प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, दिवाली के अवसर पर देशभर से लोग यहाँ पर आपके साथ दीवाली मनाने के लिए उपस्थित हैं। उन्होंने अपने प्रश्न भेजे हैं। पहला प्रश्न है- प्रणाम आचार्य जी, कलयुग में रावण के मोक्ष का मार्ग क्या है? त्रेता में हरि के हाथों मृत्यु पाकर रावण पार हो गये थे। वर्तमान में तो हरि के हाथों मृत्यु संभव नहीं है, तो क्या मार्ग है?
आचार्य प्रशांत: जो जिस स्थिति में होता है, उसे उसी स्थिति के अनुसार, उस स्थिति से बाहर जाने वाला मार्ग ढूंढ लेना होता है। दो बातें कहीं है एक साथ- पहली, आप जिस भी स्थिति में हैं, जो भी हालत है आपकी और माहौल है, आपको अपना रास्ता उसी के अनुसार ढूंढना होगा और जब मैंने ये कहा है तो ये नहीं है आशय कि जो आप रास्ता ढूँढें वो आपकी स्थिति के अनुसार इस तरीक़े से कि आपको वो स्थिति में बनाये ही रखे।
स्थिति के अनुसार ढूंढना है रास्ता लेकिन स्थिति से बाहर ले जाने वाला ढूंढना है रास्ता। नहीं समझे? स्थिति के अनुसार ढूंढना है रास्ता लेकिन स्थिति से बाहर ले जाने वाला ढूंढना है रास्ता।
मछली हैं आप, और मुंबई से चेन्नई जाना है तो कैसे जाएँगे? तैर के भई! क्योंकि और कुछ आप जानते ही नहीं। तो आप जो जानते हैं उसी तरीके का आपको प्रयोग करना पड़ेगा। अनिवार्यता है और क्या करेंगे? और क्या करेंगे? और पक्षी हैं आप और जाना चेन्नई हीं है मुंबई से। तो कैसे जाएँगे? उड़ के। तो आप जो कुछ हैं उसी के अनुसार कोई उपाय ढूंढ लीजिए लेकिन पहुँचना तो जरूरी है। पहुँचना तो पड़ेगा ही। ये नहीं कह सकती मछली कि "मैं क्या करूँ मुझे उड़ना नहीं आता?" और ये नहीं कह सकता पक्षी "मैं क्या करूँ मुझे तैरना नहीं आता?" लाचारी की दुहाई नहीं दीजियेगा जो आपको आता है, जो आपके लिये सम्भव है, उसी का पूरा इस्तेमाल करिये लेकिन पहुँचना तो हैं ही। जहाँ पहुँचना हैं भाई! उसी की याद दिलाने के लिए तो त्योहार होते हैं।
ये जो हिंदुस्तान में सालभर त्योहार आते ही रहते हैं, आते ही रहते हैं इसलिए थोड़े ही आते हैं कि शोर-शराबा, हुल्ला-हुड़दंग किया जाए। ये इसलिए आते हैं ताकि आपको हर दूसरे दिन याद दिला जाए कोई कि पहुँचना कहाँ है।
इस प्रश्न में मुझे विवशता की गंध आ रही है। विवशता की बात नहीं कर सकते हम। >कोई विवश नहीं है। अगर हम विवश नहीं हैं वैसी ज़िंदगी जीने को जैसी हम जी रहे हैं, उसको हम जी रहे हैं अपनी सहमति और अपने समर्थन के साथ तो हम ये कैसे कह सकते हैं कि हम विवश हैं इतने कि बाहर नहीं आ सकते। >जैसा हम जीते हैं, आमतौर पर हम खुद ही कहते हैं न कि उसमें कष्ट है, दुःख है, संताप है, तनाव है कहते हैं न? उसको हम अपनी रज़ा से, अपनी सहमति से झेल जाते हैं। अगर हम सहमति दे सकते हैं दुःख और तनाव झेलने को तो हम सहमति दे सकते हैं न? सच्चाई और आज़ादी को भी या नहीं दे सकते हैं? तो विवशता की बात तो हम करे नहीं।
