कोई योग्यता-श्रेष्ठता प्राप्त कर लूँ फिर मैं धर्म की ओर चलूँगी। मामला बिलकुल उल्टा होना चाहिए। धर्म तय करेगा कि आपको किस दिशा चलना चाहिए और फिर उस दिशा में आपको जो भी योग्यता अर्जित करनी है करें, धर्म की सेवा में अर्जित करें। राह सही होनी चाहिए, भले ही उस पर गति आपकी थोड़ी कम है। लेकिन आप कहें, ‘पहले मैं ग़लत राह चलकर के गति बढ़ाना सीखूँगी, और जब मैं गति बढ़ाना सीख लूँगी तब मैं सही राह चलूँगी’ तो ये आशा कभी पूरी नहीं होने वाली। और ये आशा बहुतों ने रखी है और असफल, निराश हुए हैं खूब, जीवन व्यर्थ गया है।

सब यही कहते हैं, कहते हैं, ‘अभी पहले हम ये सब अर्जित कर लें, उसके बाद हम देखेंगे कि अध्यात्म की ओर कैसे आना है।‘ बहुत सारे लोग तो रिटायरमेंट की बाट जोहते रहते हैं कि अभी हम ज़रा इधर-उधर के जो भी कर रहे है दंद-फंद, वो सब करके सांसारिक रूप से सफल हो लें, योग्य हो लें, चीज़ें इकट्ठी कर लें और जब हम साठ-सत्तर साल के हो जाएँगे, उसके बाद हम देखेंगे कि अध्यात्म का काम कैसे करना है। ऐसे नहीं होता, अध्यात्म पहली चीज़ होती है, कृष्ण पहले हैं।

नहीं फ़र्क पड़ता आपके पास क्या है, आप कृष्ण हों, चाहे आप सुदामा हों, आप बहुत बड़े योद्धा हों, चाहे आप बिलकुल निहत्थे कोई सामान्यजन हों, आप बहुत धनी हों, चाहे आप एकदम निर्धन हों, कृष्ण सबके लिए होते हैं और सबको कृष्ण की ही बात पर चलना होगा। और इसमें कहीं से भी इस बात से नहीं इनकार करा जा रहा कि आप सांसारिक उपलब्धियाँ न हासिल करें, ज्ञान या पात्रता न हासिल करें। लेकिन किस दिशा में आपको उपलब्धि लेनी है, क्या पढ़ाई करनी है? क्या नौकरी करनी है? क्या आपको जीवन में काम और प्रयास करने हैं, किधर को आपको जीवन में अपने सम्बन्ध बनाने हैं, इन सबका निर्धारण तो कृष्ण करेंगे न? या आप ये कह रहीं है कि आप पहले ये सबकुछ निपटा लेंगी फिर कृष्ण की ओर आएँगी? ये सबकुछ निपटा लेने के बाद आपका जीवन, ये संसार, आपके बंधन आपको अनुमति ही नही देंगे कृष्ण की ओर आने की। आप अगर ये सोच रहे हैं कि पहले आप सौ तरह की पात्रता पा लें उसके बाद आप आएँगे कृष्ण की ओर तो ऐसा होने का नहीं न।

मैं एक को जानता था, आईआईटी से ही था, मुझसे पंद्रह साल जूनियर रहा होगा। तो एक बार मिलने आया, तो वो बोलता है कि ‘मैं फ़लाने तरह का काम करना चाहता हूँ, ये करना चाहता हूँ, वो करना चाहता हूँ।‘ वो वेस्ट मैनेजमेंट (कचरा प्रबंधन) बोले कभी, कभी रेन वॉटर हार्वेस्टिंग (वर्षा के जल का संचयन) बोले, कभी बोले, ‘नहीं, गरीब बच्चों के लिए करना है, मैं एक संस्था बनाऊँगा।‘ इस तरह की उसने अपनी बहुत सारी बातें बोलीं और इरादे उसके, मैं समझता हूँ, नेक ही थे, वो करना चाहता था। फिर बोलता है, ‘ये मैं जो भी करूँगा काम, इनको सीखने के लिए मुझे पहले मैनेजमेंट सीखना होगा।‘

