हरि है खांड रेत मांहि बिखरी, हाथी चुनी न जाई। कहैं कबीर गुरु भली बुझाई, चींटी होय के खाई।। ~ संत कबीर
आचार्य प्रशांत: (प्रश्न पढ़ते हुए) कबीर साहब का एक श्लोक भेजा है, कह रहे हैं कि इसका अर्थ बताएँ। और कहते हैं कि “इन्होंने भी नित्य और अनित्य का मिश्रण कर डाला है, तो क्या समाधान है?”
हाथी माने स्थूल मन, मोटा मन, और उसके स्थूल उपक्रम। चींटी या कीट माने स्थूल को छोड़ कर सूक्ष्म हुआ मन। कह रहे हैं कबीर कि हरि ऐसे हैं जैसे रेत में शक्कर के महीन दाने मिले हुए हों। रेत में शक्कर के महीन दाने मिले हुए हैं, अब हाथी बेचारा फँस गया, उसके पास कोई विधा नहीं जिससे वो भेद कर सके, वो रेत से शक्कर को अलग नहीं कर पाएगा। तो कबीर कह रहे हैं कि “हरि-कृपा से, गुरु-कृपा से चींटी जैसे हो जाओ तुम, फिर तुम रेत से शक्कर को अलग कर पाओगे, भेद कर पाओगे।” यही विवेक है – भेद कर पाना; और ये भेद कर पाने के लिए तुम यदि हाथी जैसे हो तो असफल रहोगे, चींटी जैसा होना पड़ेगा। चींटी जैसे होने का क्या अर्थ है? सूक्ष्म हो जाना, छोटा हो जाना, हर बात की नज़ाक़त को देख पाना, हृदय के महीन तारों का झनझना उठना – ये सूक्ष्मता है। मात्र यही सूक्ष्मता नित्य और अनित्य का भेद कर पाती है। अगर तुम स्थूल हो, तो तुम्हारे लिए तो सब दाने एक बराबर हैं। अगर तुम सूक्ष्म हो, तो ही सत्य तुम्हारे लिए है, क्योंकि सत्य अति-सूक्ष्म है।
मोटे मन और झीने मन का अंतर समझना। मोटा मन पदार्थ से आसक्त रहता है, और सत्य कोई पदार्थ नहीं, तो मोटे मन से सत्य हमेशा आवृत रहेगा। मोटा मन माने वो मन जो आकार का पैरोकार है, जो आकार का कायल है, जो आकार में विश्वास रखता है, जो आकार में संतुष्टि पाता है, जो आकार से तादात्म्य रखता है, वो मोटा मन।
जैसे मोटा आदमी, उसको सब-कुछ कैसा चाहिए? बड़े आकार का। कपड़ों से ले कर भोजन तक उसे कैसा चाहिए?
प्र: बड़ा।
आचार्य: बड़ा। बिस्तर भी उसे कैसा चाहिए?
प्र: बड़ा।
आचार्य: वाहन भी उसे कैसा चाहिए?
प्र: बड़ा।
आचार्य: उसे कुछ महीन दे दो तो उसके काम आएगा क्या?
आ रही है बात समझ में?
विवेक का अर्थ है पदार्थ और अ-पदार्थ में भेद कर पाना। विवेक का अर्थ है असार और सार में भेद कर पाना, अनित्य और नित्य में भेद कर पाना। वो जो कुछ भी है, जो आकार रखता है, अपना आकार खोएगा। और उसका आकार ही उसकी पहचान है, उसका आकार ही उसकी सत्ता है, हस्ती है, होना है। अपना आकार यदि खो दिया उसने तो अपनी हस्ती को ही खो दिया। तो मोटा मन सदा अनित्य के फेर में फँसा रहेगा, क्योंकि मोटा जो कुछ है वो अनित्य ही होगा। जो कुछ भी आकार लिए है, नाम लिए है, रूप और रंग लिए है, वो अपना आकार, रूप-रंग खोएगा। इस पाने-खोने को ही तो अनित्यता कहते हैं न? अभी है, अभी नहीं — अनित्यता।
जो जितना ज़्यादा है, वो उतना ज़्यादा ख़तरे में है; समझना बात को। जो जितना ज़्यादा है, उसके ऊपर मिटने का ख़तरा उतना ज़्यादा है। मिटेगा कौन नहीं? जो है ही नहीं। जो जितना कम है, उसके ऊपर मिटने का ख़तरा उतना कम है। तो इसीलिए परम-तत्व को शून्यता भी कहा गया है; वो है ही नहीं, तुम उसे मिटाओगे कैसे? इसीलिए उसको कभी मेहंदी के रंग की उपमा दी गई है तो कभी सागर के खारेपन की। वो महीन है, वो अदृश्य है। तुम सागर से नमक हटाओगे कैसे? तुम मेहंदी के पात्र से लाली मिटाओगे कैसे? क्योंकि वो है ही नहीं, दिखाओ कहाँ है? तुम मेहंदी के कटोरे में मुझे बताओ कि लाली कहाँ है? और कटोरा बड़ा स्थूल है, कटोरे को तुम मिटा सकते हो, कटोरा मोटा है। लाली? सूक्ष्म है, महीन है। जो सूक्ष्म है, जो महीन है, जो छिपी है, जो अदृश्य है, उसका भरोसा है, वो मिट नहीं सकती। तुम जाओ आस्तीन चढ़ा कर, और कमर कस कर, इरादा कर के, कि आज मेहंदी से लाली मिटा देनी है, मिटा कर दिखाओ! क्यों नहीं मिटा सकते? क्योंकि आँखों के लिए वो है ही नहीं।