जिनका आप आज पर्व मना रहे हैं वो साहब विवशता में जियें? या समस्त विवशताओं के बावजूद एक आंतरिक मुक्ति में? राम नाम का अर्थ क्या है? मजबूरी या मुक्ति? बोलिये? तो मजबूरी की कोई बात नहीं। मजबूरी का तो नाम ही मत लीजिएगा कि "मैं क्या करूँ? मेरे तो हालात ऐसे हैं।"
जब मैं स्कूल में था तो मेरे साथ एक पढ़ता था, उसको सब बोलें- चुन्ना भाई! चुन्ना भाई की कहानी सुनेंगे? ये बड़ा गूढ़ रहस्य था, जो कभी कोई जान नहीं पाया कि चुन्ना भाई आठवीं कक्षा तक पहुँचे कैसे? मैं आठवीं की बात बता रहा हूँ। ब्रह्माण्ड के सब रहस्यों पर से पर्दा उठ सकता है, चुन्ना भाई आठवीं तक आ कैसे गये ये कोई नहीं जानता था क्योंकि उनको स्कूल में भी बहुत कम देखा गया, किताबें उनके पास होती नहीं थीं। होती थी तो बेच खाते थे और जब स्कूल आते थे उस दिन भूचाल आ जाता था। ऐसे बच्चे मैंने कम देखे हैं जिनका छठी, सातवीं आठवीं में आधे से ज़्यादा बाल सफेद हो गए हों। चुन्ना भाई का जीवन, उनकी लाइफस्टाइल कुछ इस तरह की थी कि बारह-चौदह की उम्र में उनके बाल भी सफ़ेद हो गये थे। दुनियाभर की कलाओं में पारंगत थे चुन्ना भाई तो जब परीक्षा का दिन आया करे तो पूरी कक्षा व्यस्त दिखाई दे, तनाव में दिखाई दे। परीक्षाएँ पास आ रही हैं खास तौर पर अगर वार्षिक परीक्षाएँ हो और लोग जितना हीं परेशान दिखाई दें, चुन्ना भाई उतना हीं मौज मार रहे हैं, कुछ कर रहे हैं। फिर परीक्षा का दिन आए, परीक्षा के दिन लोग परीक्षा भवन से बाहर निकलें तो किसी के चेहरे पर मुस्कुराहट है, कोई थोड़ा-सा परेशान हो रहा है कि कुछ और अच्छा कर सकता था कर नहीं पाया और चुन्ना भाई बाहर निकल के ज़ोर से अट्टहास करे। ठठ्ठा!ठहाका! और जितना वो परीक्षाओं के दिनों में कूदे-नाचे, मज़ाक़ करें उसकी कोई सीमा नहीं। अगर सौ नम्बर की परीक्षा में वो पाँच ही नम्बर के सवाल कर पाएँ हैं तो उनको बहुत आनंद आए और अगर कभी ऐसा हो जाए कि सौ में से शून्य अंक लिख कर के आए हैं तो उस दिन तो समाधि! उल्लास की कोई सीमा नहीं। वो कहे कि आज वो दिन है न कि साबित हो गया न कि मैंने सालभर कुछ नहीं किया, आज वो दिन है जिससे साबित हो गया न कि मैं ये परीक्षा देने के काबिल ही नहीं हूँ। मैं इसी बात पर नाचूँगा, मज़ें मनाऊँगा, दावतें दूँगा। पढ़ने वाले जो बच्चे थे, जब वो बाहर निकला करें परीक्षा केंद्र से तो चुन्ना भाई उनसे कहे, "आजा! आज तुझे कुछ खिलाता हूँ।" अरे भईया! जाने दो कल की तैयारी करनी है। चुन्ना बोले अरे छोड़ न! चुन्ना भाई उत्सव मनाएँ उस दिन।