तो मैंने कहा, ‘अच्छा! इसका क्या मतलब है?’ तो बोलता है, ‘पहले मैं कैट (प्रतियोगी परीक्षा) दूँगा, मैं पहले एमबीए करूँगा, मैं ये सब पहले सीख तो लूँ न कि मैं ये जो भी कुछ करना चाहता हूँ, दुनिया में बड़े-बड़े काम, उनका मैनेजमेंट कैसे किया जाता है।‘ मैंने कहा – देख भाई! तुझे अगर ये सबकुछ करना है तो तू आज से करना शुरू कर दे; ये क्या तू कह रहा है? वही आपका ही तर्क कि पहले योग्यता और पात्रता तो अर्जित कर लूँ, उसके बाद मैं कोई काम करना शुरू करूँगा।

अभी वो न्यूयॉर्क की गरीबी दूर कर रहा है इन्वेस्टमेंट बैंकर (ऊँची आमदनी की निवेश सम्बन्धी नौकरी) बनकर पिछले पाँच साल से। (व्यंग्य करते हुए) और न्यूयॉर्क में जितनी अशिक्षा है, सबसे ज़्यादा अनपढ़ लोग वहीं पाए जाते हैं, बेचारों को हिंदी ही नहीं आती उन्हें, और क्या आएगा? तो वो उनको वहाँ पर बैठकर के शिक्षित कर रहा है। दुनिया का जो सबसे बड़ा इन्वेस्टमेंट बैंक है, वो उसमें साल के, मेरे ख्याल से कितना, दो-तीन-सौ हज़ार डॉलर की उसकी बंधी हुई तनख्वाह है। उसके अलावा इन्वेस्टमेंट बैंकिंग में जो ऊपर से आता है वेरिएबल (अतिरिक्त), वो तो अलग ही है। तो वो ये सबकुछ करके अपना आध्यात्मिक और सामाजिक कार्य कर रहा है।

अरे भैया! एक बार वहाँ घुस जाओ, वहाँ से वो नहीं वापस आने देते कि तुमने अब योग्यता-पात्रता अर्जित कर ली है, अब तुम्हारे पास एमबीए की डिग्री है, अब जाकर कृष्ण का काम करो; कोई नहीं लौटता। मैं लौट आया हूँ, मुझे देखकर के ये मत समझ लीजिएगा कि सब लौट पाएँगे। वहाँ जो गया, वो बस गया। वहाँ से फिर वापस नहीं आते हैं कि वहाँ से आकर के फिर आप कहो कि ‘मैं अब समाज सेवा करूँगी।‘ जो वहाँ गया वो फिर वहीं का हो गया। और मैं उधर जाने को मना नहीं कर रहा, लेकिन उस दिशा जाईए न जिस दिशा जाकर के कृष्णमय जीवन बिताने में सुविधा मिले। कृष्ण ने कोई रोक रखा है कि आप जगत में तरक्क़ी मत करिए? बिलकुल करिए, लेकिन आप किस दिशा में तरक्क़ी कर रहे हैं ये भी देखिए न। जगत में भी बहुत दिशाएँ हैं, कृष्ण वाली दिशा में आगे बढ़िए।

प्र२: आचार्य जी, अब एमबीए करके या तो मैं एनजीओ (गैर सरकारी संगठन) मैनेजमेंट कर सकती हूँ जो एक सोशल कॉज़ (सामाजिक उत्थान) के लिए काम करे या कोई कॉरपोरेट बिज़नस (व्यावसायिक) मैनेजमेंट।

आचार्य: अरे! आप नहीं करेंगी वो सोशल कॉज़ वाला काम, वहाँ प्लेसमेंट लगता है। उसको आप नहीं इनकार कर पाएँगी। ये सब करने से पहले ऐसा लगता है कि मैं वहाँ जाऊँगा और एमबीए करके वहाँ से स्किल्स लेकर के आऊँगा और उसके बाद मैं गरीब बच्चों को पढाऊँगा। वहाँ जब प्लेसमेंट लग रहा होता है और डॉलर सैलरी मिल रही होती है तो उसको नहीं इनकार कर पाता आदमी फिर। और उसके अलावा पूरा माहौल ही वैसा होता है न, पियर प्रेशर (सामाजिक दबाव) कोई चीज़ होती है, नहीं होती है? और सब माहौल एक ही तरह का है, लोग एक ही तरह की बात कर रहे हैं, उन सब बातों में फिर कृष्ण बहुत पीछे छूट जाते हैं।

