सच्चा गुरु मिलता क्यों नहीं?

Acharya Prashant

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सच्चा गुरु मिलता क्यों नहीं?
जो भीतर के अंधेरे को हटा सके उसके लिए नाम दिया गया गुरु। गुरु शब्द का इतना महत्त्व है कि सिखों ने मंदिर को नाम दिया गुरुद्वारा। गुरु नानक साहब उच्चतम कोटि के और असली गुरु हैं, पर कितने लोग हैं जो वास्तव में गुरु नानक साहब के जीवन पर और उनकी सीख पर चल रहे हैं? जो एक से बढ़कर एक अंधविश्वास के विक्रेता हैं, उनको हमने नाम दे दिया गुरु का। आपकी उच्चतम संभावना को जो अभिव्यक्ति देने में मदद कर सके, उसका नाम गुरु है। बहुत खोजें, बहुत संदेह से भरे रहें, परीक्षण करें, यूँ ही किसी को गुरु मत बना लीजिए। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। आने वाले कुछ दिनों में ही देश-विदेश में गुरु नानक जी को समर्पित पाँच-सौ-पचासवाँ प्रकाश पर्व मनाया जाएगा। गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं में ‘गुरु’ शब्द का सदैव महत्त्व रहा है। और जो आपसे सीखने को मिला है, उसमें भी यह बात तो स्पष्ट हो ही गई है कि आज के युग के साधक के लिए बिना गुरु, डगर बड़ी कठिन है।

आचार्य जी, जिस संस्कृति में, जिस शहर में मैं रहती हूँ, वहाँ हर कोई गुरु बना बैठा है। कोई मोटिवेशनल गुरु है, कोई मार्केटिंग गुरु है, कोई इस बात का गुरु है तो कोई उस बात का गुरु है। आज आपसे यह समझना चाहती हूँ कि गुरु नानक देव जी में और जो आज हज़ारों की संख्या में गुरु बने घूम रहे हैं, उनमें मूलभूत क्या अंतर था, और मुझ जैसे लोग कैसे समझ सकते हैं उस अंतर को, और कैसे स्पष्टतापूर्वक चुनाव कर सकते हैं।

आचार्य प्रशांत: जो भीतर के अँधेरे को हटा सके, उसके लिए नाम दिया गया ‘गुरु।’ अब उस शब्द का जनमानस दुरुपयोग कर ले तो वह अलग बात है। ध्यान दीजिएगा, भीतर का अँधेरा, और भीतर के अँधेरे का ही नाम होता है — मैं भाव। ‘मैं, मेरा संसार, मेरे इरादे, मेरी इच्छाएँ, मेरी उम्मीदें, मेरे हर्ष-विषाद’ — जो इन पर प्रकाश डाल सके, उसका नाम गुरु है। जो बता सके कि, आपके परेशान संसार के मध्य, जो मूल परेशानी बैठी हुई है उसका नाम ‘मैं’ है, उसी का नाम गुरु है।

‘मैं’ कौन? जो शरीर से संबंध रखता है। ‘मैं’ कौन? जो दुनिया भर की सूचना और ज्ञान रखता है। ‘मैं’ कौन? जिसके सब रिश्ते-नाते, संबंध वग़ैरह हैं। अब ‘मैं’ का शरीर से रिश्ता है, ठीक। गुरु का काम है ‘मैं’ की बात करना। शरीर तो वो वस्तु भर है, विषय भर है जिससे ‘मैं’ जुड़ा बैठा है।

शरीर की देखभाल अपने आप में एक वाजिब, एक वैध विषय है। लेकिन अगर आप शरीर की ही देखभाल की बात कर रहे हैं, तो आप चिकित्सक तो कहला सकते हैं शरीर के, गुरु आपको कहना बात गड़बड़ हो जाएगी। और चिकित्सक का काम महत्त्वपूर्ण है। चिकित्सक के काम को सम्मान मिलना चाहिए, पर फिर चिकित्सक, चिकित्सक होता है और उसके पास फिर चिकित्सा की समझ-बूझ और ज्ञान होना चाहिए, वैज्ञानिक दृष्टि होनी चाहिए, अनुसंधान का, प्रयोग का उसका रुख, उसका नज़रिया होना चाहिए। वो विज्ञान का क्षेत्र फिर आ गया, कि शरीर को समझो, शरीर की देखभाल करो। तो अगर शरीर की ही उन्नति में हमारी रुचि है, तो जो व्यक्ति शरीर की बेहतरी की बात करे और शरीर की बेहतरी के सूत्र बताए, वो फिर चिकित्सक कहलाए, गुरु नहीं।

