प्रश्नकर्ता: जीवन में राम को भुला देने से क्या आशय है?
आचार्य प्रशांत: राम को भूलने से आशय हैं - बहुत कुछ और याद कर लेना।
राम को भूलने से यह आशय है कि –(कमरे की ओर इशारा करते हुए) ये कक्ष है छोटा सा, आपने इसको चीज़ों से इतना भर दिया कि यह जिस मौलिक चीज़ से भरा हुआ है, उससे आपका ध्यान ही उचट गया। इसमें आप भर दीजिए चीज़े ही चीज़े और इंसान ही इंसान, आपको कहीं आकाश दिखाई देगा? आपको यहाँ कहीं खालीपन दिखाई देगा? कमरे में चीज़े जितनी ज्यादा है उतनी अब संभावना कम हो गयी कि आपका खालीपन से कोई संपर्क बनेगा। ये है राम को भुला देना।
कमरे में इतना कुछ भर लिया कि जो भरा है अब बस वही प्रतीत होता है। जो खाली-खाली है, जो सूना-सूना है, जिस में सब भरा गया है, जिसके होने से वह वस्तु भी है जो भरे होने का अहसास देती है। अब उसकी अनुभूति कम होती जाएगी। यह है राम को भुला देना।
कृष्ण आपसे बार-बार कहते हैं गीता में, कर्मयोग का सार ही यही है कि - “चल भाई! तुझे अगर करना ही है तो कर, पर मुझे समर्पित करके कर।“ आपने जो प्रश्न पूछा है - राम को सदैव याद रखने से क्या आशय है? वह प्रश्न वस्तुतः यही है कि कोई भी कर्म कृष्ण को समर्पित करके करने से क्या आशय है? यही आशय है।
तुम अनेक चीज़ों का ख्याल करके, तुम अनेक चीज़ों का उद्देश्य बनाकर कर्म करते हो।
मैं तुमसे पूछूँ – बाजार क्यों जा रहे हो?
तुम कहोगे - भिंडी लाने।
मैं तुमसे पूछूँ - व्यापार क्यों जा रहे हो?
तुम कहोगे - मुनाफा बनाने।
मैं तुमसे कहूँ – पड़ोसी के यहाँ क्यों जा रहे हो?
तुम कहोगे - रिश्ता निभाने।
कर्म कृष्ण को समर्पित करने का अर्थ यही है कि - मैं जो भी कुछ कर रहा हूँ उसमें उद्देश्य कृष्ण है।
बाजार जा रहा हूँ किस लिए? - कृष्ण की खातिर।
अब ये बड़ा मुश्किल बैठता है हमको, क्योंकि हम तो अपने किसी व्यक्तिगत अर्थ की खातिर जा रहे होते हैं। कर्मयोग का अर्थ है - जो कुछ भी कर रहे हो उसका उद्देश्य कृष्ण हो। और कृष्ण माने - चाहो तो कहो पूर्ण और चाहो तो कहो कुछ नहीं। चाहो तो यह कह दो कि पूर्णत्व उद्देश्य है और चाहो तो यह कह दो कि निरुद्देश्य है। एक ही बात है। यह कर्मयोग है और यही है राम को निरंतर स्मृति में रखना।
तुम्हारी स्मृति किन चीज़ों से भर जाती है? - तुम्हारे उद्देश्यों से ही तो भर जाती है, जो चाहते हो उन्हीं से तो भर जाती हैं। तुम्हारी कामनाएँ ही तो तुम्हारी बुद्धि को आच्छादित किये रहतीं हैं। ' राम नाम निरंतर जपने का अर्थ है कि कामना अब बस एक है।
किसकी? - राम की
राम कौन? - जो निर्गुण नहीं है, सगुण भी नहीं; तो करोगे कामना किसकी? पर है किसी की कामना! किसी ऐसे की कामना है जो मुझसे इतना आगे है कि मैं जिसको यह तो कह ही नहीं सकता कि पकड़ में आ सकता है, यह भी नहीं कह सकता कि पकड़ में नहीं आ सकता क्योंकि उतना कहना भी बहुत कहने बराबर हो जाएगा। कौन तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण हो गया है?
हमारे लिए प्रतिक्षण कोई न कोई महत्वपूर्ण हो ही जाता है और वो कोई कौन होता है?
