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सफलता क्या है? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्न: सफलता क्या है?

वक्ता: प्रश्न है कि सफलता क्या है। और कितने लोग हैं जिनके मन में यह सवाल उठता है?

(श्रोतागण हाथ खड़े करते हैं)

तो यह सिर्फ अरविन्द का नहीं, बहुत सारे लोगों का प्रश्न है। सभी ध्यान से सुनेंगे।

जब आप लोग लक्ष्य बनाते हैं, और उसको आप पा लेते हैं, तो आप कहते हैं, “मैं सफल हो गया हूँ।” ऐसा ही है न? लक्ष्य कहाँ से आते हैं? मन से। मन है जो लक्ष्यों का निर्धारण करता है। जो हमारा यह मन है, यह पूर्णतः बाहरी प्रभावों से बनता है, इसका अपना कुछ होता ही नहीं है। इसके पास वही सब कुछ होता है, जो समय ने इसको दिया है, जो दूसरों ने इसको दिया है। बात समझ में आ रही है?

मन और मस्तिष्क का बड़ा गहरा संबंध है यह जो आपका मस्तिष्क है- ब्रेन, यह सदियों की विकास यात्रा का परिणाम है। उन सब अनुभवों ने इसको जो दे दिया है, वही यह जानता है। उन्हीं सब अनुभवों के फलस्वरूप- आपके हाथ में पांच उंगलियाँ हैं, आपके चेहरे का एक ख़ास रंग है, आपका हृदय एक ख़ास गति से धड़कता है- ये सारे काम मस्तिष्क करता है। यह तो आप जानते ही हैं। मस्तिष्क ने यह सब कहाँ से सीखा? मस्तिष्क को कैसे पता कि आँखों को कितनी देर तक झपकाना है, या खाना पचाने की प्रक्रिया क्या है? यह सब होता रहता है न? यह सब मस्तिष्क ही करता रहता है।

मस्तिष्क को यह सब उसकी विकास यात्रा ने सिखाया है- इवोल्यूशन ने। विकास यात्रा में उसे जो-जो अनुभव होते गये, होते गये, उसके फलस्वरुप उसने एक आकार ले लिया है। उसी आकर का नाम ‘हमारा शरीर’ है, और शरीर से सम्बंधित हमारे जितने भी उद्वेग हैं, वो सब बाहर से ही आये हैं, वो आपके अपने नहीं हैं। इसके अतिरिक्त जब एक बच्चा पैदा होता है, तब से ही उसके मन पर हज़ारों तरीके के प्रभाव पड़ने लगते हैं, और वो सबके सब बाहरी ही होते हैं।

बाहर से उसको एक धर्म दे दिया जाता है, बाहर से ही उसको एक नाम दे दिया जाता है, कहीं किसी की पहचान उसको बाहर से दे दी जाती है, और मन वो सब कुछ संग्रहीत कर लेता है। मन यह सोचता है कि- मैं यही हूँ, क्योंकि उसका अपना तो कुछ होता नहीं। जो भी उसको मिलता है, वो सदा बाहर से ही मिलता है और वो उन्हीं पहचानों के साथ गहरा तादात्म्य बैठा लेता है, उसी बाहरी को ‘अपना’ समझ लेता है- यह स्वभाव है उसका। इसी सब बाहरी को लेकर, इन्हीं सब बाहरी प्रभावों से वशीभूत होकर, वो अपने लक्ष्य भी निर्धारित करता है।

यह सब पूर्णतः एक यंत्र की बातें हैं, और एक यंत्र की कार्य-रचना- प्रोग्रामिंग तो होती है, पर उसका अपना कोई विवेक नहीं होता, अपनी कोई समझ नहीं होती। यंत्र बस वही जानता है, जो उसको मिला है उस कार्य-रचना- प्रोग्रामिंग के द्वारा। हाँ, कार्य-रचना- प्रोग्रामिंग कर दी गयी है, तो वो यंत्र वही सब करता जाएगा। ठीक? पर वो समझ कुछ भी नहीं सकता कि वो कर क्या रहा है।

यह पंखा है आपके सामने। यह बहुत कुशल यंत्र है; बटन दबाया नहीं कि यह शुरु हो गया। पर इस पंखे को कुछ नहीं पता है कि यह क्यों चल रहा है और किस प्रकार चल रहा है। न इसे बिजली की कोई जानकारी है, न जड़त्व- इनर्शिया की कोई जागरूकता है, कुछ नहीं जानता यह।