इसी तरीके से ‘मैं’ संबंध बना लेता है धन-दौलत से। और जो जीव संसार में रह रहा है उसके लिए धन-दौलत उपयोगी है, यहाँ तक कि उसकी मुक्ति के मार्ग में भी धन-दौलत की उपयोगिता हो सकती है। तो ‘मैं’ है जो संबंध बनाता है शरीर से, ‘मैं’ है जो संबंध बनाता है संपदा से।

हमने कहा, शरीर की बात करना ठीक है, पर जो शरीर की बात करे, वो गुरु तो नहीं है। वो एक उपयोगी काम कर रहा है समाज में, पर गुरु नहीं है। इसी तरीके से अगर कोई है जो आपको पैसा कमाने का हुनर सिखा रहा है, तो वो कोई गलत काम नहीं कर रहा है, काम उसका उपयोगी है। लेकिन अपने आप को अगर वो गुरु कहने लग गया, तो ये उस शब्द की मर्यादा के साथ खिलवाड़ है।

आप कह दें, ‘स्टॉक मार्केट गुरु।' तो ये गलत हो गया। इसका अर्थ ये कतई नहीं है कि वो व्यक्ति जो काम कर रहा है, वो निम्न कोटि का है, हेय है, नहीं ये नहीं कहा जा रहा। बस ये कहा जा रहा है कि वो जो काम कर रहा है, वो गुरु का काम नहीं है। वो ठीक है, वो कुछ शिक्षण आदि कर रहा है, वो ठीक है, कह दीजिए।

इसी तरीके से दुनिया में अन्य कई विषय होते हैं, जिन्हें ‘मैं’ पकड़ लेता है। गुरु का काम उन विषयों की बातचीत करना नहीं है। गुरु का काम ये नहीं है कि उन विषयों को लेकर ‘मैं’ को और पारंगत कर दे ताकि ‘मैं’ उन विषयों का और ज़्यादा दोहन कर सके। ये बिल्कुल गुरु का काम नहीं है। गुरु का काम ये नहीं है कि आप जुड़े हुए हैं, मान लीजिए पैसे से, तो उसने आपको और ज्ञान दे दिया कि पैसा और ज़्यादा कैसे बनाना है। और इस ज्ञान का फिर ‘मैं’ क्या उपयोग करेगा? वो और ज़्यादा उस विषय से जुड़ जाएगा। ‘मैं’ इस ज्ञान का यही उपयोग करेगा न, कि वो और ज़्यादा उस विषय से जुड़ जाएगा, क्योंकि अब तो पारंगत हो गया भाई पैसा बनाने में। तथाकथित गुरुजी ने ज्ञान दिया था, वो और जुड़ जाएगा पैसे से। ये तो अँधेर हो गया न।

गुरु का काम है ‘मैं’ को स्वच्छ कर देना, उसकी पूर्णता, उसके कैवल्य में स्थापित कर देना, कि ‘मैं’ को अब किसी सहारे की ज़रूरत पड़े नहीं।

लेकिन उसकी जगह आपने उसको पैसा बनाने का और ज्ञान दे दिया, तो वो तो और जुड़ गया। इसी तरीके से ‘मैं’ का पहला तादात्म्य होता है शरीर के साथ। तो मन में लगातार शरीर तो घूमता ही रहता है। गुरु का काम है ‘मैं’ को शरीर के महत्त्व की धारणा से मुक्ति दिलाना। ये जो ‘मैं’ है, इसकी दृष्टि में शरीर बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। ये ‘मैं’ किसी से भी जुड़े तो सबसे पहले किससे जुड़ता है? अपने शरीर से। जिससे भी जुड़ता है, शरीर के माध्यम से ही जुड़ता है न। और किसी व्यक्ति से भी जुड़ेगा तो पहले अपने शरीर से जुड़ा होगा, उसके माध्यम से उस व्यक्ति से जुड़ेगा।

तो ‘मैं’ की पहली आसक्ति होती है, अपना ही शरीर। ‘मैं’ को निरंतर विचार किसका चलता रहता है? ‘मैं’ लगातार महत्त्वपूर्ण किसको मानता रहता है? अब अगर गुरु जी ऐसे हैं जो बार-बार शरीर की ही बात कर रहे हैं, कि ये खाओ तो ये हो जाएगा, ऐसे चलो, ऐसे पियो, इतने बजे उठो, तो वो तो ‘मैं’ की नज़र में शरीर का महत्त्व और बढ़ाए दे रहे हैं या घटा रहे हैं?