हम में से अधिकांश लोग जो उत्सव मनाते हैं वो चुन्ना भाई की तरह ही मनाते हैं। राम के दिन हम इस बात का उत्सव मनाते हैं कि साल भर हम राम की तरह बिल्कुल नहीं जिये। चुन्ना भाई परीक्षा के दिन इसी बात का उल्लास मनाते थे कि उन्होंने साल भर परीक्षा की बिल्कुल तैयारी नहीं करी। हम भी अधिकांशतः तो यही कर रहे हैं न? आज श्रीराम का पर्व है, साल भर हमने राममय जीवन जिया है क्या? लेकिन आज हम कितनी खुशी दिखाएँगे? अरे आज परीक्षा का दिन है, आज खुशी मनाने का अधिकार है लेकिन किनको? परीक्षा के दिन कौन होते हैं जो आनंदित नज़र आते हैं? किसको अधिकार है परीक्षा के दिन आनंदित और प्रसन्न चित्त होने का? जिसने साल भर परीक्षा की पूरी तैयारी की हो, जिसने न्याय किया हो पाठ्यक्रम के साथ, उसे पूरा अधिकार है कि वो परीक्षा के दिन कहे कि आज त्योहार है मेरा। हमने साल भर श्री राम के साथ न्याय करा है? पर हम चुन्ना भाई की तरह आज खूब धूम मचाएँगे। किस बात की? ये पता नहीं। वो देखिए बाहर मच रही है धूम।(शिविर के बाहर लोग पटाखे जलाते और हुड़दंग करते हुए)
त्योहार, हुड़दंग का लाइसेंस नहीं होते, न खरीदारी, शॉपिंग, सेल, डिस्काउंट का तमाशा होते हैं। त्योहार परीक्षा का दिन होते हैं। उस दिन जाँचना होता है कि साल भर मिला था मुझे इस त्यौहार के लिए, दो त्योहारों के बीच एक वर्ष मिलता है न? जैसे दो वार्षिक परीक्षाओं के बीच भी एक वर्ष मिलता है। त्योहार के दिन जाँचना होता है कि आज ३५६वां दिन है ३६४ दिन मिले थे मुझे अपने जीवन में थोड़ा 'रामत्व' उतारने के लिए मैंने उतारा क्या? ये जाँचना होता है आज के दिन। आज का दिन सत्यता का, ईमानदारी का होता है। ३६४ दिन न राम से प्रेम, न राम की सुध, न राम की तरफ बढ़े, न उन ऊँचाइयों का ज़रा भी ध्यान किया जिन पर श्रीराम विराजे थे तो फिर…?
ये मैं इसलिए कह रहा हूँ ताकि आज से ही अगली दिवाली की तैयारियाँ शुरू हो जाएँ। ये वाली तो जैसी है तो है, पर अगली वाली सच्ची होनी चाहिए। अगली दिवाली पर अधिकार के साथ कहें कि हाँ, मुझमें पात्रता है श्रीराम का पर्व मनाने की। पर्व पात्रता माँगते हैं भाई! पात्रता समझते हैं न?
एलिजिबिलिटी। त्योहार भी एलिजिबिलिटी माँगते हैं, यूँ ही थोड़े कि चुन्ना भाई भी परीक्षा के दिन नाच रहे हैं। आप जहाँ हैं, जैसे हैं, साल भर पूरी कोशिश करनी होती है। बात ये नहीं है कि साल भर पाया क्या? बात ये है कि साल भर ईमानदारी से कोशिश करी या नहीं करी? अगर करी तो आज जितना आप गा सकते हैं, प्रकाश बिखरा सकते हैं ज़रूर बिखराएँ और नहीं करी तो फिर तो सब धूम-धड़ाका मात्र आडंबर है, दिखावा है। उसमें कोई आत्मा नहीं होगी, उसमें कोई सच्चाई नहीं होगी।
श्रीरामचंद्र का वृत्त विजेता का वृत्त है और आप प्रश्न मुझसे पूछ रहे हैं, जिसमें विवशता की गंध है। विवशताओं का रोना तो वो भी रो सकते थे न? कि नहीं रो सकते थे? पिता दशरथ ने बुलाया कहा कि "माता कैकेई को ऐसा-ऐसा वचन दिया था वो इस तरह कह रही हैं।" तो वो भी कह सकते थे कि "बापू जी, अभी-अभी तो मेरी शादी हुई है, सुकुमारी पत्नी है सीता अभी लाया हूँ। मेरी भी विवशता है, मैं अभी आपके आदेश का पालन नहीं कर