प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। आचार्य जी, जैसे मुनि के सामने या ऋषि के सामने जब तक पशु है, तब तक तो प्रकृति से ऊपर उनकी चेतना उठी हुई है। तो मैं जैसे अपने जीवन में देखता हूँ तो एक तरह से लगता है कि जब तक सत्र में रहता हूँ, तब तो लगता है कुछ सही है, लेकिन फिर जो आम जीवन, जब रोज़मर्रा के जीवन में जाता हूँ तो महामाया के दर्शन करने का थोड़ा सा भी प्रयास करता हूँ, तो बेहोशी और सघन होती जाती है, मतलब उल्टा हो जाता है। और कमज़ोर महसूस करने लगता हूँ अपनेआप को।
आचार्य प्रशांत: पशु ऋषि का आश्रम छोड़कर शॉपिंग मॉल नहीं जाते न। मतलब समझिए, अगर चाहते हो कि ऋषि के आशीष की छाया में रहो, तो ऐसी चीज़ की कामना करो ही मत जो उनके आश्रम में मिलती नहीं। जो चीज़ उनके आश्रम में नहीं है उसकी कामना करोगे, तो आश्रम छोड़ना पड़ेगा। आप कह रहे हो, ‘मैं छोड़ देता हूँ, तो फिर मैं विचलित हो जाता हूँ,’ तो छोड़ा काहे को था?
पशुओं की माँग साधारण होती है। मान लो, वहाँ पर एक गाय का बछड़ा आकर बैठ गया। उसको क्या चाहिए? वो ये थोड़े कहेगा कि रोलेक्स की घड़ी चाहिए, तो इसके लिए पहले ऑफिस जाऊँगा, पैसे कमाऊँगा। उसके बाद मॉल जाऊँगा, घड़ी ख़रीद कर लाऊँगा। तो उसको दूर जाने की ज़रूरत ही नहीं है न। आपके पास कामनाएँ बहुत सारी हैं इसलिए आपको आश्रम से दूर जाना पड़ता है।
ऋषि से अगर कभी आप दूर हों तो और कोई कारण होगा ही नहीं, आपमें कामना आ गयी है, कुछ ऐसी कामना आ गयी है जो उस आश्रम में पूरी नहीं हो सकती और ऐसी कामना जो आश्रम में नहीं पूरी हो सकती, वो कामना क्या, वो नर्क ही होगा कुछ। कोई पूरी होने लायक़ चीज़ होती, कोई हितकारी चीज़ होती, तो वो आश्रम में भी उपलब्ध होती। आश्रम में उपलब्ध नहीं है, इसका मतलब वो चीज़ ही ऐसी नहीं है, जो आपको मिलनी चाहिए। आप काहे को छोड़-छोड़कर भागते हो?
इस प्रश्न का मेरे पास कोई उत्तर नहीं आता क्योंकि ये प्रश्न सब पूछते हैं, कहते हैं — जब तक सत्र चल रहा है तब तक सब ठीक है, फिर जैसे ही अपनी ही दुनिया में जाते हैं तो...मैं तो ये कहता हूँ, ‘क्यों जाते हो अपनी दुनिया में? ये अपनी दुनिया क्या है? और आपको अगर जाना ही है अपनी दुनिया में, तो मुझे लेकर चलो। मैं पोर्टेबल (ले जाने योग्य) हूँ पूरे तरीक़े से। मेरे वज़न पर मत जाना, मैं एक फोन में समा जाता हूँ। मुझे लेकर चलो न जहाँ भी जा रहे हो, और मेरा मुँह मत बाँध देना। मुझे लेकर चलो और मुझे बोलने का पर्याप्त मौक़ा देते चलो।
जिस भी दुनिया में जाओगे, वो मेरी दुनिया हो जाएगी। उल्टे-पुल्टे जितने लोग होंगे सब भाग जाएँगे, पर आप जब किसी दूसरी दुनिया में जाते हो, तो वहाँ तो ऐसे हो जाओगे, आचार्य प्रशांत! हू (कौन)! नहीं यार, आई डोंट लाइक दिज़ आचार्य टाइप्स यू नो (मुझे यह आचार्य जैसे पसन्द नहीं, आप जानते हैं) कॉनमैन ऑल ऑफ़ देम।