श्रोता: बढ़ा दे रहे हैं।

आचार्य प्रशांत: तो अर्थ का अनर्थ हो गया न, ये तो बीमारी को और बढ़ाने का काम हो गया। शिक्षण तक ठीक है, शिक्षक कहा जा सकता है, पर गुरु नहीं। ‘गुरु’ शब्द ज़रा टेढ़ा है, ऐसा नहीं कि कोई भी उसे पकड़ लेगा। शिक्षक ठीक है, शरीर की शिक्षा दे दी, धन-दौलत की शिक्षा दे दी, दुनिया के तमाम विषय हैं उनकी सूचना दे दी, शिक्षण तक ठीक है, गुरु नहीं।

गुरु तो बस वही, जिसकी नज़र सिर्फ़ एक इकाई पर रहे। किस इकाई पर? ‘मैं’ पर। और वो प्रयासरत रहे ‘मैं’ की मुक्ति के लिए। और किससे मुक्ति चाहिए ‘मैं’ को? उन सब विषयों से जिनको ‘मैं’ पकड़कर के रखता है। उन विषयों की जो बात करे, उसका नाम हुआ ‘शिक्षक।’ और उन विषयों की बात करना भी मैं कह रहा हूँ महत्त्वपूर्ण निश्चित रूप से है, लेकिन उन विषयों की जो बात करे, उसे ‘गुरु’ नहीं कहा जा सकता। गुरु वही है, जो ‘मैं’ को उन विषयों से आज़ादी दिला दे, जो ‘मैं’ को इस थोथी, झूठी और कष्टकारी भावना से मुक्त कर दे कि बिना विषयों को महत्त्व दिए चला ही नहीं जा सकता।

और ये भाव हम सबमें बड़े प्रगाढ़ रूप से बैठा होता है न, कि जिससे हम जुड़े हैं उसको महत्त्व नहीं दिया तो न जाने क्या नुकसान हो जाएगा हमारा। और ये भाव ही हमें जीने नहीं देता। ये भाव ही सब दुखों का कारण है, कि जुड़े बिना, निर्भर हुए बिना गुज़ारा नहीं है। गुरु वो जो इस भाव से मुक्ति दिला दे, जो ‘मैं’ की अपूर्णता को झूठा साबित कर दे। समझ रहे हैं?

लेकिन आदमी के खेल बड़े निराले हैं। गुरुता से कोई सरोकार न रखना पड़े इसके लिए आदमी ने फिर शिक्षक को ही गुरु का नाम दे दिया, नहीं तो बड़ी तकलीफ़ होती है स्वीकारने में कि जीवन में गुरु कोई है नहीं। तो फिर किसी को भी कह दिया, गुरु है।

ये जो गुरु शब्द के साथ व्यभिचार किया हमने, वो इसीलिए किया ताकि असली गुरु से बच सकें। और कोई आ जाए ऐसा, जो वास्तव में असली गुरु के संपर्क में हो, तो उसके सामने हम भी शान से खड़े होकर कह सकें, ‘हम भी जानते हैं कुछ गुरुओं को। हमारे जीवन में कोई कमी थोड़ी है, हमारे पास भी गुरु हैं।’ असली से किसी तरह कन्नी काट सकें, इसके लिए हमने नकली का निर्माण कर दिया और नकली को नाम दे दिया असली का। नकली को असली का नाम नहीं दोगे तो नकली को क्या नकली कहकर स्वीकार करोगे? बड़ी दिक़्क़त हो जाएगी न। नकली भी चल सके इसके लिए उसका नाम क्या होना चाहिए? असली।

गुरु नानक साहब की अभी प्रश्नकर्ता ने बात करी, खरे, उच्चतम कोटि के और असली। पर कितने लोग हैं जो अभी वास्तव में गुरु नानक के जीवन पर और उनकी सीख पर चल रहे हैं? वास्तव में? कम हैं न? नाम सबने सुन रखा है, पर नानक साहब हों, कबीर साहब हों, पूछा जाए कि बताना ज़रा उनकी वाणी, उनका वाङ्मय, उनका शब्द, उनका साहित्य कितनों ने पढ़ा है? तो हम कहेंगे, हमने तो नहीं पढ़ा। हाँ, हम उनकी इज़्ज़त खूब करते हैं, पर हमने उनको पढ़ा नहीं, उनको जाना नहीं। तो क्या पढ़ा? क्या जाना? वो और बहुत हैं, उनको हम जानते हैं। और हैं, बहुत हैं, उनको हम जानते हैं। ये दोनों चीज़ें साथ-साथ चल रही हैं, अगर ग़ौर से देखेंगे तो समझ जाएँगे कि इन दोनों चीज़ों में फिर संबंध क्या है। नकली गुरु को जानना और उसके साथ समय बिताना बहुत ज़रूरी है ताकि असली से बचे रह सको।