सकता।" उन्होंने विवशता गिनाई थी? गिनाई थी? चल दिए चुपचाप जंगल की ओर और एक से एक बाधाएँ, चुनौतियाँ, तकलीफें जंगल में आती रहीं। उन्होंने कहीं पर मजबूरी का रोना रोया? रोया क्या? "यार राक्षस बहुत बड़ा है और मेरे पास न सेना है न कुछ, मैं तो राज से बहिष्कृत युवराज हूँ, मेरे पास क्या है? नहीं इस राक्षस से तो हम नहीं लड़ेंगे।" ऋषि मुनि आए उनके पास, कहें कि, फलाना राक्षस है, परेशान करता है, मारता है, पीटता है और राक्षस ही नहीं राक्षसों की पूरी फौज़ है। बोले, चलो हम चल रहे हैं। एक बार भी कहा क्या कि "मैं अकेला एक धनुर्धारी पचास राक्षस हैं, मुझे क्यों फंसा रहे हो? और मजबूर आदमी हूँ भाई! शादीशुदा हूँ।" कह सकते थे कि नहीं? मैं चला गया तो फिर सीता का ख्याल कौन रखेगा? कह सकते थे न? कि मैं भी मजबूर हूँ बहुत। उन्होंने कभी अपनी विवशता का एक शब्द भी कहा क्या? कहा लेकिन हमारे लिए तो यही बहुत बड़ी विवशता की बात हो जाती है कि "आचार्य जी वो न हम शादीशुदा हैं क्या करें?" और साथ में थे लक्ष्मण वो भी विवाहित थे। वो तो पत्नी को साथ लेकर भी नहीं आए। उन्होंने कहा क्या क्या? कि "भैया वैसे तो मैं आपसे बहुत प्रेम करता हूँ लेकिन वो महल में बैठी हुई है न? वो कह रही है कि मुझे छोड़कर चले जाओगे क्या भाई के साथ? भाई तुम्हें ज्यादा प्यारा हो गया मुझसे? लक्ष्मण ने अपनी विवशता कभी कही? कुछ नहीं!
ये विजेताओं का पर्व है विवशताओं का नहीं। दशानन कितना बड़ा सम्राट था? छोटा-मोटा? इस समय अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में जो ताकत अमेरिका की है, तुलनात्मक दृष्टि से उससे ज्यादा ताकत उस समय लंकेश की थी और हर दृष्टि से उसका राज्य दुनिया का सबसे अग्रणी राज्य था। शहरी व्यवस्था, ज्ञान, सेना सामरिक सामर्थ्य, अर्थव्यवस्था, धनाढ्यता इन सब में सबसे आगे कौन? लंका, लंकेश की। विज्ञान और तकनीक में भी सबसे आगे कौन? लंका लंकेश की। सीता को हरने आया था रावण और ये तो पक्का है कि हरने के बाद लंका ही लेकर के गया था वापस। तो समुद्र तो पार करा होगा न? कैसे पार करा होगा? कुछ तो उसके पास तकनीक थी, विज्ञान था, टेक्नोलॉजी थी। ऐसा था रावण।
और कहानी बताती है कि पकड़-पकड़ के जितने देवी-देवता थे, सबको उसने अपने बंदी गृह में डाल दिया था कि तुम कहाँ के देवता हो चलो अंदर। कितना आसान था न कि राम कह देते कि इससे मैं थोड़े-ही आफत मोल लूँगा भाई? पहले तो मेरा राज्य भी है तो उधर। कहा? धुर उत्तर में, अयोध्या में और दूसरी बात उस राज्य से फिलहाल मेरा कोई नाता नहीं। वहाँ से मुझे कोई आपूर्ति नहीं, कोई समर्थन नहीं, कोई सेना नहीं। उन्होंने कहा, "नहीं! जो भी स्थिति है मेरी इसी स्थिति में लडूंगा क्योंकि लड़ना जरूरी है, क्योंकि बात धर्म की है क्योंकि जो उचित है वो होना चाहिए। जो उचित है वो इस बात की परवाह नहीं कर सकता कि मेरी