ये अपनी दुनिया का खेल क्या है? और मैंने कब आपको भरोसा दिलाया है कि आप मुझे छोड़-छाड़कर इधर-उधर भाग जाओगे, तो भी आप सुरक्षित रहोगे भाई? अब वहाँ रॉकेट बरस रहे हैं इज़रायल के ऊपर, उन्होंने पहले से ही प्रबन्ध कर रखा है, बंकर बना रखे हैं। अब कोई बोले कि मैं बंकर में तो जब तक रहता हूँ, तब तक तो कुछ नहीं होता, पर जैसे ही अपनी दुनिया में जाता हूँ, पट् से यहाँ (सिर) पर रॉकेट पड़ता है।
तुमसे कहा किसने है अपनी दुनिया में जाने को? वो बंकर बनाया किसलिए गया था? क्योंकि पहले ही पता है कि बाहर निकलोगे तो बहुत पिटोगे। अब पिट रहे हो बाहर, फिर कहो कि अपनी दुनिया। वो तुम्हारी दुनिया इतनी ही अच्छी होती, तो मैं उस दुनिया का हिस्सा ही होता न।
उस दुनिया से अलग आपके लिए एक सेफ़ हाउस (सुरक्षित घर) बनाया है। आप उस सेफ़ हाउस को छोड़कर के इधर-उधर कूदो, तो मैं क्या करूँ और मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि आप शारीरिक रूप से यहाँ बँधे रहो, शारीरिक रूप से कैसे बँध लोगे? इस वक्त भी शारीरिक रूप से यहाँ पचास जने बैठे हैं, बाक़ी तो सब अपना इधर-उधर वर्चुअल (आभासी) बैठे हैं, लेकिन आप वर्चुअली भी बँधे नहीं रहते। आप मुझे तो अपने अस्तित्व के एक बिलकुल गुमनाम कोने तक सीमित करके रख देना चाहते हो।
ऐप में सुविधा है कि जो कुछ भी आपने लिखा है, उसको वहीं मत लिखो, उसको शेयर भी कर दो। कोई नहीं करता आपमें से। क्योंकि आपको पता है ऐप में कर दो, तो किसी को पता तो चलेगा नहीं। तो यहाँ कर दो तो उससे पुण्य भी मिल जाएगा, आचार्य ने बोला था कि भई, लिख देना, तो मैंने लिख भी दिया और घरवालों को पता भी नहीं चलेगा (व्यंग्य में)।
हम कितने होशियार हैं! दोस्त-यारों को भी नहीं पता चलेगा, बॉस को भी नहीं पता चलेगा, सहकर्मी को नहीं पता चलेगा, हम कितने होशियार हैं! तो एकदम गुमनामी से आकर ऐप में लिख दो। लेकिन अगर कहा जाए कि बेटा, अब जो ऐप में लिखा है, इसको अपने फेसबुक पर शेयर भी कर दो, वो हम नहीं करेंगे। सबको पता चल जाएगा, हमारे गुनाहों की पोल खुल जाएगी।
मैं तो तैयार हूँ आपकी दुनिया में भी आने को। कह तो रहा हूँ कि पोर्टेबल हूँ, लेकर तो चलो मुझको। तब तो जब अपनी दुनिया में जाते हो, तब तो मेरी बात नहीं करनी है। आपकी जितनी बातचीत होती है दफ़्तर में, घर में, मोहल्ले में, लेकर चलो न मुझको वहाँ पर, बनो मेरे प्रतिनिधि कि बात करेंगे तो एक ही बात करेंगे, करो मेरी बात।
ये मेरी दुनिया, अपनी दुनिया का भेद किसने बनाया, वो भेद मैंने बनाया क्या? ये विभाजन रेखा किसने खींची कि यहाँ पर मेरी दुनिया है और सत्र के बाद आपकी दुनिया है? वो किसने भेद बनाया है? बोलो, मैंने बनाया है क्या? मैं उपलब्ध हूँ, आप उपलब्ध नहीं रहते बाबा। मैं तो उपलब्ध बैठा हुआ हूँ।
पड़े हुए हैं पन्द्रह हज़ार वीडियो, जब चाहो बटन दबा दो। मैं उपलब्ध कैसे नहीं हूँ? पर बताइए, मैं आपका बटन कैसे दबाऊँ? आप तो मुझे जब चाहे एक्सेस (पहुँच) कर सकते हैं। बताइए, मैं आपको कैसे एक्सेस करूँ?
