आचार्य प्रशांत: सबको लगता है कि उनके पास आँखें हैं। सबको लगता है, उनके पास बुद्धि है, दिमाग़ है। और सबको लगता है कि वो ज़िंदा हैं, तो दुनिया का अनुभव ले ही रहे हैं। आपको ऐसा लगता है, फिर भी जिन्होंने ज़िंदगी को समझा है, उन्होंने आपसे आग्रह किया है कि थोड़ा और क़रीब से देखो — दुनिया को भी, लोगों की ज़िंदगी को भी, और अपने जीवन को भी। जो उधर चल रहा है, उसको भी ज़रा ठीक से देखो। और जो इधर चल रहा है, उसको भी ज़रा ग़ौर से देखो।
और हम कह देते हैं कि, "साहब, ये ग़ौर करने की ज़रूरत ही क्या है? हमारे पास आँखें हैं न! और आपको क्या लग रहा है कि इतनी उम्र हमने बिना कुछ देखे जाने ही बिता दी है? हमने देखा भी है, हमने जाना भी है।"
फिर भी जानने वाले आपसे आग्रह करते ही रहते हैं कि नहीं, शायद कहीं कोई भूल हो रही है। जाओ, थोड़ा और प्रयास करो। कुछ देखना आपसे चूक रहा है। कुछ है बात, जो अभी समझ नहीं पा रहे हो। कोई है तत्व, जिससे वंचित रह जा रहे हो, ज़रा ठीक से देखो न। इस "ठीक से देखने" के आग्रह को वो अवलोकन कहते हैं। अवलोकन। कहते हैं — जाओ,
अवलोकन करो — जगत का और जीव का। माने, दुनिया का और अपना। इन्हीं दोनों का करना होता है।
जगत की तरफ़ जब ग़ौर से देखा जाता है, तो उससे एक प्रकार का ज्ञान पैदा होता है। अपनी ओर जब ग़ौर से देखा जाता है, तो उससे दूसरी तरह का ज्ञान होता है। ये दोनों ही ज्ञान ज़िंदगी में बहुत ज़रूरी हैं। दुनिया को देखने से जो ज्ञान मिलता है, उपनिषद् उसे कहते हैं — अविद्या। कहते हैं, बहुत ज़रूरी ज्ञान है ये। आपको जगत का पता होना चाहिए। वहाँ क्या काम-धंधा चल रहा है, क्या हिसाब-किताब है। और अपने आप को देखने से जो ज्ञान पैदा होता है, उसे कहते हैं — विद्या। और उसको भी उपनिषद् कहते हैं कि बहुत ज़रूरी है। कहते हैं, ये दोनों ही तरह के आपके पास ज्ञान होने चाहिए — विद्या और अविद्या।
और हम कहते हैं, "होने चाहिए, बहुत अच्छी बात है। लेकिन आपको क्यों लग रहा है कि हमारे पास नहीं हैं? आप बार-बार बोल रहे हो — जाओ, अवलोकन करो और विद्या अर्जित करो और अविद्या हासिल करो। आप क्यों हमसे ऐसे बार-बार बोल रहे हैं?"
तो कहते हैं "नहीं, नहीं, नहीं, नहीं, नहीं। अभी तुमने नहीं ठीक से देखा है।" हम आग्रह करने लग जाते हैं। हम कहते हैं, "सब देख लिया है ठीक से। बताइए क्या नहीं देखा है? दिन-रात तो हम ज़िंदगी का तमाशा अपनी आँखों के सामने देख रहे हैं।" और कोई कहता है, "मेरी 25 उम्र हो गई," कोई कहता है, "45 उम्र हो गई।" इतनी हमारी उम्र हो गई, तो क्या हम सो रहे थे इतने सालों तक? हमने क्या कुछ देखा ही नहीं है? हमें सब पता है।
वो कहते हैं, "नहीं। हम फिर भी तुमसे कह रहे हैं कि तुमने कुछ नहीं देखा।" हम चिढ़ और जाते हैं जब वो बार-बार हम पर यही दोहराते हैं कि "तुमने अभी नहीं देखा।" तो हमें बुरा और लग जाता है। तो कहते हैं, "जाओ, अवलोकन करो।" हम कहते हैं, "उसी चीज़ का कितनी बार अवलोकन करें? देख तो आए!"
जब हम बहुत हठ के साथ, और बहुत दुराग्रह के साथ, और भीतर भारी विरोध और असम्मान लेकर के फिर ज्ञानियों के मुँह पर घोषित ही कर देना चाहते हैं कि "ना हमें कुछ देखना है, ना समझना है, ना जानना है। हमने सब देख-जान-समझ लिया।" तब वो फिर मजबूर होकर के हमसे कुछ बात कहते हैं — तीन हिस्सों की है वो बात।
वो कहते, "अगर तुमने सचमुच देख लिया होता ज़िंदगी को और ख़ुद को, तो तुमने कहा होता “जैसे जी रहा हूँ, वैसे जिऊँगा नहीं। जिसकी कामना है, वो चाहूँगा नहीं। और जो मान रहा हूँ, वो मानूँगा नहीं।" तीन बातें। बोल रहे हैं, अगर तुम्हारा अवलोकन ज़रा भी सच्चा या गहरा होता, तो तुमने तीन बातें बोली होती — “जैसे जी रहा हूँ, वैसे जिऊँगा नहीं। जो चाह रहा हूँ, उसे चाहूँगा नहीं। और जो मान रहा हूँ, उसे मानूँगा नहीं।” बोल रहे, "तुमने तीन में से एक बात नहीं बोली इनमें से, और दावा तुम्हारा यही है कि अवलोकन पूरा है।"
अवलोकन हुआ होता तो — जैसे जी रहे हो, वैसे जी नहीं रहे होते। जो चाह रहे हो, उसी को नहीं चाहे जाते तुम्हारी चाहत बदल गई होती। और अवलोकन में अगर सच्चाई होती, तो जो बात पकड़ के, बाँध के बैठे हो, मान्यता — वो कब की छोड़ दी होती। जो मान रहे हो, वो मान नहीं रहे होते तुम। वही अपनी पुरानी घिसी-पिटी चीज़ अभी भी माने जा रहे हो। तुम्हारे लिए जो तुमको थमा दिया गया, वही बस सच है। तो तुमने अवलोकन से क्या देखा, अगर जो थमाई चीज़ है, उसी को सच मानना है तो? अवलोकन का तो मतलब होता है — मौलिक ज्ञान, स्वयं देखा। “मैं कहता आँखन की देखी।”
तुमने क्या अपनी साफ़ और तीक्ष्ण आँखों से देखा, जब तुम बस मान्यता में ही जी रहे हो? जैसे जी रहा हूँ, वैसे जिऊँगा नहीं। जो चाह रहा हूँ, उसको चाहूँगा नहीं। जो मानता आया हूँ, उसको मानूँगा नहीं। और ये तीनों फल मिल जाते हैं उसको जिसने बस साफ़, निर्मल, निष्पक्ष, पूर्वाग्रह-रहित आँखों से जीवन को देखने की हिम्मत दिखाई होती है। हिम्मत की बात है। ये कोई कला, कौशल इत्यादि नहीं है।
आप कहें — "मुझे आता नहीं है, मेरा अभ्यास नहीं है, अरे कोई मुझे इसकी कला या विज्ञान समझा दो।" न कला, न विज्ञान, न कौशल — साहस, कलेजा चाहिए, हिम्मत चाहिए। उसको भी कह दो, प्रेम चाहिए। प्रेम! साहस तो प्रेम से ही आता है, और नहीं तो कहाँ कोई साहस आएगा?
