सबकुछ भगवान कर रहा है, या कोई और? || (2021)

Acharya Prashant

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सबकुछ भगवान कर रहा है, या कोई और? || (2021)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जब हम ये बात करते हैं कि बेड़ियाँ काटनी हैं या पुराने ढर्रों से बाहर निकलना है। तो जैसा कि आपने गीता के सत्र में कहा था कि जब कृष्ण कहते हैं कि, "या तो मेरी सुन ले या मेरी माया की सुन ले।" तो हमें ऐसा कर्म करना चाहिए जो हमारे बंधनों को काटे। तो मेरा सवाल ये है कि क्या हमारे पास वो इंडिपेंडेंट चॉइस (स्वतंत्र विकल्प) है भी वो कि वो कर्म करें जो वो बंधन काटे, क्योंकि अल्टीमेटली (अंततः) करवा तो कृष्ण ही रहे हैं न?

आचार्य प्रशांत: तो फिर ये सवाल पूछना ही बेकार है। क्यों पूछ रहे हो अगर तुम्हारे पास चॉइस (विकल्प) ही नहीं है तो? जिसके पास चॉइस ही ना हो वो कौन हुआ?

वो ये हुआ ये (चाय के कप को दिखाते हुए)। मैंने उठाया तो उठ गया, मैंने गिराया तो गिर गया। इसके पास अपनी कोई चॉइस , कोई सत्ता, कोई विकल्प, कोई एजेंसी नहीं है। ये (कप) सवाल पूछे तो मैं जवाब दूँ? तो मैं क्यों जवाब दूँ?

कहीं ऐसा तो नहीं कि विकल्प है, पर विकल्प का खतरा ना उठाना पड़े इसलिए हम ऐसा स्वांग करना चाहते हैं कि "मैं क्या करूँ, मेरे पास तो चॉइस है ही नहीं?"

वही! "मैं क्या करती देवदास, मैं मजबूर थी, मेरे पास चॉइस नहीं थी देवदास।"

काहे 'पारो' (देवदास फ़िल्म की नायिका) बन रहे हो?

प्र: आचार्य जी, जैसा मेरा इस सत्र का आना, या जो भी मैं कर्म कर रहा हूँ, तो मैं ये पूछना चाहता था कि मतलब ऐसा कोई करवा रहा है या ये मेरी स्वतंत्र इच्छा है?

आचार्य: कोई नहीं करवा रहा। ये बात एकदम दिमाग से निकाल दो कि ये काम तुमसे परमात्मा करवा रहे हैं, या कृष्ण करवा रहे हैं।

(परमात्मा) अकर्ता हैं। अकर्ता! अकर्ता! अकर्ता!

जो कुछ हो रहा है तुम कर रहे हो।

ये (जगत) प्रपंच है सारा, माया का पसार। और इसके सूत्रधार तुम मात्र हो, कोई और नहीं।

अच्छा कर रहे हो, तुम कर रहे हो, किसके लिए अच्छा कर रहे हो?

श्रोतागण: खुद के लिए।

आचार्य: बुरा कर रहे हो, तुम कर रहे हो, किसके लिए बुरा कर रहे हो?

श्रोतागण: खुद के लिए।

आचार्य: सत्य में तो तुम हो ही नहीं, तो किसके लिए अच्छा, किसके लिए बुरा करोगे पागल? सत्य में तो कौन है? सत्य भर है, किसी दूसरे की सत्ता ही नहीं। पर तुम्हारे लिए तुम्हारी सत्ता है न? तो तुम जब बोलते हो "मैं थोड़े ही कर रहा हूँ, मुझसे वो करवा रहे हैं" तो बात वहीं पर गलत हो जाती है।

तुमसे वो क्यों करवाएगा? उसके लिए तो तुम हो ही नहीं।

तुम किसके लिए हो? फॉर ह्यूम डू यू इग्जिस्ट?

प्र: खुद के लिए।

आचार्य: सत्य अद्वैत है। उसके अलावा कोई दूसरा नहीं। तुम प्रार्थना किससे कर रहे हो? कोई है नहीं, कोई नहीं है। इसीलिए जब प्रार्थना की जाती हैं तो बार-बार समझाता हूँ उपनिषद समागम में – सारी प्रार्थनाएँ स्वयं से ही की जाती हैं।

सत्य के लिए सत्य के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं है।

उसकी कोई रुचि नहीं है बाबा तुम्हारे इन झमेलों में पड़ने की कि "नई नौकरी लगवा दे, पुराना ब्रेकअप (सम्बन्ध विच्छेद) करवा दे" और बोलो, "भगवान ने करा दिया, हे ईश्वर तूने क्या कर दिया!"

