सच्चा सुमिरन कैसे करें? || आचार्य प्रशांत, नितनेम साहिब पर (2019)

Acharya Prashant

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सच्चा सुमिरन कैसे करें? || आचार्य प्रशांत, नितनेम साहिब पर (2019)

ए मन चंचला चतुराई किनै न पाइआ ॥ चतुराई न पाइआ किनै तू सुणि मंन मेरिआ ॥ एह माइआ मोहणी जिनि एतु भरमि भुलाइआ ॥ माइआ त मोहणी तिनै कीती जिनि ठगउली पाईआ ॥ कुरबाणु कीता तिसै विटहु जिनि मोहु मीठा लाइआ ॥ कहै नानकु मन चंचल चतुराई किनै न पाइआ ॥१०॥

~ आनन्द साहिब, नितनेम साहिब

भावार्थ:

हे चंचल मन! चालाकियों से आज तक किसी ने आत्मिक आनन्द प्राप्त नहीं किया। हे मरे मन ! तू ध्यान से सुन ले कि किसी जीव ने चतुराई से परमात्मा से मिलाप का आनंद प्राप्त नहीं किया। अन्दर से तू मोहिनी माया के जाल में भी फँसा रहे, और बाहर सिर्फ बातों से आत्मिक आनंद चाहे, ये हो नहीं सकता। यह माया जीवों को अपने मोह में फँसाने के लिए बड़ी मोहिनी है। इसने इस भ्रम में डाला हुआ है कि मोह मीठी चीज़ है, इस तरह यह जीव को कुमार्ग पर ले जाती है। पर जीव का भी क्या वश, जिस प्रभु ने माया की, मोह की ठग बूटी में जीवों को लिप्त किया है, उसी ने यह मोहिनी माया पैदा की है। इसलिए हे मेरे मन ! अपने आप को माया पर कुर्बान करने के स्थान पर, उस प्रभु पर कुर्बान कर, जिसने मीठा मोह लगाया है। तब ही यह मीठा मोह समाप्त होता है। नानक कहते हैं, हे मेरे चंचल मन ! चतुराई से किसी ने परमात्मा का आत्मिक आनन्द प्राप्त नहीं किया।

~ आनन्द साहिब, नितनेम साहिब

प्रश्न: इस पद में नानक साहिब ने कहा, “चालाकियों से आत्मिक आनन्द प्राप्त नहीं हो सकता, यदि जीव अन्दर से माया-मोह में फँसा रहे, और बाहर की बातों से आत्मिक आनन्द चाहे, तो यह हो ही नहीं सकता। पर जीव का भी क्या वश, जिस प्रभु ने माया की, मोह की ठग बूटी में जीवों को लिप्त किया है, उसी ने यह मोहिनी माया पैदा की है।”

मुझे अपने विषय में लगता है कि मैं भी सिर्फ़ बाहर से आनन्द की बात करती हूँ। परन्तु परमात्मा का स्मरण, जो हर समय होना चाहिए, वो नहीं कर पा रही। फिर कैसे आत्मिक आनन्द हो सकेगा? कृपया मार्गदर्शन करें ।

आचार्य प्रशांत जी: आप बाहर-बाहर जो आनन्द की बात करती हैं, उन्हीं बातों को ठीक कर दीजिए, उन्हीं बातों में ईमानदारी और सत्यता ला दीजिए, काम हो जाएगा।

आदमी करे तो क्या करे, उसे शुरुआत तो बाहर से ही करनी है न। जैसे आदमी की मजबूरी कुछ ऐसी हो, कि अपने भीतर भी आने के लिए उसे शुरुआत बाहर से ही करनी पड़ेगी।

बुल्ले शाह कहते हैं,

*इश्क मजाज़ी दाता है। जिस पिच्छे मसत हो जाता है।इश्क जिन्हां दी हड्डीं पैंदा, सोई निरजीवत मर जांदा। इश्क पिता ते माता है, जिस पिच्छे मसत हो जाता है।हर तरफ दसेंदा मौला है, बुल्ल्हाआशक वी हुन तरदा है, जिस फिकर पिया दे घर दा है, रब्ब मिलदा वेख उचरदा है। मन अन्दर होया झाता है। जिस पिच्छे मसत हो जाता है।*

इश्क -ए -मजाज़ी, उसी से इश्क़ -ए -हक़ीक़ी का जन्म होता है।

‘इश्क -ए -मजाज़ी’ समझते हो? किसी व्यक्ति से प्रेम। बुल्ले शाह की दुनिया में देखें तो – मुर्शिद से प्रेम, गुरु से प्रेम।

तो भीतर की आत्मा तक भी आना है तो, शुरुआत तो बाहर से ही करनी पड़ेगी।

बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो मिलाय।

गोविन्द भीतर हैं, गुरु बाहर हैं। लेकिन गोविन्द से भी परिचय, बाहर का गुरु ही कराता है।

उस दिन सहजो बाई क्या कह रही थीं?