हालत क्या है? जो भी हालत होगी फर्क क्या पड़ता है? लडूंगा! तो जो जंगल के जनजातीय निवासी थे, जो अपना नाम वानर रखें, नाग रखें, भालू रखें, उनको संगठित किया, इकट्ठा करा, उन्हें संगठित करा। आसान काम रहा होगा ये? और लड़ाई में सामर्थ्य से और धन से तो बहुत फर्क पड़ता ही है न? आज आपको अमेरिका से लड़ाई करनी हो तो बात सिर्फ़ ये नहीं है कि आपके पास लोग कितने हैं? लोग कितने भी होंगे फर्क नहीं पड़ता, वहाँ से एक बटन दबेगा और आपके जितने लोग हैं सब भाँप हो जाएँगे। बात ये भी होती है कि आपके पास पैसा और टेक्नोलॉजी कितनी है? और जंगल में न पैसा था, न टेक्नोलॉजी थी और लंका में सब कुछ था लेकिन फिर भी भिड़ गये और बेहोशी में नहीं भिड़ गये। सब जानते-बूझते, पूरे बोध के साथ। ये है श्री राम का वृत्त।
राम तुम्हारा वृत्त स्वयं ही काव्य है
कवि कोई बन जाए सहज संभाव्य है।
कवियों ने कहा। अगर ऐसे थे वो, तो उनका उत्सव मनाने के लिए, कम से कम थोड़ा बहुत तो हमें उनके जैसा होना चाहिए न? थोड़ा बहुत तो हमें साल भर प्रमाण देना चाहिए न? कि हाँ, हैं हम योग्य उत्तराधिकारी श्रीराम के चंद्र के। वो प्रमाण हम साल भर देते हैं? मैं चाहता हूँ कि हम दे, इस साल। ये जो वर्ष आज शुरू हो रहा है।
और फिर प्रश्नकर्ता पूछ रहे हैं कि रावण ने तो चुन लिया अपनी मुक्ति का मार्ग श्री राम के हाथों वीरगति प्राप्त करके। हम कैसे चुनें? मुझे ये बात थोड़ी-सी चकित कर रही है। मुक्ति का मार्ग चुनने की जब बात आती है तो आपको रावण ही क्यों ध्यान में आया भाई? हनुमान क्यों नहीं? और सुग्रीव क्यों नहीं? और जामवंत क्यों नहीं? और अहिल्या क्यों नहीं? आपने ठान ही रखी है क्या? कि राम के खिलाफ ही खड़े होना है? तो आप कह रहे हैं कि रावण ने यह मार्ग चुना था मैं कौन-सा मार्ग चुनूँ? आप हनुमान का मार्ग क्यों नहीं चुन सकते? या आप कह रहे हैं कि आपको मुक्ति तभी मिलेगी जब कोई राम आ करके आपको साफ कर दे। आपको राम के विरोध में ही खड़े होना है क्या? आप हनुमान बनकर राम की सेवा और समर्थन में नहीं खड़े हो सकते? बोलिए? आज के दिन हनुमान का नाम क्यों नहीं याद आया? विभीषण क्यों नहीं याद आए? भरत क्यों नहीं आ आए? सीता क्यों नहीं याद आईं? इन सब का भी तो राम से कुछ नाता था या नहीं था? पर वो हम करना नहीं चाहते। वो बात जरा रूखी-सूखी लगती है, उसमें कुछ मसाला नहीं है न। ये तो कितनी सीधी-सीधी बात हो गई न कि अच्छा और ऊँचा आदमी मिला और हम उसके पक्ष में खड़े हो गये, इस बात में तो कोई मसाला ही नहीं है।