जो होगा सो मिटेगा, जो नहीं है, सो नहीं मिटेगा। इसीलिए हरि कभी मिटता नहीं। कबीर से पूछो तो कहते हैं, “ज्यों मेहंदी के पात्र में लाली लखी न जाय।” ‘लाली लखी न जाय', परमात्मा को कहा गया है अलख, अलख भी और निरंजन भी। अलख-निरंजन! “ज्यों मेहंदी के पात्र में लाली लखी न जाय।” जो लखा नहीं जा सकता उसका भरोसा है, वो मिटेगा नहीं; हरि का भरोसा है। सागर के नमक का भरोसा है, कोई दिन नहीं आएगा जब सागर नमक खो देगा। हाँ, नमक यदि ढेला हो कर के सागर किनारे रखा होता तो कोई भरोसा नहीं कब तक चलता। जब तक नमक सागर में है, तब तक महीन है, और ज्यों ही नमक ढेला बन कर सागर किनारे आ गया, वो मोटा हो गया, स्थूल हो गया; अब भरोसा नहीं। ढेले की क्या औक़ात? बारिश आए, ढेला पिघल जाए। कोई आए, ढेले को उठा कर ले जाए। ढेले को उठा कर कोई ले जा सकता है, समुद्र का खारापन कोई उठा कर नहीं ले जा सकता, क्योंकि खारापन सूक्ष्म है, फैला हुआ है, बिलकुल छिपा हुआ। जो बिलकुल फैला हुआ हो, व्याप्त हो, लेकिन फिर भी दिखाई न देता हो, उसको कूटस्थ कहते हैं। माया दिखाई देती है, ब्रह्म दिखाई नहीं देता; माया का भरोसा नहीं, ब्रह्म का पूरा भरोसा है।
समझ में आ रही है बात?
अब कहा है कि “नित्य-अनित्य के खेल में फँसे हुए हैं, समझ में ही नहीं आता भेद कैसे करें।” ऐसा तो नहीं है कि तुमको पता नहीं कि अनित्य क्या है। तुमने ख़्वाबों को मचलते हुए भी देखा है और अरमानों को टूटते हुए भी देखा है। कैसे कह रहे हो तुम कि तुम्हें पता नहीं कि अनित्य क्या है? खूब जानते हो क्या अनित्य है, बस अपने आस-पास के सभी लोगों को अनित्य में ही डूबते-उतराते पाते हो तो तुम्हें भी एक गन्दी आदत लग गई है, अनित्य की ही संगत करने की। जानते हो तुम, ऐसा नहीं कि तुम्हें पता नहीं है। खूब जानते हो कि जिस राह चल रहे हो उस पर धोखा खाओगे, खूब जानते हो जिस पर भरोसा कर रहे हो वो भरोसा तोड़ेगा; पर ज़रा ज़माने के साथ चल रहे हो, रवायत का पालन कर रहे हो, और कोई बात नहीं है। ज्ञान की कमी नहीं है, आदत पुरानी है बस। आदत तोड़ने के लिए माहौल बदलना होगा, संगत बदलनी होगी।
नहीं जानते हो तो पूछ लिया करो अपने-आप से, “जिसका सहारा ले रहा हूँ, जिसका आश्रय ले रहा हूँ, वो सदा साथ देगा क्या?” और जो भी ऐसा हो कि सदा साथ न देता हो, वो तुमको सहारे के नाम पर संशय और भय ही देगा; यही अनित्यता की निशानी है। जिसको भी जानो कि आया है और जाएगा, उसको खेल की तरह लेना बस। “संतों आवे-जावे सो माया।” ज्यों ही तुमने अनित्य को खेल की तरह लेना शुरू किया, त्यों ही तुम नित्य में स्थापित हो गए। और दूसरी विधि भी बताए देता हूँ। जिसकी भी संगत करो, पूछ लिया करो, कि “इसकी संगत से हरि मिलेंगे, परमात्मा मिलेगा, शांति मिलेगी?” यदि उत्तर आए ‘हाँ’, तो जान लेना कि नित्य की संगत कर रहे हो। और जिसकी संगत तुम्हें शांति से, मुक्ति से, परमात्मा से दूर ले जाती हो, उसकी संगति जान लेना अनित्य की संगति है।
