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सच्ची प्रार्थना कैसी? || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)

Acharya Prashant

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सच्ची प्रार्थना कैसी? || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)

युञ्जानः प्रथमं मनस्तत्त्वाय सविता धियः। अग्नेर्ज्योतिर्निचाय्य पृथिव्या अध्याभरता्।।

वह सविता (सबका उत्पादक) देवता हमारे मन तथा बुद्धि को परमात्मा में लगाते हुए हमारी इन्द्रियों को पार्थिव पदार्थों से ऊपर उठा कर उसमें दिव्य अग्नि का प्रकाश स्थापित करे, ताकि हम जगत के सार तत्व का ही अवलोकन करें।

~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (अध्याय २, श्लोक १)

आचार्य प्रशांत: सविता या सावित्री या सविता-सावित्री के युग्म का उल्लेख उपनिषदों में बहुधा होता है।

तात्पर्य क्या है?

जैसा कि इस श्लोक में संकेत है, सविता तो सूर्यदेव हो गए और सावित्री हुईं सविता की अधिष्ठात्री देवी या अधिष्ठात्री शक्ति। अर्थ – स्थूल प्रकृति को सविता नाम से संबोधित किया है और सूक्ष्म प्रकृति को सावित्री नाम से। लेकिन सविता कहें, सावित्री कहें, अर्थ, तात्पर्य 'मूल प्रकृति' से ही है। और ज़्यादा शुद्ध तरीके से कहें तो तात्पर्य है 'मूल अहम् वृत्ति' से।

यहाँ पर सविता को कहा गया है वो जो प्रथम है। वो जो सबका उत्पादक है। तो वो जो प्रथम है, वो जिससे सब कुछ आता है, वो तो अहम् वृत्ति ही है।

उपनिषदों को पढ़ने का एक तरीका होता है, एक विधि होती है। किसी एक ही समय में, किसी एक ही जगह पर, किसी एक ही व्यक्ति के द्वारा नहीं रचे गए थे उपनिषद्।

बड़ी लंबी परंपरा रही है और बहुत लंबे क्षेत्रफल पर फैला हुआ था आर्यों का वो संसार, जिससे उपनिषद् उठे। और संचार के, संवाद के साधन सुलभ, सुगम नहीं थे। तो सब वैदिक उक्तियों का मूल एक है, स्त्रोत एक है, आप कह सकते हैं सिद्धांत भी एक है। पर उस सिद्धांत को निरूपित करने के लिए या उद्भासित करने के लिए जिन प्रतीकों का, संकेतों का, अलग-अलग उपनिषदों में सहारा लिया गया है, उपयोग किया गया है, वो प्रतीक, वो संकेत बड़े अलग-अलग हैं।

तो प्रमुख उपनिषदो में ही आप ले लें तो छांदोग्य उपनिषद् की भाषा और उसके प्रतीक आपको ईशावास्य जैसे नहीं मिलेंगे, दोनों में बड़ा अंतर रहेगा। बहुत सारे उपनिषद् हैं जो वेदांत मात्र की श्रेणी में आते हैं, बहुत सारे हैं जो सांख्य से भी प्रभावित लगते हैं, कुछ योग की दिशा से आते हैं और कुछ तो तंत्र की दिशा से भी आते हैं।

तो अगर आपने जो मूल सूत्र है, जो मूल सिद्धांत है, उसको स्मृति में नहीं रखा, पकड़ कर नहीं रखा, तो आप भटक जाएँगे। और कई तरह के भ्रम और संदेह आपके भीतर पैदा हो जाएँगे। तो इसीलिए उपनिषदों के श्लोकों का भी सही अर्थ करने के लिए जो मूलभूत औपनिषदिक सिद्धांत है, उसको सदा स्मरण रखना चाहिए और उसी का उपयोग करना चाहिए। फिर बातें अपने-आप स्पष्ट हो जाती हैं।

अब यहाँ प्रार्थना हो रही है पहले ही श्लोक में, और प्रार्थना हो रही है सविता की, माने 'सूर्य देव' की। अगर आप बात के मर्म में नहीं पहुँचे तो आपको लगेगा कि सूर्य की उपासना से संबंधित कोई साधारण श्लोक है ये। और सूर्य से आप अर्थ निकालेंगे वही जो पिंड है जलते हुए पदार्थ का, लपटों का, जो समस्त सौरमंडल को प्रकाश और ऊर्जा इत्यादि देता है; उससे आप यही अर्थ लेंगे। लेकिन वो अभिप्राय है नहीं। यहाँ जिस सूर्य की बात की जा रही है वो, वो है, जो प्रकृति के हर तत्व का उत्पादन करता है।

कहाँ से आ रहा है प्रकृति का हर तत्व?