प्र२: आचार्य जी, इसमें एक और बात आती है, जो आपने कई बार कहा है कि एक सामर्थ्य, पावर होना भी ज़रूरी होता है। आपने अलग-अलग संदर्भ में कहा है कि एक देश अपनी रक्षा तब कर सकता है जब उसके पास पावर हो। तो मैं उस चीज़ से जोड़ रही हूँ कि मेरे पास एक पावर होगी तो अपने फैसले कर पाऊँगी।

आचार्य: सारी पावर का जो स्रोत होता है, वो कृष्णत्व होता है। आप ये नहीं कह सकते कि आप संसार में पावर उठाकर के फिर कृष्ण का काम करेंगे। आप कृष्ण का काम करना शुरू करिए, संसार में पावर पीछे-पीछे आती है। ये आपने सिद्धांत ग़लत पकड़ा है। ये सिद्धांत हमारे यहाँ भी बहुत लोगों का है। संस्था में भी लोगों को लगता है कि ‘आचार्य जी, आपकी बात फैलाने के लिए दुनिया में जा-जाकर हमें नेटवर्किंग करनी चाहिए।‘ कई लोग तो ऐसे भी हैं जो कह रहे हैं, ‘दुनिया में जा-जाकर इधर-उधर खुशामदें करो, इससे कृष्ण का काम आगे बढ़ेगा’ – ऐसा नहीं होता।

तुम ख़ुद आगे बढ़ो। शक्ति शिव के पीछे आती है। शिवत्व को गहराई दो, शक्ति अपनेआप मिल जाएगी। लेकिन हमारी शिव में श्रद्धा होती नहीं है, तो हमें लगता है, ‘नहीं नहीं! शक्ति तो संसार से मिलती है। शिव तो ऐसे ही हैं बेचारे भोले बाबा, मासूम, निर्दोष, वो वहाँ बैठ गए हैं कैलाश के ऊपर, उन्हें क्या पता? शक्ति वगैहरा उनसे कहाँ से मिलेगी? उनके पास अपनी क्या शक्ति है? एक हीटर नहीं है उनके पास।‘ तो हमको ऐसे लगता है कि शिव बढ़िया हैं, अच्छे हैं, लेकिन नादान हैं, मासूम हैं, वो वहाँ अपना बैठे रहते हैं, अच्छे आदमी हैं। कुछ इस तरह का हमारा विचार होता है। शक्ति तो दुनिया में मिलती है, जो दुनिया में सब धनपति हैं, धन-कुबेर हैं, राजनेता हैं, शक्ति इनके पास है। तो शक्ति इनके पास पाने जाओ और बाकी मौखिक जो है अपना समर्पण, वो शिव को बता दो – नहीं, ऐसा नहीं होता। आप शिव की तरफ़ जाइए, शक्ति अपनेआप आती है पीछे-पीछे।

सही काम करो, ताक़त मिलेगी-ही-मिलेगी। ये नहीं कर पाओगे कि पहले ताक़त इधर-उधर से जुटाऊँगा, फिर सही काम करने जाऊँगा। ये बेकार की बातें हैं, ये फ़िल्मों में होती हैं। वास्तव में सही काम अपने पीछे आपको स्वयं ताक़त का वरदान देगा। वो ताक़त कैसे देगा? अब आप बुद्धि लगाते हैं, ‘अगर मैं सही काम करूँ तो ताक़त कैसे आ जाएगी?’ बस आ जाती है, मैं बता नहीं पाऊँगा। मुझे नहीं पता था मुझे कहाँ से मिल जाएगी। मैं जब काम करने निकला था, मुझे पता था? आज इधर-उधर से लोग आने लग गए हैं, कोई किताब छापने के लिए बात कर रहा है, कोई टीवी चैनल पर बात कर रहा है, कोई और तमाम तरीके से आ गए हैं। तो एक स्तर की शक्ति हमारे पास भी आ गई है। पर मैंने इस शक्ति के लिए थोड़े ही काम करा था, मैं तो शिव की राह पर चला था, ये शक्ति पीछे-पीछे अपनेआप आ गई। और उसी दिन तक आती रहेगी जिस दिन तक शिव के साथ हूँ। शक्ति ज़्यादा मुझे प्यारी लगने लग गई, शिव को छोड़ दिया तो जो शक्ति आयी है वो भी चली जाएगी। धोबी का कुत्ता बन जाऊँगा; न घर का, न घाट का।