और जैसा कि कहा प्रश्नकर्ता ने कि बहुत हैं जो बोल रहे हैं, बहुत हैं जो घूम रहे हैं। आप अगर ग़ौर से देखेंगे कि आपके मन का कितना हिस्सा इन सब समकालीन गुरुओं ने घेर रखा है तो आपको पता चलेगा — काफ़ी बड़ा हिस्सा। वो मीडिया में हैं, वो टी.वी. पर हैं, वो सब जगह हैं। उतना बड़ा हिस्सा गुरु नानक साहब ने थोड़े ही घेर रखा है।

हमने किया क्या है? हमने नानक साहब जैसों से उनका वाजिब हिस्सा छीन कर, दे दिया है नकली गुरुओं को। मन के जिस हिस्से पर अधिकार होना चाहिए था बाबा फ़रीद का, बाबा बुल्ले शाह का, कबीर साहब का, रैदास साहब का, दादू दयाल का, संत लल्लेश्वरी का, कृष्णों का, बुद्धों का, महावीरों का। मन के जिस हिस्से पर अधिकार होना चाहिए था असली गुरुओं का, किसी शंकराचार्य का, किसी दत्तात्रेय का, मन के ठीक उसी हिस्से पर हमने अधिकार दे दिया है…।

मन हमारा अनंत तो है नहीं न, कि उसमें सबके लिए जगह होगी, मन तो सीमित है। और मन के पास समय भी सीमित है, और ऊर्जा भी सीमित है, वो ऊर्जा आप सबको तो नहीं दे सकते न। एक को देंगे तो दूसरे से छीनकर ही देंगे। यूँ ही किसी चलते-फिरते को दे दी, तो जो उच्चतम कोटि के थे, उनसे छीनकर ही दी होगी जगह आपने।

सावधान रहें, आपके समय पर किसी का अधिकार है, आपका समय आपका नहीं है। अपने समय को उसी को दें जिसका उस समय पर वाजिब अधिकार है।

नहीं तो बात नाइंसाफ़ी की हो गई न, किसी ऐसे को आपने बहुत कुछ दे डाला जो हक़दार ही नहीं था उतना कुछ पाने का। और हक़ के मापदंड क्या हैं मैंने बता दिया, आचार्य शंकर, दत्तात्रेय, कबीर साहब, नानक साहब — ये मापदंड हैं, ये पैमाने हैं, ये स्टैण्डर्ड्स हैं। इनके सामने रखकर मापना होगा कि अधिकारी कौन है। ये अधिकारी हैं। जो इनके जैसा हो, जो इनके समकक्ष हो, समतुल्य हो, वो अधिकारी है बाक़ी तो सब यूँ ही, बहुत आते हैं, बहुत जाते हैं। लेकिन जो अधिकारी नहीं है, वो जानता है कि वो अधिकारी नहीं है, तो फिर वो कई तरीकों से नाजायज़ क़ब्ज़ा करना चाहता है उस जगह पर जहाँ उसे होना ही नहीं चाहिए।

कौन-सी जगह है वो? आपका मन। और उस जगह पर क़ब्ज़ा करने के लिए वो ये प्रचार भी कर सकता है कि जो पुराने सब जितने गुरु हुए थे, उनकी बातें अब झूठी और फीकी और पुरानी पड़ गईं, और उनको सुनने की अब कोई ज़रूरत ही नहीं है। पुराने शास्त्र पढ़ने की कोई ज़रूरत नहीं है, आओ, हम तुमको नया अध्यात्म सिखाते हैं।

आप देख नहीं रहे, कि ये क्या कहा जा रहा है? आपको दिख नहीं रहा कि ये बस एक चाल है? ऊँची जगह ऊँचों को ही दीजिए। बाक़ी जीवन के कई आयाम होते हैं, और हर आयाम में कुछ लोगों को जगह देनी होती है, जिसकी जो जगह है, उसे बेशक दें। पर जूते को सिर पर तो नहीं रखा जाता न। जूता हम फेंक भी नहीं देते कि बेकार की चीज़ है, पर जूते को वहीं पहनिए जहाँ जूते का स्थान है। और उसका भी एक वाजिब स्थान निश्चित रूप से है। लेकिन ये मत कर लीजिएगा कि जूते को सिर पर बैठा दिया और कह दिया, ‘गुरु।’ और जूता भी ज़ोर-ज़ोर से कह रहा है, ‘हाँ, मैं ही गुरु हूँ और गुरु नहीं, मैं गुरुओं से भी आगे का हूँ। और मैं ही एकमात्र गुरु हूँ, और कुछ तुम पढ़ मत लेना, तुम सुन मत लेना कुछ।’

समझ में आ रही है बात?