प्रकृति में तो उतना ही साहस पाया जाता है, जितना शिकार करने के लिए ज़रूरी है। प्रकृति में तो उतना ही साहस पाया जाता है, जितना आग लगी जगह से भाग जाने के लिए ज़रूरी है। प्रकृति बस उतना ही साहस देती है आपको — इससे ज़्यादा साहस नहीं देती। उसके आगे का साहस तो उस प्रेम से आता है। तो आज के तीन शब्द हैं हमारे सामने — जिजीविषा, बुभुक्षा और बुभुत्सा। हम मुक्ति की बात करते हैं बार-बार, इन्हीं तीनों से मुक्ति चाहिए होती है।
जिजीविषा से मुक्ति माने, जैसे जी रहा हूँ, अगर इसको ज़िंदगी कहते हैं तो नहीं जीना। ये हुई "जीव" से मुक्ति।
बुभूक्षा से मुक्ति माने, जिसको चाह रहा हूँ, उसमें कुछ रखा ही नहीं है। उसको नहीं चाहना।
और बुभुत्सा से मुक्ति माने, जो कुछ मानता चला आया हूँ, वो निश्चित रूप से झूठ है। उसको नहीं मानना।
जो भी कुछ तुमने मुझे सिखा-पढ़ा दिया है, जो भी तुम्हारे पुराने ढर्रे हैं — वैसे ना जीना है, ना चाहना है, ना मानना है।
नहीं जिएंगे, नहीं चाहेंगे, नहीं मानेंगे। और ये तीनों फल हैं मात्र उस छोटी-सी चीज़ के, जिसको कहते हैं अवलोकन। अष्टावक्र कह रहे हैं — किया होता अगर अवलोकन, तो जैसे जी रहे हो वैसे ही जीते जाने की तुम में कैसे इतनी प्रबल इच्छा होती? और तुम तो अपनी ज़िंदगी बदलना ही नहीं चाहते। कोई तुम्हारे पीछे डंडा ले भी पड़ा हो कि "ज़िंदगी बदल लो," तुम तब भी एकदम अड़ियल टट्टू की तरह, कुत्ते की टेढ़ी पूँछ की तरह कुछ बदलना ही नहीं चाहते। और बदलाव तो स्वयं आ जाता है। जिसने जान लिया कि ये दुनिया कैसी है, वो कैसे इसी दुनिया की सिखाई सीख पर चलता रहेगा? बदलाव तो आ ही जाएगा ना।
आप कोई अपनी इच्छा पर, अपने बोध पर थोड़ी चलते हो। किसने कह दिया? आप तो चलते हो — ये जो दुनिया में आपके मालिक बैठे हैं, उनकी सीख पर और उनके नक्शे-क़दम पर। और एक बार आपको दिख जाए कि ये सब जो आपके मालिक बैठे हैं ये कितने पानी में हैं, और इनका अपना क्या हाल है, उसके बाद आप इनकी सीख स्वीकार करोगे? आप इनके पद-चिन्हों का करोगे अनुसरण? करोगे क्या? पर उसके लिए पहले दिखना तो चाहिए ना वो हैं कैसे? जब आप जानते ही नहीं हो वो कैसे हैं तो फिर वो आपको जिधर को खींचते हैं, आप खिंचे चले जाते हो।
अष्टावक्र कह रहे हैं —
कस्यापि तात धन्यस्य लोकचेष्टावलोकनात्। जीवितेच्छा, बुभूक्षा च, बुभुत्सोपशमं गता:।।
इनके आगे निकल जाता है — ये इच्छाएँ पीछे छूट जाती हैं। ये तीन चीज़ें पीछे छूट जाती हैं। कौन-सी तीन चीज़ें? जैसे सब जीते हैं, वही जीना है। जिसको सब चाहते हैं, उसी को चाहना है। और जो सब की मान्यता है, उसी को मानना है। और ये सब पीछे छूट जाएगा, अगर तुमने एक उनको और एक ख़ुद को ठीक से देख लिया होता। ना तुम उनको जानते, ना तुम ख़ुद को जानते — सिर्फ़ इसी लिए तुम उनके ऐसे शागिर्द, ऐसे अनुयायी, ऐसे शिष्य, ऐसे भगत बने हुए हो। तुम कुछ नहीं जानते।
और जाना जब जाता है ना, दोनों को इकट्ठे ही जाना जाता है। जैसे ख़ुद को नहीं जानते, वैसे ही उनको भी नहीं जानते। तो तुम्हारे लिए वही आदर्श हो जाते हैं। आदर्श नहीं भी हो जाते, तो कम से कम सम्मानीय तो हो ही जाते हैं। सम्मानीय नहीं भी होते, तो भी त्याज्य तो नहीं होने पाते कभी।
तुम कहते हो "ठीक है, थोड़ा है, थोड़े की ज़रूरत है, मामला बीच का है, वन ऑफ द शेड्स ऑफ ग्रे। इतना भी बुरा नहीं है मामला कि उससे पूरे तरीक़े से मुँह फेर लें।" तो अष्टावक्र कह रहे हैं, धन्य है कोई, कोई बिरला ही होता है जिसको दिखाई दे जाए कि मामला सचमुच इतना ही बुरा है कि तुम्हें उससे पूरे तरीक़े से अपने आप को हटा लेना चाहिए। तुम्हारे मन में कहीं न कहीं कुछ स्वीकार रह जाता है “कि क्या पता, सत्य के अलावा भी 15, 20, 40 कुछ वैकल्पिक सत्य होते हों।"
वो वैकल्पिक सत्य कौन बता रहा है? वो कोई फ़िल्म वाला बता रहा है, कोई टीवी वाला बता रहा है, कोई चाचा-ताऊ बता रहा है, कोई दोस्त-यार बता रहा है, कोई क़िस्सा-कहानी बता रहा है। कई बार तो वो जो इधर-उधर की भी किताबें होती हैं धर्म के नाम की — उनसे भी तुम उठाने लग जाते हो कि "ये भी बता रही है, तो ठीक ही होगा।"
मैं लोगों से कहता हूँ — "गीता," तो कहते हैं — "गीता ही थोड़ी! कोई एक धर्मग्रंथ है? हमारे और भी तो धर्मग्रंथ हैं।" मैं पूछता हूँ, "कौन-से धर्मग्रंथ से पढ़ा है?" बोलते हैं, "मनुस्मृति से पढ़ लिया, गरुड़ पुराण से पढ़ लिया।" बोलते हैं, "गीता ही क्यों मानें? और भी तो ये चीज़ें हैं, उनसे हम पढ़ लेते हैं।"
तुमने अगर ठीक से पढ़ भी लिया होता तो उनको छोड़ दिया होता। 100 जगहों से सीख हम उठा लाते हैं। ना जाने कितने हम अपने आका बना लेते हैं, मालिक। ये आज से नहीं हो रहा है, ये तब से हो रहा है। कम से कम 2000 साल पुरानी है अष्टावक्र संहिता, उससे ज़्यादा ही होगी कुछ। अष्टावक्र कह रहे हैं — “धन्य है वो, जो जब जगत की चेष्टाएँ देखता है, उनका अवलोकन करता है।” यही शब्द है उनका — “अवलोकन।”
जब वो जगत की चेष्टाओं का अवलोकन कर लेता है, तो उसके बाद इन तीन से मुक्त हो जाता है:
“जीजिविषा,” जिसको यहाँ पर कह रहे हैं जीवित-इच्छा — कि ऐसे ही जीना है जैसे सब जीते आए हैं, ऐसे ही जीना है। अष्टावक्र कह रहे हैं — “जैसे सब जीते आए हैं, वो मौत है। वो पैदा ही कभी नहीं हुए। वो जिएँगे कहाँ से? तो तुम कैसे उनकी तरह जीने का विचार कर रहे हो? वो ज़िंदा ही नहीं हुए कभी। और तुम कह रहे हो, "मुझे तो उन्हीं की तरह जीना है।" और उन्हीं की तरह जीने को तुम कहते हो परंपरा का पालन। "अरे, तो सब ऐसे ही जीए हैं। हमारे यहाँ बाप-दादा और आजकल ताऊ-चाचा, ये सब वैसे ही जी रहे हैं।" तो हम भी इन्हीं तरह तो जिएँगे।
और जानने वाले कहते हैं कि उनकी तरह जीने के लिए पहले उनके पास तो जीवन होना चाहिए। किसी चीज़ की नकल करने के लिए उधर तो कुछ होना चाहिए। नहीं तो ये भी कर सकते थे कि परीक्षा में जब नकल करनी हो, तो बोलो कि दीजिएगा ज़रा सप्लीमेंटरी शीट — और जो खाली आपको दी जाती है, आंसर शीट, एक्स्ट्रा जो माँगते हो और उसी में से नकल करते हैं।
कोई वैसा मिल जाए नकल करता हुआ, तो वो मूर्ख कहलाएगा। क्यों? क्योंकि वहाँ नकल करने के लिए भी कुछ है ही नहीं। नकल भी वहाँ करो न जहाँ कुछ हो। वहाँ कुछ नहीं है वो खाली है, वो शून्य है। बुद्ध से पूछो, कहेंगे — रिक्त है, खाली, शून्य। वहाँ तुम नकल भी किसकी करोगे? पर नकल भी चल रही है। जहाँ कुछ नहीं है, वहाँ उसकी नकल चल रही है। समझ में आ रही है?