मसाला तो तब है जब हम गायें- "नायक नहीं खलनायक हूँ मैं।" तब लगता है ये उतरा कोई 'एँटी-हीरो', रावण बनने में क्या बात है! पिक्चरें भी बनती है तो उनमें रावण के चरित्र को बड़ा महिमामंडित किया जाता है। इधर देखा है पिछले पाँच-दस साल में? रा-वन। राम पर तो कम ही होता है। राम तो बड़े मर्यादा पुरुषोत्तम टाइप, सीधे-साधे,उबाऊ लगते हैं न हमको? ये तो बोरिंग है। कुछ ऐसा कर ही नहीं रहे कि ज़रा उत्तेजना बढ़े, कुछ मिर्ची-मसाला तो है ही नहीं इनमें, तो प्रश्न भी पूछा तो यही पूछा- कि रावण तो भिड़ गया, मर गया। हम क्या करें? अरे भैया, रावण अगर आप हो ही जाएँ तो फिर तो बहुत समस्या बचेगी ही नहीं। रावण महाज्ञानी था। रावण से बड़ा पंडित उस समय दूसरा नहीं था। वो स्वयं जानता था उसे क्या करना है।
आप तो ये पूछिए कि मैं 'राम की गिलहरी' कैसे हो जाऊँ? रावण जैसा सामर्थ्य आप में होता तो अब तक आप ने महायुद्ध छेड़ ही दिया होता राम के ख़िलाफ़ ताकि राम के स्पर्श से आपको मुक्ति मिल जाए। राम की गिलहरी जानते हैं न? बहुत बार उसकी चर्चा करता हूँ। उसके बहुत ताकत नहीं थी पर उसने ये नहीं कहा कि "मैं क्या कर सकती हूँ? मैं तो एक बेबस छोटी-सी गिलहरी हूँ।" उसने कहा मैं जितना कर सकती हूँ करूँगी। तो जब पुल बन रहा था तो वो जाए और थोड़े-बहुत बालू के कण वहाँ पर जमा करें कि "भाई पुल बन रहा है तो मुझे भी तो कुछ करना चाहिए।" वो दौड़-दौड़ के दो-दो, चार-चार बालू के कतरे दिया करे। आप इतना तो कर सकते हैं न?
लेकिन अहंकार कहाँ मानता है गिलहरी होना? वो हो चाहे चींटा पर मानेगा यही कि मैं रावण की तरह बीस भुजाओं की ताकत रखता हूँ और चूंकि अपने आपको बहुत शक्तिशाली दिखाना है अपनी दृष्टि में तो रावण बनना पड़ेगा और रावण बनना पड़ेगा तो राम के खिलाफ खड़ा होना पड़ेगा। ल्यो! हो गया! और ये तर्क भी पूरी तरह से सम्यक नहीं है। शक्ति तो हनुमान में भी थी भाई! लेकिन हनुमान बनना भी हमें सुहाता कहाँ है? जिस भी मंदिर में जाओ वहाँ राम-सीता-लखन खड़े होते हैं, हनुमान नीचे बैठे होते हैं। ये बात हमें कुछ पसंद नहीं है। हमें नहीं अच्छा लगता हम किसी के भी सामने ऐसे झुक जाएँ और चरणों पर बैठ जाएँ। हमें एकदम ठीक नहीं लगता तो हनुमान नहीं बनेंगे। हमारे अहंकार को तो तभी तृप्ति मिलती है जब राम के सामने प्रतिद्वंदी की तरह खड़े हो जाएँ कि राम तेरी छाती बेध दूँगा बाण मार के। ये बड़ी विरोधाभास से भरी हुई बात है। एक और तो बेबसी का रोना रोना है और दूसरी ओर राम के खिलाफ खड़े होना है। आप अगर बेबस हैं तो उनके खिलाफ कैसे खड़े हो गए भाई? ये विरोधाभास ये कॉण्ट्राडिक्शन दिखाई दे रहा है? जो बेबस होगा वो झुकेगा, समर्पित होगा या जहाँ से सहायता आ रही होगी उसी जगह का विरोध करेगा? पर हमारा जीवन-गणित ही कुछ उल्टा-पुल्टा है। अगर समस्या है तो जहाँ से समाधान आ सकता है उसकी ओर बढिये न। ये क्या तरीका है कि एक तो समस्या है और फिर जहाँ से समाधान आ सकता है उसी से मुँह चुराएँगे, उसी का विरोध करेंगे और जब होली-दिवाली-दशहरा आएँगे तो क्या बन जाएँगे? चुन्ना सिंह।