वो क्या करता है? वो कुछ नहीं करता। उसने अपनी माया छोड़ रखी है। और ये भी क्यों कहते हो उसने छोड़ रखी है? ताकि हमें पता हो कि माया के पार जाया जा सकता है। ताकि हमें पता हो कि माया से ऊपर भी कुछ है। वरना हम डर जाते हैं, परेशान हो जाते हैं कि, "माया इतनी बड़ी है भई, माया से जीतेंगे कैसे!" तो फिर हम क्या बोल देते हैं? मायापति हैं वो। कृष्ण बोल देते हैं मेरी माया है, 'मम्-माया'। तुम्हें हौसला रहे कि माया का भी कोई बाप है, डर नहीं जाओ।

लेकिन ये जो तुम्हारे लगातार, दिनभर के ये छोटे-मोटे सब लफड़े-झपड़े हैं इसमें परमात्मा, सत्य, कृष्ण इनको बीच में काहे को ला रहे हो? अपनी करतूत, अपनी करनी। फिर बोलते हो, "अरे! हे भगवान ये तूने क्या किया!"

उसने? वो क्यों?

मैं तो ऐसे भगवान का चरित्र सोचता हूँ कई बार, बड़ी हँसी आती है, जो वो सबकुछ करने में उत्सुक होगा जो तुम उससे करवाते रहते हो। बात-बात में ओ-माइ-गॉड, ओ-माइ-गॉड! प्रेग्नेंसी-न्यूज, ओ-माइ-गॉड!

उसको क्या मतलब है तुम्हारी इन हरकतों से? "चाय गिरा दी, हे भगवान! मोच आ गई, हे भगवान!"

आप अपनी ज़िम्मेदारी लीजिए। फँस गये! इसीलिए ज़बरदस्ती किसी और को बीच में लाते हैं ताकि क्या ना उठानी पड़े? ज़िम्मेदारी। "मैं यहाँ नहीं आया हूँ मुझसे तो किसी दैवीय प्रेरणा ने आपके पास आने को कहा था आचार्य श्री।" तुम मत ही आते तो ज़्यादा अच्छा था। ये क्या बात है! तुम मुझसे ये बोल रहे हो, तुम मेरे पास आए भी हो और अपनी मर्ज़ी से नहीं आए, मुझे अच्छा लगेगा? छीः।

कोई तुमसे मिलने आए, अपनी प्रेमिका से मिलते होगे, और वो बोले, "मैं नहीं आई हूँ मुझे मेरे भैय्या ने भेजा है", तुम्हें कैसा लगेगा?

मुझे क्या अच्छा लगा ये सुनकर कि तुम बोल रहे हो, "मैं नहीं आया हूँ, मुझसे तो फलानी दिव्य प्रेरणा ने ये काम कराया है"? तुम्हारी अपनी कोई सत्ता, कोई ताकत है कि नहीं है? तुम कहना चाहते हो नहीं है। नहीं है तो फिर तुम्हें बात-बात पर कष्ट क्यों होता है ये बताओ? (चाय के कप को दिखाते हुए) इसको कभी तकलीफ होती है? मैंने इसको उठा दिया, मैंने इसे पटक दिया, मैं इसे तोड़ दूँ, इसे तकलीफ होगी?

प्र: नहीं।

आचार्य: तुम्हें कष्ट होता है न? हाँ तो तुम्हारा कष्ट इस बात का प्रमाण है कि तुम्हारी एक सत्ता है अपनी, जो कष्ट पसंद नहीं करती। अन्यथा तुम्हें कष्ट नहीं हो सकता था किसी बात पर, अगर तुम इतने ही निर्विकल्प होते तो। और निर्विकल्पता की पहचान भी यही होती है आदमी कष्ट के पार निकल जाता है। तुम्हें होता है न कष्ट, तो विकल्प है।