प्रकृति का हर तत्व आ रहा है अहम् वृत्ति से जो प्रकृति के केंद्र में बैठती है। चाहे आपको जो भी कुछ दिखाई दे रहा हो, अनुभव हो रहा हो, सुनाई पड़ता हो, उसके पीछे बैठे तो आप ही हैं न अनुभोक्ता बनकर। तो प्रकृति का हर तत्व ले-देकर आप पर आश्रित है, आपका अनुगामी हैं। यहाँ तक कि जब आप बदल जाते हैं तो आपका संसार बदल जाता है; उसी से देख लीजिए कि कौन किससे आता है।

साधारणतया, हम यह सोचते हैं कि हम संसार में आए और फिर हम संसार से चले गए। हमारी भाषा भी ऐसी ही रहती है, हम कहते हैं 'फलाने दिवस को यह बच्चा संसार में आया और फलानी तारीख को फिर मृत्यु हुई, ये व्यक्ति संसार से विदा हो गया।'

तो हमारा मानना यह है कि जैसे संसार तो पूर्व स्थापित है, हमसे बिलकुल अलग है; हम रहें ना रहें, संसार तो रहता ही है। यही संसारी का मूल भ्रम होता है, जो उसकी भाषा में भी दिखाई पड़ता है जब वो कहता है, "मैं दुनिया में आया, मैं दुनिया से चला गया।" नहीं, आप दुनिया में आए नहीं, आपकी चेतना बदली तो आपको दुनिया प्रतीत होने लगी, और उस प्रतीत होती दुनिया में आपने अपने-आपको सर्वप्रथम एक बच्चे के रूप में पाया। आप थे, आप सदा थे। ना आपका जन्म हुआ है, ना आपकी कोई मृत्यु होगी।

जिसको आप अपना जन्म कहते हैं वो बस ऐसा था जैसे आपकी चेतना ने करवट बदल दी हो। जिस तल आपकी चेतना लेटी हुई थी पहले, उस तल में समय, स्थान, आकाश, संसार कुछ नहीं था। आप थे बस। और फिर चेतना ने अंगड़ाई ली, करवट बदल दी, एक नया दृश्य शुरू हो गया जैसे कोई नया सपना जन्म ले ले। और उस नए दृश्य में दो हैं, एक संसार और दूसरे आप। और आप क्या हैं उसमें? एक नवजात शिशु। और ये जो अभी सपना शुरू हुआ है इसमें आप हैं, संसार है, और आपको और संसार को लगातार बदलने वाली शक्ति को या सिद्धांत को हम समय कहते हैं।

तो इसमें लगातार चीज़ें बदल रही हैं और फिर एक पल ऐसा आता है जब आप पुनः करवट बदल लेते हैं, समय रुक जाता है; समय रुक गया, उसके बाद ना आप बचे ना संसार बचा। लेकिन मृत्यु नहीं हो गई है, आप तो हैं। हाँ, चेतना का एक जगत था, वो उठा था, वो गिर गया।

तो संसार आपसे ही है। आप हैं पहले से, लगातार हैं। और जब मैं कह रहा हूँ संसार आपसे है, तो मेरा मतलब यह नहीं है कि संसार उस नवजात शिशु से है। वो नवजात शिशु तो आपकी चेतना का एक सपना है न? वो नवजात शिशु बिलकुल वैसे ही आप नहीं हैं जैसे कि उस नवजात शिशु के सामने जो खिलौना रखा है वो आप नहीं हैं।

आप एक सपना ले रहे हैं, उस सपने में एक बच्चा है और उस बच्चे के सामने एक खिलौना है। वो जो बच्चा है, उसको आप सपने में क्या समझ रहे हैं? 'मैं'। ठीक? सपने में आपको दो चीज़ें दिखाई दे रही हैं, बच्चा और बच्चे का संसार। बच्चे को आप क्या नाम दे रहे हैं? 'मैं'। और बच्चे का जो संसार है उसको हम सुविधा के लिए कह देते हैं खिलौना। खिलौना जो बच्चे के सामने रखा है वही बच्चे का संसार है।