ठीक उसी तरह से जो कुछ आप सुन रहे हैं, वही सब कुछ यह कैमरा भी सुन रहा है। जो आप देख रहे हैं, वही यह भी देख रहा है।लेकिन जो आपको मिल रहा है, वो इसे कभी नहीं मिल सकता क्योंकि यह सिर्फ एक यंत्र है। तो यह मस्तिष्क भी एक यंत्र है, जिसकी कार्य-रचना- प्रोग्रामिंग कोई और करता है, जैसे इस कैमरे की कार्य-रचना- प्रोग्रामिंग किसी और ने की है, यह स्वयं तो अपनी कार्य-रचना- प्रोग्रामिंग नहीं कर सकता।

उसी तरह मस्तिष्क की कार्य-रचना- प्रोग्रामिंग भी सदा बाहरी तत्व ही करते रहते हैं: समाज, शिक्षा, पुस्तकें, विचार-धारायें, लगातार इस मस्तिष्क की कार्य-रचना- प्रोग्रामिंग होती रहती है। इसे सिखाया जाता है कि जीवन में ऐसा क्या है जो पाने योग्य है, और जीवन में क्या है जो पाने योग्य नहीं है। इसके सभी लक्ष्य बाहर से आ रहे हैं, लकिन इसे भ्रम यह रहता है कि- लक्ष्य मेरे हैं। बाहरी लक्ष्यों को लेकर ही यह उछलता रहता है।

जब यह लक्ष्य ही बाहरी हैं, लक्ष्य ही किसी और के हैं, किसी और ने आपको दिए हैं, तो निश्चित रूप से सफलता भी आपकी नहीं हो सकती। क्योंकि हमने शुरू में ही कहा था कि सफलता हमारे शब्दकोष- डिक्शनरी में ‘लक्ष्य को पाने’ का नाम है। हम तो सफलता यही जानते हैं, ऐसे ही परिभाषित करते हैं कि- मैंने एक लक्ष्य बनाया और वो मुझे मिल गया, तो मैं कहूँगा कि मैं सफल हो गया। तो बड़ी दिक्कत हो गयी।

“अगर वो लक्ष्य ही मेरा नहीं है, अगर इस यंत्र में लक्ष्य किसी बाहरी तत्व ने आरोपित किया है, तब तो बड़ी दिक्कत हो गयी, क्योंकि वो अब सफलता भी मेरी सफलता नहीं है। सच तो यह है कि वो असफलता हो गयी। उस सफलता को पा भी लिया, उस लक्ष्य को भेद भी लिया, तो मुझे क्या मिला?”

जैसे इस कैमरे ने सब कुछ रिकॉर्ड कर भी लिया तो इसे क्या मिला? मैं इसका मालिक हूँ, मुझे मिल गया। मेरी जो इच्छा थी, वो इसने पूरी कर दी। इस कैमरे को क्या मिल गया? पर यह कैमरा यदि मनुष्य होता, तो यह कहता, “मैंने रिकॉर्ड किया है और मैंने अपना लक्ष्य पा लिया।” यह समझ भी नहीं पाता कि इसने कुछ नहीं पाया, जो पाया इसके मालिक ने पाया। इसको बनाने वाले बाहर बैठे हैं, जो तय कर रहे हैं कि इसका क्या डिजाइन होगा और यह जीवन में क्या काम करेगा। यह कभी कुछ नहीं पाता।

हमें यह देखना होगा ध्यान से कि कहीं हमारा जीवन भी तो ऐसा ही नहीं है, जिसमें हमारे लक्ष्य भी बाहरी तत्व आकर ही भरे जा रहे हैं, कि आजकल का क्या प्रचलन है। किसी ने कुछ कह दिया, उससे हमारा लक्ष्य बन गया। यह हमारे जो अपने अतीत के अनुभव हैं, वो भी बाहरी ही हैं, उनसे हमारा लक्ष्य बन जाता है। परिवार ने कुछ बता दिया, या हमने किसी किताब में कुछ पढ़ लिया, या अखबार में कुछ छपा हो, उसे देखकर बन गया लक्ष्य। उसे समझा नहीं है, बस एक बाहरी प्रभाव है।