‘कभी अंगू, कभी पंगु’ ‘कभी चुन्नू, कभी मुन्नू’
राम नाम की स्मृति रखने का, चाहे कृष्ण को हर कर्म समर्पित करने का अर्थ इतना ही है कि तुम्हारे मन में हर समय प्राथमिकता, वरीयता राम की, कृष्ण की बनी रहे। कोई और तुम्हारे लिए बहुत बड़ा न बन जाए। बात समझ में आ रही है? तुम आम को राम से ऊपर का दर्जा न दे दो, तुम कन्नू को कान्हा से ऊपर न बैठा दो। और हम करते यही हैं। हम भूल-भूल जाते हैं। उसी भूलने को हम कहते हैं, “अरे! फिर फिसल गए।”
चुनाव करना था काम और राम में, और फिर चुन बैठे, किसको? - काम को। चुनाव तो हमेशा सामने रहता है। हर समय जानते हो कि दो रास्ते खुलते हैं।
इंसान वास्तव में दोराहा है। ऐसा दोराहा जो लगातार बना ही रहता है।
प्रतिक्षण तुम्हारे पास विकल्प है। इसीलिए जपा जाता है कि जब तक माला हाथ में हैं, माला का एक-एक बीज याद दिलाता रहे कि इसके बाद पुनः वही, इसके बाद पुनः वही। कुछ और नहीं आ जाए। राम अभी था, राम के बाद पुनः राम। इसीलिए माला है, रस्सा नहीं है। रस्सा तो कहीं से शुरू होगा और कहीं पर खत्म हो जाएगा। माला कभी खत्म नहीं होती। इसके बाद पुनः वही, इसके बाद पुनः वही, इसके बाद पुनः वही। एक मनका, अगला मनका; अगला मनका, अगला मनका; अगला मनका, अगला मनका। और मनका-मनका - बस राम। राम के अतिरिक्त कुछ नहीं मेरे मन का। बात समझ में आ रही है?
यही कर्मयोग है, यही भक्ति है, यही ध्यान है। मन में कुछ और सर्वोपरि न हो जाए कभी भी, इसीलिए हाथ में माला घूमती रहती है; यही जप है, यही तप है। मन लगातार भूलता रहता है, मन के लिए कुछ और कीमती हो जाता है। “भजन करे को आलसी, खाने को तैयार” - खाने की बात आयी नहीं कि भजन भूल जाता है। तो याद रखना होता है निरंतर, यही है राम नाम का ध्यान। इसीलिए सुधिजनों ने प्रथा बनाई कि बात-बात पर कहो – राम। हम पिछले सत्र में खूब इस पर चर्चा कर चुके हैं। बहाना ढूंढ़- ढूंढ़ के, अवसर निकाल-निकाल के कहो – राम। क्योंकि भूल तो तुम लगातार रहे ही हो, भूल लगातार रहे हो और याद करोगे पल दो पल तो हिसाब बराबर कैसे बैठेगा? कहो कैसे बैठेगा हिसाब! भूलते कब-कब हो?
प्रः लगातार
आचार्यः और याद तुम्हें कब करना है? - एक बार सुबह के सात बजे एक बार शाम के सात बजे। तो बीच में सो जाया करो या बीच में विलुप्त हो जाया करो। बीच में होते हो कि नहीं होते हो? तो याद दिन में दो घड़ी ही क्यों करते हो? इसीलिए कृष्ण ने बात सीधी रखी - “अर्जुन! तू अपना हर कर्म मुझे समर्पित कर” तुम्हारा कर्म किसको समर्पित होता है? तुम्हारा कोई कर्म समर्पित होता है बगल की दुकान को, कोई कर्म समर्पित होता है अपने बच्चे को, कोई कर्म समर्पित होता अपने पति को, कोई कर्म समर्पित होता है अपनी महत्वाकांक्षा को। नहीं कहते हो, “प्रिय! यह मैं तेरे लिए कर रहा हूँ”? जहाँ तुमने कहा कि – “प्रिय! यह सब कुछ मैं तेरे लिए कर रहा हूँ”, तुमने यही तो कहा न कि – “मेरा कर्म तुझे समर्पित है।” और कृष्ण ने क्या कहा? - कि अर्जुन! हर कर्म किस को समर्पित कर? - मुझको कर।