क्या आप ये कहते हैं कि वो जो खिलौना रखा है बच्चे के सामने वो आप हैं? तो जैसे आप नहीं हैं वो खिलौना क्योंकि वो खिलौना तो है सपने की चीज़। वैसे ही आप वो बच्चा भी नहीं हैं क्योंकि वह बच्चा भी तो है सपने की चीज़।

आप ना तो व्यक्ति हैं, और ना ही व्यक्ति का विश्व हैं। हाँ, व्यक्ति का जो विश्व है वो बच्चे पर नहीं लेकिन सपना लेने वाले पर आश्रित ज़रूर है। बच्चा और बच्चे का खिलौना, दोनों किस पर आश्रित हैं? सपना लेने वाले पर। वो बच्चा और उसके सामने जो खिलौना है, वो किस पर आश्रित हैं? सपना लेने वाले पर। इसी बात को मैं कहा करता हूँ कि सारा द्वैत आश्रित है अद्वैत पर।

तो अब बताइए कि सारी जो प्रकृति है, जिसमें बच्चा भी था और बच्चे का खिलौना भी था, ये आयी कहाँ से? ये कहाँ से आयी? ये सपना लेने वाले से ही आयी न। उसी को कहते हैं मूल अहम् वृत्ति।

मूल अहम् वृत्ति है आत्मा जिसने सपना लेना शुरू कर दिया है। आत्मा जो चेतना के द्वैत में उतरने लगी है, वही है मूल अहम् वृत्ति।

ऐसा भी तो हो सकता था न कि आप सोए ही पड़े रहते, सपना लेते ही नहीं। आत्मा जो सपना नहीं ले रही है, बस विश्राम में है, वो आत्मा मात्र है, विशुद्ध आत्मा है। पर आत्मा जितनी विशुद्ध है उतनी ही विमुक्त भी है। हर तरह का अधिकार प्राप्त है उसे। वो तो स्वयंभू है न, उसे कौन रोकेगा? तो सपना लेने का भी अधिकार मिला हुआ है आत्मा को। भाई! वही है। एकछत्र राज्य है उसका। तो तमाम तरह के उसके जो अधिकार हैं उनमें ये अधिकार भी शामिल है कि वो सपना ले सकती है।

आत्मा जब सपना लेने के अपने अधिकार का प्रयोग करने लग जाए तो उसको कहते हैं अहम्, और उसी अहम् से फिर सब कुछ निकलता है। मूल अहम् वृत्ति से ही सब कुछ निकलता है, व्यक्ति भी और व्यक्ति का विश्व भी।

तो यहाँ पर अब प्रार्थना हो रही है सूर्य की। सूर्य की प्रार्थना इसलिए हो रही है क्योंकि सब ग्रहों के बीचों-बीच केंद्र पर कौन बैठा है? सूर्य। सब रौशनी, सब ऊर्जा कहाँ से आती है? दिन-रात किससे हैं? मौसमों का बदलना किससे है? सब कुछ किससे है? सूर्य से।

तो सूर्य संकेत है उसका, जो हमारी पूरी दुनिया के केंद्र में बैठा हुआ है। तो वास्तव में सूर्य की उपासना नहीं हो रही है। सूर्य तो क्या है? सूर्य तो मध्यम आकार का बस एक तारा है इस ब्रह्मांड में। उसकी उपासना क्या करनी है! पदार्थ की उपासना थोड़े ही करते हैं उपनिषद्। और जो सूरज आपको सुबह उगता हुआ और साँझ ढलता हुआ दिखाई देता है वो क्या पदार्थ से हटकर कुछ है? तो सूर्य की उपासना माने उस पदार्थ की उपासना तो निश्चित रूप से नहीं है जिसके इर्द-गिर्द आपका यह छोटा सा ग्रह चक्कर काटता है।

तो सूर्य माने क्या है यह बात समझ में आ रही है?