*राम तजूँ, गुरु न बिसारूँ।*गुरु के सम, हरि को न निहारूँ।।

तो कोई बात नहीं सीमा जी (प्रश्नकर्ता), अगर आप बाहर-बाहर बातें करती हैं। आप जो बाहर-बाहर कर रही हैं, उसी को खरा कर लीजिए। बाहर का ही एक रास्ता, भीतर को आएगा। बाहर के लेकिन उस रास्ते को पहचानिए तो, क्योंकि बाहर रास्ते बहुत सारे हैं।

अगर आप भीतर नहीं आ पा रहीं, इसका कारण ये है कि – बाहर आपने या तो सही रास्ता चुना नहीं है। या आपने सही रास्ता चुना भी है, तो उसपर ज़रा अटक-अटक कर, अनमनी होकर चल रही हैं। अपनी पूरी श्रद्धा और ऊर्जा उस रास्ते को नहीं दे रहीं।

निराकार का स्मरण कौन कर सकता है? आपने कहा, “परमात्मा का स्मरण लगातार नहीं बना रहता।” निराकार का स्मरण कौन कर सकता है? जिसका रुप ही नहीं, रंग ही नहीं, नाम ही नहीं, न आगा न पीछा, न आदि न अंत – उसका स्मरण कौन कर सकता है? कोई भी नहीं। तो निराकार का स्मरण करने की तो चेष्टा ही व्यर्थ है। आपको अगर स्मरण की ही विधि अपनानी है, तो स्मरण तो आपको साकार का ही करना पड़ेगा।

देख लीजिए, साकार जगत में कौन सी इकाईयाँ हैं, जो आपके स्मरण में बनी रहती हैं। अगर सही इकाई बनी होती आपके स्मरण में, तो साकार इकाई का स्मरण ही आपको निराकार की गोद बैठा देता।

स्मरण तो आप कुछ-न -कुछ कर ही रही हैं। और जिस भी वस्तु का आप स्मरण करती हैं, व्यक्ति का, या विचार का, या मन्त्र का, या जिस भी चीज़ का, स्मरण तो आप कर ही रही हैं। अगर स्मरण उचित ही होता, तो अब तक आप स्मरण को विस्मृत करके, सतत सुमिरन में स्थापित हो गई होतीं।

आपने जैसा लिखा है, उससे ऐसा लगता है, जैसा आप कहना चाह रही हैं कि – “सारा सुमिरन बस बाहर का चल रहा है, भीतर नहीं पहुँच रहा।” आप भेद देख रही हैं बाहर और भीतर में। आप कह रही हैं, “बाहर का सुमिरन चल रहा है, और भीतर का नहीं चल रहा” – आप भेद देख रही हैं बाहर और भीतर में, मैं बिलकुल दूसरी बात कह रहा हूँ। मैं भेद देख रहा हूँ बाहर और बाहर में।

चूक ये नहीं हो रही है कि सुमिरन बाहर का चल रहा है, भीतर का नहीं हो पा रहा। चूक ये हो रही है, बाहर का सुमिरन जिन चीज़ों का चल रहा है, वो भीतर ला ही नहीं पाएँगी।

बाहर ही कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं, जो भीतर ले आ देती हैं। पूरी जान लगाकर के उनका सुमिरन करिए।

आदमी के पास संसार के अलावा कोई जगह नहीं है। आदमी के पास दुनिया की गलियों के अलावा कोई और रास्ता नहीं है। तो चलना तो आपको दुनिया में ही पड़ेगा, और दुनिया की ही गलियों में पड़ेगा। आप सही गली तो चुनो। दुनिया में ही एक गली ऐसी होती है, जो दुनिया के पार ले जाती है। आप उस गली को पकड़ो तो सही। और बिलकुल भौतिक गली की बात कर रहा हूँ। ऐसी गली जिस पर यही हड्डी-माँस का पाँव रखकर चलते हो। आप उस गली की ओर आया तो करो।

दुनिया में ही कुछ स्थान ऐसे होते हैं जो आपको स्थानों से मुक्त कर देते हैं। आप उन स्थानों पर मौजूद तो रहो। उन्हीं स्थानों पर कुछ समय ऐसे रहते हैं, जो आपको समयातीत से मिला देते हैं। आप उस समय गायब कहाँ हो? दुनिया से बाहर जाने की विधि क्या है? दुनिया। बस ज़रा विवेक के साथ दुनिया में कदम रखना।

और कहाँ जाओगे? दुनियावी जीव हो तुम, और जाओगे कहाँ? तुम्हारे पाँव क्या आसमान में उड़ेंगे? पाँव तो जब भी रखोगे, मिट्टी पर ही रखोगे। या मिट्टी से बनी किसी चीज़ पर रखोगे।

मिट्टी, मिट्टी में फ़र्क होता है। दुनिया, दुनिया में फ़र्क होता है। दिशा, दिशा में फ़र्क होता है। जगह, जगह में फ़र्क होता है। दुनिया में सही चाल तो चलो, पार निकल जाओगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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