आप जिनकी नकल कर रहे हो, उनकी ज़िंदगी की किताब में कुछ नहीं लिखा हुआ है। तो आप कहते हो "लेकिन कुछ था, तो नकल करी तो थी हमने!" मैं बताता हूँ, क्या था? उनकी आंसर शीट, उत्तर-पुस्तिका पर एक मक्खी बैठ गई थी। उन्होंने उसको ऐसे मार दिया था तो वो चिपक गई थी। आपने उसकी नकल कर ली है। वहाँ कुछ लिखा हुआ नहीं था, वहाँ कुछ मरा हुआ था। आप मौत की नकल कर रहे हो। आप पुरानी मरी हुई मक्खियों को देख के नई-नई मरी हुई मक्खियाँ चिपका रहे हो। और ये बात कोई नई नहीं है, ये बात बहुत पुरानी है। दो हज़ार साल बाद पुरानी बात है ये।
वो कह रहे हैं — जिसने जगत को देख लिया, वो फिर कभी नहीं कह पाएगा कि जैसे सब जीते हैं, वैसे ही जीना है। तो अगर आपकी ज़िंदगी लगभग वैसी है जैसी सबकी ज़िंदगी है, तो एक बात पक्की है: आप ज़िंदगी के बारे में कुछ नहीं जानते। आप मुक्त ही कितने हो जगत से? आपके अवलोकन में सच्चाई कितनी रही है? यही ऐसे नाप लीजिए कि आपकी और दूसरों की ज़िंदगी में समानता कितनी है।
तीनों कसौटियाँ हैं, किसी का भी प्रयोग कर लीजिए: दूसरों की और आपकी ज़िंदगी में समानता कितनी है। दूसरों की और आपकी इच्छाओं में समानता कितनी है। दूसरों की और आपकी मान्यताओं में समानता कितनी है।
जितनी आपकी मान्यताएँ दूसरों जैसी उतने आप मुर्दा। उतना आपने अभी कुछ जाना ही नहीं है। मुर्दे क्या जानेंगे? कुछ नहीं पता आपको।
जितना आप भी वही सब कुछ चाहते हो जो दूसरे चाहते हैं, उतने आप मुर्दा। लोहा खिंच जाता है चुंबक की ओर — उसे कुछ पता थोड़ी है, पर फिर भी खिंचता आ रहा है। आकर्षण है, चाहत तो है ही — खिंचा चला आ रहा है। पतंगा खिंचा चला आता है प्रकाश की ओर, उसे कुछ पता थोड़ी है। लोग कहते हैं, अभी दिवाली आ रही है। लोग कहते हैं, दिवाली के अन्य कारणों में एक कारण ये भी है कि बरसात के बाद कीड़े बहुत हो जाते हैं। तो जब खूब प्रकाश कर दो, रात में दीये वग़ैरह जला दो, तो उसमें आकर कीड़े मर जाते हैं।
कीड़ों को पता है क्या कि वो प्रकाश की ओर क्यों खिंचे आ रहे हैं? बस आ रहे हैं, आ रहे हैं। वैसे ही हम हैं, कुछ भी कर रहे हैं। हमें इतना तो दिख जाता है कि उस दीये की ओर जो पतंगा आया, वो बिना ये जाने आया कि वो दीये की ओर क्यों जा रहा है। पर हमें ये नहीं दिखता कि जिस जीव ने वो दीया जलाया, उसने भी बिना ये जाने जलाया कि वो दीया क्यों जला रहा है। तो बताओ, दीया जलाने वाले में और दीये में जल जाने वाले में कोई अंतर है क्या?
आप जब दीया जलाते हो, क्या आपको सचमुच उसका अर्थ पता है? आपसे पूछा जाए, तो आप कहोगे "हाँ-हाँ, अर्थ पता है।" कुछ आप सतही सा, अधूरा सा, आड़ा-तिरछा, कोई पारंपरिक सा अर्थ बता दोगे। ये कोई नहीं बोलेगा "मैं नहीं जानता।" जो ये बोल दे "नहीं जानता," उसके तो जानने की संभावना खुल जाती है। आप ये कभी नहीं बोलने वाले कि "नहीं पता।" आप बोलोगे, "पता है" और कुछ ऐसे ही बोल दोगे।
कोई बोल देगा, "वो अंधकार को भगाने के लिए दीये जलाए जाते हैं।" कोई बोल देगा, "जब अयोध्या वापस आए थे श्रीराम तो उनके स्वागत में रोशनी की गई थी।" तो हम भी दीये जला रहे हैं। इतने से तो बात नहीं बनती। पता तो आपको भी कुछ नहीं है, पता उस पतंगे को भी कुछ नहीं है। पतंगा भी तो अपनी पुरानी परंपरा का ही पालन कर रहा है। उसका दादा भी वैसे ही मरा था। दो दिवाली पहले, उसका दादा वही मरा था उसी घर में, वैसे ही किसी दीये में आकर मुँह डाला था, मरा था।
वो भी अपनी परंपरा का पालन कर रहा है। आप भी परंपरा का पालन कर रहे हो। जानता वो कुछ नहीं, जानते आप कुछ नहीं। ये बात ऋषि अष्टावक्र आपको समझा रहे हैं, समझ सकते हो तो समझिए। उन्हें भी बहुत उम्मीद नहीं है कि आप समझ पाएँगे। वो भी यही कह रहे हैं — "धन्य है वो बिरला, जिसको ये बात समझ में आती है।" क्योंकि समझ में आती नहीं है बात किसी को।
लोग आ जाते हैं "हाँ भाई, अवलोकन लिखा है!" आप लोग ऐप पर भी तो अवलोकन खूब लिखते हो, हमारी गीता कम्युनिटी की है। अरे, अवलोकन अगर सच्चा होता तो ज़िंदगी बदल गई होती न! अवलोकन सच्चा होता तो आप वही सब कुछ कैसे चाह रहे होते जो आप चाहते जाते हो? वही सब कुछ कैसे मान रहे होते जो आप मानते जाते हो?