कभी दोबारा मत बोलना, "मैं नहीं कर रहा, कोई और करवा रहा है!" तुम कर रहे हो। जो कोई और करवा रहा है, वो बोलो 'मैं' हूँ। बिलकुल ऐसा हो सकता है कि तुम जो कर रहे हो, वो तुम्हें पता नहीं है कौन करवा रहा है। जो करवा रहा है वो तुम्हारे ही भीतर बैठा 'मैं' है। उसका नाम आत्मा नहीं है, उसका नाम अहंकार है।

ये बिलकुल हो सकता है कि कोई काम तुम करो और बोलो "मुझे नहीं पता ये काम कैसे हो गया! मुझसे किसने करवा दिया?" मानता हूँ सब के साथ ऐसा होता है। *"इट हैैप्पिन्ड इन स्पाइट ऑफ मी"* (ये मेरे बावजूद हो गया) — ऐसे बोल देते हैं न हम? "मुझे नहीं मालूम ये कैसे हो गया!" आपको पता नहीं है पर जो कर रहा है वो आप ही हैं, द हिडन पार्ट ऑफ योरसेल्फ (वह आपका छूपा हुआ रूप है)। और उसको ट्रुथ (सत्य) नहीं बोलते, ना आत्मा बोल देना कि, "मेरी आत्मा ने करवाया है!" वो तुम्हारे भीतर के जानवर ने करवाया है। आत्मा नहीं है जानवर। ठीक है?

उसी (जानवर) को जीतना है, उसी को फतह करना है। और फतह करना एक संकल्प की बात है। संकल्प नहीं लिया जा सकता विकल्प के अभाव में। अगर विकल्प ही नहीं है तो बेटा संकल्प कैसे उठाओगे? ठीक?

नहीं? मतलब ज़िम्मेदारी नहीं लेना चाहते।

प्र: आचार्य जी, आपका मैंने एक वीडियो देखा था जिसमें आप कह रहे थे कि जो भी हमारे अस्तित्व के लिए ज़रूरी चीजें हमें मिली हुईं हैं, वो सब परमात्मा की कृपा ही है। जैसे वायुमण्डल का दबाव उतना ही है जितना हमारे जीवित रहने के लिए चाहिए।

आचार्य: तुम्हारे जीवन में अगर सबकुछ अच्छा ही होता, ठीक है, जैसे सात-सौ-मिलीमीटर ऐचजी! (वायुमण्डलीय दबाव) कि एकदम सेट है, कम-ज़्यादा नहीं होता एटमॅस्फिरिक प्रेशर (वायुदाब), तो तुम कह देते कि कृपा है, कृपा है।

तुम्हारे जीवन में कृपा वाली चीजें हैं कितनी? जीवन का कुल लेखा-जोखा बताओ, संतुष्ट हो? सबकुछ मिला-जुलाकर रख दो टेबल पर और बताओ संतुष्ट हो? और अगर कुल मिला-जुलाकर के मामला गड़बड़ ही निकल रहा है तो इसको कृपा बोलें? तो कृपा होगी अपनी जगह, कृपा से कहीं ज़्यादा बड़ी तो वो अकृपा है जो तुमने अपने ऊपर कर रखी है न। तो हम किसकी बात करें — कृपा की या अकृपा की, बोलो?

प्र: अकृपा की।

आचार्य: अकृपा की बात करेंगे न, वो हमने अपने ऊपर कर रखी है। हम कौन? उसी को हम अहंकार बोलते हैं। वही अहंकार है जिसकी अपनी कोई हस्ती नहीं पर जो गलत धारणाओं पर, विचारों पर, उल्टे ज्ञान पर, फालतू के संस्कारों पर चलता है।

उसी ने हमें परेशान कर रखा है। और उससे आज़ादी मिले इसके लिए सबसे पहले तुम्हें मानना पड़ेगा कि तुम्हारे पास आज़ादी का विकल्प है। जिसने कह दिया कि आज़ादी कोई विकल्प होती ही नहीं, उसको मिलेगी क्या खाक! ठीक है?