सही काम करिए, उसके पीछे जितनी ताक़त चाहिए होती है, स्वयं आती है।

प्र२: आचार्य जी, एक आख़िरी तर्क इसमें ये है कि कभी ऐसा लगता है कि ये काम करना शायद फ्रॉड (बेईमानी) है क्योंकि मैं इसलिए कर रही हूँ क्योंकि उसके ऊपर यह लेबल है कि यह अच्छा काम है।

आचार्य: सही काम करने में आपको अगर निन्यानवे प्रतिशत आश्वस्ति है तो आप कहतीं हैं, ‘फ्रॉड है क्योंकि अभी एक प्रतिशत तो संदेह है।‘ जो ग़लत काम है, उसमें आपने कभी पूछा कि कितने प्रतिशत संदेह है? ग़लत काम में पचास प्रतिशत भी आपको संदेह हो, तो भी कर लेंगे। सही काम करने के लिए बड़ी कड़ी शर्त लगानी है, शर्त ये है कि जब तक सौ प्रतिशत मुझको निश्चय नहीं हो जाता, तब तक मैं ये काम करूँगी ही नहीं और बोलूँगी कि ये फ्रॉड है। माने यहाँ एक प्रतिशत की भी मिलावट है तो फ्रॉड हो गया, वहाँ अस्सी प्रतिशत की भी मिलावट है तो वो फ्रॉड नहीं हुआ। आपकी नीयत क्या है? फ्रॉड तो कहीं और है।

और सौ प्रतिशत तो गारंटी कभी होने नहीं वाली और आपने शर्त रखी है कि ‘अच्छे काम में जब तक सौ प्रतिशत गारंटी नहीं हो जाती तब तक मैं आगे बढूँगी ही नहीं।‘ ग़लत कामों में जब आप आगे बढ़तीं हैं तो वहाँ सौ प्रतिशत गारंटी होती है? नहीं। फिर भी वहाँ आगे बढ़ जातीं हैं क्योंकि लालच होता है वहाँ पर सौ प्रतिशत, गारंटी कुछ नहीं होती पर लालच पूरा होता है। किसी भी काम में आपको कब मिलेगी शत-प्रतिशत गारंटी?

‘आचार्य जी, मैं आपकी संस्था को समर्थन तभी दूँगा जब मुझे शत-प्रतिशत गारंटी हो जाएगी कि संस्था बिलकुल सही काम रही है।‘ अपने बच्चे की फीस भी तभी जमा करना जब शत-प्रतिशत गारंटी हो जाए कि वहाँ सही पढ़ रहा है, नहीं तो जमा मत कराना। अपने बच्चे की स्कूल की फीस जमा कराते वक़्त ये पूछते हो कि क्या वो शत-प्रतिशत पढ़ रहा है? और निन्यानवे-दशमलव-पाँच भी है तो भी नहीं दूँगा फीस? वहाँ तो घर वालों को, अपने पिताजी को, माताजी को, अपनी पत्नी को, भाई को, बहन को, पैसा देते वक़्त पूछते हो कि क्या तुम इस पैसे का शत-प्रतिशत सदुपयोग करोगे, तभी दूँगा? वहाँ तो दे आते हो।

‘आचार्य जी की बात को लेकिन तभी मानूँगा जब मुझे शत-प्रतिशत भरोसा हो जाएगा कि ये ठीक बोल रहे हैं।‘ और शत-प्रतिशत तुम्हारे जीवन में कुछ भी नहीं है तो भरोसा कहाँ से होगा? शत-प्रतिशत तुम्हारे पास क्या है, जो शत-प्रतिशत भरोसा होगा तुम्हारे पास? वो कभी होने का नहीं, हो भी रहा होगा तो तुम होने दोगे नहीं। क्यों नहीं होने दोगे? ताकि एक बहाना मिला रहे सही काम न करने का। ये हमने खूब करा है, सही काम में ज़रा-सा हमको दाग दिख जाए तो हम उसको त्याग देते हैं और ग़लत काम पूरा-का-पूरा भी काला हो, तो भी कहते हैं, ‘ये तो ग़लत है न, तो काला तो होगा ही, इसको क्यों त्यागें? ये ईमानदार है, देखो! ग़लत है तो काला है।‘ ये उसकी ईमानदारी है कि वो ग़लत है तो काला है, तो उसको क्यों त्यागें? ये उसकी ईमानदारी में आ गया। वाह! बेटा वाह!