जिसने देख लिया, वो आँखों देखी मक्खी अब कैसे निगल लेगा, बताओ? देखने का ये अर्थ होता है। देख लिया कि उसमें मक्खी पड़ी हुई है, बढ़िया वाली! और मैं कहूँ, “आ हा!” कईयों को तो कल्पना में ही उल्टी आ गई होगी। कहे, “देखो मक्खी पड़ी है, और ये पी रहे हैं!” आ गई न?
ऋषियों को ऐसे ही हमारी ज़िंदगी देख के वमन आता है एकदम। आपको दिख रहा हो न दिख रहा हो, उन्हें दिखता है कि हमारी ज़िंदगी में मक्खियाँ ही मक्खियाँ हैं। और वो रोज़ हम हलक से नीचे उतारते हैं। जैसे चाय की पत्ती होती है, काली-काली। वही चाहते हो जो सब चाहते हैं। वही माँगते हो जो सब माँगते हैं। और वही मानते हो जो सब मानते हैं। तो आँखें कहाँ हैं तुम्हारी? मासूम सा सवाल है ये।
हम कह रहे हैं — अष्टावक्र ऋषि? पर ये एक युवा है, ये किशोर है एक। जो आपसे खड़ा होकर के बगावत के स्वर में एक सवाल पूछ रहा है। ये एक विद्रोही का प्रश्न है। बताओ न, कुछ ऐसा चाहते हो जो दूसरे नहीं चाहते? कहते हैं, इनकी आयु इस वक़्त 14 साल की है। मैं कह रहा हूँ “चलो, थोड़ी अतिशयोक्ति होगी।” 14 के नहीं होंगे, 24 के होंगे। पर 24 के हैं तो भी बहुत जवान हैं। और ये एक जवान आदमी आपसे सवाल पूछ रहा है — कैसे तुम वही सब कुछ चाह रहे हो जो पूरी दुनिया चाह रही है? जानवर हो?
एक कुत्ता वही चाहता है, जो दूसरा कुत्ता चाहता है — हाँ या ना? कुत्ते-कुत्ते की चाहत में अंतर नहीं मिल सकता आपको। लड़ जाएँगे कुत्ते एक रोटी, एक हड्डी के लिए। दोनों कुत्ते एक ही चीज़ चाह रहे हैं। बिल्ली-बिल्ली भी वही चाहती है। लेकिन दो इंसान अगर एक ही चीज़ के पीछे पड़े हों, तो कुछ गड़बड़ है। और अगर 2000 इंसान एक ही चीज़ के पीछे पड़े हों? दो करोड़? और दो करोड़ ही नहीं, दो शताब्दियों से दो करोड़ तो?
कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी को भी नहीं पता कि ज़िंदगी में चाहने लायक क्या है? इसीलिए सब एक भीड़ बनकर किसी एक चीज़ की ओर चल पड़ते हैं — जिसकी ओर बहुमत जा रहा होता है — कहते हैं, "चलो यही चाह लें।" अगर सचमुच हमारे पास कुछ निजता होती, कुछ इंडिविजुअलिटी होती, तो जितने लोग होते, उनके रास्तों में कुछ तो विविधता दिखाई देती।
अगर दुनिया में 800 करोड़ लोग हैं — तो 800 करोड़ नहीं, तो कम से कम 10 करोड़ तो अलग-अलग रास्ते दिखाई देते। पर 800 करोड़ लोग कुल जमा-जमा दो, चार, छह रास्तों पर ही चल रहे हों इसका मतलब क्या है? कैंपस में थे, तो वहाँ मैंने पूछा — मैंने कहा, "इतने सारे हैं हम, और सबसे अभी पूछा जाए कि अपनी ड्रीम कंपनी बताना — वन, टू, थ्री!" तो 90% लोगों की वही-वही निकलेंगी। मैंने कहा, ये कौन-सी ड्रीम है? जो तुम्हारी है — वही तुम्हारे पड़ोसी की है, और वही पूरे कैंपस की है! ये सपना कौन-सा है? ये सपना तो है ही नहीं!
अरे, सपना भी तो थोड़ा-सा अपना हो! अगर अपना नहीं, तो सपना नहीं — वो फिर एक भ्रम मात्र है। जो उसको बोलना हो, डिल्यूज़न, हेल्युसिनेशन। और रात में देख रहे हो, तो नाइटमेयर। आपके सपने आपके अपने हैं क्या? आपका पड़ोसी बिल्कुल वही सपना ले रहा है जो आप ले रहे हो? वो सपना न आपका है, न आपके पड़ोसी का। वो सपना एक बहुत विस्तृत, ऑल-परवेसिव, सर्वव्यापी अज्ञान का है। वो किसी का नहीं है।
जैसे कि हड्डी मिल जाए — कुत्ते को सपना आ रहा है। कुत्ते का सपना थोड़ी है। दस कुत्ते लेटे, दसों एक ही सपना ले रहे, हड्डी मिल जाए! आप क्या बोलोगे? इस कुत्ते ने कोई विशेष पात्रता हासिल करी है? कोई ज्ञान है इसके पास? कुछ देख-समझ के, सूँघ के आया है? कुछ जानने से इसने ये सपना बनाया है? नहीं बस, चूँकि वो कुत्ता है इसलिए हड्डी माँग रहा है। उसे कुछ पता नहीं। वैसे हमारी भी जो सब चाहते हैं, वो बहुत सार्वजनिक है। सर्वव्यापी अज्ञान से उठती सार्वजनिक चाहतें।
ये जो बड़े-बड़े रेजिडेंशियल कॉम्प्लेक्सेस होते हैं — ये ऊँचा होगा, कम से कम 25 मंज़िला। अब तो 50-50 मंज़िल वाले भी होने लग गए, ज़मीन की कमी। और उसमें आप देखोगे, वो सब वही है — पिजन होल्स। और थोड़ा दूर से देखो तो दिखाई देता है कि जो उसमें एक-एक यूनिट है, वो बिल्कुल दूसरी यूनिट्स जैसी है और उसमें सैकड़ों यूनिट्स हैं। तो पहला सवाल तो ये कि — क्या आप सबका सपना इतना एक जैसा था, कि सबने यही कहा था कि मुझे ऐसा घर मिले? सबका घर बिल्कुल एक जैसा।
चलो कोई बात नहीं — घर की बनावट, ईंट-पत्थरों का खेल, हम कह सकते हैं बाहरी बात है। लेकिन जब हम आपके घर में प्रवेश करते हैं, तो हम पाते हैं कि घर कोई भी हो ज़िंदगी एक जैसी है। किसी भी घर में घुसो टीवी पर लगभग एक से कार्यक्रम चल रहे हैं। किसी भी घर में घुसो, तो प्रेम तो नहीं ही पाओगे क्लेश भी एक जैसे हैं। हमारे क्लेशों में भी विविधता नहीं है। लगभग एक से ही संवाद चल रहे होते हैं — पति-पत्नी, सास-बहू, माँ-बेटे के बीच में, लगभग एक-सी बात है।
तभी तो जब एक घर से कोई जाकर दूसरे घर में चुगली करता है, तो दूसरा घर वाला तुरंत समझ जाता है क्या बात हो रही है क्योंकि वही बात कल रात उसके घर में भी हो रही थी। हमारा तो क्लेश भी उधार का है। हमें क्लेश भी इतनी भी हमारी किस्मत नहीं, कि क्लेश भी मौलिक, ओरिजिनल मिल जाए। हम लड़ते भी ऐसे हैं जैसे किसी स्क्रिप्ट से उठा के लड़ाई कर रहे हों। पिक्चरों की पटकथा होती है, उसमें पहले ही बता दिया जाता है: नायक, खलनायक खड़े हैं, अब तू इसको गाली देगा, फिर ये तुझे कुछ बोलेगा, फिर तू कुछ बोलेगा। उनकी तो लड़ाई भी नकली है।
प्रेम तो हमारे पास है ही नहीं असली — हमारा क्लेश भी नकली है।
मान्यता। क्या पता होता आपको अगर आपको नहीं बताया गया होता? आपका अपना क्या है? ये सब जो आप माने बैठे हो — क्या आप इसमें से कुछ भी मान रहे होते अगर आपको बताया नहीं गया होता? बोलिए, भाषा आपको बताई गई, गणित आपको सिखाई गई। आप में से अधिकांश लोग दुनिया के अधिकांश देशों में नहीं गए होंगे। हम बाहर भी जाते हैं तो दो ही चार देश हैं, वहाँ घूम के आ जाते हैं — अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, बहुत हुआ तो ब्रिटेन वग़ैरह बस।
दुनिया के अधिकांश देशों में आप गए नहीं होंगे। लेकिन आपको पक्का भरोसा है — "वो है!" वो आपको बताया गया है। चलो, वहाँ तक फिर भी ठीक होता। लेकिन हम ही क्या चीज़ हैं? हमको ये भी किसी और ने बताया है। जिन विचारों को, मान्यताओं को, आदर्शों को आप बहुत अब ज़िंदगी में अपनी पवित्र और केंद्रीय मानने लगे हो — वो भी क्या सब आपके अपने हैं?