भेद करना आसान है, भेद पर चलना कठिन है। जैसा मैंने कहा, आदत बुरी पकड़ ली है, संगत बदलो। भेद करना बहुत मुश्किल नहीं; भेद को जीना, विवेक-पूर्ण जीवन जीना, सविवेक जीना, वो ज़रा मुश्किल है।
नित्यमात्मस्वरूपं हि दृश्यं तद्विपरीतगम्। एवं यो निश्चय: सम्यग्विवेको वस्तुन: स वै।।
“आत्मा का स्वरूप नित्य है, और दृश्य उसके विपरीत या अनित्य है। ऐसा जो दृढ़ निश्चय है, वही आत्मवस्तु का विवेक है।”
~अपरोक्षानुभूति (श्लोक ५)
आचार्य: (प्रश्न पढ़ते हुए) पाँचवें श्लोक के सम्बन्ध में जिज्ञासा की है। श्लोक कहता है, “आत्मा का स्वरूप नित्य है, और दृश्य उसके विपरीत अनित्य है। ऐसा जो दृढ़ निश्चय है, वही आत्मवस्तु का विवेक है।” कह रहीं हैं कि “दूसरी पंक्ति समझ में नहीं आ रही है, कृपया स्पष्ट कीजिए।”
दृश्य माने वो जो तुम्हारी आँखों के सामने है, जिसकी गवाही तुम्हारी आँखें दे रही हैं। कुछ है ऐसा जिसकी तुम्हारी आँखों ने गवाही दी हो और वो सदा बचा रह गया हो? आँखों के सामने आएगा ही वही जिसे कभी आँखों के सामने होना है और कभी आँखों के सामने नहीं होना है। बताओ मुझे कुछ है ऐसा जो सदा तुम्हारी आँखों के सामने रहा हो? तो आँखों के सामने जो है उसका क्या भरोसा?
दृष्टव्य जब कुछ होता है तब दृश्य की पूरी प्रक्रिया को तो देखो। जो दिख रहा है उसकी सीमाएँ हैं, तभी वो दिख रहा है। और जो दिख रहा है, वो कभी आया है इसलिए दिख रहा है। समय में उसकी छोटी-सी हस्ती है, अभी दिखा, आगे नहीं दिखेगा। और स्थान में भी उसकी छोटी-सी हस्ती है, वो दिख ही इसीलिए रहा है क्योंकि किसी जगह जा कर के वो ख़त्म हो जाता है। तुमने आज तक कुछ ऐसा देखा क्या जो कहीं ख़त्म ही न होता हो? कुछ यदि ऐसा देख लिया जो कहीं ख़त्म ही न होता हो, तो वो दिखेगा ही नहीं, क्योंकि हमें वस्तु का संज्ञान ही उसकी सीमाओं से होता है। जिसकी सीमा नहीं, वो दृश्यगत नहीं हो सकता।
शंकर यही समझा रहे हैं, कि “जिसको तुमने देख लिया, उसको अनित्य जानना, यही विवेक है।” सारा खेल ही साफ़ कर दिया, सारी व्याधियों की एक जड़ी बता दी — जो दिखे, उसको बस दृश्यगत प्रपंच मानना। दिख रहा है, क्या भरोसा इसका? असल में तुम्हें दिखे का भरोसा होता भी नहीं है, तुम्हें भरोसा होता है अपनी आँखों का। यही तो अहंकार है, “मेरी आँखें हैं, मैंने देखा है। मेरा मन है, उसने निष्कर्ष निकाला है। मेरी बुद्धि ने विश्लेषण किया है। कैसे इसको अनित्य या झूठा मान लूँ?” तो जब शंकर समझा रहे हैं, कि “जो दिखे, उसको अनित्य जानना,” तो वो यही कह रहे हैं कि “अपने-आप को अनित्य जानो। देखने की, जानने की, सोचने की, निष्पत्ति करने की जो हस्ती है तुम्हारे पास, जो प्रक्रिया है तुम्हारे पास, जो पूरा तंत्र है तुम्हारे पास, वो यूँ ही है बस, उसको बड़ी गंभीरता मत दे देना।” शरीर और मन की बात कर रहे हैं। शरीर से देखते हो, छूते हो, सूँघते हो, पकड़ते हो, और मन से अर्थ करते हो; शंकर इन्हीं को अनित्य बता रहे हैं।