साधू में आपको एक ज़रा-सा दोष दिख जाए तो आप उसकी फ़जीहत कर दीजिए, उसको पत्थर मार-मार कर मार डालिए, उसको जेल में डाल दीजिए। और ये दुनियाभर में जितने भी व्यभिचारी हैं, ये खुली नालायकी करें तो कहिए, ‘ये तो व्यभिचारी हैं, ये तो नालायकी कर रहे हैं तो क्या बुरा हो गया? कुछ नहीं हुआ।‘ ये कहाँ का इंसाफ़ है भाई? ये क्या तर्क है?

अरे! मान लीजिए आप किसी राह चलीं, उस राह चलकर आपको लगा कि ठीक नहीं है, तो प्रयोग करिए, बदल दीजिए। इसमें ये कौनसी बात है कि ‘जब मुझे पूरा भरोसा हो जाएगा तभी चलूँगी’? पूरा भरोसा बैठे-बैठे थोड़े ही होगा, वो प्रयोग करने से होगा न? सही रास्ते पर आगे बढ़ते हुए प्रयोग करिए और अपने-आपको ये चुनाव दीजिए की अगर कुछ ठीक नहीं लग रहा तो उसमें थोड़ा संशोधन करेंगे, राह बदलेंगे, मुड़ेंगे, रास्ते निकालेंगे, कुछ करेंगे।

प्र३: नमस्कार आचार्य जी, जो मैं समझ पा रहा हूँ, उसमें अंत में ऊँचा काम हो, सही रास्ता हो, आत्मज्ञान हो, सबकुछ प्रेम से आता है। अब वो प्रेम, कृष्णत्व, अनुकंपा से मिलता है। तो क्या नेति-नेति करते रहें तो उससे ख़ुद ही प्रेम आ जाएगा? और आपने ऊँचे अहम् की बात करी, नीचे अहम् की बात करी पर मुझे तो सब नीचा-नीचा अहम् ही लगता है, ऊँचा अहम् या ऊँचा प्रेम तो कहीं दिख ही नहीं रहा है।

आचार्य: कहीं से नीचे वाला दिखता है न, वही ऊँचा है। फिर आपने पूछा कि नेति-नेति की ताक़त कहाँ से आएगी। आप जब नेति-नेति बोलते हो, तो भीतर कोई है, उसे बहुत बुरा लगता है। आपने कहा कि मुझे नकारना है, त्यागना है। भीतर कोई है जिसे ये बात बहुत बुरी लगती है। तो आप जैसे ही बोलते हो, ‘त्यागना है’, वो बोलता है कि नहीं त्यागना है। आप तब भी यदि कह दो कि ‘नहीं, त्यागना ही है’, तो वो क्षण अनुकंपा का होता है, तो अनुकंपा भी आप पर ही आश्रित है। जो प्रेम है, आपने कहा न प्रेम अनुग्रह से आता है, वो अनुग्रह ये है। आप बोलते हो, ‘नेति-नेति’, प्रकृति बोलती है, ‘न! कोई नेति-नेति नहीं, इति-इति, यही है।‘ और आप तब भी कहो – नहीं, संकल्प है। जिस क्षण आपने कहा, ‘संकल्प है’, उस क्षण आपने अनुग्रह को आमंत्रण दे दिया, अब वो आ गया।

अनुग्रह भी जैसे विवश है आपके सामने, वो आपका दास है। आप उसे बुलाइए, उसे आना पड़ेगा। लेकिन वो क्षण होता है परीक्षा का, उसमें आपको खरा उतरना होगा, तब वो आ जाएगा। आप कह दें, ‘नेति-नेति’, वो तो आसान है, बहुत लोग कहते हैं। लेकिन जैसे ही परिस्थितियों की और आतंरिक आवेगों की चोट पड़ती है, नेति-नेति बिलकुल हवा हो जाता है न? सारे संकल्प धूल-धूसरित हो जाते हैं। जब चोट पड़ रही हो, उस क्षण भी आप यदि अडिग खड़े रह गए, तो अनुकंपा हो गई। वो आप पर निर्भर करता है कि आप अडिग खड़े रह जाएँ।

प्र३: वो ही जो आज आपने बोला था कि ज्ञान तब है जब मै द्वंद में होता हूँ और यदि मै सही चीज़ पर अडिग रहता हूँ, तो उसको ज्ञान बोलते हैं?