"मैं कट्टर वामपंथी हूँ!" — कोई बोल रहा है। ये वामपंथ तुमने पैदा करा है क्या? "कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो" तुमने लिखा था क्या? किसी ने अगर पढ़ाया नहीं होता, तो कहाँ से लाते तुम वामपंथ? पर आज उसके लिए तुम जान देने को तैयार हो! "मैं कट्टर मुसलमान हूँ, ईसाई हूँ, हिंदू हूँ।" हिंदुओं में भी फिर "मैं क्षत्रिय हूँ, गुर्जर हूँ, जाट हूँ, ब्राह्मण हूँ कुछ।" तुम पैदा हुए, तुमको बताया नहीं गया होता ये सब? ये तो छोड़ दो कि तुम कट्टर होते, तुम जो भी बने हुए हो — हिंदू, मुसलमान, ईसाई। क्या तुम वो भी होते?
ये धर्म तुम्हारा अपना है क्या? किसी ने बताया नहीं होता, पैदा हो गए कि बेटा, "तुम क्रिश्चियन हो और नाम चार्ल्स है।" कोई और आकर बता देता कि, "नाम चुन्नू लाल है।" तो तुम चुन्नू लाल हो जाते। आज जान देने को तैयार हो, कह रहे हो — * "माय गॉड इज़ द ओनली गॉड एंड क्राइस्ट हिज़ ओनली सन!"* ये सब ज्ञान तुम्हें सपने में आया था? आकाशवाणी हुई थी? फिर तुम्हारे ऊपर डाउनलोड उतरा था? तुम्हें कैसे पता ये सब? किसी ने बता दिया।
हर चीज़ किसी ने बता दी। और जो कुछ किसी ने बता दिया उसको ज़िंदगी बना लिया। ऐसे ही तो चल रहा है। आप एक चीज़ बता दीजिए, जो आपके दिमाग़ में होती बिना किसी दूसरे के बताए हुए भी। बता दीजिए। और ये छोटी-मोटी बातें हों तो चलेगा, हम जिन चीज़ों के आधार पर ही खड़े हैं — जो चीज़ें हमारी ज़िंदगी की बुनियाद हैं वो भी हमने बस दूसरों से ही सुन ली है। सुनी-सुनाई बात पर पूरी ज़िंदगी बिता रहे हैं।
तभी तो फिर जब आपसे कोई गहरी चर्चा की जाती है, तो दो मिनट में आप अचकचाना शुरू कर देते हो। और कहते हो, नहीं, "चेंज द टॉपिक," नहीं समझ में नहीं आ रहा, नहीं बोरिंग है। बोरिंग नहीं है, आपके पास अब कोई जवाब नहीं है। तुम्हें किसने बताया कि इतना पैसा ज़िंदगी में होना ही चाहिए? कैसे पता? बताओ तो। तुम्हें कुछ नहीं पता है। क्योंकि तुम्हें कुछ नहीं पता है, इसीलिए जो सब कर रहे हैं वही करने में तुम भी लगे पड़े हो।
औलाद तो पैदा करनी ही करनी है। ठीक है, कर लो। प्रकृति ने शरीर में व्यवस्था दी है, उससे औलाद पैदा हो सकती है, कर लो ठीक है। होती भी रही हैं। ये कोई समस्या की बात नहीं कि औलाद पैदा करनी है। लेकिन ये तो बता दो कि ये तुम्हें किसने बताया कि ये जीवन में इतनी महत्त्वपूर्ण बात है? ये किसने बताया? कैसे तुमने इस बात को इतनी इज़्ज़त दे दी ज़िंदगी में?
आप स्कूल, कॉलेज, हॉस्टल में रहे हैं। बहुत लोग, ख़ास करके जो जेंट्स हॉस्टल होते हैं, उनमें तो ऐसा कोई भाव नहीं होता 20, 22, 24, 25 की उम्र में भी कि ज़िंदगी है ही इसीलिए कि हाथ में बच्चा रोए। कुछ और भी बोल सकता था, पर अब छोड़ो।
भीतर कोई बैठा है जिसे जानना है। लेकिन जानना मेहनत का काम होता है और साहस का। जब न मेहनत करनी है, न साहस दिखाना है, तो जानना फिर उधारी का काम बन जाता है। जानना तो है ही। कहीं न कहीं से तो ये भाव लाना ही है भीतर के, "मुझे भी पता है, मुझे भी पता है।" दो तरीक़े से हो सकता है, मैंने पता लगाया है या मैंने मान लिया है। पता लगाने वाली मेहनत करनी नहीं, तो मान लो। वो सस्ता विकल्प है, मान लो। जो सब कर रहे हैं, इधर-उधर देखो और मान लो। आ रही है बात समझ में? मान लो बस।
"जीवितेच्छा बुभुक्षा च बुभुत्सोपशमं गता:।।" आगे निकल जाएगा। जिस किसी ने कस्यापि, जो भी कोई बिरला, धन्य, कोई जिसने भी देख लिया कि ज़िंदगी वास्तव में क्या चीज़ है — और ये देखना कोई ऐसा नहीं कि साधु-संन्यासियों का ही या धार्मिक लोगों का ही काम है। जिस किसी को भी ज़िंदगी जीनी है, उसे ज़िंदगी, दर्शन तो करना ही पड़ेगा न? ज़िंदगी जाननी तो पड़ेगी ही न? कि बस दार्शनिकों को ही ज़िंदगी जीनी, आपको नहीं जीनी? आपको जीनी है न? जिसको भी ज़िंदगी जीनी है, उसको ज़िंदगी समझनी पड़ेगी। नहीं तो जी कैसे रहे हो?
जिसने भी ज़िंदगी जी ली, वो इन तीन बातों से मुक्त हो जाएगा — पहला, दूसरों की तरह ही जीना है। दूसरों की तरह ही चाहना है। दूसरों की तरह ही मानना है। न दूसरों की तरह जिऊँगा, न दूसरों की तरह चाहूँगा, न दूसरों की तरह मानूँगा। मेरी एक ज़िंदगी है, उसे पूरी मौलिकता में जिऊँगा। अवसर बार-बार नहीं आवे। दूसरा कोई जीवन तो है नहीं, यही है। यही है और इसकी अनंत संभावना है। कैसे मैं कोई एक पल की भी बर्बादी बर्दाश्त कर लूँ?
सीमित जीवन, संभावना अनंत, समय कम और राह बहुत लंबी — सोना कैसे स्वीकार कर लूँ? मंज़िल मेरी, प्यार मेरा — दूसरों के पीछे-पीछे कैसे चल दूँ?