शरीर जब अनित्य हुआ, आँखें जब अनित्य हुईं, तभी तो आँखों से जो दृश्य दिख रहा है वो अनित्य हुआ न? तो उन्होंने सीधे-सीधे ये नहीं कहा कि “तुम्हारी आँखें अनित्य हैं, तुम्हारी बुद्धि अनित्य है,” उन्होंने कह दिया, “दृश्य अनित्य है।” दृग को भी कह सकते थे अनित्य है, इतना ही कह दिया, “दृश्य अनित्य है।” और दृग और दृश्य तो साथ-साथ ही चलते हैं। ये भी कह सकते थे कि “व्यक्ति अनित्य है”, पर व्यक्ति को अनित्य कहने की जगह कह दिया, “संसार अनित्य है।” पर व्यक्ति और संसार तो साथ-साथ ही चलते हैं न? लेकिन याद रखना, शंकर का प्रयोजन न दृश्य को अनित्य ठहराने से है, न संसार को अनित्य ठहराने से है, वो वास्तव में तुम्हें ये बता रहे हैं कि “बच्चे, तुम ही अनित्य हो। अपना बड़ा भरोसा मत कर लेना, अपने-आप को गंभीरता से लिया तो चोट खाओगे।” और “तुम अनित्य हो” से आशय क्या है उनका? वो कह रहे हैं, “ये जो तुमने स्थूल देह पकड़ रखी है, जिससे तुम्हारा तादात्म्य है, जिससे तुमने पहचान बाँध ली है, और ये जो मन के साथ बड़ा जुड़ाव है तुम्हारा, ये सब अनित्य हैं। इनको न कह देना कि ‘ये हूँ मैं’। ‘ये हूँ मैं’ जैसे ही तुमने कहा, तुमने अनित्य को आत्मा का दर्जा दे दिया, और आत्मा अनित्य नहीं, नित्य है।”
जब शंकर कहते हैं, “तुम अनित्य हो”, तो उससे क्या आशय है उनका, क्या वो आत्मा को अनित्य कह रहे हैं? नहीं, आत्मा को अनित्य नहीं कह रहे, वो उसको अनित्य कह रहे हैं जिससे तुम्हारा तादात्म्य है, और तुम्हारा तादात्म्य आत्मा से तो है नहीं। तुम यदि आत्मा से एक होते, आत्मस्थ ही होते, तो शंकर तुमसे कभी न कहते कि तुम अनित्य हो। पर तुमने अपने-आप को आत्मा माना कब? तुम तो अपने-आप को न जाने क्या-क्या मानते हो! अपने-आप को आत्मा मानना तो बड़ा मुश्किल काम है, क्योंकि आत्मा मानने की बात ही नहीं, आत्मा कोई विषय नहीं जिसे माना जा सके। तुम तो अपने-आप को कभी आदमी कभी औरत, कभी अमीर कभी गरीब, कभी सुखी कभी दुखी, कभी यहाँ कभी वहाँ, कभी ऐसा कभी वैसा, कुछ-न-कुछ मानते रहते हो। शंकर तुमसे कह रहे हैं, “जो कुछ भी तुम अपने-आप को मानते हो, ज़रा उसे हल्के में लो, ज़रा उसे गंभीरता कम दो।”
ठीक?
(प्रश्न पढ़ते हुए) पहला प्रश्न है कि “आत्म-अनात्म, विवेक बिलकुल समझ नहीं आया।”
अब तक तो आ गया होगा? आत्म क्या, अनात्म क्या, समझाया।
देखो सारी बात कही इसलिए जाती है ताकि तुम धोखा न खाओ, दुःख न पाओ। अध्यात्म में जो कुछ कहा जा रहा है वो तुमसे कहा जा रहा है। अध्यात्म में जो कुछ कहा जा रहा है वो एक दुखी मन से कहा जा रहा है। अध्यात्म में जो कुछ कहा जा रहा है वो एक तपते हुए, जलते हुए मन से कहा जा रहा है। इसीलिए तुम यदि ग्रंथ के सर्जकों से पूछो, कि “तुमने इन ग्रंथों को क्यों रचा”, तो वो कहेंगे, “त्रय-ताप से मुक्ति के लिए।” और क्या हैं ये ताप-त्रय? तुम्हारे हर प्रकार के कष्ट, बेचैनियाँ; चाहे वो दैव से उत्पन्न हों, चाहे शरीर से उत्पन्न हों, प्रारब्ध से आए हों, चाहे तुम्हारे कर्मों से आए हों। तो अध्यात्म तुम्हारे लिए है, क्योंकि तुम परेशान हो, क्योंकि तुम जल रहे हो। अब इस पृष्ठभूमि में समझो कि आत्म क्या और अनात्म क्या। आत्म वो जिससे साझा कर के तुम्हें दुःख न हो, बल्कि तुम्हारा दुःख मिटे। अध्यात्म की पृष्ठभूमि समझ रहे हो? अध्यात्म किसलिए है? जिन्होंने अध्यात्म दिया तुमको, उन्होंने करुणावश दिया, तुम्हारा दुःख मिटाने के लिए दिया। तो उसमें जो कुछ भी कहा गया है वो किस दृष्टि से कहा गया है? तुम्हारा दुःख मिटाने की दृष्टि से। तो अगर उन्होंने समझाया, कि “आत्म और अनात्म का भेद करो”, तो वो भी किसलिए समझाया है, ताकि तुम्हारा?