यह जो सौरमंडल है इसको मान लो अपनी पूरी दुनिया। ये सौरमंडल क्या हुई? तुम्हारी पूरी दुनिया। सौरमंडल अगर तुम्हारी पूरी दुनिया है तो पृथ्वी क्या हुई तुम्हारे लिए? 'तुम', व्यक्ति। मैं पृथ्वी हूँ और सौरमंडल में जितने भी ग्रह हैं, उपग्रह हैं, चाँद हैं और तमाम तरीके के धूमकेतु हैं और बड़ी चट्टानें हैं जो अपनी-अपनी कक्षाओं में घूम रही हैं, ये सब क्या हैं? यह तुम्हारी दुनिया के तत्व हैं। तुम्हारी दुनिया में अनगिनत तत्व होते हैं न। ये है, ये है, ये है। ठीक है?

तो ये सब तत्व मौजूद हैं, और इन सब के केंद्र पर कौन बैठा हुआ है? सूर्य। और तुम्हारे जगत के केंद्र पर हमेशा कौन होता है? अहम् वृत्ति। तो सूर्य यहाँ पर फिर किसका प्रतिनिधि है? अहम् वृत्ति का। यह बात समझनी ज़रूरी है, नहीं तो हम यही सोचते रह जाएँगे कि सूरज की प्रार्थना करनी है। सूर्य की प्रार्थना नहीं की जा रही है।

अब फिर आगे सवाल उठता है कि अगर प्रार्थना हो रही है तो अहम् वृत्ति की क्यों हो रही है? प्रार्थना तो किसी ईश्वर की होनी चाहिए, किसी परमात्मा की होनी चाहिए। ये क्या बात हुई कि अहम् की स्तुति करने लग गए। ये कैसी बात है?

तो समझिएगा, सत्य के सम्मुख प्रार्थना करने से कोई लाभ होता नहीं है क्योंकि सत्य के सम्मुख आप हो ही नहीं सकते खड़े कभी। सम्मुख खड़े होने का मतलब होता है वो (सामने) उसका मुख, ये तुम्हारा मुख और दोनों के मुख परस्पर आमने-सामने। कैसे खड़े हो जाओगे तुम सत्य के सम्मुख? है संभव क्या?

सत्य तो अपने-आपमें पूर्ण है और अद्वैत है। उसके सामने तुम्हें खड़े होने की जगह ही नहीं मिलेगी। या तो सत्य है या तो हम हैं। तो सत्य के सामने प्रार्थना करना बड़ी बेतुकी बात हो गई। पर प्रार्थना तो सब लोग करते हैं और बड़ी गहरी और सच्ची प्रार्थनाएँ भी होती हैं।

तो वो प्रार्थनाएँ किससे करी जाती हैं?

कोई भी सच्ची प्रार्थना सदा स्वयं से ही की जाती है। प्रार्थना अगर सच्ची है तो वो स्वयं से ही की जा रही है, क्योंकि हमें बनाने या बिगाड़ने वाला है कौन? हम ही हैं न।

कहते हैं उपनिषद् कि तुमसे बड़ा तुम्हारा कोई मित्र नहीं और तुमसे ही बड़ा तुम्हारा कोई रिपु नहीं। अमृत बिंदु उपनिषद् याद है? तुमसे बड़ा तुम्हारा कोई हितैषी नहीं और तुमसे बड़ा तुम्हारा कोई शत्रु नहीं।

तो तुम्हारी ज़िंदगी बनेगी या बिगड़ेगी, ये निर्भर किस पर करता है? तुम पर।

तो तुम्हारी ज़िंदगी को नियंत्रित करने वाला फिर कौन है? तुम हो।

अरे! ये तो तुम फँस गए। कोई है जो तुम्हारी ज़िंदगी पर शासन रखता है, नियंत्रण रखता है। वो कौन है? और तुम्हारी ज़िंदगी चल रही है गड़बड़। जीवन में तमाम तरह के दुःख हैं, क्लेश हैं, व्याधियाँ हैं। तो प्रार्थना तो करनी पड़ेगी क्योंकि जीवन ठीक नहीं चल रहा है। तो प्रार्थना उसी से करोगे न जो तुम्हारे जीवन के सब निर्णय करता है और नियंत्रण रखता है। कौन है वो? वो तो तुम ही हो। तो प्रार्थना हमेशा स्वयं से ही करी जाती है। और किससे प्रार्थना करोगे?

