प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ओशो को पढ़ते हुए उनकी एक विधि का पता चला- विटनेसिंग (साक्षित्व)। लेकिन साक्षित्व की प्रक्रिया, करते-करते विचार बन जाते हैं। आरम्भ में लगता है कि साक्षित्व हो रहा है, लेकिन अंत में वो विचार बन जाता है।
इसमें थोड़ा दिशा-निर्देश करने की कृपा करें।
आचार्य प्रशांत: ‘साक्षित्व’ विधि हो ही नहीं सकती। साक्षित्व जीने का आध्यात्मिक तरीका है। यहाँ से शुरू करिये कि – साक्षित्व कब नहीं है। जब आप साक्षी नहीं हैं, तब आप क्या हैं?
प्र: बेहोश।
आचार्य: जब आप साक्षी नहीं हैं, तब आप क्या हैं? तब आप प्रतिभागी हैं, कर्ता हैं, कि भोक्ता हैं। है न? जो करता है, वो इस उद्देश्य के साथ करता है कि कुछ मिल जाएगा। वो अपनी लाभ-हानि के विचार में लिप्त है। जो भोक्ता है, वो यह सोच कर भोगता है कि कुछ पा लेगा। वो भी लाभ-हानि के विचार में भोगता है। जो प्रतिभागी है, वो यह सोचकर के प्रतिभागिता करता है कि कुछ तो अंतर पड़ेगा।
अब आप बताइए फिर कि ‘साक्षित्व’ क्या हुआ?
‘साक्षित्व’ का अर्थ है – ऐसी ज़िंदगी जीना जिसमें तुम्हें भली-भाँति ज्ञात है कि अंततः कोई अंतर नहीं पड़ना। तुम ऊपर-ऊपर से प्रतिभागी हो, तुम ऊपर-ऊपर से कर्ता हो, तुम ऊपर-ऊपर से भोक्ता हो, पर अंदर कहीं एक केंद्रीय बिंदु पर तुम्हें साफ़ पता है कि इस तमाशे से न किसी को कुछ हासिल हुआ है, न मुझे कुछ हासिल होना है, न कोई नुकसान हो जाना है।
ये ‘साक्षित्व’ है।
‘साक्षित्व’ घण्टे-दो-घण्टे की कोई विधि नहीं हो सकती। ‘साक्षित्व’ तो कह सकते हो जैसे एक ठसक हो। तुम कह रहे हो – “क्या खोना, क्या पाना!”
ये ‘साक्षित्व’ है।
‘साक्षित्व' अपने आप में कोई दशा नहीं होती। ‘साक्षित्व ‘समस्त दशाओं की निस्सारता से परिचित होने का नाम है। ‘साक्षित्व ‘अगर अपने आप में कोई दशा होती, तो फिर उस दशा का भी कोई और साक्षी होता न। 'साक्षित्व' समस्त दशाओं से मुक्ति का नाम है।
जो भी दशा आए, तुम उसको ज़रा मुस्कुराकर देख लो – “लो एक दशा और आ गई।” जैसे कोई बच्चा सड़क किनारे खड़ा हो और आती-जाती गाड़ियों को देख रहा हो – सब आ रही हैं, जा रही हैं, ठहरने वाली कोई नहीं। ऐसे ही तुम जीवन को देखो – ये आती-जाती गाड़ियाँ हैं, इनमें कौन ठहरने वाला है।
ये ‘साक्षित्व’ है।
किसी गाड़ी से उसे ये उम्मीद है ही नहीं कि उसमें से बाप उतरेगा उसका। क्यों उम्मीद नहीं है उसे कि काश कोई गाड़ी रुके और उसमें से मेरे पिताजी उतरें? ये उम्मीद उसे इसलिए नहीं है क्योंकि उसका बाप उसके पीछे खड़ा है, ये बच्चा अपने बाप के साथ ही खड़ा है। और अब ये सारे आवागमन का दर्शक मात्र है। जब बाप अपने साथ खड़ा है, तो बच्चा ये उम्मीद क्यों रखे कि काश कोई गाड़ी मेरे द्वार भी रुके, और उसमें से मेरा बाप उतर पड़े?
‘साक्षित्व’ ऐसे जीने का नाम है।
“हमें जो चाहिए, वो हमें मिला हुआ है। बाप हमारा, हमारे साथ है। अब हम क्यों दुनिया से उम्मीद रखें कि उससे हमें कुछ मिले। जो चलना है, चले। गाड़ी आ रही है, आए , हम उसे रोक नहीं रहे। गाड़ी जा रही है, जाए , हम उसे टोक नहीं रहे। और हमें कोई इच्छा नहीं है किसी गाड़ी में सवार हो जाने की। सवार होना होगा, तो बाप के कंधों पर सवार हो लेंगे।"
ये ‘साक्षित्व’ है।
समझ में आ रही है बात?