आप जो भी कुछ सीखना चाहते हैं, सीखें। आपको विपणन सीखना है, मार्केटिंग, आप मार्केटिंग सीखें। पर जो आपको मार्केटिंग सिखाता हो, उसको ‘मार्केटिंग गुरु’ मत कह दीजिएगा। इस शब्द की गरिमा का ख़्याल रखें, ये हल्का शब्द नहीं है कि गए और किसी की पीठ पर एक धप्पा मारा और कहा, ‘और गुरु, क्या चल रहा है?’ ये अधार्मिकता हो गई। कुछ बातें मज़ाक की नहीं होतीं, कुछ शब्दों का हल्का प्रयोग नहीं करना चाहिए। ‘गुरु’ उन शब्दों में सर्वोपरि है।

कोई आपको जुआ खेलना सिखाए, और आप कहें, ‘ये गुरु हैं मेरे।’ जो कि आप कह भी देते हैं। ये पाप-सा हो गया। कह देते हैं कि नहीं? जिम जा रहे हैं, वहाँ आपका फिटनेस इंस्ट्रक्टर है, उसको आप कह रहे हैं, ‘मैं इनको गुरु मानता हूँ।’ काहे भाई? गुरु वो जो तुम्हारा पाँच किलो वज़न कम कर दे? ऐसा गहरा देह-भाव! कोई आकर आपको हठ-योग के आसन और क्रियाएँ और मुद्राएँ वग़ैरह बता रहा है, उसको भी गुरु नहीं कहा जा सकता। उसको आप अधिक से अधिक कह दीजिए कि योग-इंस्ट्रक्टर, प्रशिक्षक है, योग-प्रशिक्षक है, गुरु नहीं हो गया। बात समझ में आ रही है?

और ऐसा नहीं कि ये हम जानते नहीं कि कुछ शब्दों की गरिमा होती है और उनको मज़ाक में नहीं इस्तेमाल करते। किसी को भी कह देते हैं क्या, कि ये मेरी प्रेमिका है? और अगर स्त्री हैं आप, तो किसी को भी कह देती हैं कि यही तो मेरे परम-प्रेमी हैं? नहीं न? वहाँ हमें इतना ख़्याल रहता है कि हर शब्द हर किसी पर लागू नहीं होता। चली जा रही हैं आप, किसी को भी कह देंगी, ये पति हैं मेरे? तो गुरु का दर्जा तो पत्नी और पति इन सबसे ऊँचा होता है। जब आप किसी को भी, न प्रेमी, न प्रेमिका, न पति, न पत्नी बोल देती हैं, तो फिर आप किसी को भी गुरु कैसे बोल देती हैं?

ठीक वैसे ही जैसे हमने आज सब ऊँचे शब्दों को बिल्कुल रौंद डाला है पैरों तले। जैसे ‘प्रेम’ या ‘लव,’ कुछ भी होता है न कह देते हैं, ‘आई लव दिस, आई लव दैट।’ जबकि ऊँचे से ऊँचा शब्द है, उसको हल्के में, मज़ाक में, कैज़ुअली इस्तेमाल नहीं करते, पर कर देते हैं। वैसे ही फिर हम ‘गुरु’ शब्द को भी नहीं छोड़ते।

‘गॉड’ शब्द को भी कहाँ छोड़ा है? ‘द गॉड ऑफ क्रिकेट।' क्या चल रहा है भाई? ‘दिस वज़ अ गॉड-लेवल आर्ग्युमेंट।’ तुम ‘गॉड’ का लेवल जानते हो? ‘गॉड-लेवल शॉट, गॉड-लेवल आर्ग्युमेंट, गॉड पार्टिकल।’ कुछ भी, किसी भी क्षेत्र में, कहीं का भी हो, ‘गॉड’ शब्द घुसेड़ दोगे, ‘सेक्स-गॉडेस।' क्या? क्या चाट रखा है? किस स्कूल में भाषा और व्याकरण पढ़ा था? जो आदमी इन शब्दों का सम्मान नहीं कर सकता, जो आदमी इन शब्दों को यूँ ही चिल्लर की तरह लुटाता फिरता है, वो आदमी अपना सम्मान नहीं करता।

‘गुरु’ क्या है?