प्रार्थना करके तुम स्वयं को याद दिला रहे होते हो कि तुम कितने दुःख में हो। प्रार्थना करके तुम स्वयं को याद दिला रहे होते हो कि तुम कितने ज़्यादा ग़ैर भरोसेमंद हो। प्रार्थना करके तुम स्वयं को याद दिला रहे होते हो कि तुम कितने मूर्ख हो।

यही तो कह रहे होते हो न – 'मैं अपना बुरा ना करूँ। मैं अपना बुरा ना करूँ।'

हम जब यहाँ बोध स्थल में प्रार्थना करते भी हैं तो क्या बोलते हैं? "हे राम! मुझे मुझसे बचा।" कह तो रहे हैं "हे राम!" पर आगे देखो बात क्या कही है – "मुझे मुझसे बचा।"

स्पष्ट है कि हम बड़े कमज़ोर हैं और हम बड़े खतरे में भी हैं। हम अपना ही नाश करने के लिए उतावले हैं। अगर मेरा नाश मैं ही करने वाला हूँ, तो मुझे ख़ुद को ही तो रोकना है न अपना नाश करने से। तो इससे कई बातें एक साथ पता चल रही हैं। पहली बात, तुम बहुत खतरे में हो क्योंकि दुश्मन दूर नहीं है। दूसरी बात, मैं बहुत कमज़ोर हूँ। तीसरी बात, मैं बहुत मूर्ख हूँ, मैं अपना ही नाश करे जा रहा हूँ। चौथी बात, जो बात मैं अभी कह रहा हूँ वो बात मुझे आगे याद नहीं रहनी हैं क्योंकि अगर याद रहती होती तो मैं अपना नाश नहीं कर रहा होता।

प्रार्थना इन सभी उपद्रवों और कमज़ोरियों से निपटने का उपाय है। प्रार्थना में तुम बार-बार अपने-आपको अपनी ज़िम्मेदारी याद दिलाते हो और साथ-ही-साथ अपनी कमज़ोरी भी। ज़िम्मेदारी ये याद दिलाते हो कि तुममें ही सारी ताक़त है अपना नुकसान करने की और अपना भला करने की। और जब अपनी कमज़ोरी याद दिलाते हो तो ये याद दिलाते हो कि तुममें कोई ताक़त नहीं है, तुम अपना नुकसान कर जाओगे। तुम दोनों बातें एक साथ याद दिलाते हो ख़ुद को।

इन दोनों बातों को स्वयं को ही स्मरण कराने का नाम प्रार्थना है। पहली बात ये कि 'मैं बहुत शक्तिशाली हूँ और इतना शक्तिशाली हूँ कि अपना नाश भी कर सकता हूँ और उद्धार भी'। और दूसरी बात, 'मैं बहुत कमज़ोर हूँ, मैं बहुत अशक्त हूँ'। कैसे पता? 'मैं कर तो सकता हूँ अपना कल्याण भी और अपना नाश भी। पर करता मैं अकसर अपना नाश ही हूँ; मैं बहुत कमज़ोर हूँ। और मैं भुलक्कड़ हूँ, जो बात मुझे अभी याद है, थोड़ी देर में, मैं भूल जाऊँगा।' इसीलिए प्रार्थनाओं को कई बार दोहराने की प्रथा है। अभी तुम्हें याद आया और थोड़ी देर में तुम फिर भूल जाओगे।

तो प्रार्थना है - "हमारे मन और बुद्धि को परमात्मा में लगाते हुए हमारी इंद्रियों को पार्थिव पदार्थों से ऊपर उठाकर उनमें दिव्य अग्नि का प्रकाश स्थापित करें ताकि हम जगत के सार तत्वों का अवलोकन करें।"

बात यह कही जा रही है कि हमेशा की तरह फिर वही पुरानी कहानी ना दोहरानी पड़े। ये जो इन्द्रियाँ हैं, ये जगत को देखती तो ज़रूर हैं पर जगत का सिर्फ असार तत्व ही देखती हैं। मूल बात क्या है इस संसार की, वो ये इन्द्रियाँ कभी देख नहीं पातीं।

प्रार्थना है कि जब मुझमें ये संभावना है, ये क्षमता है कि मैं परदे के पार देख सकूँ, कि मैं झूठ को उतार देख सकूँ, तो मैं क्यों नहीं उस संभावना का प्रयोग करता?