दूसरे का पता नहीं, उसकी क्या मंज़िल, और उसका क्या प्यार — मैं कैसे उसके पीछे-पीछे चल दूँ? ये होता है एक-एक प्रज्वलित जीवन, प्रज्वलित! प्रज्वलन उसमें प्रेम से आता है। आप सब के सब ज्ञान माँगते रहते हो — ज्ञान चाहिए, ज्ञान चाहिए। रोशनी ज्ञान की। ज्ञान को प्रकाश बोलते हैं न? ज्ञान की रोशनी से अज्ञान का अंधकार दूर होता है।
ज्ञान से प्रकाशित हो पाओ, उससे पहले प्रज्वलित होना पड़ता है। आग जलती पहले है, रोशनी बाद में देती है। जिसकी ज़िंदगी में भभक नहीं और लपट नहीं, वो क्या खोखला दावा कर रहा है कि वो ज्ञानी है? और ये रिश्ता है ज्ञान का और प्रेम का। ज्ञान प्रकाश है, प्रेम प्रज्वलन है। बिना प्रज्वलन के प्रकाश कहाँ से लाओगे? बताओ! जब जले ही नहीं, तो रोशनी कहाँ से आएगी?
पर यहाँ इतने सारे ठंडे लोग मिलते हैं जिनका दावा होता है कि प्रकाशित हैं। मैं कहता हूँ — ग़ज़ब! इतनी ठंडी ज़िंदगी और दावा ये है कि ज्ञान पूरा है, ज्ञानी बहुत है! और मुँह पे देखो तो ग्लेशियर जमा हुआ है।
ज्ञानी के चेहरे पर आग होती है। उसके भीतर प्रेम जल रहा होता है। ताप उसके चेहरे पर दिखाई देता है, वो प्रेम का ताप है।
उसी ताप को फिर आप चाहो तो तेजस, ओजस — जो बोलना है, बोल लो। अज्ञानी वैसा कि, “बिरहिन ओदी लाकड़ी, सिसके और धुन्धाये।” और ज्ञानी ऐसा कि, “छूट पडी यह विरह से, जो सागरी जरि जाए।।”
बिरहिन ओदी लाकड़ी, सिसके और धुन्धाये। छूट पडी यह विरह से, जो सागरी जरि जाए।।
~ संत कबीर
वो पूरा जल रहा है, उसके अंतस्थल में आग लगी हुई है। उसी आग से पहली बात — प्रकाश होता है तो अज्ञान कटता है। और दूसरी बात — ताप होता है, तो बंधन गलते हैं। ऐसे ही थोड़ी ये बेड़ियाँ गल जानी हैं?
इसके लिए आग चाहिए, और ठंडे लोगों की चीज़ नहीं है अध्यात्म। ज़िंदगी में कोई ऊर्जा नहीं, कुछ नहीं। हर जगह अपने आप को बचाए-बचाए फिरते हैं। सबसे सुरक्षित रास्ता चुनना है। रीढ़ सीधी खड़ी कर के जीवन का सामना करने का साहस नहीं। हमेशा झुके-झुके ही चले और दावा है ज्ञान का! जिनकी कभी रीढ़ नहीं सीधी हो रही। वो अपने आप को किस मुँह से ज्ञानी बोलते हैं?
प्रेम विद्रोह होता है। क्योंकि प्राकृतिक स्थिति आपकी — बंधन, माने अप्रेम की होती है। प्रेम जो आपकी प्राकृतिक जन्मजात स्थिति है, उसके खिलाफ़ बड़ा विद्रोह होता है। उसी आग का प्रकाश ज्ञान बनता है। नहीं होगी वो आग, तो कहाँ से लाओगे दम ये कहने का कि, "अगर इसी को ज़िंदगी कहते हैं, तो नहीं जीना! इसी को चाहना जीवन है? नहीं चाहना! यही सब मानना ज़रूरी है? नहीं मानना!" कहाँ से लाओगे साहस?
नहीं जिऊँगा! नहीं चाहूँगा! नहीं मानूँगा! कैसे कह पाओगे, जब तक भीतर कुछ धधक-सा नहीं रहा होगा?
अभी थोड़ी देर पहले बाहर थे, तो ये पूछने लगा कि आज कितना सोए? इसने एक घड़ी ला कर के दी है, वो नाप लेती है कि कितने घंटे सोए। तो पहले बात दबी रह जाती थी। अब सबको दिख जाता है कि आज कभी 3 घंटा सो रहे, कभी 4 घंटा, 5 घंटा। महीने में एक-आध दो दिन निकले हैं जब 7-8 घंटे की नींद मिली। नहीं तो यही चल रहा है। पूछ रहा — आज के? मैंने कहा, तुम्हें क्या लगता है कि मुझे कोई बीमारी है, इसलिए मुझे नींद नहीं आती?
मैं तुम्हें राज़ की बात बता रहा हूँ। किसी को नहीं बता रहा था। अब सबको बता ही दे रहा हूँ अब तो क्या राज़ है? मैंने कहा — जो तुमने घड़ी दी है न, ये हार्ट रेट भी नापती है। उसमें ऐसे गोल दिल बना हुआ है, लाल। वो बताता रहता है कि कितना है आपका। वो आमतौर पर होना चाहिए कुछ 70-75। इतना ही होना चाहिए न? मैंने कहा, रात में 3-4 बजे सत्र ख़त्म होता है, सुबह 9-10 बजे भी मेरा 90-95 रहता है। वो मेरे लिए सेलिब्रेशन के घंटे होते हैं। मुझे नींद कैसे आ जाएगी?
कोई बहुत ठंडा, मरा हुआ, बुझा हुआ आदमी होगा जो सत्र के बाद सो सकता होगा। सत्र में आग लग जाती है मुझ में। वो मेरे प्रज्वलन का समय होता है। मैं कैसे सो जाऊँ उसके बाद? मेरा पूरा शरीर तप रहा होता है। मुझे कैसे नींद आ जाएगी? इसलिए नींद नहीं आती। और तुम लोग सोच रहे हो, कोई सोच रहा है — इनको मच्छर आ गया। मच्छर भाग! मच्छर ने क्या किया है? कोई लगा हुआ है जाकर कि इनकी टेस्टिंग कराओ। सौ तरह की! इतनी टेस्टिंग कराओगे, तो उसमें कुछ न कुछ चीज़ें ख़राब आ ही जाएँगी। तुम्हें लगता है उन चीज़ों से ख़राब होने से नींद नहीं आ रही? वो बात है ही नहीं!
बात इश्क़ की है! कोई तरीक़ा नहीं है इसके बाद सो जाने का। लाश थोड़ी हूँ — कैसे सो जाऊँ?
कैसे सो जाऊँ, अनहद बाजा बजे सुहाना। अनहद बाजा बजता है — ऐसा बजता है कि सो के दिखा दो! 10,000 वाट के स्पीकर लगे हों, ऐसा बजता है! इसके बाद कोई सो सकता है? कोई तरीक़ा ही नहीं सोने का। इसके बाद तो मुझे नाचना होता है। वो उत्सव है हमारा, वो त्योहार है। दिक्कत इनकी है कि वो त्योहार महीने में 25 दिन हो रहा है। इतनी इनमें क्षमता ही नहीं, एपेटाइट ही नहीं कि उतनी ख़ुशी ये बर्दाश्त कर पाएँ। सारी समस्या ये है कि तुम्हारे पास आनंद के लिए पाचन शक्ति नहीं है। आनंद तुम्हें पच नहीं रहा है।
ये जगह है, ये संस्था हमारी — उनके लिए है जो छोटी-मोटी ख़ुशी से राज़ी न होते हों। जिनके पास एपेटाइट हो हायर प्लेज़र की, और उसी को आनंद बोलते हैं। वो तुम्हारे पास है नहीं। ये मुर्दा, बुझे हुए लोग — ये अपने आप को जवान बोलते हैं। मैं इनसे दुगनी उम्र का हूँ। मैं कहता हूँ — अब सत्र ख़त्म हुआ है, मुझे फेस्टिविटीज़ चाहिए। और यहाँ चारों तरफ़ सुनसान, सुनसान तो कम — श्मशान। मुझे इस सत्र के बाद पार्टी चाहिए भाई। एक मुझे एग्ज़िस्टेन्शियल सेलेब्रेशन चाहिए। उसकी जगह मैं क्या करूँ?