आचार्य: हाँ।

प्र३: प्रतिदिन बहुत सारी छोटी-छोटी लड़ाईयाँ होतीं हैं जैसे कुछ खाने का मन कर रहा है, नींद आ रही है या कुछ और भी छोटी-मोटी चीज़ें तो उसमें भी फिर लगता है कि ये एक-एक क्षण की लड़ाई है। यानि बहुत सारे कुरुक्षेत्र हैं, बहुत सारे अर्जुन हैं, बहुत सारे दुर्योधन हैं, बहुत सारे कौरव हैं, बहुत सारे पांडव हैं।

आचार्य: तो मज़ा आता है न उसी में फिर! आपको प्रतिक्षण कुछ मिल गया न जीने का एक संबल, सहारा मिला न? नहीं तो क्या करते? वो क्षण ऐसे ही जाता, ऊब जाते, व्यर्थ चला जाता, अब कुछ गर्मी तो आयी, कुछ रोचक हो रहा है न? इतने सारे दुश्मन हैं, पूरे कौरवों की सेना है, कहीं दुर्योधन खड़ा है, कहीं दुःशासन खड़ा है। एक से निपटो, दूसरा आ जाता है। बड़े वाले से निपटो तो छोटा वाला आ जाता है। हाथी वाले से निपटा तो देखा नीचे से वो जो प्यादा है, वो कोंच रहा था। यही तो फिर अध्यात्म का लाभ है, कुछ रस मिला जीवन में।

प्र३: एक बेचैनी रहती है, अभी जैसे मैं आपकी एक किताब पढ़ रहा हूँ, 'आनंद'। अब उसमें एकाग्रता भी चाहिए, काफी तो दिल में ये होता है कि सुबह से शाम तक उसको पढ़ कर ख़त्म कर दूँ। पर और सारी चीज़ें आ जातीं हैं, तो फिर वो रह जाती है। उसका कुछ हो सकता है सर? विधि आप नहीं बोलते हैं, पर मैं माँग रहा हूँ।

आचार्य: बीच-बीच में लगे जब कि ये कुछ ज़्यादा हो रहा है, तो कुछ और कर लीजिए। जो करेंगे, वो इतना नागवार होगा कि फिर यही पहले वाली चीज़ ही बेहतर लगने लगेगी। जब लगे कि कृष्ण अझेल हो रहे हैं, तो थोड़ी देर के लिए कौरवों के खेमे का मज़ा ले लीजिए। ख़ुद ही दौड़ते-भागते आएँगे फिर कृष्ण की ओर।

प्र३: हाँ, उसमें मज़ा ही नहीं आता। न पिक्चर देखता हूँ, न सीरियल देखता हूँ।

आचार्य: देखा करिए न, यही तो दिक्क़त है, वो सब देखा करिए न। या तो वो जो आप देखेंगे, वो सब कृष्णमय हो जाएगा और अगर वो कृष्णमय नहीं हो पा रहा है तो वो आपको और ज़ोर से फिर कृष्ण की ओर वापस फेंक देगा। ये सब कहीं से वो नहीं है कि पिक्चरें देखना बंद कर दिया या टीवी देखना बंद कर दिया; उसमें विवेक रखिए और देखिए। या तो आपको सिनेमा के परदे पर भी गीता दिखाई देगी, तो ठीक है। और अगर वो पिक्चर ऐसी नहीं है कि आप उसमें गीता देख पाएँ, तो ख़ुद ही उठकर के बाहर आ जाएँगे; फिर किताब पढ़ना ज़्यादा अच्छा लगेगा।