आपकी उच्चतम संभावना को जो अभिव्यक्ति देने में मदद कर सके, उसका नाम गुरु है। अगर गुरु को आपने मज़ाक की चीज़ बना दिया, तो आप गुरु का मज़ाक नहीं बना रहे, आप अपना मज़ाक बना रहे हैं। आप कह रहे हैं कि मेरी जो उच्चतम संभावना है, वो मज़ाक की बात है। और बहुत लोग हैं ऐसे, जिन्हें ऊँचाइयों से कोई प्रेम ही नहीं, जिन्हें ऊँचाइयों की कोई आस ही नहीं। जब ऊँचाइयों से प्रेम नहीं, ऊँचाइयों की आस नहीं, तो फिर गुरु का भी ज़ाहिर है कोई महत्त्व नहीं। फिर आपके लिए आसान हो जाता है ‘गुरु’ शब्द को लतीफ़ा बना देना।

गुरु तो ऐसा है जैसे सीढ़ी, एलिवेटर जो आपको सीधे लिफ्ट करा दे ऊपर तक ले जाए। उसका सम्मान कौन करेगा? उसकी प्रतीक्षा कौन करेगा? उसके सामने धैर्यपूर्वक खड़ा कौन रहेगा? जिसको ऊपर जाने की आस हो, जिसको ऊँचाइयों से प्रेम हो। जिसको ज़मीन पर ही लोटना है, जिसको धूल ही फाँकनी है, उसके लिए तो आसान है कि ‘गॉड’ हो, कि ‘लव’ हो, कि ‘गुरु’ हो, इन सबको चुटकुला बना दे बस। आप मत बनाइएगा चुटकुला। बड़े मज़ेदार चुटकुले बनते हैं, आप ज़रा बच के रहिएगा।

एक बात और कही जाती है कि गुरु शब्द का अगर इतना ही महत्त्व है कि सिखों ने मंदिर को नाम दिया गुरुद्वारा। गुरु शब्द का अगर इतना ही महत्त्व है कि उन्होंने मंदिर को बड़ा सुंदर और शुभ नाम दिया। क्या? गुरुद्वारा। अगर गुरु शब्द में इतनी ही गरिमा, इतनी ही ऊँचाई है, तो आजकल ये जितने गुरु हैं, ये वैसे क्यों हैं जैसा इनके बारे में पता चलता रहता है?

ये प्रश्न ही प्रश्नकर्ता के ऊपर मोड़ दिया जाना चाहिए। जैसे अभी मैं कह रहा हूँ कि गुरु शब्द का मज़ाक आप बनाते हैं। जैसे अभी मैं आपको आगाह कर रहा हूँ कि किसी को भी गुरु मत मान लीजिएगा। तो स्पष्ट ही है न कि किसी को भी गुरु बनाता कौन है? कौन बनाता है? आप ही बनाते हैं न। आप ही गुरु बनाते हैं किसी को भी, बिना योग्यता परखे, बिना पात्रता का परीक्षण करे, बस चकाचौंध और अंधविश्वास में बह करके।

तभी तो मैं आपसे कह रहा हूँ न कि यूँ ही किसी को गुरु मत बना लीजिए। पैमाना है आचार्य शंकर, जो उस प्रतिभा का हो, उसको कहिएगा — गुरु। पैमाना है अष्टावक्र, जो उस ऊँचाई का हो कि जनक जैसे राजा को दीक्षित कर सके, उसको कहिएगा — गुरु। तो सवाल तो फिर आप पर है न कि अष्टावक्र जैसों को छोड़कर के आपने क्यों किसी को भी गुरु मान लिया?