प्र: दु:ख मिटे।
आचार्य: दुःख मिटे। तो निश्चित रूप से आत्म वो हुआ जिससे पहचान बना कर के दुःख मिटता है, और अनात्म वो हुआ जिसके साथ साझा करोगे तो दुःख मिलेगा, बढ़ेगा।
समझ रहे हो?
दुःख तुम्हें कब मिलता है? जब भरोसा करो, भरोसा टूट जाए। यही है न तुम्हारे दैनिक जीवन का अनुभव? जो चाहा सो हुआ नहीं, दुःख मिला, यही तो दुःख है। तो आत्म वो जो तुम्हारी गहरी-से-गहरी चाहत को पूर्ति दे दे; और तुम्हारी गहरी-से-गहरी चाहत ये है कि शांत हो जाओ, तुम्हारी गहरी-से-गहरी चाहत ये है कि राहत मिल जाए, बेचैनी ज़रा मिट जाए।
समझ रहे हो बात को?
अनात्म वो जिसको समझोगे कुछ, वो निकलेगा कुछ और; चोट लगेगी, धोखा खाओगे, बेचैनी से पीछा छुड़ाना चाहते थे, बेचैनी को और बढ़ा हुआ पाओगे। आत्म-अनात्म, विवेक के मूल में है अपनी चाहत को पहचान पाने की ताक़त और संवेदनशीलता। जानो कि तुम क्या चाहते हो, और फिर देखो कि वो कहाँ उपलब्ध होगा; जहाँ उपलब्ध होता हो, उसे कहते हैं आत्मा, और जहाँ उपलब्ध न होता हो पर उपलब्ध होने का भ्रम होता हो, उसे कहते हैं अनात्मा, झूठ, भ्रम, माया, प्रपंच, अविद्या।
ठीक?
(प्रश्न पढ़ते हुए) अगला, “अपरोक्षानुभूति और उसमें बताए गए सभी साधनों का सत्पुरुषों को प्रयत्नपूर्वक पालन करना चाहिए, ऐसा ग्रंथ का कहना है।” तो पूछतीं हैं, “सत्पुरुष कहते किसको हैं?”
सत्पुरुष वो जिसे सत् की चाह हो। सत् वो जो वास्तव में है, सत् वो जो मिटेगा नहीं। हम सब हैं सत्पुरुष ही, पर ज़रा भटके हुए सत्पुरुष हैं, तो चाहते तो सत् को हैं, पर सत् चाहते-चाहते असत् के फेर में फँस जाते हैं। सब सत्पुरुष हैं।
जिसे सत् की चाह, सो सत्पुरुष।
अपरोक्षानुभूतिर्वै प्रोच्यते मोक्षसिद्धये। सद्भिरेषा प्रयत्नेन वीक्षणीया मुहुर्मुहु:।।
“अपरोक्षानुभूति मोक्ष-सिद्धि के लिए कही गई है। सत्पुरुषों को इसे प्रयत्नपूर्वक बारम्बार विचारना चाहिए।”
~अपरोक्षानुभूति (श्लोक २)
स्ववर्णाश्रमधर्मेण तपसा हरितोषणात्। साधनं प्रभवेत्पुंसां वैराग्यादि चतुष्टयम्।।
“अपने वर्णाश्रम धर्म और तपस्या द्वारा श्रीहरि का प्रयत्न करने में मनुष्यों को वैराग्यादि साधन-चतुष्टय की प्राप्ति होती है।”
~अपरोक्षानुभूति (श्लोक ३)
आचार्य: (प्रश्न पढ़ते हुए) फिर अगले श्लोक से जिज्ञासा करतीं हैं। पूछ रहीं हैं, “वर्णाश्रम धर्म का क्या अर्थ है और साधन-चतुष्टय क्या है?” इत्यादि।
वर्णाश्रम धर्म का अर्थ है भौतिक रूप से, जैविक रूप से आपकी संसार में जो स्थिति हो, उस स्थिति को खयाल में लेते हुए सत्य की ओर बढ़ना — यही धर्म है। वर्ण का अर्थ समझ लीजिए कि मनुष्यों के जगत में आपकी हालत और हैसियत क्या है। आप दूकान करते हो, आपका एक वर्ण है, आप खिलाड़ी हो, आपका दूसरा वर्ण है। ये वर्ण कोई आत्यंतिक नहीं, इन वर्णों में कुछ भी एब्सोल्यूट नहीं, पर ये वर्ण आपकी सापेक्ष-स्थिति को तो दर्शाते ही हैं। लिंग के आधार पर, आर्थिक-स्थिति के आधार पर, देश, काल, समय, स्थान के आधार पर आपके लिए जो उचित है वो बदलता रहता है, वो हुआ आपका वर्ण-धर्म। इसी प्रकार उम्र के आधार पर आपका धर्म बदलता रहता है, वो हुआ आपका आश्रम।