'इतना ज़्यादा लाचार और शक्तिहीन तो मैं नहीं हूँ कि झूठ मेरे सामने खड़ा रहे और मुझे सच की ज़रा भी भनक ना लगे। पता तो मुझे चल ही जाता है कि जो मुझे दिख रहा है, जो मेरी धारणा है, संसार के बाबत जो मेरा विचार है, उसमें खोट है, खोखला है वो। लेकिन उसके बाद भी मैं अपने खोखले विचार और मान्यता के ही पक्ष में खड़ा हो जाता हूँ। मैं दूसरा विकल्प कभी चुनता ही नहीं कि कोई चीज़ अगर खोखली लग रही है, तो उसमें आगे जिज्ञासा करो, अन्वेषण करो। मामले की तह तक पहुँचो। वो मैं कभी करता ही नहीं।'

प्रार्थना की जा रही है कि 'जब भी मुझे ज़रा सा भी संशय हो कि कहीं कुछ खोट है, दाल में कुछ काला है, तो मैं आलस्य का, प्रमाद का, धारणाओं का और भय का बंधक बनकर ना पड़ा रहूँ। बल्कि ऊर्जा से और श्रद्धा से भर कर के सत्य जानने के लिए उत्सुक हो जाऊँ।' यही तो चुनाव करना होता है आपको।

आपके सामने एक स्थिति है संसार में और वो जो स्थिति है वो ९९ प्रतिशत आपको सामान्य ही लग रही है। उसमें कुछ आपको ऐसा नहीं लग रहा है जो आपके कान खड़े कर दे। पर एक प्रतिशत आपको थोड़ा खटका हो रहा है, कोई बात खटक रही है। अब या तो आप अपने-आपको तर्क दे सकते हैं कि, "जो खटका है, जो अंदेशा है, वो १ प्रतिशत ही तो है। ९९ प्रतिशत तो सब कुछ ठीक-ठाक और सामान्य ही लग रहा है, तो ठीक ही होगा!" एक विकल्प ये है अपने-आपको समझा लेने का।

और दूसरा विकल्प ये है कि यह जो एक प्रतिशत है, अगर यही सही निकल गया तो बड़ा नुकसान हो जाना है। 'मैं जाँच पड़ताल क्यों न करूँ? मैं सवाल क्यों न पूछूँ? मैं मामले की जड़ तक क्यों न पहुँचूँ?'

तो जो भ्रमित रह जाता है वो वास्तव में भ्रमित नहीं रह जाता है, उसने भ्रमित रहने का चुनाव किया होता है, क्योंकि जिज्ञासा करने का, सच जानने का विकल्प उसके पास था। उसने प्रमाद में, तमसा में, आलस में, उस विकल्प का इस्तेमाल ही नहीं किया।

तो प्रार्थना की जा रही है कि ये जो इन्द्रियाँ हैं, मन है, बुद्धि है, ये असार में लिप्त होकर ना रह जाएँ। ये सदा सार जानने को आग्रही रहें।

दूसरा अध्याय इस श्लोक के साथ खुलता है।

हमारी इंद्रियाँ सिर्फ पदार्थ की सतह से संतुष्ट ना हो जाएँ। हमारा मन संसार की सतह से संतुष्ट ना हो जाए। हममें सदा यह आग्रह रहे कि हमें वस्तुओं तक—वस्तु माने सत्य, वस्तु माने चीज़ नहीं, जैसाकि हम सामान्य बोलचाल की भाषा में कहते हैं। हममें सदा यह आग्रह रहे कि हमें संसार की वस्तुता तक पहुँचना है, वास्तविकता तक पहुँचना है, संसार की सच्चाई तक पहुँचना है। ये प्रार्थना है।

और ये प्रार्थना, मैं फिर कह रहा हूँ कि, बस एक तरह का अपने-आपको रिमाइंडर है, पुनः स्मरण है कि भूल मत जाना। जानते तो हो पर भूल जाते हो। यह स्वयं को ही याद दिलाया जा रहा है, जैसे कोई स्वयं को ही झगझोर कर जगा देना चाहता हो। दूसरा कोई है ही नहीं न। कौन तुम्हारी मदद करेगा?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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