कर्म समर्पित करने का अर्थ ही यही है कि तुम किसको दृष्टि में रखकर, किसके उद्देश्य के लिए कर्म कर रहे हो, मन में सर्वोपरि कौन है, मन का राजा कौन है, मन के केंद्र में कौन बैठा है। जो केंद्र में बैठा होता है वही मन के प्रत्येक कृत्य का उद्देश्य बनता है।
कृष्ण के लिए कर रहे हो तो तभी कर पाओगे जब कृष्ण केंद्र में होंगे। पैसा केंद्र में है मन के, तो जो करोगे पैसे के लिए करोगे, कुछ और केंद्र में है तो उसके लिए करोगे। राम नाम अगर लगातार याद है तो राम के लिए करोगे। दोनों तरफ फँसते हो - राम की मूर्ति अगर याद है तो फँस जाओगे क्योंकि आप उस मूर्ति के चारों ओर तुम अपने आडंबर रच लोगे। तुम कहोगे अब मूर्ति को इस प्रकार अलंकृत करुँ, अब इस प्रकार तीज- त्योहार, दशहरा मनाऊँ, अब इस तरीके का मंदिर खड़ा करूँ, अब ऐसी व्यवस्थाएँ पैदा करुँ। और वो सब क्या होगा? - वो सब तुम्हारी मानसिक उपज होगी। तुम्हें खूब जगह मिल गयी अब इतराने की, लहराने की क्योंकि तुमने राम को क्या बना दिया? – मूर्ति बना दिया, सगुण बना दिया।
और अगर तुम कहो कि नहीं, राम कुछ नहीं है, खाली होना चाहिए। तो खाली तो तुम रह नहीं पाओगे बस इतना होगा तुम्हारे साथ कि खाली दिमाग शैतान का घर। जिन्होंने खाली होने की कोशिश की उन्होंने यही पाया है। खाली होने का प्रयोग हजारों में से किसी एक पर सफल होता है। बाकियों के लिए तो यह है कि उन्हें खाली छोड़ दो तो मन क्या बन जाता है? - शैतान का घर। तो इसलिए अभिनव प्रयोग है - राम नाम।
न तो तुम्हारे हाथ में कुछ दे देता है जिसको तुम अपने अनुसार ढाल सको, रूप दे सको, मूर्त कर सको; और न तुम्हें इतना खाली छोड़ देता है कि तुम जाकर कहीं फसाद करो, उपद्रव करो। जैसे किसी छोटे बच्चे को बहलाने के लिए, रुझाने के लिए, शांत रखने के लिए उसके पिता ने एक बढ़िया उपाय खोज निकालो हो। उसके हाथ में कुछ दिया, गेंद दी तो वह गेंद का बम की तरह प्रयोग करेगा। अब गेंद उठाएगा और घर के जितने खिड़की, दरवाजे, शीशे, आईने, कप-प्लेट सब चकनाचूर।
और अगर उसको कुछ नहीं दिया तो - तो और बढ़िया! पहले गेंद से कप-प्लेट फोड़ता था, अब कप से प्लेट फोड़ेगा। क्योंकि अब कुछ नहीं है उसके पास, जब कुछ नहीं है उसके पास तो उपद्रव करने के लिए अब सारा संसार है, अब कुछ भी कर सकता है।
तो खतरनाक है हमारे हाथ में कुछ भी देना, और बिल्कुल कुछ नहीं देना। राम नाम बीच का है - न निर्गुण, न सगुण।
इसके साथ तुम ज़बरदस्ती नहीं कर पाते। यह प्रयोग सफल होगा ज़्यादा संभावना है। और यह सफल हुआ है। उपनिषद के मंत्रों से जितने लोगों को शांति मिली है, मैं समझता हूँ उससे ज्यादा लोगों को शांति राम नाम से मिली है।
“बस राम-राम” “बस राम-राम”
तुम कहते हो - राम-राम
दूसरा कहता है - राम-राम
कुछ कहा नहीं और संवाद हो गया। न तुमने उसका हाल पूछा, न उसने अपनी बात कही - संवाद हो गया।
“बस राम-राम”
राम-राम से ऊपर अगर कुछ हो सकता है तो वह है पूर्ण मौन। पर पूर्ण मौन मनुष्य को कहाँ सुलभ हैं? तो मनुष्य के लिए तो यही विधि हैं - राम-राम।
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