रिवॉल्वर बचाकर रखो, असली दुश्मन दूसरा है || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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रिवॉल्वर बचाकर रखो, असली दुश्मन दूसरा है || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्न: आचार्य जी, जीवन की छोटी-छोटी बातों में भी भ्रमित रहता हूँ कि क्या करना उचित है और क्या अनुचित।

आचार्य प्रशांत: एक फ़िल्म देखी थी मैंने। उसमें समझ ही में न आए कि नायक इतना पिट क्यों रहा है। पिक्चर का क्लाइमेक्स है, चरम पर पहुँच चुकी है। दुश्मनों के गढ़ में घुसा हुआ है हमारा नायक, और उसके हाथ में रिवॉलवर भी है। और लोग आ रहे हैं, उसको पीट रहे हैं; वो उनका मुकाबला भी कर रहा है तो खाली हाथ। वो उसको तरह-तरह के हथियारों से मार रहे हैं; वो उनका मुकाबला भी कर रहा है तो निहत्था होकर के। जबकि उसकी जेब में रिवॉल्वर है। वो भरसक कोशिश ये कर रहा है कि बचा लूँ अपने-आपको। जितना कम-से-कम लड़ना पड़े, उतनी कम-से-कम लड़ाई कर रहा है। हालांकि, दूसरे पक्ष के लोग उससे उलझने को बड़े आमादा हैं। वो तो चाहते ही हैं कि उसको रोक लें। वो रुकना नहीं चाह रहा।

जब तक वो पिट रहा था तब तक भी बात बर्दाश्त के भीतर थी। एक दृश्य आता है जिसमें उसको गोली ही मार देते हैं। उसको गोली मार देते हैं, वो फिर भी रिवॉलवर बाहर नहीं निकाल रहा है। वो किसी तरीक़े से अपने-आपको बचाए-बचाए आगे बढ़ रहा है; उसे दुश्मन के दुर्ग के शिखर तक पहुँचना है। वो बढ़ता ही जा रहा है, पिटता जा रहा है, गोली खाता जा रहा है, और आगे बढ़ता जा रहा है। और ये बात बड़ी विचित्र लग रही है कि - ये इतना कम विरोध क्यों कर रहा है? ये जो लोग इसको मार रहे हैं, घायल कर रहे हैं, ये भी उनको घायल क्यों नहीं कर देता? और नायक है भई हमारा। बाहुबल भी है उसमें और रिवॉल्वर बल भी है। पर ये दिखाई दे रहा है कि वो कम-से-कम विरोध करते हुए, कम-से-कम उलझते हुए सीधा आगे बढ़ रहा है। कई गोलियाँ खा लेता है वो।

अंततः वो जो प्रति नायक है, खलनायक है, जो चीफ विलेन है, उस तक जा पहुँचता है। फिर वो अपना रिवॉल्वर निकालता है, कैमरा रिवॉल्वर की मैगज़ीन पर ज़ूम करता है, और पता चलता है कि उसके पास गोली बस एक थी। और वो प्रमुख खलनायक के माथे पर, कनपटी पर लगाकर के गोली दाग देता है।

उसने किसी से उलझना बर्दाश्त ही नहीं किया, क्योंकि उसके पास गोली एक है, और उसको पता है कि उस गोली का इस्तेमाल कहाँ करना है, और कहाँ वो उस गोली का इस्तेमाल करेगा ही नहीं। बाकी जगहों पर उलझना भी पड़ा, तो अपनी न्यूनतम ऊर्जा व्यय करेगा, कम-से-कम उलझेगा क्योंकि उसे आगे बढ़ना है। उसे पता है कि असली दुश्मन कौन है; बाकियों को तो जानता है कि गुर्गे हैं, प्यादे हैं। इनसे उलझ कर क्या मिलेगा? मूर्ख होते हैं जो प्यादों से उलझते हैं।

रिवॉलवर बचाकर रखो, असली दुश्मन दूसरा है। गोली एक ही है तुम्हारे पास, उसको ज़ाया मत करो, बर्बाद मत करो। और जो असली दुश्मन है, वो तो ये चाहता ही है कि तुम अपनी ऊर्जा को, अपने अस्त्र को ग़लत जगह पर व्यय कर दो।