ये जितने लोग हैं जिनका नाम ले लेकर अब आप कहते हैं कि “नहीं साहब, गुरु में ख़ास क्या है? सब गुरु पकड़े जाते हैं, जेल जाते हैं।” तो मैं पूछ रहा हूँ उनको गुरु बनाया किसने? बोलिए। कोई विश्वविद्यालय की डिग्री तो है नहीं गुरुता की, कि आप कहें उस विश्वविद्यालय ने उनको गुरु बनाया। किसी को भी गुरु कौन बना देता है? वो लोग न, जो आँख मूँदकर उनके पीछे चल देते हैं।

और यही आपको समझा रहा हूँ, आँख मूँदकर यूँ ही पीछे मत चल दीजिए, गुरु शब्द बड़े वज़न का है। हर किसी के साथ इस शब्द को मत जोड़ दीजिए। ‘भारत रत्न’ हो जाने से भी ज़्यादा ऊँची और विरल बात है गुरु हो पाना। सब ‘नोबेल प्राइज़’ फीके हैं गुरुता के आगे। आप यूँ ही किसी को भी गुरु मानते हैं, पहले आपने गलती करी और फिर आप ही कहते हैं कि देखो ये तो गुरु थे और ये तमाम तरह के काण्डों में पकड़े गए।

भाई, अगर वो पकड़े गए तो उनकी जो भूल है, सो है। उनसे दस गुना ज़्यादा बड़ी भूल किसकी है? उनकी है न जिन्होंने गुरु शब्द की महत्ता का कुछ ख़्याल ही नहीं रखा, कुछ जाँचा नहीं, कुछ परखा नहीं। जैसे कि ‘भारत रत्न’ यूँ ही राह चलते किसी पर भी न्योछावर कर दिया जाए, ऐसा होता है क्या? ‘भारत रत्न’ तो छोड़ दीजिए, ‘पद्मश्री’ भी ऐसे मिलता है क्या? वहाँ भी बहुत जाँचा जाता है, बहुत परखा जाता है। आपने कैसे यूँ ही कहीं भी जाकर के कतार लगा दी? कैसे?

और फिर जब वहाँ पता चला कि मामला खोखला था, तो फिर आपको बहाना मिल गया ये कहने का कि गुरु शब्द ही खोखला है। अरे, गुरु शब्द खोखला है या आपका चुनाव खोखला था? बताइए।

श्रोता: चुनाव।

आचार्य प्रशांत: आपने गलत जगह जाकर के गलत चुनाव किया न। और गलत चुनाव हम क्यों करते हैं, उसकी बात हम कर चुके हैं, नकली के पास जाना ज़रूरी हो जाता है असली से बचने के लिए।

कौन पढ़े ग्रंथों को? कौन जाए श्रीकृष्ण के पास? कौन मेहनत करे स्वाध्याय की? इससे अच्छा, चलो कहीं जाकर के कुछ सुन लो, सत्संग में बैठ लो, टी.वी. पर देख लो, यूट्यूब लगा दो। और कौन मेहनत करे अपने जीवन को बदलने की और सुधारने की। यूँ ही जाकर के किसी के सामने बैठ जाओ, दो घंटे कुछ बातें सुन लीं, मन ज़रा हल्का हो गया, अपने आप को दिलासा दे दिया कि चलो हमने भी कुछ नेकी का, कुछ पुण्य का काम कर लिया।

जैसे कहा जाता है न कि लोग जैसे होते हैं, वैसे ही उन्हें नेता मिल जाता है। ठीक उसी तरह समझ लीजिए कि लोग जैसे होते हैं, उन्हीं के अनुसार गुरु पैदा हो जाते हैं। अगर लोग ही प्रश्रय दे रहे हैं बेईमानी को, तो ताज्जुब क्या है कि लोगों की माँग को पूरा करने के लिए झूठा और बेईमान गुरु भी पैदा हो जाएगा।

बाज़ार का नियम है, जिस भी चीज़ की डिमांड होगी, उसकी सप्लाई करने वाला कोई न कोई मिल जाएगा। अगर आपको सच की जगह सांत्वना ही चाहिए, तो कोई न कोई मिल जाएगा बाज़ार में जो सांत्वनाएँ बाँटेगा। अगर आपको नंगे सत्य की जगह चमक-दमक वाला, चकाचौंध कर देने वाला, सुंदर कपड़ों और आभूषणों से सुसज्जित झूठ चाहिए, तो आपको मिल जाएगा कोई बाज़ार में जो सुंदर कपड़ों और आभूषणों से सुसज्जित झूठ आपको देगा। और आप कहेंगे, “यही तो हमें चाहिए था! मिल गया।”