वो(राम) वहाँ जंगल में पड़े थे, जहाँ एक चीज़ पहले से तैयार की हुई उनको नहीं मिलती थी और हमने दीवाली को बना दिया है- उपभोक्तावाद का पर्व। बाज़ारें! बाज़ारें! बाज़ारें! श्री रामचंद्र चौदह साल तक शॉपिंग कर रहे थे क्या? तो उनके त्यौहार पर आप शॉपिंग करने काहे निकल पड़ते हैं? तुक क्या है? थोड़ा समझाइए। उनको तो बेचारों को वस्त्र भी न जाने कहाँ से उपलब्ध होते होंगे? कुछ भरोसा नहीं। चलते-चलते कभी किसी ऋषि के आश्रम में पहुँचे, वहाँ पर ऋषि ने कहा अरे, लीजिए! नहीं तो जंगल में पावर लूम (मशीन करघा) तो लगा नहीं होता कि थान और मीटर के भाव से कपड़ा निकल रहा है। या होता है? थोड़ा सोचिए। सोते कहाँ रहे होंगे? बिजली तो छोड़ दीजिए जंगल में तो दिये भी नहीं मिलते होंगे। खाते-पीते क्या रहे होंगे? मिठाईयाँ पाते थे वो?-गुजिया! बर्फी! रसगुल्ला! जब उन्होंने चौदह साल तक मिठाई नहीं पाई तो आप ये मिठाईबाजी क्यों शुरू कर देते हैं दिवाली पर भाई? कभी ख़्याल हीं नहीं किया न? और ऐसा नहीं कि वो जंगल में थे इसलिए वो भोगविलास से दूर थे। वो लौट कर भी आए महल में तो भी वो जिये वैसे ही जैसे जंगल में रहते थे। वो राजा भी हो गए तो उन्होंने ये नहीं करा था कि "लाओ रस मलाई।" जंगल में थे तो फिर भी सीता साथ थी। राज्य मिला तो सीता भी छूट गयीं। ऐसे थे राम और ऐसी थीं सीता। एक बार को भी उन्होंने ये नहीं कहा कि जब तुम जंगल में मारे-मारे फिर रहे थे तो मुझे पकड़ रखा था और जब राजमहल का सुख भोगने का समय आया है तो मुझे निष्कासित किये देते हो? एक बार भी नहीं कहा सीता ने। कहा, ठीक है!
इसको आप आज के समय में स्त्री शोषण कह लें या कुछ भी कह लें लेकिन ऐसा होने के लिए भी बड़ा जीवट चाहिए, बड़ी ख़ुद्दारी चाहिए, श्रद्धा और आत्मसम्मान से भरपूर स्त्री रही होंगी- सीता, बड़ी स्वाभिमानी और अपने आप में बड़ा सामर्थ्य रखने वाली। नहीं तो बिल्कुल कर सकती थीं पति से झगड़ा कि "मैं नहीं जा रही कहीं बाहर। क्या हुआ एक धोबी ने ही तो बोल दिया है? मैं नहीं जा रही और ज़्यादा करोगे तो कोर्ट-कचहरी करूँगी।" और गर्भ से थीं, कोई आपत्ति नहीं करी। बोली ठीक! "मुझे राम बचाएगा।" मुझे राम बचाएगा! कौन-सा राम? वो जो निर्गुण है, निराकार है। आप तो अभी अवतार भर हैं। आप जो मेरे सामने खड़े हैं पति बनकर आप तो अभी अवतार भर हैं। मुझे परम ब्रह्म राम बचाएगा। वही सबको बचाता है, वही आपको भी तो बचाता है। वही सबको बचाएगा।
और यहाँ दीवाली का मतलब होता है कि कपड़े ही कपड़े! कपड़े ही कपड़े! दो लोग हँसते हैं, मुस्कुराते हैं परीक्षा के दिन। एक वो जिसे पता होता है कि उसने परीक्षा पूरी ईमानदारी के साथ उत्तीर्ण कर ली है और एक चुन्ना भाई। मैं चाहता हूँ कि आप खूब हँसे, मुस्कुराएँ और आनंदित हों सब उत्सवों पर। पर बोलिये किस तरीके का आनंद और उत्सव मनाना है? उसका जिसने परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है या चुन्ना भाई का? हँसा दोनों तरीके से जा सकता है।