हार से भी बदतर स्थिति होती है जब तुम कह देते हो कि जीत का अब विकल्प ही नहीं रहा। सौ बार हार लो लेकिन ऐसा मत कह देना कभी कि जीत का कोई विकल्प ही नहीं है।

प्र२: आचार्य जी, ये बेड़ियाँ जो काटना है या जो बंधन है उसे काटने का काम तो बहुत बड़ा है। और धर्म कहता है कि अपनी चेतना का उत्थान करना है और अपने स्वभाव में लौटना है। तो स्वभाव में लौटने के लिए तो कितना वक्त लगेगा इसकी कोई डेफिनिशन (परिभाषा) भी नहीं है, कोई समय तो इसमें हम निर्धारित नहीं कर सकते कि कितना समय लगेगा। तो, फिर क्या उसके बाद के जो 'अर्थ' और 'काम' हैं उनकी बारी आएगी कि बस केवल धर्म ही रहेगा?

आचार्य: आपमें से कितने लोगों को कोई-न-कोई ऐसी बीमारी है जो कभी भी पूरी तरह से ठीक नहीं होने वाली है? ऐसी बीमारी, छोटी बीमारी हो, बड़ी बीमारी हो, पर कोई ऐसी बीमारी जो पता है कि कभी भी पूरी तरह ठीक नहीं होगी। मैनेज (व्यवस्थित) हो सकती है पर कभी भी ये खत्म नहीं हो सकती, इरैडिकेट (विनष्ट) नहीं हो सकती, कितने लोगों को है?

(कुछ श्रोतागण जबाव में हाथ उठाते हैं)

इलाज नहीं करते? पूरी तरह से कभी उसका अंत नहीं आएगा, सत्य भी अनंत है। तो कुछ करोगे नहीं? कि कहते हो, "ये पूरी तरह तो कभी ठीक होना नहीं है तो कुछ करें ही क्यों"?

करते हो, और जान लगाकर करते हो, जितना सम्भव है उतना सबकुछ करते हो।

तो हमारी बेड़ियाँ भी वैसे ही हैं। हमें नहीं पता उनसे पूर्ण मुक्ति मिल सकती है कि नहीं। वो भी समझ लो जैसे डायबिटीज (मधुमेह) की तरह है, कि हो गई तो हो गई, पता नहीं कभी इससे पूर्ण मुक्ति मिल सकती है कि नहीं। तो? तो क्या हो गया? रोज़-रोज़ उससे लड़ना है। जितना हो सके उसको दबाकर रखना है। या उसे छा जाने देना है अपने ऊपर?

तो वैसी ही बात है। ये कोई तर्क नहीं है कि बेड़ियाँ काटने का काम तो बहुत बड़ा है। निस्संदेह, बहुत बड़ा है!

बहुत बड़ा नहीं, मैं मानने को तैयार हूँ कि अनंत भी है। ये भी हो सकता है कि आपकी आखिरी साँस तक पूरा ना हो। ये भी हो सकता है कि इतिहास में आज तक किसी की भी आखिरी साँस तक वो काम पूरा ना हुआ हो। तो भी वो काम करना है।

वही काम बस करने लायक है। बाकी सब तो ऐसे ही हैं अंड-बंड। उसको आप फालतू ही बोलते हैं कि काम कर रहा हूँ। वो काम थोड़े ही है, वो तो नौटंकी है। सुबह कार्ड स्वाइप करके, सिस्टम में लॉगिन कर लिया, ये काम थोड़े ही शुरू किया है। काम तो एक ही होता है। और ये मैं कोई मुहावरे के तौर पर, रिटॉरिकली (अलंकारिक) नहीं बोल रहा हूँ, ये सच्चाई है।

काम ज़िंदगी में बस एक होता है — ये जो शरीर में, मन में बेवकूफियाँ और गंदगीयाँ पड़ी हैं, इनकी सफाई। इसके अलावा कोई काम नहीं होता। हम जिसको काम, वर्क , ऑक्यूपेशन , धंधा, पेशा, व्यवसाय बोलते हैं, ये तो असली काम ना करने का बहाना है। असली काम ना करना पड़े तो हमने अपने दिन को भर लिया है किसी झूठे नकली काम से, ऑफिस जा रहे हैं!

बहुत तरक्की कर ली है काम में, माने बहुत तरक्की कर ली है खुद को झाँसा देने में। वो जो एक केंद्रीय काम था जीवन का सीधा-सरल, वो ना करना पड़े इसके लिए क्या-क्या नहीं कर डाला। बहुत बड़े उद्योगपति बन गए, पाँच फैक्ट्रियाँ डाल लीं, ये कर लिया वो कर लिया, बहुत बड़ा काम कर लिया, कुल-मिलाकर किसलिए? ताकि असली काम ना करना पड़े।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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