शास्त्र कुछ इस तरह से समझाते हैं; इशारा भर है, इशारे को समझिएगा। पच्चीस की उम्र तक आप एक आश्रम में हो, फिर दूसरे आश्रम में हो पचास तक, फिर पिचहत्तर तक तीसरे, फिर चौथा आश्रम। आशय क्या है उसका? ऐसा नहीं कि छब्बीसवें साल के पहले दिन आश्रम बदल जाता है। ऐसा नहीं कि चौहत्तर साल और तीन-सौ-चौंसठ दिन के हो तो एक आश्रम है और पिचहत्तरवाँ साल लगा तो तभी पैगाम आएगा कि आज से आश्रम बदल गया। अहाँ! मोटा-मोटा इशारा है। इशारा ये है कि उम्र के साथ-साथ तुम्हारी स्थिति बदल रही है। और स्थिति उम्र के साथ-साथ ही नहीं, तमाम घटनाओं के साथ-साथ बदलती है, वो बदलने की चीज़ है, वो बदलती रहेगी। देखो कि तुम अपनी यात्रा के किस मुक़ाम पर हो, और फिर सजगता से, सविवेक निर्धारित करो कि अब सत्य की ओर रास्ता कैसे जाता है, यही धर्म है। ये वर्णाश्रम धर्म हुआ।
फिर कह रही हैं कि “जो चार साधन या गुण बताए गए हैं...” कौन-से चार साधन बताए गए हैं? वैराग्य, विवेक, षडसम्पति, और मुमुक्षा। कह रही हैं, “...ऐसा लगता है मुझे कि एक ही बहुत है, क्योंकि बाकी सारे गुण तो उससे जुड़े हुए ही हैं।” पूछ रही हैं कि “ऐसा मानना क्या मेरा भ्रम है, या प्रत्येक गुण अपने-आप में अलग-अलग है, दूसरे से जुड़ा हुआ नहीं?”
आपकी बात ठीक भी है और नहीं भी। वास्तव में गुण तो एक ही होता है – सत्यनिष्ठा; और वो यदि है आप में, तो बाकी सब उसके पीछे-पीछे छाया की तरह चले आते हैं। पर जिसको सत्यनिष्ठा लग गई, जग गई, उसको तो फिर सब-कुछ अपने-आप ही स्पष्ट हो जाएगा। उसके लिए तो सारे भेद मिट गए, उसको तो अब बस एक ही चीज़ से प्रयोजन है – सत्य से, सच्चाई से, परमात्मा से। उसको बाँट कर बताने की ज़रूरत नहीं, कि “चार साधन हैं, और चार साधनों में भी जो तीसरा साधन है उसके छः हिस्से हैं – दम, शम, तितिक्षा, उपरति, श्रद्धा, समाधान”, अब उसको बताने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। लेकिन ये भी तो देखिए कि बताया किसे जा रहा है। बताया उसे जा रहा है जो फँसा हुआ है, बताया उसे जा रहा है जिसकी सत्यनिष्ठा अभी धूमिल है, सीमित है, तो उसको तरह-तरह से बताना पड़ता है।
वास्तव में है तो ऐसा ही, कि जहाँ तितिक्षा है वहाँ उपरति है, और जहाँ वैराग्य है वहाँ विवेक है, और जहाँ श्रद्धा है वहाँ समाधान है। तो बाँट कर बताने की कोई आवश्यकता थी नहीं, पर किसको बाँट कर बताने की आवश्यकता नहीं थी? उसको जिसका दिल बस एक के लिए मचल रहा हो, जो एकनिष्ठ हो गया हो। जो एकनिष्ठ नहीं हुआ, वो बँटा हुआ है न कइयों में? और जो कइयों में बँटा हुआ है, उसे कई तरीकों से बताना पड़ता है। जो एकनिष्ठ हो गया होता, उसको तो एक ही तरीका काफ़ी था, पर हम एकनिष्ठ नहीं हैं, हम बहुनिष्ठ हैं, हम जगतनिष्ठ हैं। चूँकि हम बहुनिष्ठ हैं, इसीलिए हमें बहुत तरीकों से बताना पड़ता है, बात एक ही है, मूल बात एक ही है।
(प्रश्न पढ़ते हुए) कह रहे हैं, “प्रिय आचार्य जी, नमन। देह-भाव गहरा दिखता है। शंकराचार्य जी सीधे बोलते हैं, ‘रे मूर्ख!’ बुरा भी लगता है और प्रेरणा भी मिलती है कि कुछ और संभव है। कृपया प्रकाश डालें।”
देखो, तुम्हारे अनुभव ही सारी कहानी बयान कर देते हैं। कह रहे हो न, कि “देह-भाव पता भी चलता है, बुरा भी लगता है”, मूर्ख कहलाए जाते हो तो चोट भी लगती है, ये सब अनुभव हो रहे हैं न रोज़? तो सारी कहानी तुम्हें पता ही है। इसलिए थोड़े ही जी रहे हो, और इसलिए थोड़े ही जन्मे हो, कि चोट खाते रहो और बुरा लगता रहे।