वो लक्ष्य अगर मिल भी गया तो ऐसी सफलता तो बड़ी ही छुद्र सफलता हुई। मैं उसे ‘सफलता’ कहना ही नहीं चाहूँगा। जैसा मैंने पहले कहा था कि वो असफलता ज़्यादा है, और सफलता कम है।

देखिये हम सब जानते हैं कि मन तुम्हारा अक्सर दुविधा में रहता है; यह करें कि वो करें। इस सवाल से जूझता रहता है कि करें या नहीं करें। इसे उलझन- कन्फ्यूजन भी कहते हैं। एक उलझे हुए, कन्फ्यूज्ड मन से कैसे लक्ष्य निकलेंगे? उलझे हुए, *कन्फ्यूज्ड*। जब लक्ष्य मन से निकल रहे हैं और मन चारों दिशाओ में दौड़ता रहता है, तो फिर आपके लक्ष्य भी चारों दिशाओं में घूमते रहते हैं। आपने ऐसा अक्सर देखा होगा। दो दिन एक तरफ को भागते हैं, फिर चार दिन एक तरफ को भागते हैं. फिर किसी और दिन कोई तीसरी बात मिल गयी तो किसी तीसरी तरफ को चल देते हैं, और जिधर को भी चलते हैं, उस चलने में भी कोई ऊर्जा नहीं होती, कोई श्रद्धा नहीं होती। मन में हमेशा ही संदेह बना रहता है कि ‘क्या मैं ठीक कर रहा हूँ या नहीं?’ ऐसा ही होता है न?

उसकी वजह यही है कि आप जिधर को भी चल रहे हैं, किसी बाहरी प्रभाव के कारण चल रहे हैं। वो लक्ष्य आपकी अपनी समझ से नहीं आ रहा है इसलिए मन में एक दुविधा, एक संदेह, एक संशय बना रहता है। ऐसा ही है न? मन कभी पूर्णतः एक दिशा को नहीं जा पाता, आपकी पूरी ऊर्जा कभी एक दिशा में नहीं बहती। पढ़ने भी बैठते हैं तो विचार किसी और के आ रहे होते हैं। खेल रहे होते हैं, तो भी कुछ और चल रहा होता है मन में। कभी भी कुछ भी आपको पूरी तरह से डुबा नहीं पाता, एक आश्वस्ति नहीं आ पाती जीवन में कि- यही है और ठीक है। उस आश्वस्ति का गहरा अभाव रहता है। अभाव रहता है न?

उसकी वजह और कुछ नहीं है, बस यही है कि हमारे सारे लक्ष्य ही नकली हैं, झूठे हैं, किसी और के दिए हुए हैं, आपकी अपनी समझ से नहीं निकले हैं।

“मैं नहीं जानता जीवन क्या है, मैं नहीं जानता कि करने योग्य क्या है, तो मैंने उधार ले लिए हैं कुछ लक्ष्य, और मैं उन्हीं के पीछे-पीछे चला जा रहा हूँ।” ऐसे चलने में तो बस लड़खड़ाहट ही रहेगी; शान नहीं रहेगी, आश्वस्ति नहीं रहेगी। एक संदेह बना रहेगा, आप सहम-सहम कर चलेंगे, रुक-रुक कर चलेंगे। एक कदम चलेंगे फिर आस-पास देखेंगे कि- ठीक चल रहा हूँ या नहीं।ऐसा ही हुआ न यह चलना? अब इसमें सफलता कैसी?

अच्छा हुआ कि आज पहला प्रश्न ‘सफलता’ पर आया। कैसी सफलता? हम किसी के गुलाम हों और वो हमें कहीं भेजे और कहे कि जाकर यह ले आओ और वो ले आओ। तो पहली बात: हमारी चाल में एक उदासी रहेगी। ठीक? क्योंकि गुलाम कुछ भी कर ले, मन उसका खिन्न ही रहता है, उदास ही रहता है।

दूसरी बात: हमें जो करने भेजा है, अगर हम वो कर भी दें, तो भी क्या हमें यह प्रतीत होगा कि जीवन सफल हो गया? किसी भी तरह की कोई सफलता मिली क्या? क्योंकि जो किया, वो कभी मेरी इच्छा थी ही नहीं।