आप तो सत्रों में भी नहीं आते। इस वक़्त भी ऐसा होगा कम-से-कम पच्चीस-तीस प्रतिशत लोग (ऑनलाइन प्रतिभागी) यहाँ से नदारद होंगे। मैं तो उपलब्ध हूँ, बताइए आप लोग कहाँ हो? और जो यहाँ होंगे भी अभी देखिएगा, वो सुन लिया है न, चुपचाप सुन लो किसी को पता न चले। अब कहा जाए, अब आये हो, तो अपने आने का ऐलान भी तो करो। ऐलान नहीं करेंगे, मम्मी को पता चल गया तो क्या होगा? बब्बू नाराज़ हो जाएगा, बीवी मारेगी, तब तो ये सब चालू हो जाता है।
मुग़ल-ए-आज़म में डायलॉग था, बड़ा मज़ा आया था, हमारी भी जवानी के दिन थे। तो सलीम अनारकली से बोलता है — फरमाते हैं, वो तो मुग़ल-ए-आज़म हैं भई — बोलते हैं, ‘वो इश्क जो छुपता है और घबराता है, वो इश्क नहीं है, अय्याशी है।‘
तो आपमें से ज़्यादातर लोग तो यहाँ अय्याशी करने आये हो। जिसमें हिम्मत होगी, वो अपनी उद्घोषणा करेगा न। गरजकर बोलेगा, ‘हाँ! ये रही मेरी आशिक़ी!‘ पर आशिक़ी के नाम पर जब अय्याशी की जाती है, तो उसको एक गन्दे राज़ की तरह छुपाकर रखा जाता है, है न? आपमें से ज़्यादातर लोगों के लिए मैं एक गन्दा राज़ हूँ, जिसका आप कभी भी समाज के सामने नाम नहीं लेना चाहते।
फिर कहते हो, ‘अपनी दुनिया में आचार्य जी, जब जाता हूँ तो मैं फिर दुखी हो जाता हूँ।‘ क्योंकि तुमने अपनी दुनिया बनायी ही असूयायुक्त है। तुम अपनी दुनिया में जब सूरज को लेकर नहीं जाते, तो अन्धकार के अलावा वहाँ क्या पाओगे? आपसे नहीं बोल रहा हूँ (प्रश्नकर्ता को सम्बोधित करते हुए), बुरा मत मानिएगा कि आप कहें कि मैं तो ऐसा नहीं करता। मेरे लिए हर कोई प्रतीक होता है, तो आप अभी प्रतीक हैं। कोई मुझे मिले तो उसका कोई डिफॉल्ट नेम क्या है? तुम कौन हो? प्रतीक। सब प्रतीक हैं।
मैं उकता चुका हूँ इस सवाल से। पन्द्रह साल से यही जवाब दे रहा हूँ। ‘नहीं, सत्र तक तो ठीक है, लेकिन बाक़ी जब अपनी रेगुलर लाइफ (नियमित जीवन) में वापस जाते हैं।’ ये रेगुलर लाइफ क्या होती है? मतलब मैं इर्रेगुलर (अनियमित) हूँ? ‘नहीं, जब नॉर्मल लाईफ (सामान्य जीवन) में।’ मैं एब्नार्मल (असामान्य) हूँ? और तुम मेरे पास पर्यटन करने आते हो कि वापस चले जाते हो। आये हो तो ठहर क्यों नहीं जाते? मैं दुकानदार हूँ कि मेरे पास शॉपिंग करने आये हो कि आये, देखा-दुखा कुछ, टटोला कुछ, ख़रीदा, फिर वापस चले गये?
आये हो तो रुक ही क्यों नहीं जाते? और जो यहाँ से चला जाए, मैं अब क्या-क्या उसकी ज़िम्मेदारी ले लूँगा। मैं उसके लिए बस प्रार्थना कर सकता हूँ बस अधिक-से-अधिक, कि अब जा रहे हो, अपना ख़याल रख लेना। मैं और क्या बोलूँ?
