प्रश्न: आचार्य जी, नमन।
कबीर दास जी का एक दोहा है –
सभी कर्म हमारो किया, हम कर्मण ते न्यारे हो
कृपया आशय स्पष्ट करें ।
आचार्य प्रशांत जी: ये कबीरों की, संतों की अपनी आंतरिक स्थिति है, अपनी कहावत है। कह रहे हैं, “ऊपर-ऊपर से प्रतीत होता है कि हम बहुत कुछ कर रहे हैं, लेकिन कर्त्ताभाव ज़रा भी नहीं है। हम उस तरीके से अपने लिए कुछ करते ही नहीं हैं, जैसे की तुम करते हो। जैसे की कोई भी आम व्यक्ति करता है।
सभी कर्म हमारे किये, हम कर्मण से न्यारे हो
‘न्यारा’ अर्थात – अनछुआ, अस्पर्शित। हम अपने कर्मों से बहुत साफ़ नाता रखते हैं – हानि-लाभ का। कर्म करते ही इसीलिए हैं कि आगे कुछ लाभ दिखे, या हानि कम हो। यहाँ कहा जा रहा है – “कर्म हो रहे हैं, लेकिन कर्म का हानि-लाभ मूलक सम्बन्ध नहीं है हमारा। कोई कर्म न हममें कुछ जोड़ने वाला है, न घटाने वाला है।”
जैसा मैंने कहा कि ये कबीरों की आंतरिक दशा है। उन्हें न कुछ पाना है, न कुछ गँवाना है। तो उनके लिए बिलकुल ठीक है कि – “सभी कर्म हमारो किया, हम कर्मण ते न्यारे हो।” आप लेकिन वैसे ही कर्म करिए, जिनसे आपको लाभ होता हो। कबीर साहब आत्मस्थ हैं, आप नहीं। उनके लिए कुछ पाना शेष नहीं है, आपके लिए अभी बहुत कुछ गँवाना शेष है।
निष्काम कर्म, अनासक्त कर्म, कबीर साहब को शोभा देता है, हमको नहीं। हमारे लिए तो ज़रूरी है कि कर्म सोद्देश्य हो, कर्म सकाम हो। और कर्म का बड़ा सीधा-सीधा उद्देश्य हो – बंधनों से मुक्ति, भ्रम का कटना, भय-मोह का मिटना।
जो बात कबीर साहब यहाँ कह रहे हैं, वो हमारे लिए एक ध्रुव तारा है, दूर टिमटिमाता हुआ, राह दिखाता हुआ। लेकिन भूलिएगा नहीं कि पाँव तो आपके अभी धरती से ही बंधे हुए हैं। ध्रुव तारे की बात सुनकर आप भूल मत जाईएगा कि आप तो अभी गुरुत्वाकर्षण के ही गुलाम हैं। पर इस तरह की बातें, ऐसे आसमानी बोल भी, बीच-बीच में सुनने आवश्यक होते हैं, ताकि याद रहे कि गुरुत्वाकर्षण से आगे भी कुछ है।
हम कर्मण से न्यारे हो।
जो कर्म से न्यारा है, वो जीवन से ही न्यारा हो गया। जो कर्मों के पार निकल गया, वो तन-मन, सबके पार निकल गया। जिसने कर्म से नाता तोड़ लिया, उसका नाता अब कर्ता से कैसे बचेगा। और कर्ता नहीं, तो ‘मैं’ नहीं। ‘मैं’ नहीं, तो क्या? कुछ नहीं।
झुँझलाए, बौखलाएआदमी को बड़ा सहारा मिलता है जब अचानक कोई आकर संतों के मीठे स्वर में, मुस्कुरा कर कह देता है , “कुछ नहीं।” क्योंकि जीवन का सारा बोझ ही – बहुत कुछ है। बहुत कुछ, जो मन पर छाया रहता है। ऐसे में कोई आता है फ़कीर, और कह देता है, “कुछ नहीं,” – न कर्म, न कर्ता, न अहम। कर्म-मुक्त, अहम-मुक्त, देह-मुक्त, जीवन-मुक्त।
आस बंधती है, हौंसला बढ़ता है।
हौंसला ही बढ़े, तब तक ठीक है, पर ये भूल मत कर लीजिएगा की कल्पना कर बैठे की आप ध्रुव तारे पर पहुँच ही गए हैं। जीवन-मुक्तों का काव्य सुनकर आपको भी गुमान हो गया कि आप भी जीवन मुक्त ही हैं। उनका काव्य सुनकर आप में एक ओर तो सम्मान उठना चाहिए, आग्रह उठना चाहिए। और दूसरी ओर – दर्द भी उठना चाहिए। एक तरह से अपमान का भाव उदित होना चाहिए।
कोई कहाँ की बात कर गया, हम ज़मीन पर ही पड़े रह गए। कोई तारों पर आरोहित हो गया, हमें ज़मीन भी समझ में न आई।
आपको प्रेरणा मिले, आपका हौंसला बंधे, कबीरों सम हो जाने का आपमें आग्रह आए, लोभ ही आए, तो भी ठीक है। ईर्ष्या भी आ जाए, तो भी ठीक है। वियोग की पीड़ा उठे, तो कहना ही क्या।
बस ये गलतफहमी न उठे कि जो बात कबीर साहब कह रहे हैं, वो बात हमारी भी है।
बाकि सब कुछ ठीक है, ये गुमान ठीक नहीं है।
उससे बचिएगा।
YouTube Link: https://youtu.be/2BrEtlsFnTs