महाभारत याद है न? कर्ण के पास शक्ति थी। उसके पास एक विशिष्ट बाण था जो उसने अर्जुन के लिए संभालकर रखा हुआ था। कृष्ण ने घटोत्कच से खूब उपद्रव कराया, बड़ी मारकाट करवाई, ताकि कर्ण को उस शक्ति को घटोत्कच के ऊपर व्यय करना पड़ जाए। घटोत्कच मारा गया, कृष्ण मुस्कुरा दिए, बोले, "अब अर्जुन सुरक्षित है।" घटोत्कच की मृत्यु कर्ण की हार थी।

कौरव सेना ने बड़ी ख़ुशी मनाई, दुर्योधन ने बड़ा धन्यवाद दिया कि, "भला किया मित्र कर्ण, जो तूने घटोत्कच को मार दिया।" कर्ण दुःखी था। कर्ण ने कहा, "मैंने घटोत्कच को नहीं ख़ुद को मार दिया। इस शक्ति का इस्तेमाल सिर्फ़ अंतिम लक्ष्य पर होना चाहिए था। इस शक्ति का इस्तेमाल सिर्फ़ आख़िरी मंज़िल पर होना चाहिए था। वो शक्ति रास्ते में ही बर्बाद हो गई। तुम ख़ुशी किस बात की मना रहे हो? ये घटोत्कच नहीं मर रहा, दुर्योधन, ये मैं मर रहा हूँ।" ऐसा कर्ण ने कहा।

तुम्हारे पास भी शक्ति है, जिसको तुम इधर-उधर के छोटे-मोटे लड़ाई-झगड़ों में बर्बाद कर देते हो। हमारी पिक्चर के नायक को याद रखना। वो पिटता रहा, अपमान सहता रहा, घूँसे खाता रहा, लात खाता रहा, यहाँ तक की गोलियाँ भी खाता रहा, लेकिन उलझा नहीं। वो अपनी रिवॉल्वर को बचाए-बचाए सीने से लगाए-लगाए आख़िरी दुश्मन तक पहुँचा और वहाँ उसने चलाई गोली।

देने वाले ने तुम्हें भी आख़िरी दुश्मन को परास्त करने के लिए पर्याप्त शक्ति दी है, पर्याप्त बल दिया है। तुम्हारे भी रिवॉल्वर में एक वो गोली है जो तुम्हारे सबसे बड़े दुश्मन को मार सकती है। तुम्हारे भी तरकश में एक वो शक्ति है जो तुम्हारे सबसे बड़े शत्रु को संघार सकती है। लेकिन तुम अपने तरकश के तीर को ग़लत जगह चला देते हो। तुम अपनी गोली को, बुलेट को, दुश्मन के प्यादों और गुर्गों और छोटे-मोटे लोगों से उलझने में बर्बाद कर देते हो। उसका नतीजा ये होगा कि जब असली दुश्मन तुम्हारे सामने आएगा तब तुम्हारे पास उसका सामना करने के लिए कोई बल, कोई सामर्थ्य, कोई अस्त्र नहीं होगा। फिर तुम हारते हो, और बहुत बुरी तरह हारते हो।

तुम्हारी सारी हारे हैं ही इसीलिए क्योंकि तुम्हें जो ताक़त मिली थी वो तुमने प्यादों पर बर्बाद कर दी। प्यादों से मत उलझो।

सोचो, कितना क्रोध आ रहा होगा हमारे नायक को जब वो पिट रहा होगा। गहन इच्छा तो उसे भी उठती होगी न कि - "ये मुझे इतना मार रहे हैं, क्यों न अभी रिवॉल्वर निकाल ही दूँ और गोली चला ही दूँ?" उसको भी तो उत्तेजना, ताप, क्रोध आता होगा न? बदला लेने का उसका भी तो जी करता होगा। पर ये होता है इंद्रजीत―वो अपनी इंद्रियों को जीते हुए है। बड़ी इच्छा हो रही है कि पलटकर वार कर दे। वो कह रहा है कि - "पलटकर वार नहीं करूँगा। वार तभी करूँगा जब आख़िरी लड़ाई होगी। उससे पहले मैं बर्दाश्त करने के लिए राज़ी हूँ।"