प्र३: बहुत-बहुत धन्यवाद सर, मैं आपका आभारी हूँ।

प्र४: आचार्य जी, मैं बचपन में कार्टून्स बहुत देखता था, तो श्रीकृष्णजी का एक कार्टून कैरक्टर भी आता है तो उसमें उनको सुपर हीरो के तरीके से दिखाया जाता है कि उनमें शक्तियाँ हैं और दुश्मन से लड़ते हैं, नाग से लड़ते हैं। मगर जो हम ज्ञान की बात कर रहे हैं, वो ज्ञान अर्जित करते हुए, पढ़ते हुए या किसी गुरु के पास सीखते हुए उन्हें कभी नहीं दिखाया जाता। उनको सुपर नैचुरल (पराभौतिक) ही बताया जाता है, जिसके कारण उनकी जो छवि भी बनी हुई है, जब तक आपसे नहीं मिला था, तब तक ऐसा ही था कि ही इज़ अ गॉडली फिगर (वो तो भगवान हैं) जिनके पास पावर्स हैं, और अभी भी उनको वैसे ही दिखाया जाता है।

तो ये जो मिसिंग लिंक , खोई हुई कड़ी है कि जब उन्होंने ज्ञान की प्राप्ति करी थी और वहाँ से फिर आगे भी वो अर्जुन को देते हैं, तो ये मिसिंग लिंक कहाँ पर है और इसको कैसे ठीक कर सकते हैं?

आचार्य: मिसिंग लिंक हमारे भीतर की बेईमान प्रकृति है और क्या! तुम ये दिखा दो कि वो जन्मजात प्रतिभा के ही धनी थे, वो पैदा होते ही उनको रिद्धियाँ-सिद्धियाँ थीं सब, उनको पारलौकिक शक्तियाँ मिली हुईं थी जन्म से ही क्योंकि भई अवतार हैं, तो आसान हो जाता है। अपने ऊपर भी कोई ज़िम्मेदारी ही नहीं आती कि तुम भी ज्ञान की वही गहराई अर्जित करो जो कृष्ण की गीता में परिलक्षित होती है। फिर आप कह सकते हो आराम से कि ‘साहब! गीता तो किसी दिव्य स्त्रोत से आयी है न, तो गीताकार अलग हैं, वो बचपन से ही अलग थे, अनूठे थे। हम पर थोड़े ही कोई ज़िम्मेदारी है कि हम भी गीता जैसा बनकर दिखाएँ।‘

आप कहते हो, ‘भई! वो अलग हैं, हम अलग हैं। वो बचपन से ही अलग थे, वो पैदा ही अलग हुए थे, हम थोड़े ही वैसे हैं। और जब हम उनके जैसे नहीं हैं तो उनसे हमारी तुलना कैसी?’ जब उनसे हमारी कोई तुलना नहीं, तो फिर हमें कोई ज़िम्मेदारी या अपमान का भी अनुभव नहीं होता। जबकि मैं चाहता हूँ कि जब कृष्ण सामने पड़ें, बुद्ध सामने पड़ें, तो भीतर अपमान का अनुभव होना चाहिए कि वो भी एक व्यक्ति हैं, हम भी एक व्यक्ति हैं, वो इतनी ऊपर पहुँच गए, हम क्यों नहीं पहुँच पाए? हमने जीवन की सब संभावनाओं को इतना क्यों व्यर्थ जाने दिया?

लेकिन हम उस अपमान से बिलकुल पीछा छुड़ा लेते हैं। जो सही तुलना होती, जिससे हमारे ऊपर एक कर्तव्य बँधता, एक ज़िम्मेदारी आती कि वो ऊपर बढ़े, तुम भी ऊपर बढ़ो – हम बेईमानी करके उस कर्तव्य से मुँह मोड़ लेते हैं। हम कहते हैं, ‘नहीं, वो तो विशिष्ठ थे, जन्म से ही अनूठे थे। हम थोड़े ही जन्म से अनूठे हैं।‘ तो कृष्ण को मनोरंजन बना लेना बहुत आसान है। इस तरह की बाल कहानियाँ उनके बारे में प्रचलित कर दो। तमाम पौराणिक कहानियों ने लगभग उनको मनोरंजन ही बना दिया है। और जब आप एक कृष्ण को भी मनोरंजन मात्र बना लेते हैं, तो आपका कल्याण तो नहीं हो सकता न?