डार्क एंड डर्टी सीक्रेट (काला और गन्दा रहस्य) — आचार्य एंड अष्टावक्र। जैसे छुपाकर रखा हुआ है, कभी घर में कोई आकर के देख ले, तो एकदम धक् से हो जाए। नहीं, नहीं, नहीं, मेरा नहीं है, (इनकार में हाथ से संकेत करते हुए)। ये कोई रख गया होगा, पड़ोस वाला कोई रख गया है, मेरा नहीं है, मेरा नहीं है। मैंने नहीं पढ़ी, मैं कसम से बोल रहा हूँ, मैंने अष्टावक्र गीता नहीं पढ़ी। प्लीज़, किसी को बताना मत। (व्यंग्य करते हैं)
क्या करें, दहाड़ते क्यों नहीं हो जाकर के? आपकी ही वो जो दुनिया है न, वो रोशन हो जाएगी। उस दुनिया में ऋषियों का, सन्तों का नाम लेना तो शुरू करो, असुर अपनेआप भाग जाएँगे, क्योंकि उनसे ऋषि का नाम बर्दाश्त नहीं होगा। और जिनकी संगत करनी चाहिए, वो अपनेआप आपकी ओर खिंच आएँगे जैसे ही आप सन्तों, ऋषियों का नाम लेना शुरू करेंगे।
अपनी दुनिया में श्रीकृष्ण को लेकर के तो आओ। जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वही कहा जाता है ऐश्वर्य और विभूता है। क्यों उल्टी-पुल्टी बातें करते हो, ऑफिस में गॉसिप कर रहे हो बिना बात के, कि ये बॉस की टाई देखी? चोरी की लग रही है। क्या है ये? करो न कि अभी मैंने ये तीन अट्ठाईस पढ़ा (श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ३, श्लोक २८) है और मैं तो तीन अट्ठाईस की ही बात करूँगा। तुम्हें जो और बात करनी हो, मैं तो यही बात करूँगा। करो न, अड़ो। फिर देखते हैं कि आपकी दुनिया कैसे रोशन नहीं होती।
यही श्रीकृष्ण ने बोला था न, जितने ये अहंकारी और अज्ञानी, और आसक्त लोग हैं, ये बड़ी तीव्रता से अपना काम करते हैं। आप भी व्हाट्सएप, फैमिली ग्रुप वग़ैरह में होगे। वहाँ जितने ये अनाड़ी, अज्ञानी, बिलकुल किसी दम के ये चाचा, ताऊ होते हैं, वो रोज़ सुबह फूलों के साथ गुड मॉर्निंग भेजते होंगे, लेकिन आपसे ये नहीं करा जाएगा कि आपने जो यहाँ सीखा, जाना, वो उस व्हाट्सएप ग्रुप पर लिखो। चाचा-ताऊ को शर्म नहीं आती कि बुढ़ापे में फूल खिला रहे हैं, लेकिन आपको शर्म आ जाती है कि मैं कैसे बता दूँ कि मैं गीता पढ़ रहा हूँ। तो फिर मैं क्या कर सकता हूँ? फिर अब सम्भालिए अपनी दुनिया।
अभी चौथा अध्याय आएगा, उसमें श्रीकृष्ण बोलेंगे कि भैया, न मैं अच्छा हूँ, न बुरा हूँ। जो मुझे जैसा देखता है, मैं उसके लिए वैसा हूँ। तुम श्रीकृष्ण को चुनोगे, श्रीकृष्ण तुम्हें चुन लेंगे। तुम श्रीकृष्ण को न चुनो, श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘अच्छी बात है! अपना देखो।‘ आप जब श्रीकृष्ण को अपनी दुनिया में लेकर ही नहीं आते, तो श्रीकृष्ण भी कहते हैं, ‘ठीक है भई, तुम्हारी मर्ज़ी, तुम मुझे नहीं ला रहे अपनी दुनिया में, तो कोई बात नहीं, ज़बरदस्ती थोड़ी करूँगा। जिन्हें कुछ न पता हो न, उसकी माफ़ी होती है, जिन्हें सब पता हो, पर हिम्मत न हो, उसकी कोई माफ़ी नहीं होती।