और जीवन मेरा ऐसे ही बीतता है। बचपन से लेकर आज तक मैंने कभी यह जाना ही नहीं कि- मैं कौन हूँ? मेरे लिए क्या करणीय है? जीवन की धारा मेरी अपनी समझ से कभी निकली ही नहीं, तो इसलिए एक उदासी-सी रहती है मन पर।युवावस्था है, लेकिन फिर भी ऊर्जा का अभाव है। एक ऊब, एक बोझ-सा बना रहता है। मन ठीक-ठीक कहीं भी लगता ही नहीं।जो कुछ भी करने निकलते हैं, थोड़ी देर में लगता है कि व्यर्थ ही गया। कभी बहुत ज़्यादा प्रेरित- मोटीवेटिड हो भी गये, आतुर हो भी गये कुछ करने के लिए, तो पंद्रह दिन लेते हैं अधिक से अधिक, और पन्द्रह दिन के बाद पाते हैं कि उत्साह ख़त्म हो गया।कुछ भी ऐसा नहीं है जो अंत तक पहुँचता हो।

इस सब का कारण बस एक ही है- ध्यान का अभाव। ध्यान समझते हैं?

ध्यान का अर्थ होता है- ठीक से देख लेना। बिना डरे, बिना प्रभावित हुए पूरे तरीके से बात को समझना। और समझ का विकल्प है, विश्वास। विश्वास नहीं कर लेना; समझना। किसी से मान्यताएं उधार नहीं लेना, कि देखो जीवन में तो यही करने योग्य है- इस प्रकार की पढ़ाई तुम्हें करनी चाहिए, इस प्रकार की नौकरी तुम्हें करनी चाहिए। इन बातों को किसी से उधार नहीं मांग लेना। थोड़ा ध्यान से देखना और समझना।

जब तुम्हारा कोई भी तथ्य, तुम्हारे अपने ध्यान से निकलता है, तुम्हारी अपनी समझ से निकलता है, तो उसके पीछे एक ज़ोर होता है, एक ऊर्जा होती है, एक गति होती है, फिर तुम्हें रोका नहीं जा सकता, फिर तुम वास्तव में युवा होते हो। क्योंकि जो हो रहा होता है, वो तुम्हारे अपने विवेक के फलस्वरुप हो रहा होता है। फिर तुम सफलता तलाशते नहीं क्योंकि प्रतिक्षण ही तुम्हारी सफलता है।

तुम जो यात्रा कर रहे होते हो, वह यात्रा ही सफलता है। फिर तुम यह नहीं कहते, “मैं वहाँ पहुँच जाऊँगा, तो सफल होऊँगा।” तुम प्रतिक्षण सफल होते हो। अपनी समझ के फलस्वरूप अगर तुम कुछ कर रहे हो, तो हो गये सफल। फिर तुम एक साल बाद सफल नहीं होओगे कि अगर परिणाम अच्छा आया तब सफल होओगे।

तुमने जैसे-ही पहला कदम उठाया, वो कदम ही सफलता है, वो कदम ही सफलता है। क्योंकि वो तुम्हारा अपना कदम होगा।अभी तो तुम्हारी सारी सफलता सदा विश्व में रहती है। ऐसा ही रहता है न? तुम कहते हो कि अगर कुछ ऐसा हो जाए भविष्य में, तब हम मानेंगे कि हम सफल हैं। इसका परिणाम यह है कि तुम सदा यह अनुभव करते रहते हो कि वर्तमान में हम असफल हैं। क्योंकि अगर भविष्य में सफल होओगे, तो निश्चित रूप से वर्तमान में असफल हो, तभी सफलता तलाश रहे हो।

जब जागोगे, जब अपनी दृष्टि से दुनिया को देखोगे, तब पाओगे कि हो गये सफल; वो देखना ही सफलता है। उस देखने से तुरंत कर्म निकलेगा, वो कर्म ही सफलता है। उसका परिणाम, उसका फल, सफलता नहीं होगा, वो कर्म ही सफलता होगा। तब तुम परिणाम के गुलाम बनकर नहीं रह जाओगे कि- परिणाम ठीक है, तो हम सफल हैं, और नहीं ठीक है, तो हम असफल हैं।फिर कभी ऐसा नहीं रहेगा।

मैं फ़िर दोहराता हूँ: जागो, आपनी दृष्टि से दुनिया को देखो, फ़िर जो कर्म निकलेगा वही ‘सफलता’ है। तुम हमेशा सफल हो।

– ‘बोध सत्र’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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