देखो, आप व्यक्ति हो और वो सब लोग जिनको आपने अवतारों की गरिमा दी है, वो भी व्यक्ति ही थे। वो ऊपर बढ़े इसलिए क्योंकि उन्होंने सही निश्चय किए, संकल्प किए, चुनाव किए। बहुत पीड़ा सही, बहुत कष्ट सहे और अपने चुनावों का पूरा मूल्य चुकाया उन्होंने, कुल-मिलाकर इतना ही सूत्र होता है। हर व्यक्ति के पास वही हो जाने की सम्भावना होती है जो कृष्ण हैं। आप कृष्ण होते हो या नहीं होते हो, वो इस पर नहीं निर्भर करता कि आप जन्मजात प्रतिभा पाए हो या नहीं; वो इस बात पर निर्भर करता है कि आप जीवन में चाह क्या रहे हो। आप चुनाव क्या कर रहे हो? आपको प्रेम किससे है? आपको अगर कृष्णत्व से प्रेम होगा, आप कृष्ण हो सकते हो। हाँ, उसके लिए जो श्रम चाहिए, अनुशासन चाहिए, वो फिर आपको दर्शाना पड़ेगा। बस यह ही है।

हम अपने ज्ञानियों को, ऋषियों को, अपने पूज्यजनों को, अपने अवतारों को भी हम बिलकुल अपने ऊपर बेअसर करके रखते हैं। उन्हें अपने पास तो रखते हैं, पर इस तरह रखते हैं कि उनका हम पर कोई असर न पड़ने पाए। हमारे पास रह लो पर बिलकुल निष्प्रभावी होकर। बगल में तो हो, मूर्ति सामने है, पर हमने ये व्यवस्था पहले ही कर दी है कि उस मूर्ति का हम पर कोई असर न पड़े। वो मूर्ति बस एक तरह का मनोरंजन हो जाती है।

प्र५: नमस्ते, आचार्य जी। मेरा प्रश्न अध्याय तीन के श्लोक संख्या दस से है। तो इसमें जो हमें अनुवाद उपलब्ध है, उसमें इस तरह से दिया था कि, 'सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मा ने यज्ञ से ब्राह्मण आदि मनुष्यों को पैदा करके कहा था कि तुम लोग यज्ञ द्वारा वृद्धि को प्राप्त करो। यह यज्ञ तुम लोगों को अभीष्ट फल देने के अभीष्टप्रद होगा।'

तो मेरा प्रश्न यह है कि जिस तरह से मैंने अभी तक वेदान्त को समझा है, तो उसमें ऐसा जानते हैं कि वेदान्त कहीं किसी ऐसे ईश्वर की बात नहीं करता जो कहीं बैठकर के पूरे ब्रह्माण्ड की रचना करता है, उसको चलाता है, तो उस संदर्भ में हम इसके अर्थ को कैसे लें?

आचार्य: इसका तो अर्थ मैंने समझाया है न, एक-डेढ़ घंटा लगाकर के?

प्र५: आचार्य जी, मैंने ऑनलाइन ही इसको अटेंड किया है, तो वो मेरा पूरा सत्र ही छूट गया है। तो जब भी स्वाध्याय करता हूँ, तो ये बार-बार आता है।

आचार्य: अच्छा, तो आपको पहले इस सत्र का ऑनलाइन लिंक दिलवा देते हैं, आप उसको देख दीजिए। ये तो बड़ा रोचक प्रसंग है और इसको मैंने बड़े विस्तार में समझाया था। तो आप इसको पूरा समझ लें और उसके बाद भी जिज्ञासा रहती है, तो फिर अगले सत्र में उसको लेते हैं।

और भी जो लोग हैं जिनके पास किन्हीं सत्रों के लिंक छूट गए हैं या किसी कारण से वो अटेंड नहीं कर पाए थे, उन लोगों को यही करना चाहिए कि उनके लिंक्स जो हैं, वो संस्था से माँग लें, उनको देख लीजिए। क्योंकि पीछे की बात समझेंगे तो आगे की बात समझने में और सुविधा रहती है। तो इसको आप सुन लीजिए, उसके बाद फिर आगे चर्चा करते हैं।

GET UPDATES
Receive handpicked articles, quotes and videos of Acharya Prashant regularly.
OR
Subscribe
View All Articles