मैं अभी जो कुछ बोल रहा हूँ, ये ज्ञान नहीं बोल रहा है — ये प्रेम ही बोल रहा है। बिना प्रेम के कोई नहीं ज्ञान होता। लोग अलग-अलग आके बताते हैं — ये ज्ञान मार्ग अलग है, प्रेम मार्ग अलग है। कुछ नहीं, बेकार की बात! अपनी ज़िंदगी से बता रहा हूँ — ये दोनों कुछ अलग-अलग नहीं होते, हो ही नहीं सकते। ज़िंदगी खुशगवार हो जाती है, सब दूर हो जाता है।
मैं अब ये जो बोल रहा हूँ इससे ऊँचा क्या होगा? ये अमृत है ज़िंदगी का — मेरी नहीं, सबकी ज़िंदगी का। और यहाँ बैठ के यही ध्यान है मेरा, यही ज़िंदगी है मेरी। लोग कहते हैं मेडिटेशन। मैं मेडिटेशन में ही तो हूँ अभी, और क्या होता है मेडिटेशन?
अब सत्र समाप्त हुआ है। मैं बोलता हूँ "सर चलो, खेलेंगे।" खेलने के लिए व हाँ कोई होता ही नहीं। अब बेचारे उम्र दराज़ हो गए हैं, दर्द हो गया घुटनों वग़ैरह में। सो जाते हैं जल्दी से जाकर। कईयों को मुझ पर दया आती है। कहते हैं, अब ये इन्होंने इतना अभी चार–छ: घंटे बोला है, अब ये खेलेंगे क्या? तो जाने, मुझ पर रहम करके नहीं आते सामने।
एक ये बैठा हुआ, ये इतना सारा खाना लेके आ जाता है। अरे, खाने का होश होता है क्या? पार्टी में खाना खाने जो जाए, वो कौन कहलाते हैं? ओ मोटी तोंद वाले 60 साल वाले अंकल। ख़बरदार! मुझे अंकल समझा तो। जवान आदमी तो पार्टी में नाचने जाता है। और जो 60 साल वाले होते हैं, ये इतनी बड़ी तोंद लेके खाने जाते हैं!
ये मेरी पार्टी चल रही है। ये खाना ले आता है बहुत सारा। मैं कह रहा हूँ — खाना मत लेके आ अभी! सब गंभीर हो जाते हैं बहुत। देखो, अभी तो अध्यात्म का क्षेत्र है, बहुत गंभीर बातें हैं। "हरि ओम!" ना तुम "हरि" का अर्थ समझते, ना "ओम" जानते। क्या ये तुम गंभीर चेहरा बनाकर "हरि ओम" कर रहे हो?
पूरी जान लगाकर कोर्ट पे स्मैश मारो ना — उस आवाज़ को समझना। वो जो आवाज़ आती है जब एक जवान आदमी का हाथ हवा को चीरता है, तो उसमें एक आवाज़ आती है। आवाज़ वैसी होती है जैसी जब तलवार हवा को चीरे तो। तब "ओम" समझोगे। जब तक तुम्हारे आग्रह में, तुम्हारी मुमुक्षा में, और तुम्हारे प्रेम में वो ताक़त नहीं होगी कि तुम हवा को चीरो — तो भी आवाज़ आए — तब तक तुम "ओम" का क्या अर्थ समझोगे?
हम चूँकि मुर्दा और ठंडे लोग हैं, तो हमने अपने ऋषियों की छवि भी ऐसे ही बना ली है। आप देखोगे किस्से–कहानियों में, चित्रों में, पुराणों में, और टीवी सीरियलों में — वहाँ जो ऋषि आते हैं, वो ऐसा होता है कि बस अभी इनकी बात सुन लो — कोई भरोसा नहीं, पाँच मिनट बाद ये होंगे कि नहीं। बहुत ध्यान से, बहुत इज़्ज़त से अभी इनकी बात सुन लो। गिरने ही वाले हैं बस! ऋषियों को ऐसा समझ रखा है। ये सामने अष्टावक्र हैं, जवान आदमी। जब दिल इतनी ज़ोर से धड़क रहा हो, तो नींद क हाँ से आ जाएगी?
और सत्य अगर दिल को नहीं धड़काएगा, तो दिल फिर प्रेम कैसे कर पाएगा? सच के सामने अगर आपका दिल नहीं धड़कता, तो बताओ फिर प्यार किससे करते हो? या सच के सामने बिल्कुल ऐसे शांत हो के और ठंडे होकर बैठ जाओगे?
और दिल धड़केगा जब कंचन–कामिनी सामने आएँगे। जैसे आपका दिल धड़कता है ना, जब सामने बहुत सारा कुछ आ जाता होगा कि कामनापूर्ति की कोई चीज़ आ गई, क्या आकर्षक बदन वाली युवती आ गई? क्या बढ़िया, सुडौल राजकुमार आ गया? या बहुत सारा पैसा आ गया? या कुछ लोगों के लिए खाना आ गया बहुत सारा? या डर लग गया बहुत ज़्यादा? तब भी दिल धड़कता है।
तो जैसे आपका दिल तब धड़कता है, वैसे ही मेरा दिल धड़कता है इन सत्रों में। पहले तो मुझे बस लगता था। जब से वो घड़ी आई है तब से तो प्रमाण आ गया। और वो सेव भी कर दे डाटा, वो सब सेव हो रहा है। जाके जाँच लेना — कि इस दिन इतने बजे सत्र ख़त्म हुआ। उसके के 4 घंटे बाद तक हार्टबीट नॉर्मल नहीं रहती।
नहीं तो सिर्फ़ ज्ञान की बुनियाद पर कैसे तुम उतना बड़ा विद्रोह कर पाओगे, जिसकी आज बात हो रही है? नहीं जीना, नहीं चाहना, नहीं मानना — कैसे कह पाओगे? सिर्फ़ धड़कता हुआ भी नहीं, जलता हुआ दिल चाहिए! तब कह पाओगे। सच ऐसी चीज़ है कि जब सामने आए तो ये ना कहो कि अरे, मैं तो बिल्कुल संयत हो गया, शांत हो गया। कहो — आग लग गई, आग लग गई! पूरा जिस्म जलने लगा!
ये जो आपको सिखा दिया गया है ना — "ठंडा सत्य" — इसी के कारण फिर आज दुनिया में सच्चाई की इतनी हार है। बस नाम का चलता है, “सत्यमेव जयते,” जीतता क्या दिखाई देता है चारों ओर? झूठ। क्योंकि आपको एक ठंडा सत्य बता दिया गया है। तो सत्य वाले सारे लोग क्या करते हैं, वो बैठकर के बस (ताली बजाने का अभिनय करते हुए)।
ये कौन सा सत्य है जिसके सामने बस ये (ताली बजाने का अभिनय करते हुए) कर रहे हो? या छुप-छुप करके कहीं पर जाकर के दो-चार कुछ लिख दिया कि हाँ ठीक है।" उद्घोष कहाँ है? दहाड़ कहाँ है? ज़िंदगी कहाँ है?