मैं क्या बताऊँ तुम्हें, और क्या सीख शंकराचार्य दें तुम्हें? सब तो जानते हो। अपनी दशा भी जानते हो, अपनी बेचैनी, अपनी विकलता भी जानते हो। जवाब तुम्हें देना है, कि क्यों कीचड़ में लथपथ हो, क्यों दुःख को पकड़े बैठे हो? मुट्ठी में अंगारा दाब रखा है और भींच रखी है, खोलते ही नहीं, क्यों? तुम्हें बताना है न? बौद्धिक तल पर, सैद्धान्तिक तल पर तो सब जानते हो। और बौद्धिक, सैद्धान्तिक तल पर यदि नहीं भी जानते होते, तो अनुभव के तल पर तो जानते ही हो न? ईर्ष्या में, कलह में, क्लेश में, संशय में, भय में जिए जा रहे हो न? और ऐसे जीना तुम्हें अच्छा तो नहीं लगता। तो तुम्हारे अनुभव ही, जैसा मैंने कहा, सारी कहानी बयान कर रहे हैं। अब तुम बताओ कि इन अनुभवों के साथ जीना क्यों गँवारा है तुमको? जीना इसलिए गँवारा है क्योंकि प्रारब्ध के चलते अपने आस-पास सबको इसी तरह जीता देख रहे हो, और कोई बात ही नहीं है, तो तुमने ये धारणा पकड़ ली है कि ऐसे ही जिया जाता है। और आत्मविश्वास तुम्हारा टूट गया है, तुम कहते हो, “मैं होता कौन हूँ अकेला विद्रोह करने वाला? जब सब ही दबा-कुचला, गया-गुज़रा जीवन जी रहे हैं, तो शायद जीवन ऐसा ही होता होगा, मैं भी जिए लेता हूँ। शायद जीने का अर्थ ही होता होगा दुःख पाना, तो मैं भी दुःख पिए जाता हूँ।” दुःख तुम्हें हो रहा है, पर दुःख के साथ तुमने समझौता कर लिया है। मत करो!
दुःख जीवन में अनिवार्य नहीं है, तुम बेवकूफ़ बन रहे हो। और तुम बेवकूफ़ सिर्फ़ इसलिए बन रहे हो क्योंकि तुम्हारे चारों ओर लोग ऐसे हैं जिन्होंने बेवकूफ़ी में ही जीवन बिताया है। बिलकुल एक नया जीवन संभव है; और संभव नहीं है, समक्ष है, हाथ बढ़ाने भर की देर है। तो माँगो तो सही! माँगना भी ज़रूरी नहीं है, तुम अपनी स्वीकृति तो दो, तुम हामी भरो, फिर देखो। मौखिक हामी से काम नहीं चलेगा, तुम्हारा जीवन गवाही दे कि तुमने हामी भरी है। जो कुछ तुम्हें दुःख देता हो, उसे छोड़ने को तैयार हो जाओ, चाहे वो बाहरी हो, चाहे भीतरी हो। पाओगे यही, कि दुःख का मूल कारण भीतरी है, उसको छोड़ना पड़ेगा। कुछ ऐसा पकड़ रखा है तुमने जिसे जब तक पकड़े रहोगे चोट-पर-चोट खाओगे, उसे छोड़ना होगा।
कुछ बुरा नहीं हो जाएगा छोड़ दोगे तो, बहुत-बहुत भला ही होगा, थोड़ा यकीन तो करो। और ऐसा भी नहीं कि यकीन तुम करते नहीं, बस विवेक की कमी है तो यकीन ग़लत लोगों पर किए जा रहे हो। ज़रा गुरुओं पर और ग्रन्थों पर यकीन कर के तो देखो। जो लोग यकीन के क़ाबिल नहीं थे, तुमने उन पर विश्वास रखा, और तुम्हारे विश्वास ने इतनी चोट खायी, इतनी चोट खायी कि अब तुम उस पर भी यकीन नहीं कर पाते जिस पर यकीन किया जाना चाहिए। ये दोतरफ़ा नुकसान हुआ न? ग़लत जगह यकीन किया, चोट खायी, और अब सही जगह यकीन नहीं कर पा रहे; दोनों तरफ़ से मारे गए। थोड़ा प्रयोग करो, छोटे-छोटे कदम बढ़ाओ; टूटा भरोसा जुड़ने लगेगा, थोड़ा आज़मा कर तो देखो।
(प्रश्न पढ़ते हुए) कह रहे हैं, “आचार्य जी से मेरा प्रश्न ये है कि हम अपनी रोज़मर्रा की गतिविधियों के मध्य आत्मा में कैसे अवस्थित रह सकते हैं? क्या कोई विधि है जिसका हम पालन करें?”