तुम छोटी-छोटी बात में वार कर देते हो, हाथ चला देते हो, बहस कर लेते हो; तुम्हारा रिवाल्वर तो कब का खाली हो चुका। अब जब शैतान सामने आएगा तो कैसे लड़ोगे? और शैतान अट्टहास करेगा, वो कहेगा, "ये देखो, मेरे दो-कौड़ी के सिपाहियों के ही सामने तुम अपनी सारी ऊर्जा चुका आए हो। अब तुम खोखले हो, ऊर्जाहीन हो, बलहीन हो। मेरा सामना करने के लिए तुम्हारे पास अब कुछ नहीं बचा।"

अध्यात्म में संयम का विशेष महत्व है। और अध्यात्म में सूरमाओं का भी विशेष महत्व है। तुमने कभी सोचा नहीं कि एक तरफ़ तो इतना सिखाया जाता है — तितिक्षा, संयम, धैर्य, और दूसरी तरफ़ अध्यात्म में ही ये भी कहा जाता है कि - "तुम्हें सूरमा होना चाहिए, बड़ा लड़ाका होना चाहिए।" ये दोनों बातें परस्पर विरोधी नहीं हैं; ये दोनों बातें साथ-साथ चलती हैं।

छोटी लड़ाईयों में संयम रखो, छोटी लड़ाईयों में हार जाओ; स्वेच्छापूर्वक हार जाओ। और बड़ी लड़ाईयों में सूरमा बन जाओ। ये दोनों बातें साथ-साथ ही चलेंगी।

छोटे मुद्दों की अवहेलना करो, उपेक्षा करो; छोटी चीज़ों के प्रति उदासीन हो जाओ। और जब बात आए बड़े की, तो प्रण-प्राण से जूझ जाओ। कह दो, "अब यहाँ जान भी जाती हो तो जाए, इस मुद्दे पर तो हम पीछे नहीं हटेंगे।"

ये हुई तुम्हारी सूरमाई।

जिसमें संयम है, वही सूरमा हो सकता है। जिसमें छोटी बातों को अनदेखा करने का, अनसुना करने का संयम है, वही बड़े युद्धों में सूरमा हो सकता है। संयमी ही सूरमा।

और जिसने अपनी सूरमाई गुर्गों के सामने दिखा दी, वो असली लड़ाई में बहुत पिटेगा।

सारी तो तुम्हारी ताकत केले वालों से उलझने में निकल जाती है! अब ज़िंदगी की असली चुनौतियों का कैसे सामना करोगे? दिनभर उलझे ही रहते हो - कामवाली बाई से उलझ गए, पार्किंग में किसी से उलझ गए, दुकान में किसी से उलझ गए, दफ्तर में किसी से उलझ गए। चले आ रहे थे, किसी ने कोनी मारी, मुद्दा खड़ा कर दिया! कोई अपना कुत्ता घुमा रहा है, उसका कुत्ता तुम पर भौंक गया, तुम एफआईआर करने पहुँच गए। दिनभर तो तुम ख़ुद को बर्बाद कर रहे हो इन टुच्ची चीज़ों में, अब बताओ असली लड़ाई कैसे लड़ोगे?

असली लड़ाई लड़ सको, इसके लिए अपने बल की ज़रा कद्र करो, सम्मान करो। अपने बल का संचय करो। असली लड़ाई लड़ सकने के लिए अपने बल की संचय-साधना को ही 'ब्रह्मचर्य' कहते हैं।

बात आ रही है समझ में?

छोटे-छोटे मुद्दों में उलझेंगे नहीं, छोटी-छोटी जगहों पर अपनी ऊर्जा को बिखरने से, खंडित होने से बचाएँगे, ताकि बड़े मिशन में फिर उसका सदुपयोग हो सके। यही ब्रह्मचर्य है।

प्रश्नकर्ता(प्र): सर, असली लड़ाई किससे है?

आचार्य: जो तुम्हारा असली दुश्मन है, पहले उसकी पहचान कर लो, उसी से असली लड़ाई है। छोटे दुश्मनों से उलझे रहोगे, तो बड़ा वाला दिखाई ही नहीं देगा।

प्र: हमारा असली मिशन क्या है?

आचार्य: मुझे क्या पता! मिशन तुम्हारा है, बताऊँगा मैं?