अष्टावक्र कह रहे हैं, “कोई बिरला होता है जो ये विद्रोह कर पाता है।” और ये आश्चर्य की बात इसलिए है क्योंकि दुनिया का जो हाल है वो प्रकट सब पर है। आप जिनको अपना आदर्श मानते हो, आप जिनको अनुकरणीय मानते हो — उनकी ज़िंदगी कैसी बीती है, ये आप भी जानते हो। तब भी आपको उन्हीं के पदचिह्नों पर चलना है?
अगर ख़ुद से प्यार होगा तो आदमी कहेगा, "जिनको बर्बाद देख रहा हूँ, उनकी तरह थोड़ी ही जीना है।" और अगर दूसरे से प्यार होगा तो आदमी कहेगा, "देखो, हमारी ज़िंदगी बर्बाद गई। तुम कैसी भी ज़िंदगी जीना, हमारी जैसी ज़िंदगी मत जीना।" माँ-बाप अगर सचमुच ईमानदार होंगे और बच्चों से प्यार रखते होंगे तो कहेंगे, "तुम कैसी भी ज़िंदगी जी लेना, हमारे जैसी मत जीना।"
अगर तुम जानना चाहते हो कि ज़िंदगी में क्या–क्या नहीं करना है तो बस ये देख लो कि तुम्हारे माँ-बाप ने क्या–क्या किया बेटा। ये कहेंगे माँ-बाप — "हमने जो कुछ किया, बस जान लो वही सब कुछ तुमको नहीं करना है अपनी ज़िंदगी में।" उल्टा होता है। जिनकी ज़िंदगी आप बर्बाद देख रहे हो, आप उन्हीं के पीछे–पीछे चल रहे हो। और जिनको अपनी ज़िंदगी में कुछ नहीं हासिल हुआ, वो चाहते हैं अपने बच्चों को भी वैसा ही असफल जीवन विरासत में दे दें।
देखिए, कितनी दूर तक जा रहे हैं अष्टावक्र। अष्टावक्र कह रहे हैं, "कि जिजीविषा से भी आगे निकल जाऊँगा, लेकिन माने जीना ही छोड़ दूँगा। बहुत दबाव डालोगे तो…, बहुत परेशान करोगे तो ये कह देंगे — 'जीना ही नहीं है,' लेकिन वैसे नहीं जिएँगे जैसे तुम जिए हो आज तक। जान ले लो हमारी, लेकिन तुम्हारी तरह नहीं जिएँगे।" समझ में आ रहा है?
ये सब बातें — ये ज्ञान, अध्यात्म, ये श्रीकृष्ण, ये भगवद्गीता, ये अष्टावक्र गीता, ये उनके लिए होते हैं जिन्हें साधारण ज़िंदगी नहीं जीनी। जो थोड़ी सी खुशी में और साधारण संतुष्टि में राज़ी नहीं हैं। जिनकी आकांक्षा बहुत हार्दिक है। जो कह रहे हैं, "पैदा हुए हैं तो पूरा पी के जाएँगे और ज़िंदा हैं तो पूरा जी के जाएँगे।"
यही तो अहंकार की अपूर्णता होती है ना? अगर वो अपूर्ण से राज़ी हो जाए तो? हम बार–बार कहते हैं, "अहंकार अपूर्ण होता है, अहंकार अपूर्ण होता है।" अपूर्ण कौन? जो अपूर्ण से ही समझौता कर ले। "चलो, अपूर्णता है ज़िंदगी में कोई बात नहीं। जैसा चल रहा है बेटा, संतोषम् परम सुखम्।" जो अपूर्ण से ही समझौता कर ले, उसी को तो अहंकार कहते हैं।
आदमी वो जो कहे कि "अगर ज़बरदस्ती करोगे तो जीना छोड़ देंगे।" इसी को सत्याग्रह कहते हैं। सत्य के लिए आग्रह।
छोटी-मोटी बात पर नहीं कि नस काट ली, और फालतू में फीता लटका दिया पंखे से। वो जो नौटंकियाँ, क्लेश घरों में चलते हैं, वो सब नहीं वो बेकार की बात है। सत्याग्रह! सत्याग्रह शब्द आप जोड़ते हो गांधी से। ज़्यादा जोड़ा जाना चाहिए भगत सिंह से। या तो आज़ाद जिऊँगा नहीं तो जिऊँगा ही नहीं।
और "आज़ाद" कह रहे हो तो, चंद्रशेखर आज़ाद। उन्होंने तो ये भी नहीं करा कि अंग्रेज़ फांसी देंगे। बोले, "आख़िरी गोली है। जब तक गोलियाँ थीं, तब तक तुम पर बजाई। अब ये आख़िरी है।" पेड़ के नीचे बैठे हुए थे, इलाहाबाद। "आख़िरी गोली है। मैंने तुम्हें ज़िंदगी में मौका नहीं दिया ख़ुद को छूने का, तो अब कैसे छू लोगे तुम मुझे? आज़ाद परिंदा हूँ — कैसे तुम हथकड़ी बाँध दोगे मुझे? आख़िरी गोली मेरे लिए!" ये है असली आध्यात्मिक लोग।
पर हमने आध्यात्मिक आदमी की छवि क्या बना दी है? "ठंडा, मुर्दा।" क्रांति का और विद्रोह का तो हमने संबंध ही नहीं रखा अध्यात्म से। सत्याग्रह।
संत कबीर मछली के लिए बोलते हैं — क्या? मछली का सत्याग्रह क्या है? "प्राण मेरा समुद्र में है। समुद्र ही मेरा प्रेम है। इतनी सी भी देर को निकालोगे, तो प्राण त्याग दूँगी।"
पल भर को भी जो बिछड़े, झट से त्यागे देह। अधिक स्नेही माछरी, बाकी अल्प स्नेह॥
~संत कबीर
ये होता है प्रेम। थोड़ी भी देर को यहाँ से निकालोगे — जान दे दूँगी। ये कोशिश मत करना, ये उम्मीद मत रखना कि मुझे यहाँ से निकाल भी लोगे और मुझे ज़िंदा भी पा लोगे। मुझे पा सकते हो, बस लाश के तौर पे। लाश मिलेगी मेरी, खा लो मेरी लाश को, पर ज़िंदा नहीं पाओगे मुझे।
तो ज्ञानियों ने इसको वास्तविक प्रेम और उच्चतम विद्रोह का प्रतीक ही बना दिया। वो बोले, चिड़िया तो फिर भी स्वीकार कर लेती है पिंजरे में ज़िंदा रहना। मछली है, जो नहीं स्वीकार करती। मछली कहती है, "पानी के बिना नहीं जिऊँगी।"
ये प्रश्न अपने आप से करिएगा, एकदम खाली होकर बैठिए और अपने आप से पूछिए, "अगर मुझे ये सब बताया नहीं गया होता तो? मैं जैसे भी जी रहा हूँ / जी रही हूँ, कैसे जी रही होती अगर मुझे ये सब बताया नहीं गया होता तो? ना इधर से, ना उधर से कुछ ना पता चला होता तो मेरा क्या होता? मेरा ‘अपना’ क्या होता?” ये प्रश्न बहुत ज़रूरी है।
जिसके जीवन में कुछ नहीं होगा जो पूर्णतया उसका अपना है, आत्मिक है — उसका जीवन बड़ा रसहीन होता है। मैंने कहा ना, आत्मिक है। आत्मा के लिए कहा गया है, "रसो वै सः," उपनिषद् कहते हैं। जीवन में रस तभी होगा, जब जीवन में आत्मा होती है, आत्मिकता होती है। आत्मिकता।
जिसका ज्ञान आत्मिक नहीं है, जिसकी कामना आत्मिक नहीं है उसका जीवन फिर रसहीन होता है। कुछ आ रही है बात समझ में?