जिसे श्रीकृष्ण मिले नहीं, कबीर साहब मिले नहीं, अष्टावक्र मिले नहीं, उसको तो क्या दोष दें, मिले ही नहीं। पर जिसको मिल गये हैं और उसके बाद भी वो उनका बुलन्दी से ऐलान नहीं कर रहा, उनको अपनी दुनिया में सिर्फ़ ला ही नहीं रहा, उन्हें अपनी दुनिया का मालिक नहीं बना रहा, उसको माफ़ी नहीं मिलेगी। यही क़ीमत चुकानी होती है। इनको जान जाओगे तो इनको अपनी दुनिया में लाना पड़ेगा और इन्हें अपनी दुनिया का मालिक बनाना पड़ेगा।
और फिर ये कुछ भी करें, वो झेलना भी पड़ेगा। भला-बुरा कहा जाए तो उठ नहीं भागिए, उठ भागे सो रार। रार महा नीच है। आगे की मुझे याद नहीं है। केवल (एक श्रोता की तरफ़ संकेत करते हुए) को याद होगी।
जिसमें फिर गुरु के प्रति क्रोध आ गया कि गुरु ने मुझे भला-बुरा बोल दिया, मैं उठकर भाग रहा हूँ। रार महा नीच है। तब भी होता रहा होगा, वरना भजन में नहीं आता। तब भी ऐसे रहे होंगे। यहाँ भी तो यही होता है। कोई सवाल पूछे, उसको डाँट दूँ, कहता है, ‘हाँ, अब नहीं करूँगा।‘ कहीं आप भी तो नहीं भाग-वाग जाएँगे (प्रश्नकर्ता से पूछते हुए)?
उससे बड़ा अभागा कोई होगा, जिसको ज्ञान बताया जाए और उसमें क्रोध उठ आये। और ज्ञान तो जब भी बताया जाएगा — ज्ञान का मतलब ही होता है — अज्ञान का पर्दाफ़ाश। अज्ञान का पर्दाफ़ाश होगा, तो क्रोध तो आएगा। उसी क्रोध को रोकना ही तो मर्यादा है।
आपकी दुनिया की हम कोई गारंटी नहीं लेते। डिस्क्लेमर (अस्वीकरण)। हम सिर्फ़ अपनी दुनिया के लिए ज़िम्मेदार हैं, या तो हमारी दुनिया को अपनी दुनिया बना लीजिए, फिर हम आपकी दुनिया की भी ज़िम्मेदारी ले लेंगे। क्यों भई, जब पेशेंट (रोगी) हमारे यहाँ एडमिट (भर्ती) ही नहीं हो रहा, तो हम कैसे ज़िम्मेदार हो गये?
हर हफ़्ते आता है, आधे घंटे ओपीडी में बैठकर भाग जाता है, आधे घंटे नहीं तो मान लो चार घंटे, रात में दस से दो। ऐसे पेशंट की कौन ज़िम्मेदारी लेगा, जो रात में दस से दो ओपीडी करता है और भाग जाता है।
कहते हैं, एडमिट हो जा, एडमिट होने को तैयार नहीं और भाग कर कहाँ जाता है? पता नहीं कहाँ-कहाँ जाता है। पूरे हफ़्ते वो जाकर के अपना नर्क बनाता है, नाश कराता है और फिर अगले सत्र में दस से दो वापस आ जाता है, ओपीडी में आकर बैठ जाता है, हम क्या करें? हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है। और एडमिट हमारे यहाँ मत होओ, हम कह रहे हैं, डॉक्टर को अपने घर ले चलो।
हम तो बेशर्म की तरह तैयार बैठे हैं, कोई बुलाये तो, चलो, ले चलो। अपनी पूरी ज़िन्दगी आपके फोन में डाल दी है और जो आपके फोन में डाल दिया है, उसके अलावा हमारी ज़िन्दगी में कुछ नहीं है। अब बताइए, और कैसे हम अपनेआप को आपके सुपुर्द कर दें? कर तो दिया।
श्रोता: ऐसे ही चोट करते रहिए आचार्य जी।
आचार्य जी: नहीं, नहीं करेंगे, हम नहीं करेंगे। जो हमारे हॉस्पिटल में हैं, उसी पर करेंगे (मुस्कराते हुए)। हम कूद-कूदकर थोड़ी ही जाएँगे, आप शॉपिंग मॉल में बैठे हों, फ़लाने बार में बैठे हो, वहाँ हम चोट करें। इतना नहीं टाइम है फ़ालतू। जो हमारा, हम उसके। उनका क्या, जो इधर-उधर खिसकें।