साक्षित्व माने क्या? || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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साक्षित्व माने क्या? || आचार्य प्रशांत (2014)

आचार्य प्रशांत: जब बोला जाता है ‘साक्षी’, ‘बोध’, ‘चैतन्य’, तो ऐसा लगता है जैसे कोई बड़ा जगा हुआ इंसान होगा, और यहाँ हम कह रहें हैं कि ना, जो ‘साक्षी’ है, जो ‘बुद्ध’ है, जो ‘चैतन्य’ है, वो तो पूरा ही धुत है। छवि बनी हुई है कि वो गंभीर क़िस्म का आदमी है।

‘साक्षी’ इन दो आँखों से नहीं देखता, वो किसी और आँख से देखता है। उसकी ये आँखें तो हो सकता हो कि बंद सी ही दिखाई दें, ये बिल्कुल लग सकता है कि वो नशे में है; लगेगा ही कि वो नशे में है। साधारण आदमी होता है जो सीधी राह चलता है, उसके क़दम तो बहके-बहके से ही चलेंगे।

अभी कल या परसों किसी ने पूछा कि ‘नृत्य’ क्या है? तो बात आई कि जब भी कभी कुछ खिलवाड़ में होता है, कुछ पाने की अभीप्सा से नहीं होता है, तो वही नृत्य बन जाता है; और जब भी कभी कुछ भी मानसिक गतिविधि के चलते होता है, कुछ पाने के लिए, कहीं पहुँचने के लिए, तो वो दौड़ बन जाता है। तो गति दो तरह की हो सकती है: या तो दौड़, या नृत्य। दो ही तरह का होता है। इंसान कुछ भी कर रहा है, बोल रहा है, बैठा है, चल रहा है, कोई भी कर्म हो रहा है, वो कर्म के प्रकार दो ही होंगे: या तो वो दौड़ रहा होगा या नाच रहा होगा।

साक्षी नाचता है।

और ‘दौड़ने’ वाले को ‘नाचने’ वाला बहका-बहका ही लगेगा। वो कहेगा पगला गया है, इतना महत्वपूर्ण काम है करने के लिए, इतनी महत्वपूर्ण जगह है पहुँचने के लिए, इतना कुछ है पाने के लिए, और ये पगला नाच रहा है। तो नाचता हुआ सा ही लगेगा। तो ख़ूब नशा है उसे और नशा ऐसा है जिसमें साक्षी ये भी जानता है कि पिलाने वाला कौन है।

कौन है? साकी कौन है? कौन है साकी?

बुल्लेशाह कल क्या बोल रहे थे? “जो शराब बनाता है वो खुद अपने हाँथ से पिला रहा है तो मैं बेहोश क्यों ना हो जाऊँ? वो अपने हाथ से पिलाने आया है मुझे, मैं बेहोश क्यों ना हो जाऊँ? मुझे होने दो बेहोश।”

होश नहीं, ‘सुरूर’। ‘सुरूर’ ज़रूरी है, और जिसकी ज़िन्दगी में ‘सुरूर’ नहीं है वो जी नहीं रहा है वो जीवन को ढ़ो रहा है। जो कभी–कभी बिल्कुल हिला हुआ ही नहीं प्रतीत होता कि इसके सारे पेंच ढ़ीले हैं, पगला है, छोड़ो इसको। अगर आप किसी भी ऐसे आदमी को जानते हैं जो कभी भी पागल नहीं दिखता तो वो आदमी बड़ा ख़तरनाक है; उससे बचियेगा, वो कुछ भी कर सकता है।

ये जो सधा हुआ इंसान होता है, आचरण बद्ध, कोड ऑफ़ कंडक्ट पर चलता हुआ, ये निहायत ही ख़तरनाक इंसान है।

ऐसे ही लोगों ने बड़ी लड़ाईयाँ करी हैं, और हमारा समाज ऐसे ही लोगों से भरा हुआ है। आप किसी के भी पास भी जाइये, सबके पास आचरण के सूत्र मौजूद हैं – “ऐसा करना है, ऐसा नहीं करना है”, सबको पता है। पर ऐसा सुना नहीं गया कि पियक्कडों ने कोई महायुद्ध लड़ा हो।

(श्रोतागण हँसते हैं)

ये भी नहीं सुना गया कि पियक्कड़ों ने बैठकर के कोई एटम बम बना दिया। ये बड़े होश वाले लोग थे जो महाविनाश के उपकरण बनाते हैं, बड़े होश वाले लोग हैं। ये हमारे आदर्श हैं।

‘सुरूर’ बड़ा ज़रूरी है; ‘पीना’ सीखिए!

और जो पियें तो ये छोटी-मोटी साकी नहीं चलेगी, किसी बार-गर्ल को पकड़ लिया। फ़िर शर्त बस एक है, ख़ुद उसके हाँथों से पियेंगे।

‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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