अपने जीवन की ज़िम्मेदारी उठाओ! मुझसे कह रहे हो आप कि तुम्हारा असली मिशन क्या है। मैं तुमसे कहूँ कि - इस प्रश्न का असली उत्तर क्या है? उत्तर किसे देना है? मुझे। तो उत्तर पता भी किसे होना चाहिए? मुझे।

प्र: कुछ काम करने में हमें अंदर से लगता है कि हमें करना चाहिए। कुछ ऐसे काम होते हैं जो अच्छे-से-अच्छे लोग भी बोलते हैं कि करने चाहिए, पर हमारा अंदर से मन नहीं करता, तो हम नहीं करते। तो जहाँ हमारा मन लगता है, वहीं से हमें हमारा मिशन पता चले?

आचार्य: मन तो पचास चीज़ों का करता है। देख लो कि जो कुछ कर रहे हो, उसका अंजाम क्या है। अंजाम में जहाँ शांति मिलती हो, उधर को बढ़े जाओ। और अंजाम में जहाँ धोखा मिलता है, छल मिलता हो, कलह मिलती हो, वहाँ से दूर हटो।

आकर्षक तो बहुत चीजें लगती हैं; बात आकर्षण की नहीं, अंजाम की है।

प्र: मुक्ति की फिर क्षण-प्रतिक्षण प्रेक्टिस (अभ्यास) करनी चाहिए? यदि मैं उसको कोई फाइनल गोल रखता हूँ, तो बहुत प्रेशर आता है।

आचार्य: हाँ। बहुत बढ़िया। ठीक अभी जो चीज़ मन को ख़राब कर रही हो, उससे हटो।

प्र: मन को ख़राब कर रही हो, माने अशांत कर रही हो? तो फिर मैं सही पथ पर हूँ?

आचार्य: (मुस्कुराते हैं) प्रतिपल पथ का निर्माण करना पड़ता है। पहले से निर्धारित कोई पथ नहीं है कि "शांति-पथ,” और तुम चल पड़े उसपर। तुम ये भी कह सकते हो कि - तुम्हारी अशांति ही उस पथ का निर्माण करती है जो शांति की ओर जाता है। सुनने में ये बात विचित्र लगेगी। पथ तो चाहिए ही नहीं न अगर शांत हो। अगर शांत हो, तो कोई पथ चाहिए क्या? फिर तो मंज़िल ही मिल गई। पथ तो तभी चाहिए जब अशांत हो। तो पथ का निर्माण ही तुम्हारी अशांति करती है।

प्र: योग, प्राणायाम, अच्छा कर्म—ये सब कितनी मदद करते हैं शांति में?

आचार्य: तुम देख लो। इनसे जीवन अगर सुधर रहा हो तो इनके साथ आगे बढ़ो।

प्र: पर ये कारण नहीं हैं शांति के, मुक्ति के लिए?

आचार्य: नहीं।

प्र२: मनोरंजन हमारी आदत है, या अनिवार्य आवश्यकता है?

आचार्य: द्वैत का झूला।

तुम आमतौर पर जैसे रहते हो, उसमें तुम्हें दुःख मिलता है, तो फिर तुम कृत्रिम तरीक़े से अपने लिए सुख की रचना करते हो। ये मनोरंजन है। तुम अगर बहुत सुखी हो, तो क्या तुम मनोरंजन की तरफ भागोगे? मनोरंजन की तरफ़ तो तभी भागते हो जब ऊबे होते हो, थकान होती है, दुःख और विषाद होता है।

दुःख, निराशा, अवसाद, थकान आदि बुरे तो सभी को लगते हैं। पर बुरे भले ही लगते हों, उनके सामने तुम्हारे पास दो रास्ते होते हैं। एक तो ये कि - दुःख बहुत बढ़ गया है तो सुख पर कूद जाओ; द्वैत के एक सिरे से दूसरे सिरे पर कूद जाओ। और दूसरा ये कि - कुछ ऐसा इंतज़ाम कर लो कि दुःख-सुख के झूले से ही उतर जाओ।

जब तक झूले पर हो, कभी एक पक्ष ऊपर होगा, कभी दूसरा पक्ष ऊपर होगा। झूले का मतलब ही यही है—"सी-सौ"। पर बाल-बुद्धि को झूले पर रस आता है। वो यही खेलती रहती है; थको, मनोरंजन करो। मनोरंजन करके थोड़ी देर को थकान भुला दो, फिर तैयार हो जाओ थकने के लिए। फिर थको, फिर मनोरंजन करो!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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