वो आपको वही दे रहा है जो आपने माँगा है। वो आपके आगे-आगे नहीं चल रहा है, वो गुरु नहीं है; वो आपकी माँग के पीछे-पीछे चल रहा है। आप जो माँग रहे हैं, वो उसका सप्लायर मात्र है, वो बस आपूर्ति कर रहा है। आपकी माँग है कि जैसे जीवन के हर क्षेत्र में हमें कुछ बड़ा-बड़ा चाहिए, चौंधिया देने वाला चाहिए, उत्तेजित कर देने वाला चाहिए; सतही चाहिए, गहरा नहीं चाहिए, वैसा ही फिर गुरु समाज को मिल जाता है, जो उत्तेजित कर देने वाली और छिछली और सतही बातें करता है और लोग खुश हो जाते हैं।

सतर्क रहिए, अध्यात्म खिलौना नहीं है अपने हाथ का। अध्यात्म ख़ुद को बदलने का संकल्प है। अपने मनोरंजन के लिए नहीं है अध्यात्म, अपनी कामनाएँ पूरी करने के लिए नहीं होता अध्यात्म। अध्यात्म उस केंद्रीय ‘मैं’ से छुटकारा पाने के लिए होता है जो हमारे जीवन की मूल परेशानी है।

बात समझ रहे हैं?

जितना गहरा आपका संकल्प होगा अपने दुख से मुक्ति का, उतना ही आप में सम्मान होगा गुरु के प्रति।

अगर आप में ये संकल्प ही नहीं है कि जीवन आज़ादी में और आनंद में बिताना है, तो आप गुरु का सम्मान कर भी नहीं पाएँगे। और गुरु का अपमान करने का सबसे अच्छा तरीका ये होता है कि किसी भी ऊँगे-पूँगे को नाम दे दो गुरु का। गुरु का अपमान करने का सबसे अच्छा तरीका यही है, ठीक है न? कि अब जैसे मैं अनुज का अपमान करना चाहूँ, और ये बड़ी पुरानी विधि है, तो मैं क्या करूँगा? बाहर एक गधा पकड़ूँगा और उसके माथे पर लिख दूँगा ‘अनुज।’ ये बहुत पुराना तरीका है या नहीं है? कि जिसका अपमान करना चाहो, उसका नाम एक गधे के माथे पर लिख दो। अब वो गधा घूम रहा है और कह रहा है, ‘मैं अनुज हूँ।’

वैसे ही जब आपको गुरु का अपमान करना होता है, तो आप समाज में कोई भी गधा पकड़ लेते हैं और उसको नाम दे देते हैं गुरु का। ये उस गधे का सम्मान नहीं बढ़ाया जा रहा, गधा तो गधा है, बात ज़ाहिर है। आप भी जानते हैं कि वो गधा गधा ही है। ये वास्तव में आप गुरु के प्रति अपनी अवमानना दर्शा रहे हैं। किसी को भी कह दिया, ‘ये गुरु है, वो गुरुदेव है, वो सद्गुरु है, वो ये है, वो वो है।’ एक से बढ़कर एक नाम हैं। कोई आचार्य है, कोई श्रीमद है, नामों की क्या कमी है! कोई स्वामी है। जितने तरह के अलंकार लगाए जा सकते हैं, सब लगा दिए गए। किसके माथे पर? गधे के माथे पर।

अब अच्छा है न, हर बार मुझसे कुछ लोग रुष्ट हो जाते हैं, जो रुष्ट हो गए हों, उनको एक विधि बता दी मैंने, यहाँ बोधस्थल के सामने कोई गधा पकड़ना और उसके माथे पर लिख देना ‘आचार्य,’ या पूरे शहर में जो सबसे बड़ा मूर्ख मिले उसको नाम दे देना ‘आचार्य।’ यही हमने करा है न, कि जो सबसे प्रतिभाहीन लोग हैं देशभर के, उनको हमने नाम दे दिया है गुरु का। संसार के पार की बात छोड़िए, जो संसार को भी नहीं समझते, उनको हमने नाम दे दिया है गुरु का। जो एक से बढ़कर एक अंधविश्वास के विक्रेता हैं, उनको हमने नाम दे दिया गुरु का। मत करिए ये। गुरु शब्द का अपमान, मैं कह रहा हूँ, हमारी अपनी मुक्ति की संभावना का अपमान है।

अगर अपने आप से आप प्रेम करते हों, तो गुरु शब्द का सम्मान करें। और बहुत खोजें, बहुत खोजें, बहुत संदेह से भरे रहें, परखें, जाँचें, परीक्षण करें, और जिज्ञासा की भावना को बहुत जल्दी अंधी आस्था में न बदलने दें। अंधी आस्था रखें आप और उसके बाद पता चले कि मुर्ख बन गए, तो किसी और की नहीं आपकी ही गलती है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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