आप जो भी कर रहे हैं, जैसे भी जी रहे हैं, उसकी तरफ़ आँखें खुली रखें।
“तेरा साँईं तुझमें है”, सारी ताक़त तुझमें है। जहाँ हो वहीं पर सच्चाई दिख जाएगी, बस ये माँग मत करना कि सच्चाई दिखने के बाद भी वहीं रह जाओगे जहाँ हो। दिख तो वहीं पर जाएगी, और अभी (दिख) जाएगी, पर दिखने के बाद क्या होगा, इसके निर्धारक तुम नहीं होने वाले। तुम कह रहे हो कि “रोज़ की दिनचर्या में आत्मा में अवस्थित रहें, अबाइडेंस इन द् सेल्फ़।” जो आत्मा में अवस्थित रहता है, उसकी दिनचर्या का निर्धारण फिर आत्मा करती है। ये माँग करी यदि तुमने, कि “दिनचर्या मेरी वैसी ही चलती रहे जैसे चल रही है, और साथ-ही-साथ आत्मा का रस भी मिलता रहे”, तो तुम असंभव माँग कर रहे हो। चुन लो तुम, आत्मा चाहिए या अपनी बँधी-बँधाई दिनचर्या, किससे प्यार है? जिन्हें आत्मा चाहिए, वो जानते हैं कि आत्मा सब-कुछ है, उसके लिए वो कुछ भी छोड़ने को तैयार हो जाते हैं। और जो बाकी चीज़ों से बँधे हुए हैं, उन्होंने तो पहले ही घोषणा कर दी, कि “आत्मा हमें चाहिए नहीं।” आत्मा अगर तुम्हें चाहिए नहीं तो मिलेगी क्यों?
सुबह उठते हो, नाश्ता करते हो, गाड़ी में बैठते हो, अपने कार्य-स्थल जाते हो; लगातार-लगातार अनुभव हो रहे हैं न? देखो कि अनुभवों की पूरी प्रक्रिया क्या है – एक प्रयोगकर्ता की तरह, साक्षी की तरह, निरपेक्ष आलोचक की तरह, निष्पक्ष लेखक या संवाददाता की तरह – जिसका काम बस समझना है, जिसका काम मात्र देख लेना है, मात्र चैतन्य होना है। हँस रहे हो, देखो कि कोई कैसे हँसा गया तुमको। रो रहे हो, देखो कि क्या छिनने का दुःख पकड़ गया तुमको। बेहोशी के बहाव में बहे मत चले जाओ, और थोड़े ही कुछ चाहिए, इसके अलावा और क्या विधि है? चौबीस-घण्टे की अपनी चर्या में ही तुमको दिख जाएगा क्या शुभ है तुम्हारे लिए, क्या अशुभ है। जो शुभ पाओ, उसकी संगत बढ़ाओ, उसके और करीब जाओ। जिसको अशुभ पाओ, उससे दूरी करो, भले ही उसके साथ में कितना ही भौतिक लाभ होता हो। यही विधि है।
जीवन को सँवारने के लिए जीवन का ही प्रयोग करना पड़ता है। जिसमें जी रहे हो, उसको ही यदि सचेत हो कर के देखोगे, तो वो खिल उठेगा। चोट सिर्फ़ इसलिए लगती है क्योंकि एक बड़ी पुरानी बेहोशी ने पकड़ा हुआ है। वो बेहोशी वैकल्पिक है, तुम चुनते हो उसको। प्रमाण दिए देता हूँ। प्रमाण ये है कि कभी-न-कभी होश में तो आते हो न? और होश के बाद बेहोशी का आना स्वभाव नहीं है, होश के बाद यदि बेहोशी आ रही है तो तुमने बेहोशी को चुना है, ये पागलपन है। और समझना तुम, होश मुक्ति का नाम है। होश में तुम्हें पूरी छूट है, होश में तुम्हें ये भी छूट है कि तुम बेहोश हो जाओ। जब होश में रहो, तब बेहोशी न चुनो, जब बेहोश हो, तब की बात मैं कर नहीं रहा। पर चौबीस घण्टे में कभी-कभी तो होश जगता होगा न? तब चुनो, कि “अब होश जगा है, अब होश में ही रहूँगा। और बेहोशी के आगामी ख़तरे से बचने के लिए अभी ही कुछ इंतज़ाम किए लेता हूँ, क्योंकि अभी होश है, अभी इंतज़ाम किया जा सकता है, कुछ प्रबंध लगाता हूँ।”
यही तरीका है, और कोई तरीका नहीं।